भारत जैसे धार्मिक पोंगापंथियों के देश में ज्ञानियों की कमी नहीं है. लगभग हर पोंगापंथी खुद को दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी समझता है, भले ही उसका ज्ञान दो कौड़ी का भी न हो. इन पोंगापंथियों की रफ्तार और ज्यादा तीव्र तब हो गया जब भारत की सत्ता पर पोंगापंथी गुरूघंटाल मिथ्याचारी-व्यभिचारी गुंडा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में काबिज हो गया.
सत्ता पर कब्जा कर ये पोंगापंथी गुंडों के दिमाग से ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है. उसके ज्ञान पर कोई सवाल न खड़ा कर सके इसके लिए उसने अपने चारों ओर गुंडों-मवालियों-बलात्कारियों के फौज को देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर बिठाल रखा है, चाहे वह सुप्रीम कोर्ट का जज हो या चुनाव आयोग का पंडा हो या सेना-पुलिस के भेष में संघी गुंडा हो. चारों तरफ इन गुंडों को बकायदा संवैधानिक पदों पर बिठा कर इन गुंडों ने देश के तमाम जागरूक लोगों को जेलों की कालकोठरी में या मौत के मुहाने पर पहुंचाने का काम पूरी मुस्तैदी से कर रहा है.
इतना ही नहीं इन पोंगापंथी गुंडों के ज्ञान पर आगे से कोई सवाल करने वाला पैदा ही न हो सके इसके लिए इन गुंडों ने देश के तमाम शिक्षण संस्थानों को कोरोना जैसी काल्पनिक बीमारियों को बहाना बनाकर लगातार तीसरे वर्ष भी बंद करने का कवायद कर रहा है. ऐसे में गुंडों के ज्ञान की बहती दूषित गंगा देश के तमाम दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, औरतों को एक बार फिर मनुस्मृति जैसी सड़ांध अमानवीय जंजीरों में जकड़ने की तैयारी में बह रही है.
ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर सही विचार होते क्या हैं ? वे आते कहां से हैं ? क्या ये सही विचार, सही ज्ञान गुंडों-मवालियों और बलात्कारियों के दिमाग से आते हैं, क्यों देश की सत्ता पर कब्जा कर लिये अंधराष्ट्रवादी मवालियों के खिदमत करने से आती है ? या फिर देश की करोड़ों मेहनतकश आवाम और उनकी सच्ची मेहनत से आती है ? इसी सवाल पर मजदूर के सबसे बड़े पांचवें महान शिक्षक माओ-त्से तुंग ने अपने आलेख में बताया है. यहां हम अपने पाठकों के लिए उनके दो लेख को यहां प्रकाशित कर रहे हैं.
सही विचार आखिर कहां से आते हैं ?
सही विचार आखिर कहां से आते हैं ? क्या वे आसमान से टपक पड़ते हैं ? नहीं ! क्या वे हमारे दिमाग में स्वाभाविक रूप से पैदा हो जाते हैं ? नहीं ! वे सामाजिक व्यवहार से, और केवल सामाजिक व्यवहार से ही पैदा होते हैं; वे तीन किस्म के सामाजिक व्यवहार से पैदा होते हैं – उत्पादन-संघर्ष, वर्ग-संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग से पैदा होते हैं. मनुष्य का सामाजिक अस्तित्व ही उसके विचारों का निर्णय करता है. जहां एक बार आम जनता ने आगे बढ़े हुए वर्ग के सही विचारों को आत्मसात कर लिया, तो ये विचार एक ऐसी भौतिक शक्ति में बदल जाते हैं जो समाज को और दुनिया को बदल डालती है.
अपने सामाजिक व्यवहार के दौरान मनुष्य विभिन्न प्रकार के संघर्षों में लगा रहता है और अपनी सफलताओं और असफलताओं से समृद्ध अनुभव प्राप्त करता है. मनुष्य की पांच ज्ञानेन्द्रियों-आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा – के जरिये वस्तुगत बाह्य जगत की असंख्य घटनाओं का प्रतिबिम्ब उसके मस्तिष्क पर पड़ता है.
ज्ञान शुरू में इन्द्रियग्राह्य होता है. धारणात्मक ज्ञान अर्थात विचारों की स्थिति में तब छलांग भरी जा सकती है जब इन्द्रियग्राह्य ज्ञान काफी मात्रा में प्राप्त कर लिया जाये. यह ज्ञानप्राप्ति की एक प्रक्रिया है. यह ज्ञानप्राप्ति की समूची प्रक्रिया की पहली मंज़िल है, एक ऐसी मंज़िल जो हमें वस्तुगत पदार्थ से मनोगत चेतना की तरफ ले जाती है, अस्तित्व से विचारों की तरफ ले जाती है. किसी व्यक्ति की चेतना या विचार (जिनमें सिद्धान्त, नीतियां, योजनाएं अथवा उपाय शामिल हैं) वस्तुगत बाह्य जगत के नियमों को सही ढंग से प्रतिबिम्बित करते हैं अथवा नहीं, यह इस मंज़िल में साबित नहीं हो सकता तथा इस मंजिल में यह निश्चित करना सम्भव नहीं कि वे सही हैं अथवा नहीं.
इसके बाद ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया की दूसरी मंज़िल आती है, एक ऐसी मंज़िल जो हमें चेतना से पदार्थ की तरफ वापस ले जाती है, विचारों से अस्तित्व की तरफ वापस ले जाती है, तथा जिसमें पहली मंज़िल के दौरान प्राप्त किये गये ज्ञान को सामाजिक व्यवहार में उतारा जाता है, ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि ये सिद्धान्त, नीतियां, योजनाएं अथवा उपाय प्रत्याशित सफलता प्राप्त कर सकेंगे अथवा नहीं. आम तौर पर, इनमें से जो सफ़ल हो जाते हैं, वे सही होते हैं और जो असफल हो जाते हैं वे ग़लत होते हैं, तथा यह बात प्रकृति के खिलाफ मनुष्य के संघर्ष के बारे में विशेष रूप से सच साबित होती है.
सामाजिक संघर्ष में, कभी-कभी आगे बढ़े हुए वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियों को पराजय का मुंह देखना पड़ता है, इसलिए नहीं कि उनके विचार ग़लत हैं बल्कि इसलिए कि संघर्ष करने वाली शक्तियों के तुलनात्मक बल की दृष्टि से फिलहाल वे शक्तियां उतनी ज़्यादा बलशाली नहीं हैं जितनी कि प्रतिक्रियावादी शक्तियां; इसलिए उन्हें अस्थायी तौर से पराजय का मुंह देखना पड़ता है, लेकिन देर-सबेर विजय अवश्य उन्हीं को प्राप्त होती है.
मनुष्य का ज्ञान व्यवहार की कसौटी के जरिये छलांग भर कर एक नयी मंज़िल पर पहुंच जाता है. यह छलांग पहले की छलांग से और ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है क्योंकि सिर्फ यही छलांग ज्ञानप्राप्ति की पहली छलांग अर्थात वस्तुगत बाह्य जगत को प्रतिबिम्बित करने के दौरान बनने वाले विचारों, सिद्धान्तों, नीतियों, योजनाओं अथवा उपायों के सही होने अथवा गलत होने को साबित करती है. सच्चाई को परखने का दूसरा कोई तरीका नहीं है.
यही नहीं, दुनिया का ज्ञान प्राप्त करने का सर्वहारा वर्ग का एकमात्र उद्देश्य है – उसे बदल डालना !
अकसर सही ज्ञान की प्राप्ति केवल पदार्थ से चेतना की तरफ जाने और फिर चेतना से पदार्थ की तरफ लौटने की प्रक्रिया को, अर्थात व्यवहार से ज्ञान की तरफ जाने और फिर ज्ञान से व्यवहार की तरफ लौट आने की प्रक्रिया को बार-बार दोहराने से ही होती है. यही मार्क्सवाद का ज्ञान-सिद्धान्त है, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का ज्ञान-सिद्धान्त है.
हमारे साथियों में बहुत से लोग ऐसे हैं जो इस ज्ञान-सिद्धान्त को नहीं समझ पाते. जब उनसे यह पूछा जाता है कि उनके विचारों, रायों, नीतियों, तरीकों, योजनाओं व निष्कर्षों, धारा-प्रवाह भाषणों व लम्बे-लम्बे लेखों का मूल आधार क्या है, तो यह सवाल उन्हें एकदम अजीब-सा मालूम होता है और वे इसका जवाब नहीं दे पाते; और न वे इस बात को ही समझ पाते हैं कि पदार्थ को चेतना में बदला जा सकता है और चेतना को पदार्थ में, हालांकि इस प्रकार की छलांग लगाना एक ऐसी चीज़ है जो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मौजूद रहती है. इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने साथियों को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के ज्ञान-सिद्धान्त की शिक्षा दें, ताकि वे अपने विचारों को सही दिशा प्रदान कर सकें, जांच-पड़ताल व अध्ययन करने और अनुभवों का निचोड़ निकालने में कुशल हो जायें, कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकें, कम से कम गलतियां करें, अपना काम बेहतर ढंग से करें, तथा पुरज़ोर संघर्ष करें, जिससे हम चीन को एक महान और शक्तिशाली समाजवादी देश बना सकें तथा समूची दुनिया के शोषित-उत्पीड़ित लोगों के व्यापक समुदाय की सहायता करते हुए अपने महान अन्तरराष्ट्रवादी कर्तव्य को, जिसे हमें निभाना है, पूरा कर सकें. (मई 1963)
सिद्धान्त और व्यवहार के मेल से ही सच्चा ज्ञान हासिल हो सकता है !
ज्ञान क्या है ? जब से वर्ग-समाज बना है, दुनिया में सिर्फ़ दो ही प्रकार का ज्ञान देखने में आया है-उत्पादन के संघर्ष का ज्ञान और वर्ग-संघर्ष का ज्ञान.
प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान-उक्त दो प्रकार के ज्ञान का निचोड़ है तथा दर्शनशास्त्र, प्रकृति संबंधी ज्ञान और सामाजिक ज्ञान का सामान्यीकरण और समाकलन है.
क्या ज्ञान की और भी कोई किस्म है ? नहीं.
अब हम एक नजर उन विद्यार्थियों पर डालें जिनकी शिक्षा-दीक्षा उन स्कूलों में हुई है जो समाज की व्यावहारिक कार्रवाइयों से बिलकुल कटे हुए हैं, उनकी क्या हालत है.
एक व्यक्ति इस प्रकार के प्राथमिक स्कूल से क्रमशः इसी प्रकार के विश्वविद्यालय में जाता है, स्नातक बन जाता है और यह समझ लिया जाता है कि उसके पास ज्ञान का भण्डार है, लेकिन जो कुछ भी उसने हासिल किया है, वह केवल किताबी ज्ञान ही है. उसने अभी तक किसी भी व्यावहारिक कार्रवाई में हिस्सा नहीं लिया अथवा उसने जो कुछ सीखा है उसे जीवन के किसी क्षेत्र में लागू नहीं किया. क्या ऐसे व्यक्ति को पूर्ण रूप से विकसित बुद्धिजीवी समझा जा सकता है ? मेरी राय में ऐसा समझना मुश्किल है क्योंकि उसका ज्ञान अभी तक अपूर्ण है. तब अपेक्षाकृत रूप से पूर्ण ज्ञान आखिर क्या है ?
समस्त अपेक्षाकृत पूर्ण ज्ञान तक पहुंचने की दो अवस्थाएं होती हैंः पहली अवस्था इंद्रियग्राह्य ज्ञान की अवस्था है और दूसरी अवस्था बुद्धिसंगत ज्ञान की; बुद्धिसंगत ज्ञान इंद्रियग्राह्य ज्ञान की उच्चस्तरीय विकसित अवस्था है. विद्यार्थियों का किताबी ज्ञान किस प्रकार का ज्ञान है अगर यह मान भी लिया जाए कि उनका तमाम ज्ञान सत्य है, तो भी वह ज्ञान ऐसा नहीं है जिसे उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्राप्त किया हो, बल्कि यह ज्ञान उन सिद्धांतों से मिलकर बना है जिन्हें उनके पुरखों ने उत्पादन के संघर्ष और वर्ग-संघर्ष के अनुभवों का निचोड़ निकालकर निर्धारित किया था. यह बहुत जरूरी है कि विद्यार्थी इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करें, लेकिन उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि जहां तक उनका अपना संबंध है, एक प्रकार से उनके लिए ज्ञान एकतरफ़ा है, एक ऐसी चीज है जिसकी परख दूसरे लोगों ने तो कर ली है, लेकिन उन्होंने खुद अभी तक नहीं की है.
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इस ज्ञान को जीवन में और व्यवहार में लागू करने में निपुणता हासिल की जाए. इसलिए, मैं उन लोगों को जिन्होंने सिर्फ़ किताबी ज्ञान प्राप्त किया है और जिनका वास्तविकता से अभी वास्ता नहीं पड़ा, तथा उन लोगों को भी जिन्होंने थोड़ा-बहुत व्यावहारिक अनुभव प्राप्त कर रखा है, यह सलाह दूंगा कि वे अपनी कमियों को महसूस करें तथा कुछ और विनम्र बनें !
जिन्होंने सिर्फ़ किताबी ज्ञान प्राप्त किया है, उन्हें सच्चे मायने में बुद्धिजीवी कैसे बनाया जा सकता है ?
इसका सिर्फ़ एक ही तरीका है कि वे व्यावहारिक कार्य में भाग लें और व्यावहारिक कार्यकर्ता बनें तथा जो लोग सैद्धांतिक कार्य में लगे हुए हैं वे महत्वपूर्ण व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन करें. इस प्रकार हम अपने उद्देश्य में सफ़ल होंगे.
मैंने जो कुछ कहा है, शायद उससे कुछ लोग नाराज हो जाएं. वे कहेंगे, ‘आपकी व्याख्या के अनुसार तो मार्क्स को भी बुद्धिजीवी नहीं समझा जा सकता.’ मेरा कहना है कि वे गलती पर हैं. मार्क्स ने क्रांतिकारी आंदोलन के व्यवहार में भाग लिया और क्रांतिकारी सिद्धांत की रचना भी की. पूंजीवाद के सबसे साधारण तत्व तिजारती माल से शुरू करके, उन्होंने पूंजीवादी समाज के आर्थिक ढांचे का पूर्ण रूप से अध्ययन किया. लाखों-करोड़ों लोग, तिजारती माल को हर रोज देखते और इस्तेमाल करते थे, लेकिन वे इसके इतने आदी हो चुके थे कि इस ओर उनका ध्यान भी नहीं गया; सिर्फ़ मार्क्स ने ही तिजारती माल का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया.
उन्होंने तिजारती माल के वास्तविक विकास के बारे में महान अनुसंधान-कार्य किया, और जो चीजें सार्वभौमिक रूप से मौजूद थीं, उनसे उन्होंने एक पूर्ण वैज्ञानिक सिद्धांत खोज निकाला ! उन्होंने प्रकृति, इतिहास और सर्वहारा क्रांति का अध्ययन किया और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद और सर्वहारा क्रान्ति के सिद्धान्त की रचना की. इस प्रकार मार्क्स मानव-बुद्धि के चरम उत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले एक अत्यंत पूर्ण रूप से विकसित बुद्धिजीवी बन गए; वे उन लोगों से बुनियादी तौर पर भिन्न थे, जिन्हें सिर्फ़ किताबी ज्ञान प्राप्त है. मार्क्स ने व्यावहारिक संघर्षों के दौरान विस्तृत रूप से जांच-पड़ताल की और अध्ययन किया, सामान्यीकरण का काम किया और फ़िर अपने निष्कर्षों को व्यावहारिक संघर्षों की कसौटी पर परखा-इसी को हम सैद्धांतिक कार्य कहते हैं.
हमारी पार्टी को बहुत बड़ी संख्या में ऐसे साथियों की जरूरत है जो यह सीखें कि यह काम कैसे किया जाना चाहिए. हमारी पार्टी में बहुत से साथी ऐसे हैं जो इस प्रकार का सैद्धांतिक अनुसंधान-कार्य करना सीख सकते है; उनमें से अधिकांश लोग समझदार और होनहार हैं और हमें उनकी कद्र करनी चाहिए. लेकिन उन्हें सही उसूलों पर चलना चाहिए और अतीत की गलतियों को दोहराना नहीं चाहिए. उन्हें कठमुल्लावाद का परित्याग कर देना चाहिए और अपने आपको पुस्तकों में लिखित वाक्यांशों तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए.
दुनिया में सिर्फ़ एक ही किस्म का सच्चा सिद्धांत होता है – वह सिद्धांत जो वस्तुगत यथार्थ से निकाला गया हो और वस्तुगत यथार्थ की कसौटी पर परखा जा चुका हो; हमारी समझ में और कोई चीज सिद्धांत कहलाने लायक नहीं है. स्तालिन ने कहा है कि व्यवहार से संबंध न रखने वाला सिद्धांत निरुद्देश्य सिद्धांत हो जाता है. निरुद्देश्य सिद्धान्त व्यर्थ और मिथ्या होता है और उसे त्याग देना चाहिए. मार्क्सवाद-लेनिनवाद अत्यंत सही, अत्यंत वैज्ञानिक और अत्यंत क्रांतिकारी सत्य है जो वस्तुगत यथार्थ से पैदा हुआ है और जिसे वस्तुगत यथार्थ की कसौटी पर परखा जा चुका है; लेकिन बहुत से लोग, जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अध्ययन करते है, उसे निष्प्राण कठमुल्ला-सूत्र समझते है, और इस तरह वे सिद्धांत के विकास को अवरुद्ध कर देते हैं और अपने को तथा दूसरे साथियों को नुकसान पहुंचाते हैं.
दूसरी तरफ़, अगर हमारे उन साथियों ने, जो व्यावहारिक कार्य में लगे हुए हैं, अपने अनुभव का दुरुपयोग किया तो वे भी नुकसान उठाएंगे. यह सच है कि उनका अनुभव प्रायः बड़ा ही समृद्ध होता है, जो हमारे लिए अत्यंत मूल्यवान है; लेकिन अगर वे अपने ही अनुभव से संतुष्ट बने रहें, तो यह बहुत ही खतरनाक बात होगी. उन्हें महसूस करना चाहिए कि उनका ज्ञान अधिकांशतः इंद्रियग्राह्य और आंशिक होता है और उनमें बुद्धिसंगत तथा सम्पूर्ण ज्ञान का अभाव होता है; दूसरे शब्दों में, उनमें सिद्धांत का अभाव होता है और उनका ज्ञान भी अपेक्षाकृत रूप से अपूर्ण होता है. अपेक्षाकृत रूप से पूर्ण ज्ञान के बगैर, क्रांतिकारी कार्य को भलीभांति कर पाना असंभव है.
इस प्रकार, अपूर्ण ज्ञान दो तरह का होता है, एक तो पका-पकाया ज्ञान जो किताबों में पाया जाता है और दूसरा वह ज्ञान जो अधिकांशतः इंद्रियग्राह्य और आंशिक होता है; यह दोनों ही तरह का ज्ञान एकतरफ़ा होता है. इन दोनों के समन्वय से ही विशद और अपेक्षाकृत पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है. (’पार्टी की कार्यशैली में सुधार करो’ का अंश.)
दुनिया के महान शिक्षक माओ-त्से तुंग की लिखी यह दो महान आलेख यहां समाप्त हो जाता है, परन्तु यह आलेख यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सही विचार और ज्ञान किसी अपराधी सरगना और उसके गुर्गे के दिमाग में नहीं पनपते, बल्कि सही विचार खेतों-खलिहानों, कारखानों और वैज्ञानिक प्रयोगों से निकलते हैं.
आज भारत की सत्ता पर काबिज अपराधी सरगना नरेन्द्र मोदी और उसके गुर्गों के दिमाग से निकलने वाली ‘ज्ञान’ इस समाज को न केवल प्रदूषित ही कर रहे हैं अपितु दुनिया भर की मेहनतकश जनता, वैज्ञानिक समुदाय का अपमान भी है, जिस कारण आज सारी दुनिया इन कारकूनों पर न केवल हंस ही रही है बल्कि सारी दुनिया थूक भी रही है.
जरूरत है इन अपराधी सरगनाओं के दिमाग से निकली सड़ांध के खिलाफ देश की जनता को उठ खड़ा होना. इन अपराधी सरगनाओं को यह बतलाना ही होगा कि चाहे तुम कितने ही विद्वानों, पत्रकारों, वैज्ञानिकों, वकीलों, प्रचारकों को जेल में डालो या मौत के घाट ही क्यों न उतार डालें, बददिमाग जाहिलों के खिलाफ यह संघर्ष जारी जीत तक जारी रहनी ही चाहिए.
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