हिमांशु कुमार
एक तरफ आप हैं जो दिन भर कुर्सी पर बैठ कर बहुत कम मेहनत करते हैं लेकिन आपके पास कार हैं, अपना फ़्लैट है, ऐशो आराम है. दूसरी तरफ देश के करोड़ों लोग हैं, जो दिन भर कड़ी मेहनत करते हैं लेकिन उनके पास घर नहीं है. बीबी के इलाज की भी हैसियत नहीं है.
ये क्या जादू है कि मेहनत वाले गरीब और आरामदेह काम करने वाले अमीर हैं ? अमीरी के लिए प्राकृतिक संसाधन जैसे ज़मीन, नदी, जंगल की ज़रूरत होती हैं और ज़रूरत होती है मेहनत की.
संविधान के मुताबिक तो प्राकृतिक संसाधन पर तो सभी नागरिकों का बराबर हक हैं और किसी एक गरीब की मेहनत का फायदा किसी दूसरे अमीर को मिले यह भी संविधान के मुताबिक वर्जित हैं. यानी देश में जो लोग दूसरों के संसाधनों और दूसरों की मेहनत के दम पर अमीर बने हैं, उन्होंने संविधान के खिलाफ़ काम किया हैं.
संविधान में लिखा हैं कि सरकार देश में नागरिकों के बीच बराबरी लाने के लिए काम करेगी, लेकिन सरकार रोज़ गरीब आदिवासियों और गांव वालों की ज़मीने पुलिस और अर्ध सैनिक बलों की बंदूकों के दम पर छीन कर अमीर उद्योगपतियों को दे रही हैं. सरकार रोज़ ही चंद अमीरों के फायदे के लिए करोड़ों नागरिकों को बंदूक के बल पर गरीब बना रही हैैं.
जो सरकार अमीरों का फायदा करती हैं उसे जीतने के लिए अमीर ही पैसा देते हैं. अमीर उद्योगपति ही तय करते हैं कि अब स्कूल कालेज में क्या पढ़ाया जायेगा, ताकि उनके उद्योग-धंधे चलाने के लिए उन्हें कर्मचारी मिल सकें. मध्यम वर्ग यही वर्ग हैं.
यह मध्यम वर्ग चाहता है कि उद्योगपति का उद्योग चलता रहे ताकि मध्यम वर्ग का भी कार और ऐशोआराम वाला जीवन चलता रहे इसलिए यह मध्यम वर्ग कहता हैं कि सरकार विकास करती हैं. इसलिए आप कहते हैं कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल देश भक्त होते हैं. और आप इस तरह के बंदूक के दम पर चलने वाले विकास और इस हिंसक राजनीति के समर्थक बन जाते हैं.
आपका साहित्य कला राजनीति सब इस लुटेरी आर्थिक दुनिया में ही पनपती हैं इसलिए आपके साहित्य और कला में से करोड़ों मजदूर, आदिवासी और रोज़ मर रहे किसान गायब होते हैं.
अब सरकार आपको समझाती हैं कि देखो हमें विकास को बढ़ाना है तो हमें सुरक्षा बलों की संख्या बढानी पड़ेगी. अपने ही देश के गरीबों को मारने के लिए आप सहमत हो जाते हैं. हिंसक अर्थव्यवस्था, हिंसक राजनीति और हिंसक शिक्षा आपको एक जानवर में बदल देती है.
आप देख ही नहीं पाते हैं कि आप कब हिंसक और संवेदनहीन बन गए. यही इस अर्थ व्यवस्था और इस राजनीति का जाना परखा पुराना तरीका है. यह मनुष्य को जानवर बना कर उसे गुलाम बना लेती हैं.
इस गुलामी और जानवरपने से मुक्ति भी संभव हैं लेकिन पहले ज़रूरी हैं कि आप अपनी गुलामी को समझ लें, वरना आप आज़ादी की बात करने वाले को ही मार डालेंगे या जेल में डाल देंगे जैसे आजकल बुद्धिजीवियों को जेल में डाला हुआ है.
सामाजिक न्याय का सीधा और स्पष्ट अर्थ है कि समाज में किसी भी व्यक्ति के साथ उसकी धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म के स्थान के आधार पर भेदभाव ना हो. भारत में सामाजिक न्याय की गारंटी भारत का संविधान हरेक नागरिक को देता है.
यदि कोई व्यक्ति, संस्था या सरकार किसी नागरिक के साथ इनमें से किसी भी आधार पर भेद करती है, तो वह भारत के संविधान का उल्लंघन करने की दोषी है. इसे मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है. इसे हम नागरिक अधिकार या मानवाधिकार के नामों से भी जानते हैं. हनन किये जाने पर इसकी शिकायत अदालतों में भी की जा सकती है.
हालांकि ऐसा नहीं है कि संवैधानिक प्रावधान व कनूनी व्यवस्था होने के बावजूद लोगों के मानवाधिकारों का हनन नहीं होता. दुनिया के अधिकांश देशों में इस सीधी और सरल सच्चाई को नकारे जाने के उदाहरण अभी भी विद्यमान हैं. यहां तक कि सारी दुनिया को जबरन सभ्य बनाने के नाम पर युद्ध थोपने वाले अमेरिका में काले रंग के आधार पर नस्लवाद का लंबा इतिहास है.
अश्वेत नागरिकों को दास बना कर रखने की प्रथा को खत्म करने वाले अपने राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को अमेरिका में ही मार डाला गया. अश्वेतों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ खड़े होने वाले नेता मार्टिन लूथर किंग को भी गोली मार दी गई थी. यहां तक कि अभी दो साल पहले ही हमने अमेरिका में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन देखा है, जो बताता है कि वहां के समाज में अभी भी नस्लभेद किस तरह मौजूद है.
इसी के साथ ब्रिटेन, जो कि अपने ताबे में रह चुके देशों को सभ्य बनाने का दावा करता है, वहां भी 1918 तक महिलाओं के साथ इतना भेदभाव था कि उन्हें वोट देने का भी अधिकार तक नहीं था. कमोबेश यही हाल यूरोप के अन्य देशों का भी रहा है. ब्रिटेन में तो आर्थिक आधार पर सत्ता आभिजात्य लोगों के बीच ही सुरक्षित रखने के इंतजाम के तौर पर ‘हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स’ बनाया गया था, जिसमें सिर्फ बड़े ज़मींदार ही चुने जा सकते थे.
भारत की आज़ादी की लड़ाई के समय ही यह तय हो गया था कि भारत के सामने अब असल चुनौती सदियों से चले आ रहे अन्याय एवं भेदभावों को मिटाने की होगी. डॉ. आंबेडकर को संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया जाना इसका स्पष्ट संकेत था.
इसके अलावा कांग्रेस ने भी घोषित कर दिया था कि आज़ादी के बाद सबसे पहला काम ज़मींदारी खत्म करने का किया जाएगा. और ऐसा हुआ भी आज़ाद भारत का पहला एक्ट ज़मींदारी उन्मूलन एक्ट था.
भारत-पाक विभाजन की मुख्य वजहों में से एक वजह यह भी थी कि जिन्ना कहीं भी आर्थिक समानता की बात नहीं कर रहे थे. इसकी मुख्य वजह मुस्लिम लीग को मुस्लिम जमींदारों की तरफ से मिलने वाली आर्थिक मदद थी. और इसलिए वे नहीं चाहते थे कि उनकी ज़मींदारी खत्म हो, इसलिए भी वे एक अलग मुल्क बनाकर अपनी अमीरी को बचा कर रखना चाहते थे.
और यही हुआ भी आज तक पकिस्तान ज़मींदारी प्रथा से आज़ाद नहीं हो पाया है, जिसका असर यह है कि वहां की राजनीति, फौज़ और नौकरशाही पर ज़मींदारों और वढेरों (साहूकारों) का कब्ज़ा है.
आज़ादी मिलने के साथ ही यह तय हो गया था कि भारत का लक्ष्य समानता और न्याय आधारित मुल्क का निर्माण है, ताकि जिन्हें जाति के आधार पर सामाजिक तौर पर कमज़ोर बना कर रखा गया था, उन्हें सामाजिक न्याय, जिनकी मेहनत की कमाई दूसरे हमेशा लूटते आये थे, उन्हें न्याय मिले. इसलिए धर्म, लिंग, जाति और जन्म स्थान के आधार पर भेद ना करते हुए प्रत्येक व्यस्क नागरिक को एक वोट देने की राजनैतिक बराबरी दी गयी.
इसी के साथ धर्म के आधार किसी के साथ भेदभाव ना करना भी भारत ने तय किया और धर्मनिरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में जगह दी गयी. लेकिन जिन्ना की पार्टी मुस्लिम लीग की तरह जो पार्टियां व संस्थायें भारत में बनी थीं, वह थी – हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. ठीक पाकिस्तान की तर्ज़ पर यह लोग भी भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की बजाय हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं तथा प्राचीन परंपराओं की पुनर्स्थापना तथा स्वर्णिम अतीत की वापसी की आड़ में पुरानी जातिपाति को जारी रखना चाहते हैं.
ध्यान रहे कि इन्हें पैसा देने वालों में भी भारत के राजे-महाराजे, ज़मींदार, व्यापारी और सामंत तथा सवर्ण जातियां रही हैं. आज भारत की सत्ता एक बार फिर से इन पीछे ले जाने वाली ताकतों के हाथ में है. इन्होंने सबसे पहला काम जो किया है, वह है – न्याय व्यवस्था को नष्ट करना.
इससे यह होता है कि जब यह लोग सत्ता में बैठकर भारत के संविधान का उल्लंघन करें व नागरिकों के अधिकारों को छीनें तथा उनसे धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव करें. और जब नागरिक इन अधिकारों की रक्षा के लिए अदालतों में जाएं तो अदालतें सरकारों को रोकने की हालत में ना रहें.
पिछले दिनों हमने इसका नंगा नाच भारत में तब दिखा. जब नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) व राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) खुलेआम भारत के मुसलमानों के खिलाफ लाया गया. यह अलग बात है कि इन कानूनों को लागू करने के पीछे भारत के एससी व एसटी समुदायों को मिलनेवाले आरक्षण को खत्म करना भी था.
ऐसा इसलिए क्योंकि नागरिक होने की पात्रता के लिए आधार या वोटर कार्ड को प्रमाण नहीं माना गया था, इसलिए ज़मीन होना ही एक मात्र सहारा बचता है, जिसके आधार पर कोई नागरिक खुद को यहां का नागरिक साबित कर सकता है.
भारत के अस्सी प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं. उन्हें नागरिकता से वंचित करके उन्हें शरणार्थी का दर्जा देकर रहने की इजाज़त तो दी जाती लेकिन फिर उनका आरक्षण पर कोई हक़ नहीं रहता. और वे हमेशा भारत के प्रभु वर्ग जो मुख्य रूप से सवर्ण हैं, उनका गुलाम बन कर रहने को मजबूर होना पड़ता.
अब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सामने है तो भाजपा इसके लिए पूरी तरह से तैयार है लेकिन विपक्ष अस्त-व्यस्त और बदहवास है. हम सभी ने यह देखा कि भाजपा से आगे निकलने की दौड़ में यूपी में पार्टियां ब्राह्मण सम्मलेन कर रही हैं, पार्टियां परशुराम की मूर्तियां लगाने की घोषनाएं कर रही हैं. कोई अपना जनेऊ दिखा रहा है तो कोई गणेश की पूजा कर/करवा रहा है.
पिछले सालों में उत्तर प्रदेश ने सीएए-एनआरसी आंदोलन में शामिल मुस्लिम नौजवानों की हत्याएं, निर्दोष मुस्लिम समुदाय के लोगों को फर्जी मुकदमों में जेलों में डालना देखा है लेकिन आज यूपी में कोई विपक्षी नेता इसके बारे में बोलने को तैयार नहीं है. वजह है भाजपा का डर कि कहीं हमें मुसलमानपरस्त पार्टी ना घोषित कर दिया जाय.
इसका नतीजा यह हो रहा है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष पार्टियां कहने वाली पार्टियों की बजाय इन मुद्दों को समुदाय विशेष के नाम पर बनी ओवेसी की पार्टी उठा रही है, जिसका फायदा भाजपा हिन्दुओं को अपने पाले में गोलबंद करने में कर रही है.
सवाल यह है कि क्या भारत की राजनैतिक पार्टियां भारत के संविधान, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र को बचाने को अपना चुनावी मुद्दा बनाएंगी या नहीं ? यह महत्वपूर्ण सवाल है क्योंकि अब दांव पर भारत का संविधान है.
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