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कपटी मोदी का आधा सच, सच का आधा नहीं पूरा झूठ है

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कपटी मोदी का आधा सच, सच का आधा नहीं पूरा झूठ है

कपटी मोदी अपना सम्पूर्ण जीवन काल में झूठ, फरेब, हिंसा और व्यभिचार के सहारे व्यतीत किया है. तथ्यों को बिना किसी लज्जा के तोड़ मरोड़कर मनमाफिक निष्कर्ष निकाल लोगों को भ्रमित करने में महारत हासिल है. यह भी एक बिडम्बना ही है कि देश का बहुसंख्यक आबादी अनपढ़ है या कुपढ़, जिसकारण लोग मोदी द्वारा फैलाये गये झूठ से और भी ज्यादा भ्रमित हो जाते हैं.

दूसरी ओर मोदी सत्ता ने देश के खजाने का जमकर दुरुपयोग करते हुए मीडिया संस्थानों के मूंह को नोटों से बंद कर अपना चाटूकार बना लिया, जो आज ‘गोदी मीडिया’ के नाम से कुख्यात हो चुका है. इस गोदी मीडिया जिसका एकमात्र कार्य मोदी के झूठ को अलौकिकता की चाशनी में डुबोकर लोगों को भ्रमित करना और सवाल उठाते लोगों या समूहों को बदनाम कर देशद्रोही साबित करना, हो गया है.

मोदी के अनगिनत सफेद झूठों को ग्राह्य बनाते बनाते यह गोदी मीडिया देश के आम लोगों के बीच ही नहीं, समूची दुनिया में इतना ज्यादा कुख्यात हो गया है कि लोगों ने बकायदा इसका बहिष्कार करना शुरू कर दिया है. जहां तहां से भगाया जाने लगा है. किसान आंदोलनकारियों ने तो इसकी बखिया उधेड़ दिया है.

बहरहाल, नरेन्द्र मोदी आये दिन झूठ का एक से बढ़कर एक कीर्तिमान स्थापित करते जा रहे हैं. इसके लिए प्रधानमंत्री पद का जमकर दुरुपयोग करता है. क्या स्वतंत्रता दिवस का समारोह और क्या चुनावी सभा, सभी जगह से वह झूठ परोस कर लोगों को भ्रमित करता है.

लोगों के बीच झूठ परोसने के लिए ऐसे लोग आधा सच का उपयोग करता है. मसलन, गृह मंत्री पद पर विराजमान अमित शाह कहते हैं – ‘राम ने मरते हुए रावण के पास ज्ञान हासिल करने के लिए अपने भाई भरत को भेजा.’ यह सच है कि राम ने रावण के पास ज्ञान हासिल करने के लिए अपने भाई को भेजा, पर जिस भाई को भेजा गया वह भरत नहीं लक्ष्मण था. लक्ष्मण वनवास में राम के साथ था, जबकि भरत अयोध्या में थे.

मोदी और उसका गैंग अपना झूठ फैलाने के लिए इसी तरह आधा सच का उपयोग करते हैं, जिसे साहित्यिक शब्दावली में अर्द्ध सत्य कहा जाता है, जो सच का आधा नहीं, बल्कि पूरा झूठ होता है. प्रधानमंत्री मोदी काशी विश्वनाथ मंदिर के नवीन परिसर के लोकार्पण के समय भी ऐसे ही आधा सच उगला है, पंकज श्रीवास्तव इस झूठ का कुछ इस प्रकार पर्दाफाश करते हैं –

मोदी का आधा सच : जब औरंगजेब आता है तो शिवाजी भी उठ खड़े होते हैं – नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत

पूरा सच :

जब औरंगजेब मिर्ज़ा राजा जयसिंह और राजा जसवंत सिंह की ताक़त पर आता है तो शिवाजी भी इब्राहिम खां जैसे तोपची और दौलत खां जैसे नौसेनाध्यक्ष के बल पर उठ खड़े होते हैं – इतिहास

धर्म की तुला पर राजनीति का सौदा करने में महारत हासिल कर चुके प्रधानमंत्री मोदी कल काशी विश्वनाथ मंदिर के नवीन परिसर के लोकार्पण के समय भी बाज़ नहीं आये. उन्होंने कहा कि ‘जब औरंगज़ेब आता है तो शिवाजी भी उठ खड़े होते हैं’, जो उनकी इच्छानुसार आज अख़बारों की सुर्खी भी है.

आप कह सकते हैं कि सदियों पहले केंद्रीय और क्षेत्रीय सत्ता के बीच हुए संघर्ष को धार्मिक कार्यक्रम में याद दिलाना एक लोकतांत्रिक गणराज्य के प्रधानमंत्री को शोभा नहीं देता, पर मोदी जी को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता. उनका संबोधन उन लोगों को ध्यान में रखकर है जिन्हें शाखामृग रात-दिन शिवाजी माने ‘हिंदू’ और औरंगज़ेब माने ‘मुसलमान’ पढ़ाते रहते हैं.

हर मोर्चे पर बुरी तरह असफल साबित हो चुकी योगी सरकार को दोबारा चुनाव में जाने के लिए जिस ज़हरीले पाठ्यक्रम की ज़रूरत है, अनुभवी मोदी उसी की सप्लाई कर रहे हैं. लेकिन सरकारी ख़ज़ाने से सैकड़ों करोड़ ख़र्च करके मंदिर परिसर का विस्तार करा देने से कोई शिवाजी नहीं बन जाता. शिवाजी ने समाज के हर वर्ग को संगठित किया था, बिना भेदभाव के, जबकि मोदी जी अंतिम यात्रा को भी ‘श्मशान और कब्रिस्तान’ में विभाजित करने में माहिर हैं.

बहरहाल, मोदी जी को जानना चाहिए कि औरंगज़ेब जब आता है तो मिर्ज़ा राजा जय सिंह और जसवंत सिंह की ताक़त पर आता है और जब शिवाजी उठते हैं तो इब्राहिम ख़ान जैसे तोपची और दौलत खां जैसे दरयासारंग (नौसेनाध्यक्ष) को साथ लेकर उठते हैं. शिवाजी हिंदू थे, हिंदुत्ववादी नहीं !

शिवाजी ने राज-काज में कभी धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया. उलटा उनका ‘हिंदवी साम्राज्य’ बीजापुरी मुस्लिम सिपाहियों समेत तमाम मुस्लिम सेनानायकों की कुर्बानियों से बना था. अफ़सोस कि यह औरंगज़ेब और शिवाजी की लड़ाई को हिंदू- मुस्लिम संघर्ष के रुप में दुष्प्रचारित करने के अभियान को एक प्रधानमंत्री हवा दे रहा है. यह जानना ज़रूरी है कि शिवाजी का मुग़ल साम्राज्य का विरोध, किसी धर्म का विरोध नहीं था. आइए, शिवाजी के मुस्लिम सेनानायकों पर नज़र डालें.

शिवाजी के मुस्लिम सेनानायक

शिवाजी के पास अनेक मुसलमान सेनानायक, मुखिया और नौकर थे और वे उच्च उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर आसीन थे. शिवाजी का तोपख़ाना प्रमुख एक मुसलमान था. उसका नाम इब्राहिम ख़ान था. तोपख़ाना, यानी फ़ौज का एक महत्वपूर्ण विभाग, उसके पास था. तोपें यानी उस युग के सर्वाधिक विकसित हथियार. क़िले के युद्ध में उनका बड़ा महत्व होता है. ऐसे तोपख़ाने का प्रमुख एक मुसलमान था.

नौसेना की स्थापना को छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरंदेशी का उदाहरण माना जाता है और यह ठीक भी है.  कोंकण पट्टी की विस्तृत भूमि समुद्र के समीप थी. इस सारे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए नौसेना अपरिहार्य थी. शिवाजी ने उसे तैयार किया और ऐसे महत्वपूर्ण विभाग का प्रमुख भी एक मुसलमान सेनानायक ही था. उसका नाम था दौलत ख़ान, दरयासारंग दौलत ख़ान.

शिवाजी के ख़ास अंगरक्षकों में और निजी नौकरों में बहुत ही विश्वसनीय मदारी मेहतर शामिल था. आगरे से फ़रारी के नाटकीय प्रकरण में इस विश्वसनीय मुसलमान साथी ने शिवाजी का साथ क्यों दिया ? शिवाजी मुस्लिम-विरोधी होते तो शायद ऐसा नहीं होता.

शिवाजी के पास जो कई मुसलमान चाकर थे, उनमें क़ाज़ी हैदर भी एक था. सालेरी के युद्ध के बाद, औरंगज़ेब के अधीन दक्षिण के अधिकारियों ने, शिवाजी के साथ मित्रता क़ायम करने के लिए एक ब्राह्मण वक़ील भेजा तो उसके उत्तर में शिवाजी ने क़ाज़ी हैदर को मुग़लों के पास भेजा, यानी मुसलमानों का वकील हिंदू और हिंदुओं का वक़ील मुसलमान. उस युग में, यदि समाज का विभाजन हिंदू-विरुद्ध-मुसलमान होता तो ऐसा नहीं होता.

सिद्दी हिलाल, ऐसा ही एक मुसलमान सरदार शिवाजी के साथ था. सन 1660 में शिवाजी ने रुस्तम जमा और फ़ज़ल ख़ान को रायबाग के पास हराया. इस समय सिद्दी हिलाल शिवाजी के पक्ष में लड़ा. उसी प्रकार जब सन 1660 में सिद्दी जौहर ने पन्हालगढ़ किले की घेराबंदी की, तब नेताजी पालकर ने उसकी सेना पर घात लगाकर घेराबंदी उठवाने का प्रयास किया, उस समय भी हिलाल और उसका पुत्र शिवाजी जी के साथ थे. इस भिड़ंत में सिद्दी हिलाल का पुत्र बाहबाह ज़ख़्मी हुआ और पकड़ लिया गया. सिद्दी हिलाल, अपने पुत्र के साथ, ‘हिंदू शिवाजी’ की ओर से मुसलमानों के विरुद्ध लड़ा.

शिवाजी की मुस्लिम धर्मानुयायी सिपाहियों के प्रति नीति

इन युद्धों का स्वरूप यदि हिंदू बनाम मुसलमान रहता, तो परिणाम क्या होता ? ‘सभासद बखर’ के पृष्ठ 76 पर शिवाजी के ऐसे ही एक शिलेदार का उल्लेख है. उसका नाम शमाख़ान था. राजवाड़े कृत ‘मराठों के इतिहास के स्रोत’ पुस्तक के खंड 17 पृष्ठ 17 पर ‘नूरख़ान बेग़’ का उल्लेख शिवाजी का सरनोबत कह कर किया गया है.

स्पष्ट है कि ये सरदार अकेले नहीं थे. अपने अधीनस्थ सिपाहियों के साथ वे शिवाजी की सेवा में थे. परंतु इससे अधिक महत्वपूर्ण एक अन्य प्रामाणिक साक्ष्य है. उससे शिवाजी की मुस्लिम धर्मानुयायी सिपाहियों के प्रति नीति स्पष्ट होती है.

रियासतकार सरदेसाई द्वारा लिखित ‘सामर्थ्यवान शिवाजी’ पुस्तक में से यह उदाहरण देखिए –

सन 1648 के आसपास बीजापुर की फ़ौज के पांच-सात सौ पठान शिवाजी के पास नौकरी हेतु पहुंचे, तब गोमाजी नाईक पानसंबल ने उन्हें सलाह दी, जिसे उचित मान शिवाजी ने स्वीकार कर लिया और आगे भी वही नीति क़ायम रखी. नाईक ने कहा, ‘आपकी प्रसिद्धि सुनकर ये लोग आये हैं, उन्हें निराश करके वापस भेजना उचित नहीं है. ‘हिंदुओं को ही इकट्ठा करो, औरों से वास्ता नहीं रखो’ – यदि यह समझ क़ायम रखी तो राज्य प्राप्ति नहीं होगी. जिसे शासन करना हो, उसे अठारह जातियों, चारों वर्ण के लोगों को, उनके जाति सम्प्रदाय के अनुरूप, संगठित करना चाहिए.’

सन 1648 के, जबकि अभी शिवाजी के समपूर्ण शासन की स्थापना होनी थी, उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट अभिव्यक्त हो जाता है कि उनके शासन क़ायम करने की नीति का आधार क्या था. शिवाजी से संबंधित चरित्रग्रंथ में ग्रांट डफ़ ने भी पृष्ठ 129 पर गोमाजी नाईक की सलाह का उल्लेख करते हुए कहा है –

‘इसके बाद शिवाजी ने अपनी सेना में मुसलमानों को भी शामिल कर लिया और राज्य स्थापना में वे बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुए.’

शिवाजी के सरदार और शिवाजी की सेना, केवल हिंदूधर्मी नहीं थी. यह भी स्पष्ट है कि उनमें मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों की भी भर्ती की गई थी. यदि शिवाजी मुस्लिम सम्प्रदाय को समाप्त करने का कार्य कर रहे होते तो वे मुसलमान शिवाजी के पास नहीं ठहरते. शिवाजी मुसलमान शासकों के अत्याचारी शासन की समाप्ति हेतु निकले थे. प्रजा की चिंता करने वाले शासन की स्थापना हेतु निकल पड़े थे, इसीलिए मुसलमान भी उनके कार्य में हिस्सेदार बने.

मुख्य प्रश्न धर्म का नहीं था. शासन का प्रश्न प्रमुख था. धर्म मुख्य नहीं था, राज्य प्रमुख था. धर्मनिष्ठा मुख्य नहीं थी, राज्यनिष्ठा और स्वामीनिष्ठा प्रमुख थी.

पुनश्च: शिवाजी मुस्लिम साधु, पीर-फ़कीरों का काफ़ी सम्मान करते थे. मुस्लिम संत याक़ूत बाबा को तो शिवाजी अपना गुरु मानते थे. उनके राज्य में मस्जिदों और दरगाहों में दिया-बाती, धूप-लोबान आदि के लिए नियमित ख़र्च दिया जाता था.

कपटी मोदी खुद की तुलना शिवाजी से करते हैं लेकिन शिवाजी कभी भी खुद के हिन्दु धर्म का पुरोधा नहीं बतलाते थे अपितु वे हिन्दु-मुस्लिम एकता के जबर्दस्त हिमायती थी. यही कारण था कि वे औरंगजेब जैसे मुगल शासक को चुनौती पेश कर सके थे. लेकिन नरेन्द्र मोदी हिन्दु-मुस्लिम एकता के जबर्दस्त विरोधी हैं. सत्ता के भूखे ये हैवान समाज को न केवल हजारों टुकड़ों में बांट दिया है अपितु समाज को अशिक्षित बनाये रखने के लिए शिक्षण संस्थानों को ही बंद कर दिया ताकि देश की आगामी पीढ़ी अशिक्षित बन जाये, ताकि मनुस्मृति जैसे मानव विरोधी व्यवस्था को पुर्नस्थापित किया जा सके.

कविश अजीज लेनिन लिखती हैं – प्रधानमंत्री ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का लोकार्पण कर दिया. ज़ाहिर हैं ‘ड्रीमप्रोजेक्ट’ था तो पैसा भी खूब लगा है. चुनाव का समय है तो लोगों की आस्था को भी जगाना है लेकिन इस के पीछे कितने लोगों की आस्था से खिलवाड़ हुआ है, ये आपको पता है या नहीं ?

हिन्दू धर्म में लोग काशी में मरना चाहते हैं क्योंकि यहां जो मोक्ष प्राप्त होता है, वो सामान्य मोक्ष नहीं होता. शिव के संरक्षण वाला मोक्ष होता हैं. काशी में अविमुक्तेश्वर महादेव का मंदिर तोड़ दिया गया लेकिन बनारस खामोशी से देखता रहा. मंडन मिश्र की मूर्ति तोड़ दी गई, पूजा के लिए बनाए गए कुएं पाट दिए गए, गोविंद देव मंदिर को तोड़ दिया गया.

भारत माता मंदिर पुराणोक्त पंच विनायक में से 3 विनायकों के मंदिर तोड़ कर पूजा बंद कर दी गई. गणपति की प्रतिमा के टूटे फूटे अवशेष, इधर उधर बिखरे शिवलिंग, कॉरिडोर के निर्माण में जो भी मन्दिर सामने आया उसे तोड़ दिया गया, लेकिन बनारस चुप रहा. मंदिर के पुरोहित, महंत और पुजारी रोते रहे, लेकिन बनारसियों ने कान और आंख बन्द कर लिए.

बनारस में पिछले 4 साल में कई मंदिर टूटे लेकिन बनारसियों का विरोध किश्तों में निकला इसीलिए आवाज़ बिखर गयी. अब बनारस शिव का गण नहीं, मोदी की कांस्टीट्यूएन्सी कहलाती है. हर हर महादेव के बजाय हर हर मोदी के नारे निकलते हैं. बनारसियों की आस्था का राजनीतिकरण हो चुका है. मन्दिर टूटने पर कोई आवाज़ उठाता है तो उसे सपाई, कांग्रेसी या विरोधी कह कर पुकारा जाता है.

गंगा मइया से ज़्यादा मां गंगा के बेटे के भक्तों की तादाद है. मंदिरों का शहर ‘शिव की नगरी’, ‘दीपों का शहर’, ‘मोक्ष का शहर, अब बनारस और काशी नहीं प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र कहलाता है. मंदिरों के तोड़े जाने पर आस्था तभी द्रवित होती है, जब तोड़ने वाले का नाम औरंगजेब हो.

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