सुब्रतो चटर्जी
किसान आंदोलन की सापेक्षिक सफलता ने साबित किया है कि भारत अब बुर्जुआ क्रांति के लिए तैयार है. हमारे कम्युनिस्ट मित्र इस बात से सबक़ ले सकते हैं कि किसी भी देश या समाज में सर्वहारा की क्रांति कभी भी बुर्जुआ क्रांति के पहले नहीं होती. जिस रूसी क्रांति की बात वे करते हैं, वहाँ भी जारशाही के ख़िलाफ़ पहले बुर्जुआ क्रांति हुई थी.
दरअसल, भारत में संविधान की स्थापना तथा नेहरू काल की मिश्रित अर्थव्यवस्था, जो कि ईंदिरा युग तक चली, के दौरान हम एक उदारवादी बुर्जुआ काल की तरफ़ ही बढ़ रहे थे, लेकिन इसमें एक समस्या थी. समस्या यह थी कि नेहरू, ईंदिरा के सामाजिक, राजनीतिक चेतना को देश ने विभिन्न क़ानूनों और प्रशासनिक पहलों द्वारा लागू होते हुए देखा, लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा, जो कि अर्ध सामन्ती, अर्ध पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित था, इस परिवर्तन के लिए तैयार नहीं था.
नतीजा ये हुआ कि जातिवाद को तोड़ने की आरक्षण द्वारा कोशिश को दलित को घोड़ी चढ़ने पर गोली मार कर जवाब दिया गया. इसी तरह, ज़मींदारी उन्मूलन क़ानून को बेनामी जमीन रख कर पलीता लगा दिया गया और देश के नब्बे प्रतिशत किसान छोटे और मार्जिनल रह गए. भूमिहीन किसानों की एक बड़ी संख्या भी बनती रही.
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि सरकारी नीतियों और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच फ़र्क़ गहराता गया. 90 के दशक में जब इस बुर्जुआ मॉडेल का पर्याय बाज़ार वाद में ढूँढा जाने लगा तो समाज की प्रतिक्रिया वादी शक्तियों को पहले लगा कि उन्मुक्त अर्थव्यवस्था से उनके पारंपरिक या निहित स्वार्थों को कोई हानि नहीं होगी. यही कारण है कि भारत का मध्यम वर्ग पूरी तरह से बाज़ारवाद के साथ खड़े मिला.
सिकुड़ती सरकारी खर्च और फैलती बाज़ार व्यवस्था इस मध्यम वर्ग के लिए कोई चिंता की बात नहीं थी. प्राईवेट स्कूलों और तकनीकी संस्थाओं में घूस (डोनेशन) दे कर अपने बच्चों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लखटकिया नौकर बनाना ही इनके जीवन का सार बन गया.
दूसरी तरफ़, भारत में एक विशाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था है, जो कि कृषि पर आधारित है. किसान पारंपरिक समाज का अंग होने के साथ साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी हैं. नये कृषि क़ानूनों ने इस यथास्थिति वाद पर सिर्फ़ दो धंधेबाज़ों के हक़ में हमला किया, और बात वहीं पर बिगड़ गई.
दो बेईमान गुजराती धंधेबाज़ों के बेशर्म दलाल सरकार ने भारतीय कृषि की अर्थव्यवस्था को बाज़ार के हवाले कर किसानों को सस्ते लेबर में बदलने की क्रिमिनल कोशिश की. किसानों ने इसका माकूल जवाब दिया.
किसान आंदोलन में बहुतेरे लोगों को गाँधीवादी सत्याग्रह की झलक दिखी. जो लोग देखना नहीं चाह रहे हैं वह ये है कि दरअसल आंदोलन का स्वरूप भले ही अहिंसक होने के नाते गाँधीवादी दिखा, लेकिन इसके पीछे कम्युनिस्ट लोगों की संगठनात्मक शक्ति का सबसे बड़ा रोल रहा. एक साल से ज़्यादा चले इस आंदोलन में पहली बार मार्क्स और गाँधी इतने क़रीब आए. यह इस आंदोलन का एक ऐसा वैचारिक पहलू है जिस पर आने वाले दिनों में और शोध होगा.
बहरहाल, मुद्दे की बात ये है कि, किसान आंदोलन ने संसद की महत्ता, जनोपयोगी पूंजीवाद, सड़क की ताक़त, लोकतंत्र में आंदोलन और वोट की शक्ति को पुनर्स्थापित करने में जो सफलता पाई है, वह मूलतः उन्हीं बुर्जुआ मूल्यों की पुनर्स्थापना है, जिनके लिए नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक लड़ते रहे.
प्रकारांतर में यह आंदोलन बाज़ारवाद के ख़िलाफ़ भी खड़ा हो गया, जिसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी. ग्लोबलाइज़ेशन, कम्युनिस्ट लोगों की नज़र में वैश्विक दास प्रथा का ही नव फासीवादी संस्करण रहा है. ज़ाहिर है कि स्वैच्छिक ग़ुलामों का भारतीय मध्यम वर्ग किसानों के साथ नहीं खड़ा मिला, जबकि किसान उनकी लड़ाई भी लड़ रहे थे.
उपसंहार में इतना ही कहना काफ़ी है कि किसान आंदोलन के रास्ते भारत में एक बुर्जुआ क्रांति की शुरुआत हुई है, जिसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी कम्युनिस्ट लोगों की है. कोई भी जनक्रांति लोगों पर लादी नहीं जा सकती है, इसके लिए ज़मीन तैयार करनी पड़ती है. यह ज़मीन हमें ऐतिहासिक परिस्थितियाँ मुहैया करतीं हैं, और कोई नहीं.
जैसा कि मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि हम क़ानूनी तौर प्रशासनिक रास्तों से वह सब हासिल नहीं कर सकते जो दूसरे समाजों ने ऐतिहासिक प्रक्रिया से हासिल किया है. अगर यूरोप के समाज को अंधराष्ट्रवाद से निकलने के लिए दो विश्वयुद्धों से गुजरना पड़ा तो मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के दाग मिटाने के लिए किसान आंदोलन की ज़रूरत पड़ी.
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