जब सवाल मंदिर आंदोलन का सबसे ज्यादा नुकसान का हो तब तीन दलित चेहरों को जरूर याद कर ले, क्योंकि संघ और भाजपा एक बार फिर उसी प्रकरण को मथुरा और काशी में दोहराने का घोषणा कर दिया है.
बाबरी मस्जिद का पहला गुम्बद तोड़ने वाला एक दलित बलबीर चांद था, जो आज मुफलिसी की जिन्दगी गुजार रहा है. जाति से चमार यह आदमी परिवार के साथ सड़क पर खड़ा था. कुछ मुसलमानों ने रहम करके इसकी आर्थिक मदद की. आज यह इस्लाम कबूल करके एक सामान्य जिन्दगी जीने की कोशिश कर रहा है. अतीत को याद करते हुए कहीं खो जाता है और तथाकथित हिन्दूवादी नेताओं को गरियाना शुरू कर देता है.
2002 के गुजरात दंगों का कुख्यात पोस्टर ब्याय भी अशोक मोची गुजरात का हीं एक दलित युवक है. वह भी जाति से चमार है. ऊना दलित उत्पीड़न के बाद वह जिग्नेश मेवाणी के साथ आ गया.
तीसरा उत्तर प्रदेश का कारसेवक सुरेश बघेल था. जाति से खटीक है. यह दलित युवक उस समय मात्र 23 साल का था. बाबरी मस्जिद गिराने के लिए इसी ने जान पर खेल कर जिलेटिन की छड़ें उपलब्ध करायी थी और हजारों दलित नौजवानों के साथ आडवाणी के साथ गिरफ्तारी दी. आज मायूसी से सूने आकाश की तरफ देखकर अतीत में खो जाता है और सहारनपुर हिंसा के हिन्दुत्त्व का क़हर याद करके अपनी पीठ सहलाने लगता है. पत्नी मायके में गुजारा कर रही है, बच्चों का भविष्य खराब हो गया.
आरएसएस के हिन्दुत्व का पताका अपने कंधों पर उठाकर जान हथेली पर लिये
हिमांशु कुमार, गांधीवादी चिंतक
छह दिसंबर को बाबा साहब का परिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाया जाता है. भारत के मनुवादियों ने इसी दिन को 1992 में बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए षड्यंत्रपूर्वक चुना और अब वे इसे शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं. यह सामाजिक समता के प्रतीक दिन को सांप्रदायिक नफरत के दिन से प्रतिस्थापित करने की सोची समझी योजना के तहत किया गया है.
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि भारत में सांप्रदायिकता दरअसल जातिवाद के कारण है. जब जातिवाद समाप्त होगा, तब हिंदुओं की मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति नफरत भी समाप्त हो जायेगी. भारत के ज्यादातर ईसाई और मुसलमान दलित हैं, जो समानता और सम्मान की तलाश में इन धर्मों में गये. भारत के ब्राह्मण इस बात को जानते हैं, इसलिए वे ईसाईयों और मुसलमानों से वैसी ही नफरत करते हैं, जैसी वह दलितों से करते हैं.
इस पूरे खेल को समझने के लिए यह समझना होगा कि आरएसएस और भाजपा दरअसल क्या है ? आरएसएस का निर्माण ब्राह्मणों ने किया था. आज भी इसमें ऊंचे पदों पर ब्राह्मण, ठाकुर और बनिए हैं. भारत का परंपरागत सामाजिक और आर्थिक ढांचा इस तरह का बना हुआ था, जिसमें मेहनतकश समुदायों को शूद्र और मेहनत ना करने वाले लोगों ने खुद को ऊंचा घोषित कर दिया था.
इतना ही नहीं, बल्कि इन मेहनतकश समुदायों को हजारों सालों तक गरीब भी रखा गया था. यह आर्थिक अन्याय था. मेहनत कोई और करते थे, लेकिन लाभ दूसरा समुदाय लूटता था. यह आर्थिक लूट सामाजिक असमानता की नींव पर खड़ी की गई थी. इस शोषण और लूट को धर्म के नाम पर चलाया जा रहा था.
लेकिन जब भारत में आज़ादी की लड़ाई शुरू हुई और उसमें आदिवासियों, दलितों, किसानों और महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू किया, इसी के साथ-साथ पूना में ब्राह्मणों के गढ़ में ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले महिलाओं और शूद्रों की शिक्षा का काम शुरू किया, तो पितृसत्तावादी और जातिवादी शोषक सवर्ण वर्ग घबरा गया.
1925 में आरएसएस का गठन करते हुए पहले सरसंघसंचालक हेडगेवार ने कहा था कि शूद्रों और मलेच्छों से हिंदू धर्म को मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए हमने इस संगठन का निर्माण किया है.
जो वर्ग और वर्ण बिना मेहनत किये सारी संपत्ति और सम्मान पर कब्ज़ा जमाये बैठा था, वह आज़ादी की लड़ाई में दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के योगदान को अपनी परंपरागत वर्चस्व के लिए चुनौती मानता था. इस प्रभु वर्ग को अहसास हो गया था कि भारत की आज़ादी के साथ साथ हमारी सदियों से चले आ रहे विशेषाधिकार खत्म हो जायेंगे इसलिए इन आरएसएस वालों ने आज़ादी की लड़ाई का विरोध किया और कहा कि हमारे दुश्मन अंग्रेज नहीं, बल्कि मुसलमान ईसाई और बराबरी की बात करने वाले कम्युनिस्ट हैं.
गांधी की अगुवाई में चलने वाले राष्ट्रीय आंदोलन में सवर्ण हिंदुओं का एक तबका इस जातिवादी व्यवस्था को बदलने के लिए तैयार हो रहा था, जिसे आज भी आरएसएस गद्दार और सेक्युलर कह नफरत करता है. गांधीजी की हत्या भी उनके छुआछूत का विरोध शुरू करने के बाद से शुरू की गई.
1932 में बाबासाहब के साथ पूना पैक्ट करने के बाद जब गांधीजी ने घोषणा की कि अब मेरा बाकी का जीवन हिंदू धर्म में फ़ैली हुई छुआछूत मिटाने में लगेगा, उसके बाद 1934 में पहली बार आरएसएस ने गांधीजी की हत्या की कोशिश की. कुल पांच बार आरएसएस ने गांधीजी की हत्या की कोशिश की, जिसमें आखिरी प्रयास में वह सफल हुआ. हमें याद रखना चाहिए कि गांधी का हत्यारा एक जातिवादी सवर्ण ब्राह्मण था.
आरएसएस और हिंदू महासभा के नेतृत्वकर्ता सवर्णों ने सदियों से चले आ रहे अपने सामाजिक उच्च स्थिति और आर्थिक शोषण को बनाये रखने की जुगत लगानी शुरू कर दी. इन्होंने भारत की राजनीति को बराबरी तथा सामाजिक और आर्थिक न्याय की तरफ जाने से रोकने के लिए शूद्रों व अतिशूद्रों के मन में यह डालना शुरू किया कि हमें बराबरी या समानता जैसे वामपंथी विचारों से प्रभावित नहीं होना है, बल्कि हमें अपने पुराने गौरव की पुनर्स्थापना करनी है.
इसके लिए आरएसएस ने अतीत की झूठी कहानियां गढ़नी शुरू की तथा मुगलों और मुसलमान बादशाहों के जुल्मों की झूठी कहानियां फैलानी शुरू की. चूंकि आरएसएस और हिंदू महासभा देश में सांप्रदायिक एकता को कमज़ोर कर रहे थे और आज़ादी की लड़ाई का विरोध कर रहे थे, इसलिए अंग्रेज इनकी लगातार सहायता कर रहे थे.
अंग्रेज इतिहासकार जाँन स्टुअर्ट मिल ने इतिहास लिखा, जिसमें उसने भारत के इतिहास को तीन भागों में बांटने का शरारतपूर्ण काम किया. उसने लिखा कि भारत का इतिहास तीन कालखंडों में बंटा हुआ है– पहला है हिंदू काल, दूसरा मुस्लिम काल और तीसरा है ब्रिटिश काल. जबकि सच्चाई यह है कि भारत के इतिहास में कोई काल हिंदू काल नहीं है. भारत में जैन राजा रहे हैं, बौद्ध शासक रहे हैं, जिन्हें हिंदू कहना असल में आरएसएस के हिंदुत्व के विचार को मजबूत करने का प्रयास है.
अब तक कई ऐसे तथ्य सार्वजनिक हुए हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि भारत की राजनीति को बराबरी की ओर जाने से रोकने के लिए आरएसएस ने जो हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना का नारा दिया, उसे अमलीजामा पहनाने के लिए आज़ादी मिलने के एक साल के भीतर आरएसएस ने बाबरी मस्जिद के ताले तोड़कर रात में चोरी से मूर्तियां रख दी, यह कोई छिपी बात नहीं है. इसे आनंद पटवर्द्धन की फिल्म ‘राम के नाम’ (1992) में देखा जा सकता है.
मस्जिद में मूर्तियां रखने के बाद आरएसएस ने प्रचार करना शुरू किया कि मुसलमानों ने हमारे रामजी का जन्म स्थान तोड़ दिया था और अब यह लोग वहां हमें मंदिर नहीं बनाने दे रहे हैं जबकि यह पूरी तरह झूठा प्रचार था. असल में तुलसीदास के अवधी भाषा में रामचरित मानस लिखने के बाद राम का चरित्र आम लोगों में मशहूर हुआ, उससे पहले राम का कोई मंदिर नहीं था.
तुलसीदास के बाद अयोध्या में चार सौ मंदिर बने, जिनमें बैठे हर पुजारी का दावा है कि हमारा मंदिर ही राम की असली जन्मस्थली है. लेकिन आरएसएस ने धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए मस्जिद को ही राम की जन्मस्थली घोषित कर दिया. यहां एक मज़ेदार तथ्य यह है कि तुलसीदास अकबर के समय में हुए, मंदिर अकबर के समय में बने, बाबर अकबर का दादा था, बाबर के समय तक अयोध्या में मंदिर बने ही नहीं थे.
मंदिर बने पोते के शासनकाल में, लेकिन तोड़ दिया दादा ने ! यह है आरएसएस का इतिहास बोध, जिसके आधार पर इन्होनें करोड़ों हिंदुओं को बेवकूफ बनाया और राम मंदिर आंदोलन के सहारे भारत की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है. पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाकर मंदिर का शिलान्यास किया और यह संदेश देने की कोशिश की कि यह हिंदुओं की बहुत बड़ी जीत है.
अब सवाल उठता है कि इस मंदिर आंदोलन का नुकसान किस-किस को हुआ है ? इस मंदिर आंदोलन का सबसे ज्यादा नुकसान दलित जातियों और ओबीसी को हुआ है. मंदिर आंदोलन में चंदा खाने में भले ही सवर्ण आगे रहे हों और आगे भी मंदिर की कमाई ब्राह्मणों को ही मिलेगी, पर मंदिर आंदोलन में मरने वाले दलित और ओबीसी बड़ी संख्या में हैं. इसी तरह मुसलमानों के खिलाफ गुजरात दंगों में जेल जाने वालों में दलित और ओबीसी ज्यादा हैं, जबकि ब्राह्मण व अन्य सवर्णों की संख्या नगण्य है.
मंदिर के शोर की आड़ में आरक्षण पर हमला किया गया. सवर्णों के लिए भी आरक्षण लागू किया गया. ओबीसी आरक्षण में लगातार कटौती और उसे छीनने के समाचार आते रहते हैं. इसके अलावा सरकारी कंपनियों को प्राइवेट करके भी आरक्षण पर हमला किया गया है, क्योंकि किसी कम्पनी के प्राइवेट हो जाने पर वहां आरक्षण की बाध्यता खत्म हो जाती है.
इसके साथ-साथ मजदूरों के न्यूनतम वेतन, काम के घंटे में बढ़ोत्तरी, नौकरी से निकाले जाने के कानून भी बदले गए, जिसका फायदा पूंजीपतियों को हुआ और मजदूरों के अधिकार खत्म हो गये. हकीकत यह है कि निम्न श्रेणी के मजदूरों की जातिवार गणना की जाय तो वहां दलित और ओबीसी जातियां ज्यादा पायी जायेंगी. इस तरह सरकार ने मंदिर के शोर में दलितों और ओबीसी को जोरदार चोट दी.
आरएसएस ने मंदिर के बहाने से दलितों और ओबीसी को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा कर दिया, जिसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि बहुजन की अवधारणा आज तक साकार नहीं हो पाई है. भारत में सवर्ण 15 प्रतिशत तथा शेष 85 फीसदी दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यक हैं. आरएसएस ने मंदिर के बहाने इस 85 फीसदी को आपस में लड़वा दिया है और अपना राज पक्का कर लिया है.
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