‘राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ द्वारा साल 2020 के लिए जारी नई रिपोर्ट में भारत में आत्महत्या के संबंध में जो तथ्य सामने आए हैं, वे आजकल अख़बारों, टी.वी. चैनलों, पत्रिकाओं, सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बने हुए हैं. कोरोना के नाम पर भारत सरकार द्वारा पहले थोपे गए लॉकडाउन और फिर तरह-तरह की आंशिक पाबंदियों को जब पूरे देश में मूक और सरगर्म समर्थन मिल रहा था, तब ही ‘मुक्ति संग्राम’ में प्रकाशित कई लेखों में यह आशंका जताई गई थी कि इन नीतियों के आम लोगों के लिए भयंकर परिणाम निकलेंगे.
न सिर्फ़ आर्थिक तौर पर ही महंगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी के रूप में ही लोगों ने इन नीतियों को अपने पर झेला, बल्कि इन नीतियों से लोगों की मानसिक हालत पर भी बहुत बुरे असर देखने को मिल रहे हैं. ‘राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ की ताज़ा रिपोर्ट की रोशनी में यह उजाले की तरह साफ़ है कि कोरोना काल में सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों का मूल्य लोगों के विशाल समूह ने अपने ख़ून से उतारा है और उतार रही है.
रिपोर्ट में आत्महत्याओं संबंधी दिए गए तथ्यों पर बातचीत करने से पहले यह बात करनी ज़रूरी है कि कोरोना काल में अपनाई गई नीतियों के कारण बेशक आत्महत्याओं में बढ़ोतरी दर्ज की गई, परंतु इन आत्महत्याओं की जड़ सिर्फ़ कोरोना काल की नीतियों में ही नहीं बल्कि निजी मिलकियत पर टिके इस समूचे पूंजीवादी ढांचे में तलाशने की ज़रूरत है.
‘राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो’ की रिपोर्ट में आत्महत्याएं करने वालों को 9 वर्गों में बांटा गया है, दिहाड़ीदार मज़दूर, कृषि-क्षेत्र में लगे लोग, पेशेवर/ तनख़्वाहदार मुलाजिम, विद्यार्थी, स्वरोज़गार प्राप्त लोग, घरेलू कामकाज सँभालने वाली औरतें, सेवा मुक्त लोग आदि.
रिपोर्ट के अनुसार, साल 2019 के मुक़ाबले 2020 में कुल आत्महत्याओं में 10% बढ़ोतरी हुई और इससे 2020 में आत्महत्याओं का कुल आंकड़ा 1,53,052 बनता है. भारत में एक साल के अंतराल में किसी भी और साल के मुक़ाबले अधिक आत्महत्याएं हुई हैं. इससे आत्महत्याओं की दर में भी तेज़ बढ़ोतरी दर्ज हुई.
2019 में जहां यह दर प्रति लाख जनसंख्या पर 10.4 आत्महत्याएं थीं, वहां 2020 में 11.3 प्रति लाख हो गई है. सबसे अधिक तेज़ी से विद्यार्थियों में ख़ुदख़ुशियां बढ़ी हैं. विद्यार्थियों द्वारा की गई ख़ुदख़ुशियों में वर्ष 2019 की तुलना में 2020 में 21.20% की बढ़ोतरी दर्ज की गई.
रिपोर्ट के अनुसार, कुल आत्महत्याओं में दिहाड़ी मज़दूरों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है. 2020 में 37,666 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की, जो कुल आत्महत्याओं का 24.6% है. याद रहे कि 2014 में कुल आत्महत्याओं में दिहाड़ी मज़दूरों की हिस्सेदारी 12% थी, जो कि मोदी सरकार के 6 साल के कार्यकाल के दौरान 24% से अधिक हो गई है. यह आंकड़ा वास्तव में मज़दूरों के प्रति सरकार की उदासीनता को दर्शाता है.
आम तौर पर मोदी सरकार की नीतियां और कोरोना काल में अपनाई गई नीतियों के कष्ट सबसे अधिक मज़दूरों को ही झेलने पड़े हैं और पड़ रहे हैं. पिछले साल जब कोरोना की वजह से सभी काम बंद थे, मज़दूर भूखे रहने पर मजबूर थे, प्रवासी मज़दूर दोपहर की धूप और भूख से सड़कों पर तड़प रहे थे, तो मोदी और राज्य सरकारें ए.सी. कमरों में बैठकर उन्हें सुरक्षित रहने की सलाह दे रही थीं तो दूसरी तरफ़ मज़दूर विरोधी क़ानूनों का मसौदा तैयार किया जा रहा था.
पूंजीवादी व्यवस्था के कार्यों और सरकारों के रवैये को देखते हुए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछले साल देश में 37,000 से अधिक दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की. दिहाड़ीदार मज़दूरों को छोड़कर कुल आत्महत्याओं का सबसे बड़ा हिस्सा घरेलू औरतों (14.6%), स्वरोज़गार प्राप्त लोगों (11.3%) और बेरोज़गारों (10.2%) का बनता है.
खेतीबाड़ी में लगे लोगों में से पिछले साल 10,677 लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें से 5579 किसान थे और 5098 खेत मज़दूर थे. यदि इन खेतिहर मज़दूरों की संख्या को दिहाड़ीदारों की संख्या में जोड़ दिया जाए, तो मज़दूरों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या कुल आत्महत्याओं के एक चौथाई से अधिक हो जाएगी.
जहां कोरोना काल में अंबानी और अडानी जैसे मुट्ठी-भर पूंजीपतियों की दौलत बड़े पैमाने पर बढ़ी, वहीं कई छोटे कारोबार नष्ट हो गए और 2020 में बिगड़ती आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण 11,000 से अधिक व्यापार और कारोबार वालों ने आत्महत्या कर ली. इस श्रेणी में आत्महत्याओं में सबसे तेज़ वृद्धि व्यापारियों में देखी गई है.
2019 की तुलना में 2020 में व्यापारियों द्वारा आत्महत्या में 50% से अधिक की बढ़ोतरी दर्ज हुई है. कोरोना काल से पहले भी छोटे व्यवसाय और मध्यम वर्ग की हालत लगातार पतली होती जा रही थी, लेकिन कोरोना काल के दौरान पिछले कई दशकों में पहले कभी न देखी गई गति से छोटे कारोबार ख़त्म हुए और खाते-पीते मध्यम वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी बिगड़ती गई.
आत्महत्याएं करने वालों में बड़ा हिस्सा 18-45 आयु वर्ग के लोगों का बनता है और 2020 में इस आयु वर्ग के कुल 1,00,716 लोगों ने आत्महत्या की. यह वर्ष 2020 के कुल आंकड़े का 65% से अधिक है. यह दुखद है कि किसी भी उम्र के लोग आत्महत्या करते हैं, लेकिन यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि सबसे अधिक आत्महत्याएं समाज के सबसे ऊर्जावान और उत्पादक तबके में होती है और यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह मौजूदा व्यवस्थान सिर्फ़ मानवीय मूल्यों पर खरा नहीं उतरता है, बल्कि अपने स्वयं के मानकों (सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, आदि) से भी दूर है.
‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ की रिपोर्ट में भी आत्महत्या के विभिन्न कारणों को समझने की कोशिश की गई है. रिपोर्ट लगभग 15 अलग-अलग कारणों की पहचान करती है, जिनके कारण अलग-अलग मामलों में आत्महत्याएं हुई हैं. पहचाने गए कुछ कारणों में पारिवारिक समस्याएं, बीमारी, नशा/शराब, क़र्ज़, बेरोज़गारी, ग़रीबी, व्यवसाय की समस्याएं, संपत्ति विवाद, सामाजिक स्थिति की हानि आदि शामिल हैं.
रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से पारिवारिक समस्याओं में सबसे अधिक आत्महत्याएं हुईं, जो सभी आत्महत्याओं का 33.6% है. बीमारी (18%) और नशा (6%) आत्महत्या के अगले प्रमुख कारण हैं.
जब आत्महत्या की बात आती है, तो कुछ लोग इसे किसी व्यक्ति की दिमाग़ी जैविक संरचना के नतीजे के तौर पेश करने लगते हैं, लेकिन जैविक रूप से, मानव मस्तिष्क की संरचना में लंबे समय से (कम-से-कम कई हज़ार साल) कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है, लेकिन आत्महत्याओं में तेज़ी से वृद्धि दुनिया में पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार से जुड़ी एक हालिया घटना है. इसलिए आत्महत्या की यह व्याख्या ठीक नहीं है.
दूसरा, कुछ लोग इस घटना को आधुनिकता के प्रसार से जोड़ते हैं, लेकिन यह इस घटना की सटीक व्याख्या नहीं है. क्योंकि समाजवादी रूस (रूस 1956 तक एक समाजवादी देश था) कई पश्चिमी यूरोपीय देशों की तुलना में अधिक आधुनिक हो गया था, इसके बावजूद यहां आत्महत्याएं नाममात्र ही हुईं, जबकि पश्चिमी यूरोप और कई पिछड़े पूंजीवादी देशों में यह संख्या बहुत अधिक थी.
आत्महत्याओं के संबंध में एक और मत यह है कि आत्महत्या का कारण शुद्ध रूप से आर्थिक है और इस व्यवस्था में असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी, बढ़ता क़र्ज़ लोगों को आत्महत्या की ओर धकेलता है. बेशक यह व्याख्या इस मायने में सही है कि यह मौजूदा बाहरी परिस्थितियों से इस घटना की व्याख्या करती है, लेकिन यह भी इस घटना की सटीक व्याख्या नहीं करती.
वास्तव में, आत्महत्याओं का मूल कारण संपूर्ण पूंजीवादी ढांचा है, जिसमें आर्थिक प्रबंधन (सामाजिक उत्पादन और निजी संपत्ति पर आधारित) और उस पर बने सामाजिक संबंधों का कुल जोड़ होता है. इस प्रणाली में लाज़िमी ही आर्थिक कठिनाइयों के अलावा, राजनीतिक और सामाजिक उत्पीड़न सबसे अधिक विशाल मेहनतकश जनता का होता है और कुल आत्महत्याएं आबादी के इस हिस्से में अधिक होती हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मध्यम वर्ग, अन्य उच्च वर्गों के लोग आत्महत्या नहीं करते.
भारत की आत्महत्या की राजधानी के रूप में जाने जाने वाले कोटा में आमतौर पर मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के छात्र आते हैं और हर साल कई छात्र वहां आत्महत्या करते हैं. पूंजीवादी संबंधों में बेगानापन (मनुष्य की श्रम से बेगानगी, मनुष्य की प्रकृति से बेगानगी, मनुष्य की ख़ुद से बेगानगी और मनुष्य की मनुष्य से बेगानगी) ही मानसिक बीमारी और आत्महत्या की जड़ है.
यह सच है कि हाल के दिनों में लोगों की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण आत्महत्याएं बढ़ी हैं, लेकिन इसका समाधान लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार करना ही नहीं, बल्कि पूरे पूंजीवादी समाज को बदलना भी है. लाज़िमी तौर पर, भाजपा सरकार ऐसी नीतियां लागू कर रही है जिनके कारण हाल के दिनों में आत्महत्याओं में बढ़ोतरी हुई है.
लेकिन इससे भी ज़्यादा सत्तारूढ़ आरएसएस-बीजेपी जो कर रही है, वो है मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था का बचाव, ऐसी व्यवस्था जो आत्महत्याओं और अन्य मानसिक समस्याओं की उपजाऊ जन्मभूमि है. इस समस्या का पुख्ता हल पूंजीवादी ढांचे की तबाही से ही शुरू करके संभव है.
- नवजोत, पटियाला (मुक्ति संग्राम)
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