पूर्वोत्तर के छोटे से राज्य त्रिपुरा के शहरी निकायों के चुनाव के दौरान जिस बड़े पैमाने पर मारपीट, धमकी, घरों में तोड़फोड़, आगजनी, विपक्ष को नामांकन करने से रोकने, जबरन पर्चे वापस कराने, वोट देने से रोकने और फर्जी मतदान की वारदातें हुईं, वे लोकतंत्र के हित में नहीं है बल्कि सत्ता और संगठन के जोर पर लोकतांत्रिक मर्यादाओं की खिल्ली उड़ाना है.
इससे भी ज्यादा शर्मनाक है विपक्षी दलों में नंबर दो पर होने को ‘हासिल’ मान लेना. जिस चुनाव में लगभग 99 फीसद सीटों पर सत्ताधारी कब्जा करने में सफल हो जाए, उस पर चिंता जताने की जगह नंबर दो पर आने खुशफहमी एक विसंगति के अलावा कुछ और नहीं.
गौरतलब है कि चुनाव के दिन हिंसा, धमकी, फर्जी मतदान आदि का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट से शहरी निकायों के चुनाव स्थगित कर उन पर नए सिरे से मतदान कराने की माँग करने वाली तृणमूल कांग्रेस के नेता अब मीडिया को यह बता रहे हैं कि महज दो-तीन महीने में हमारी पार्टी नंबर दो पर आ गई है. और यह भी कि 2023 में वही त्रिपुरा में सरकार बनायेगी.
हालांकि चौतीस फीसद सीटों पर विपक्षी उम्मीदवारों को पर्चा भरने ही नहीं दिया गया था. 334 में से 112 पर निर्विरोध जीत दर्ज करा चुकी थी भाजपा. बाकी 222 सीटों पर चुनाव हुआ, जिसे माकपा, तृणमूल समेत सभी विरोधी दलों ने प्रहसन बताया. इन सीटों में तीन पर माकपा, एक पर तृणमूल और एक पर त्रिपुरा माथा को विजय हासिल हुई है.
मगर विडंबना यह कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, जो पहले से ही टीएमसी को मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित करने में लगा हुआ है, अब बता रहा है कि वह इतनी जगहों पर नंबर दो पर है और उसने वाम को तीसरे स्थान पर धकेल दिया है. मगर तथ्य तो तीन सीट वाले को ही दूसरे स्थान पर रखता है. वैसे, वाम के लिए यह चिंता की बात होनी ही चाहिए. उनके आरोप के मुताबिक तृणमूल विपक्षी वोटों को बाँटकर भाजपा को मदद पहुंचा रही है तो उसके प्रति वोटरों को सावधान करने का दायित्व भी उसी के कंधे है. कांग्रेस को भी जमीनी हकीकत पर गौर फरमाना चाहिए.
इसी तरह उत्साह दिखाने की कोशिश करने वाले तृणमूल नेताओं को भी शहरी निकाय और विधासभा के चुनाव के फर्क को जेहन में रखना चाहिए. विधानसभा में फिलवक्त उसके एक भी विधायक नहीं है. पिछले विधानसभा चुनाव में एक फीसद से भी कम वोट मिले थे. सोलह सीटों के साथ वाम ही मुख्य विपक्ष है. सत्ता से बाहर होने के बाद वाम नेताओं, उनके समर्थकों को ही हिंसा का शिकार ज्यादा होना पड़ा है. सही है कि इधर तृणमूल समर्थकों को भी हिंसा का शिकार होना पड़ा है.
बहरहाल, चुनाव आयोग से जारी सूचनाओं के मुताबिक अगरतला नगर निगम समेत शहरी निकायों के जिन 222 वार्डों में मतदान हुए, उनमें पांच को छोड़ सभी भाजपा के पक्ष में गए. वोटों के फीसद के हिसाब से 59.01फीसद वोट भाजपा को मिले. माकपा को 19.65 तृणमूल कांग्रेस को 16.39 और कांग्रेस को 2.07 फीसद वोट मिले.
अगरतला और अन्य दो निकायों में तृणमूल जरूर दूसरे स्थान पर रही है. अगरतला में उसे 20.14, वाममोर्चे को 17.98 फीसद और कांग्रेस को 1.08 फीसद वोट मिले हैं. भाजपा को सभी 51 सीटें और 57.39 फीसद वोट मिले हैं. समग्र रूप से देखें तो वाम मोर्चा 149, तृणमूल 56 और कांग्रेस सात सीटों पर दूसरे नंबर पर रही है.
माकपा के राज्य सचिव जितेंद्र चौधरी ने इस मुद्दे पर कहा है कि जिस चुनाव को प्रहसन कहा गया, उसे टलवाने के लिए सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया गया. उसके नतीजे को लेकर नंबर दो, तीन की चर्चा बेमानी है. चौधरी के मुताबिक तृणमूल को जो वोट मिले हैं, उसमें भाजपा के दो असंतुष्ट विधायकों की बड़ी भूमिका रही है. तृणमूल ऐसे ही नेताओं के सहारे त्रिपुरा दखल करने का ख़्वाब देख रही है.
जो हो, तृणमूल उत्साह में है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, जो दल के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं, को 2023 का बेसब्री से इंतजार है. शहरी निकायों के नतीजे आने के बाद कहा है- ‘अब होगा असली खेला.’ शारदा ग्रूप के पूर्व मीडिया प्रमुख कुणाल घोष को और तृणमूल से भाजपा में गए और फिर तृणमूल में लौट आए बंगाल के पूर्व मंत्री राजीव बनर्जी को भी ऐसा ही लगता है.
राजनीतिक प्रेक्षकों की माने तो तृणमूल बंगाल में भाजपा के खेल को त्रिपुरा में दोहराना चाहती है. उसी के तर्ज पर बंगाल के नेता त्रिपुरा में दौर कर रहे हैं. लालच के सहारे दूसरे दलों में तोड़फोड़ या सेंध लगाने की कोशिशों में हैं. त्रिपुरा में भाजपा को खड़ा करने में संघ के अलावा कांग्रेस और तृणमूल के पूर्व नेताओं की भी भूमिका रही है. मेघालय, गोवा जैसा खेल त्रिपुरा में भी हो सकता है.
वामदल सामने चुनौतियों का कैसे मुकाबला करते हैं और कांग्रेस का क्या रोल रहता है, यह देखने वाली बात होगी लेकिन इस शहरी निकाय के चुनाव में जो घटित हुआ, उससे लोकतंत्र की खिल्ली ही उड़ी है.
- शैलेन्द्र शांत
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