नरेंद्र मोदी जी चूंकि 18-18 घंटे मेहनत करते हैं इसलिए गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य या कोई भी क्षेत्र हो, आंकड़े गायब कर दे रहे हैं. उनकी सरकार से आज तक जो भी आंकड़े पूछे गए, वे कह देते हैं कि हमारे पास नहीं है. इनकी इस विध्वंसक मेहनत का नतीजा है कि अप्रैल 2020 से अप्रैल 2021 के बीच 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए. जनता को देने के लिए इस सरकार के पास झूठे भाषण और प्रचार हैं जिन पर जनता के ही अरबों-खरबों फूंके जा रहे हैं. जनता को उन्हें सिखाना पड़ेगा कि सरकार का काम क्या है ?
आंदोलन में कितने किसान मारे गए ? सरकार ने कहा, डेटा नहीं है. नोटबंदी का डेटा गायब. बेरोजगारी का डेटा गायब. मजदूरों ने पलायन किया, डेटा गायब, कोरोना से कितने मरे, डेटा गायब. एमएसएमई रोजगार गए, डेटा गायब. कितना विध्वंस किया, डेटा गायब. क्या बनाया, उसका भी डेटा गायब. कितना बेचा, उसका भी गायब.
जिस सरकार के पास किसी चीज का आंकड़ा ही नहीं होता, वह नीतियां कैसे बनाती होगी ? जब आपको पता ही नहीं है कि देश में कितने लोग भुखमरी का शिकार हैं तो प्लान कैसे बनेगा ?
देश की इकोनॉमी, उद्योग, व्यापार सब ऐसे ही नहीं डूबे हैं, कड़ी मेहनत की जा रही है. इस सरकार को इतना तक नहीं पता होता कि इनकी नाक अब भी चेहरे पर लगी है, या कट गई. हमारे यहां अवधी में कहते हैं कि ‘नकटे की नाक कटी, अढ़ाई बित्ता रोज बढ़ी’. इनका भी यही हाल है। सवेरे सदन में नाक कटाते हैं, शाम तक ढाई बित्ता बढ़ ही जाती है.
यह सरकार खुद को शर्मिंदा करने और अपने को असंवेदनशील, क्रूर, कातिल और नाकाबिल दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ती. संसद में मंत्री महोदय बता रहे हैं कि आंदोलन में किसान मारे गए हैं कि नहीं, इसका उनके पास कोई रिकॉर्ड नहीं है. जब इस सरकार को अपनी छाती पर चल रहे एक आंदोलन के बारे में नहीं पता है, वहां मारे गए लोगों के बारे में नहीं पता है तो चीन पाकिस्तान की सीमाओं की क्या खबर होगी ? चीन ने अरुणाचल में ऐसे गांव नहीं बसाए हैं. इनको बस एक ही हुनर आता है, रैली में जहरीले भाषण दिलवा लो. इस मामले में सारे बड़े प्रतिभाशाली हैं – कृष्णकांत
रविश कुमार
शून्यता के आंकड़े: गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य …
कितने किसान मरे हैं, केंद्र सरकार को नहीं पता. संसद में इस सवाल पर दिए गए सरकार के जवाब बताते हैं कि सरकार नहीं जानने पर अड़ जाए तो उसे कोई नहीं बता सकता है. आखिर सरकार क्यों नहीं बता रही है कि किसान आंदोलन के दौरान कितने किसानों की मौत हुई है ? संसद के तीन तीन सत्रों में सांसद सवाल पूछ रहे हैं तो क्या वाकई सरकार के पास इतने दिनों में कोई आंकड़ा नहीं है ? यह सवाल बजट सत्र में भी पूछा गया था.
सांसद अदूर प्रकाश और वी. के. श्रीकन्दन ने आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों की संख्या को लेकर सवाल किया था. लोकसभा में 2 फरवरी, 2021 को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने इस सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया कि कितने किसान मरे हैं. इसकी जगह राज्य और केंद्र के अधिकारों का ब्यौरा जवाब में लिख दिया.
भारत के संविधान की 7वीं अनुसूचि के अनुसार पुलिस और लोक व्यवस्था राज्य के विषय हैं. कानून व्यवस्था बनाए रखने की जवाबदेही राज्य सरकारों की है. केंद्र सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से व्यक्तियों और संगठनों पर नज़र रखती है. जब ज़रूरत होती है, तब कार्रवाई करती है.
यह भी जवाब का हिस्सा है मगर उस सवाल का जवाब नहीं है कि किसान आंदोलन के दौरान कितने किसानों की मौत हुई है ? राज्यसभा सांसद संजय सिंह और के. सी. वेणुगोपाल सवाल करते हैं कि क्या सरकार को देश के विभिन्न राज्यों में आंदोलन कर रहे किसानों के मरने की जानकारी है ? यदि हां तो कितने किसानों की मौत हुई है, राज्य वार ब्यौरा दें.
इसका जवाब कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर देते हैं. जवाब की तारीख है 5 फरवरी, 2021 यानी नित्यानंद राय के जवाब के तीन दिन बाद का यह जवाब है. कृषि मंत्री कहते हैं कि ‘कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के पास कोई रिकार्ड नहीं है. गृह मंत्रालय ने बताया है कि देश के विभिन्न राज्यों में आंदोलनकारी किसानों की मौत से संबंधी कोई विशिष्ट सूचना नहीं है. हालांकि दिल्ली पुलिस ने सूचित किया है कि किसान आंदोलन के दौरान दो लोगों की मौत हुई है और एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली है.’
जिस गृह मंत्रालय ने तीन दिन पहले बताया है कि उसके पास कोई रिकार्ड नहीं है, तीन दिन बाद उसी गृह मंत्रालय से पूछ कर कृषि मंत्रालय बता रहा है कि किसान आंदोलन के दौरान दो लोगों की मौत हुई है और एक व्यक्ति ने आत्महत्या की है. इस जवाब में किसान शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. दोनों जवाब फरवरी के बजट सत्र के हैं. लेकिन यह बात रिकार्ड पर है कि फरवरी तक सरकार को जानकारी है कि किसान आंदोलन के दौरान तीन लोगों की मौत हुई है.
अब अगस्त में राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह, कुमार केतकर, राजमणि पटेल यही सवाल करते हैं कि क्या सरकार ने आंदोलन के दौरान हुई किसानों की मौत का रिकार्ड बनाया है ? इस बार भी गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ही जवाब देते हैं जिन्होंने फरवरी में जवाब दिया था. इस बार जवाब की तारीख 11 अगस्त, 2021 है.
‘भारत के संविधान की 7वीं अनुसूची के अनुसार पुलिस और लोक व्यवस्था राज्य के विषय हैं. इस तरह की कोई सूचना केंद्रीयकृत रूप से उपलब्ध नहीं है. तथापि, दिल्ली पुलिस ने आत्महत्या के कारण एक किसान की मौत होने की सूचना दी है.’
आपने अभी सुना कि कृषि मंत्री अपने जवाब में दिल्ली पुलिस के हवाले से कह रहे हैं कि तीन लोगों की मौत हुई है. और अब अगस्त में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय जवाब में लिख रहे हैं कि दिल्ली पुलिस ने एक किसान की आत्महत्या की ही सूचना दी है. अब संख्या तीन से एक पर आ गई. लेकिन अगस्त के जवाब में ‘किसान’ शब्द का इस्तेमाल है, फरवरी के जवाब में लोग है किसान नहीं है. क्या आपको पता चला कि जवाब देने के मामले में सरकार संसद में पूछे गए सवालों के जवाब को लेकर कितनी गंभीर है? अभी हमारी बात खत्म नहीं हुई है.
इस शीतकालीन सत्र में भी सवाल उठा है कि किसान आंदोलन के दौरान कितने किसानों की मौत हुई है ? लोकसभा में एक नहीं बल्कि आठ सांसदों ने यह सवाल किया है. इसमें सरकार की सहयोगी पार्टी के सांसद राजीव रंजन सिंह भी हैं. कई सवालों में आखिरी के दो सवाल हैं कि किसान आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों की संख्या का ब्यौरा दें और बताएं कि क्या उन्हें मुआवज़ा दिया जाएगा ? तो जवाब में कृषि मंत्री कहते हैं –
‘इस मामले में कृषि मंत्रालय के पास कोई रिकार्ड नहीं है और इसलिए मुआवज़े का प्रश्न ही नहीं उठता है.’
हमने किसान आंदोलन के दौरान संसद में पूछे गए चार प्रश्नों और चार जवाबों को दिखाया. बताया कि दो जवाब में सरकार बता रही है कि कितने लोगों की मौत हुई है. एक जवाब में कहती है कि तीन लोगों की मौत हुई है और एक जवाब में कहती है कि एक किसान ने आत्महत्या की है. लेकिन अब जब संयुक्त किसान मोर्चा पूरी सूची के साथ मुस्तैद है कि 700 किसानों की मौत हुई है, उनके परिवारों को मुआवज़ा मिलना चाहिए. एक साल बाद सरकार कहती है कि उसके पास इसका कोई रिकार्ड नहीं है, इसलिए मुआवज़े का सवाल नहीं उठता.
यह बात सही है. पंजाब ने मरने वाले किसानों के परिजनों को मुआवज़ा दिया है और नौकरी भी दी है. करनाल में पुलिस से टकराव के बाद किसान सुशील काजल की मौत हो गई थी, जिसे लेकर किसानों ने करनाल मुख्यालय को घेर लिया था. तब सरकार ने मुआवज़ा और नौकरी देने की मांग मान ली थी. क्या ये आंकड़े लेकर भी सदन में सांसदों को नहीं दिए जा सकते थे ?
इन आंकड़ों के होते हुए सरकार कैसे कह सकती है कि उसके पास इस बात के कोई रिकार्ड नहीं है कि कितने किसान मरे हैं ? अगर रिकार्ड रखना राज्य का काम है तो राज्य से पूछ कर बताया जा सकता था, ठीक उसी तरह से जैसे राज्यों के हवाले से संसद में सरकार ने कह दिया था कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की कमी से किसी की मौत नहीं हुई है.
सबने उस दौर में देखा था और अस्पतालों ने चीख-चीख कर कहा था कि ऑक्सीजन की सप्लाई खत्म हो रही है, सरकार ऑक्सीजन एक्सप्रेस चला रही थी, कई जगहों से ऑक्सीजन की कमी से लोगों के मरने की खबरें आई थी. डाक्टर तक मरे थे लेकिन राज्यों से पूछ कर केंद्र ने संसद में कह दिया कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा.
राज्यसभा में कांग्रेस सांसद के. सी. वेणुगोपाल ने एक सवाल किया था कि क्या यह सही है कि दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की कमी के कारण सड़क पर और अस्पताल में कई लोगों को मौत हो गई थी. इसके जवाब में 20 जुलाई को स्वास्थ्य राज्य मंत्री डॉ. भारती प्रवीण पवार कहती हैं कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है. दिशानिर्देशों के अनुसार सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को नियमित रिपोर्ट दी है. वैसे किसी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ने ऑक्सीजन की कमी से मौत का ब्यौरा नहीं दिया है.
लोकसभा सांसद के. रवींद्र कुमार ने एक सवाल पूछा था कि क्या सरकार ने आध्र प्रदेश के रुइया अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौत के मामले में कोई जांच की है ? 20 जुलाई, 2021 को राज्यसभा में जिस स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि राज्यों ने कहा है कि किसी की मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई है, वही स्वास्थ्य मंत्री 20 दिनों के बाद 10 अगस्त को लोकसभा में जवाब देती हैं.
स्वास्थ्य राज्य मंत्री डॉ भारती प्रवीण पवार कहती हैं कि आंध्र प्रदेश सरकार ने बताया है कि SVRR अस्पताल में वेंटिलेटर सपोर्ट पर कुछ मरीज़ों की मौत हुई है. ऑक्सीजन लाइन में दबाव कम हो गया था क्योंकि वेंटिलेटर सपोर्ट के मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन कम उपलब्ध था.
उसी तरह अपराध भी राज्यों के विषय हैं तो क्या केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय अपराध शाखा ब्यूरो हर साल रिपोर्ट तैयार कर देश को नहीं बताता है और उसके आधार पर सरकार संसद में जवाब नहीं देती है ? केंद्रीय मंत्री भी कह रहे हैं कि कैसे मौत के आंकड़े गृह मंत्रालय तक पहुंचते हैं. इनके जवाब के अनुसार गृह मंत्रालय के पास डेटा है तो फिर संसद में क्यों नहीं बताया जाता है.
ऐसा नहीं है कि सरकार के पास किसी चीज़ का रिकार्ड नहीं होता या पता नहीं होता. कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने एक सवाल किया है कि क्या सरकार को पता है कि आस्ट्रेलिया की संसद ने फरवरी में एक कानून बनाया है कि गूगल और फेसबुक को न्यूज़ का भुगतान करना होगा ? तो सरकार ने कहा कि पता है.
आस्ट्रेलिया में क्या हो रहा है इसका पता है, होना भी चाहिए लेकिन यह भी पता होना चाहिए कि किसान आंदोलन के दौरान कितने किसानों की मौत हुई है. किसानों की मौत के आंकड़े देते वक्त आप यह नहीं कह सकते कि कानून व्यवस्था राज्यों के विषय है. क्या राज्यों से पूछ कर सरकार ये जानकारी नहीं दे सकती है कि कितने किसान मरे हैं ?
सवालों की भाषा और जवाब की भाषा पर ग़ौर करने पर काफी कुछ जानने को मिलता है. देखना चाहिए कि क्या सरकार प्रश्न का सीधा जवाब देती है और उसकी जगह कुछ और लिख देती है. ? जवाब को टाला गया है या घुमा दिया गया है. मीडिया इन्हें आम तौर पर संक्षिप्त खबरों में निपटा देता है और न्यूज़ चैनलों में इन प्रश्नों और उत्तरों के लिए आज तक कोई फार्मेट नहीं बन सका जिससे जनता को बताया जा सके.
इन सवालों को देखेंगे तो पता चलेगा कि आपके सांसद कितनी मेहनत करते हैं. राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने उज्ज्वला को लेकर सवाल किया. आप इन सवालों पर ग़ौर करें और सरकार के जवाब पर भी. सवाल पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्री से पूछा गया है.
2021 में घरेलु एलपीजी सिलेंडडरों से सरकार को कुल कितना मासिक राजस्व अर्जित हुआ है ? 2021 में वाणिज्यिक एलपीजी सिलेंडरों से सरकार द्वारा अर्जित कुल मासिक राजस्व कितना है ?
प्रश्नकर्ता सांसद जानना चाहते हैं कि दोनों प्रकार के सिलेंडर की बिक्री से जो राजस्व मिला है उसकी राशि बताएं. लेकिन जवाब में राशि का ज़िक्र नहीं है. सरकार बताने लग जाती है कि कीमतें कैसे तय होती हैं. जीसएटी कितना लगता है. पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस राज्य मंत्री रामेश्वर तेली अपने जवाब में कहते हैं कि –
‘घरेलू और गैर-घरेलू एलपीजी सिलेंडरों से मिलने वाला राजस्व माह-दर-माह अलग होता है. क्यंकि मुद्राओं की विनिमय दर तथा अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में उत्पाद के मूल्यों के आधार पर तेल कंपनियों द्वारा खुदरा बिक्री मूल्यों को अधिसूचित किया जाता है. तथापि सरकार घलेलू एलपीजी पर पांच प्रतिशत जीएसटी और गैर घरेलू एलपीजी पर 18 प्रतिशत जीएसटी लेती है.’
मल्लिकार्जुन खड़गे एक और सवाल करते हैं. 2021 में उज्ज्वला योजना के अंतर्गत प्रत्येक एलपीजी सिलेंडर के लिए बैंक खातों में हस्तांरतित की गई सब्सिडी का माह-वार ब्यौरा क्या है ?
जवाब- घरेलू एलपीजी पर दी जाने वाली राज सहायता बाज़ार दर बाज़ार अलग होती है और गैर राज सहायता प्राप्त मूल्य पर रीफिल की खरीद करने पर लाभार्थी के बैंक खाते में लागू राज सहायता का सीधे अंतरण कर दिया जाता है. राज सहायता का भार सरकार वहन करती है.
क्या सरकार ने अपने जवाब में बताया कि हर महीने प्रत्येक सिलेंडर के हिसाब से खाते में कितनी सब्सिडी जाती है ? वो तो प्रश्नकर्ता को भी पता है कि सब्सिडी खाते में जाती है, तो सरकार क्यों बता रही है कि सब्सिडी का पैसा सीधे खाते में जाता है ? सवाल इस बात को लेकर था कि कितना पैसा गया है ? जवाब में इसका ज़िक्र नहीं है.
सरकार ने क्यों नहीं बताया कि कितनी राशि हर महीने बैंक खाते में जाती है ? जबकि 17 दिसंबर, 2018 को लोकसभा में सरकार ने एक सवाल के जवाब में पूरा ब्यौरा दिया है कि तेल निर्माता कंपनियों ने बताया है कि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों ने 22 करोड़ 91 लाख से अधिक सिलेंडर दोबारा भरवाए हैं. 2016-2019 के दौरान प्रति सिलेंडर औसत सब्सिडी का ब्यौरा दिया गया है. 2016-17 में प्रति सिलेंडर 108.78 रुपये राज सहायता दी गई. 2017-18 में प्रति सिलेंडर 173 रुपये 41 पैसे की राज सहायता दी गई. 2018-19 में प्रति सिलेंडर 219 रुपये 12 पैसे की राज सहायता दी गई.
इसका मतलब है कि सरकार एक समय बताती थी कि प्रति सिलेंडर कितनी सब्सिडी दी गई है. ये वो सवाल हैं जिसके बारे में मंत्री खुद से ट्वीट नहीं करते हैं. कभी मंत्री ट्वीट नहीं करेंगे कि उज्ज्वला योजना के तहत इतने लाख ग़रीब लाभार्थी अब सिलेंडर नहीं भरा रहे हैं. प्रथम तालाबंदी के समय सरकार ने घोषणा की थी कि उज्ज्वला योजना के लाभार्थी को तीन सिलेंडर मुफ्त दिए जाएंगे. अब इसे लेकर कांग्रेस सांसद रिपुन बोरा ने एक सवाल किया जिसका जवाब 29 नवंबर को सरकार ने राज्यसभा में दिया है.
रिपुन बोरा का सवाल था कि क्या सरकार को इस बात की जानकारी है कि एलपीजी की कीमतों में वृद्दि सीधे तौर पर घरेलू बजट को प्रभावित करने वाली है औऱ वह भी उस समय जब महामारी के दौर में नौकरी चले जाने या वेतन में कटौती होने के कारण अनेक लोगों का गुज़र-बसर मुश्किल हो रहा है ?
सरकार का जवाब है कि वर्ष 2020 में कोविड महामारी के दौरान मदद करने के लिए उज्ज्वला योजना के तहत अधिकतम तीन निशुल्क एलपीजी सिलेंडर उपलप्ध करवाए हैं और इस योजना के तहत उज्ज्वला उपभोक्ताओं ने 14.17 करोड़ नि:शुल्क एलपीजी सिलेंडरों का उपयोग किया है.
एक उपभोक्ता को फ्री में तीन सिलेंडर दिए जाने थे तो क्या फ्री सिलेंडरों की संख्या 24 करोड़ नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि सरकार कहती है कि उज्ज्वला योजना के तहत 8 करोड़ उपभोक्ता हैं. अगर सभी को मिले हैं तो राज्यसभा में 14 करोड़ क्यों बताया गया है ? दस करोड़ कम क्यों है ?
इस साल 12 अगस्त को जब उज्ज्वला योजना का दूसरा चरण लांच हुआ तो पत्र सूचना कार्यालय PIB की प्रेस रिलीज़ में बताया है कि केंद्र सरकार ने 8 करोड़ लाभार्थियों को तीन सिलेंडर मुफ्त में दिए. इस हिसाब से तो यह संख्या 24 करोड़ सिलेंडर की होती है लेकिन सरकार संसद में 14 करोड़ बताती है और प्रेस रिलीज़ में कुछ और बताती है.
सूचक पटेल के एक RTI के जवाब में पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने बताया है कि 1 करोड़ उज्ज्वला उपभोक्ताओं को मुफ्त में सभी तीन सिलेंडर दिए हैं. जबकि सरकार दावा करती है कि उज्ज्वला योजना के तहत 8 करोड़ उपभोक्ता हैं और सभी को तीन तीन सिलेंडर फ्री में दिए हैं. RTI के हिसाब से कुल लाभार्थियों के 12.5 प्रतिशत को ही फ्री के तीनों सिलेंडर मिले हैं.
इसलिए सवाल पूछना पड़ता है. तभी पता चलता है कि आठ करोड़ उपभोक्ताओं को 24 करोड़ सिलेंडर मिले हैं या नहीं ? अगर मिलें होंगे तो सरकार हर जगह एक तरह से ही जवाब देगी. उसके आंकड़ों में अंतर नहीं आना चाहिए. आपने देखा कि सरकार की प्रेस रिलीज़ में कुछ और जानकारी है, RTI में अलग जानकारी है और संसद में कुछ और.
क्या सरकार के मंत्री खुद से ट्वीट कर देंगे कि उज्ज्वला योजना की सब्सिडी मई 2020 से ज़ीरो हो गई है ? नहीं करेंगे. इस साल मार्च महीने में हिन्दू अखबार में विस्तार से एक रिपोर्ट छपी कि मई 2020 से उज्ज्वला की सब्सिडी ज़ीरो हो गई है. आज वाणिज्यिक सिलेंडर के दाम 100 रुपये बढ़ा दिए गए.
संसद में सवाल को लेकर एक और मामला है. कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा के सभापति को एक पत्र लिखकर हैरानी जताई है कि पांच सत्रों से मीडिया के कुछ ही संगठन को सदन के भीतर प्रेस गैलरी में आने दिया जा रहा है. वरिष्ठ पत्रकारों को सेंट्रल हॉल में जाने से रोक दिया गया है. ये वो जगह है कि जहां पत्रकार सांसदों और मंत्रियों से ऑफ रिकार्ड चर्चाएं किया करते हैं. संसद सत्र के दौरान सांसदों को सदन के भीतर और पत्रकारों को सदन के बाहर सवाल पूछने का मौका मिलता है.
प्रधानमंत्री ने सात साल में एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. गीतकार और फिल्म कलाकार को इंटरव्यू दिया है लेकिन इस तरह से नहीं जैसे विपक्ष के सांसद प्रेस के सामने आते हैं. बेशक प्रधानमंत्री इस तरह से प्रेस कांफ्रेंस नहीं कर सकते लेकिन प्रेस कांफ्रेंस तो कर ही सकते हैं. भले व्यवस्था दूसरी हो.
जिस नेता को पप्पू कहा गया वह इतने पत्रकारों के बीच सवालों के लिए मौजूद है, जिस नेता को मज़बूत कहा गया उनके प्रेस कांफ्रेंस का सात साल से इंतज़ार ही हो रहा है. आखिर विपक्ष में रहते हुए ही नेता प्रेस के लिए इतने उपलब्ध क्यों होते हैं ? सैकड़ों कैमरे से घिरे रहते हैं और सत्ता में जाते ही सवाल से बचने लगते हैं ?
भव्यता के आंकड़े : लाभार्थी और रोज़गार
अगर संसद में सभी सदस्य पूर्ववत आ रहे हैं तो प्रेस के साथियों को भी पहले की संख्या के हिसाब से आने की अनुमति मिलनी चाहिए. ताकि सवालों का सिलसिला जारी रहे और हम देख सकें कि कौन बच के सवाल पूछ रहा है और कौन बच के जवाब दे रहा है. आप प्राइम टाइम के दर्शक हैं. आपका सवालों से बचना मुश्किल है.
इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट विकास का पुराना चेहरा है लेकिन इसे भव्य बनाकर नया किया जा रहा है. भव्यता को सजाने में रोज़गार के दावों का बड़ा रोल रहता है. प्रोजेक्ट की मंज़ूरी से लेकर शिलान्यास तक रोज़गार को लेकर जिस तरह की ख़बरें छपती हैं और दावे किए जाते हैं उसकी विकास यात्रा पर ग़ौर करना दिलचस्प होगा.
लाभार्थी और रोज़गार इन दो विषयों पर हमारा फोकस रहेगा. लाभार्थी एक नई सरकारी श्रेणी है जिसे सरकारी समारोहों को भव्य बनाने के लिए बसों से बुलवाया जाता है. अगर आप किसी योजना के लाभार्थी हैं तो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के कर-कमलों द्वारा होने वाले शिलान्यास या उदघाटन के कार्यक्रम में जाने के लिए तैयार रहें. अच्छी बात है कि पैदल नहीं जाना होगा, बस आएगी.
लाभार्थी के अलावा रोज़गार को लेकर किए जा रहे दावों पर भी हमारा फोकस रहेगा. ध्यान रहे कि ये दावे केवल सरकार के मंत्री और अधिकारी की तरफ से नहीं किए जाते बल्कि मीडिया भी अपनी तरफ से कुछ का कुछ छापता रहता है बिना बताए कि अमुक आंकड़ा किसने दिया है. इससे पाठकों के मन में एक छवि तो बन ही जाती है कि लाखों का रोज़गार मिलने वाला है.
गुरुवार को प्रधानमंत्री मोदी ने जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट का भूमि पूजन किया. यूपी चुनाव से पहले योजनाओं के शिलान्यास और उदघाटन का काम मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री दोनों ने बखूबी संभाल लिया है. पिछले दो महीनों में प्रधानमंत्री इस तरह के कई बड़े प्रोजेक्ट का उदघाटन कर चुके हैं या शिलान्यास कर चुके हैं.
इसका जवाब मिलना चाहिए कि प्रधानमंत्री के इस तरह के कार्यक्रमों के भव्य आयोजनों पर कितने करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं ? एक ज़माना था जब ऐसे कार्यक्रमों को सरकारी समझ कर रुटीन मान लिया जाता था लेकिन अब इनका आयोजन इस तरह होता है कि फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि राजनीतिक कार्यक्रम था या सरकारी कार्यक्रम था ?
इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट विकास का पुराना चेहरा है लेकिन इसे भव्य बनाकर नया किया जा रहा है. भव्यता को सजाने में रोज़गार के दावों का बड़ा रोल रहता है. प्रोजेक्ट की मंज़ूरी से लेकर शिलान्यास तक रोज़गार को लेकर जिस तरह की ख़बरें छपती हैं और दावे किए जाते हैं उसकी विकास यात्रा पर ग़ौर करना दिलचस्प होगा.
आज तमाम अखबारों में छपे विज्ञापन ने हमारा काम आसान कर दिया. इसमें लिखा है कि नोएडा में बनने वाले जेवर एयरपोर्ट से एक लाख से अधिक रोज़गार पैदा होगा. अब इसे ही आधिकारिक संख्या मानी जानी चाहिए. PIB की रिलीज़ में बताया गया है कि यह प्रोजेक्ट 35,000 करोड़ का है.
एक लाख से अधिक का रोज़गार मिलेगा, इस संख्या के लांच होने से पहले इसी प्रोजेक्ट को लेकर अखबारों में छपी तीन खबरें मिली हैं. हर खबर में रोज़गार का आंकड़ा बदल जाता है. इन खबरों में किसी अधिकारी या मंत्री के नाम नहीं है. एक ख़बर अक्टूबर 2019 की है. टाइम्स ऑफ इंडिया की. इसके अनुसार ज़ेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट से पांच लाख रोज़गार पैदा होंगे. उसके दो महीने बाद हिन्दी अखबार अमर उजाला में खबर छपती है कि जेवर एयरपोर्ट से सात लाख रोज़गार मिलेगा.
दो महीने में अंग्रेज़ी से हिन्दी अखबार तक आते-आते रोज़गार की संख्या पांच लाख से सात लाख हो जाती है. ऐसी ख़बर का कोई खंडन तक नहीं करता है. फिर इसी महीने 8 नवंबर को अमर उजाला ने छापा है कि ज़ेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट के बनने से 5 लाख 50 हज़ार लोगों को रोज़गार मिलेगा. तो 2019 से 2021 आते-आते रोज़गार की संख्या पांच लाख से सात लाख हुई और सात लाख से साढ़े पांच लाख हुई. अब आधिकारिक संख्या एक लाख पर आ चुकी है.
रोज़गार को लेकर अगर आप ज़्यादा दावा कर दें तब क्या सरकार के अधिकारी इसका खंडन करते हैं कि पांच लाख रोज़गार का दावा गलत छपा है, एक लाख ही मिलेगा ?कई बार ऐसे दावे अनाम जानकारों के हवाले से छाप दिए जाते हैं. कई बार सरकार के मंत्री भी बढ़चढ़ कर दावे करने लगते हैं कि लाखों को रोज़गार मिलेगा.
उदाहरण स्वरूप पिछले साल अक्तूबर में परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने असम में बनने वाले मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक पार्क की ऑनलाइन आधारशिला रखी. सरकार की प्रेस रिलीज़ में इसे करीब 700 करोड़ का प्रोजेक्ट बताया गया है और भीमकाय अक्षरों में बताया गया है कि इससे बीस लाख रोज़गार पैदा होंगे. बीस लाख रोज़गार देने वाले इस प्रोजेक्ट पर तो रोज़ ही बात होनी चाहिए, क्या यह कोई मामूली घटना है ? 2023 तक इसका पहला चरण पूरा होगा. जब यह पूरी तरह से बन जाएगा तो बीस लाख लोगों को काम मिलेगा !
एक प्रोजेक्ट के बनने से 20 लाख नौजवानों को रोज़गार मिलेगा. हमारा सवाल सिम्पल है. असम में 700 करोड़ के प्रोजेक्ट से 20 लाख नौजवानों को रोज़गार मिलेगा और यूपी में 35,000 करोड़ के जेवर इंटरनेशनल कार्गो हब प्रोजेक्ट से एक लाख से अधिक रोज़गार मिलेगा. यह हिसाब कैसे निकाला जाता है ?
35,000 करोड़ के प्रोजेक्ट में 700 करोड़ के प्रोजेक्ट से कम रोज़गार मिलना चाहिए या ज्यादा ? इसमें एक और तथ्य जोड़ना चाहता हूं. असम की तरह नागपुर से सटे वर्धा के सिंदी में भी इस तरह का मल्टी मॉडल लाजिस्टिक पार्क बन रहा है. इसके बारे में हमें पत्र सूचना कार्यालय PIB की एक प्रेस रिलीज़ से मिली है जो 22 अक्तूबर 2021 की को जारी हुई है.
इसमें लिखा है कि वर्धा के सिंदी में ड्राई पोर्ट बन रहा है. जवाहर लाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट और नेशनल हाईवे अथॉरिटी के बीच करार हुआ है. इस मल्टी मॉडल लाजिस्टिक पार्क के बनने से पांच साल में पचास हज़ार रोज़गार के अवसर पैदा होंगे. बयान नितिन गडकरी का है. PIB की रिलीज़ में नहीं लिखा है कि यह कितने का प्रोजेक्ट है लेकिन 2008 के टाइम्स आफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार यह 2200 करोड़ का प्रोजेक्ट है.
क्या मैं फिर से सवाल दोहराऊं ? कि 700 करोड़ के प्रोजेक्ट से 20 लाख रोज़गार पैदा होता है तो 2200 करोड़ के प्रोजेक्ट से पचास हज़ार रोज़गार ही क्यों पैदा होता है और नोएडा के 35,000 करोड़ के प्रोजेक्ट से एक लाख से अधिक रोज़गार ही क्यों पैदा होते हैं ? क्या आप इस तरह से ख़बरों को देखना चाहते हैं ?
रोज़गार के ऐसे आंकड़े कहां से आते हैं ? मन की बात से या किसी किताब से ? इसीलिए मैं नहीं चाहता हूं कि आप प्राइम टाइम न देखें, पता चला कि मेरे चक्कर में प़ड़कर पुराने अखबार, PIB की प्रेस रिलीज़ और प्रेस कांफ्रेंस सुनने लगे हैं. इतना ज्यादा जानकर आप करेंगे भी क्या. बोर नहीं होते हैं ? Do you get my point.
PIB की एक और रिलीज़ भी इसी एक अक्तूबर की है. ध्यान रहे, यह रिलिज़ मल्टी मॉडल लाजिस्टिक पार्क की नहीं है. हाल ही में भारत सरकार ने Advanced automotive technology products को बढ़ावा देने के लिए आटोमोबिल सेक्टर को 42,500 करोड़ की प्रोत्साहन राशि देने का एलान किया था. गडकरी जी कहते हैं कि इस योजना से आटो सेक्टर में साढ़े सात लाख अतिरिक्त रोज़गार पैदा होंगे.
भारतीय आटो सेक्टर में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर साढ़े तीन करोड़ लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. ऐसा अखबारों में छपा है. गडकरी जी साढ़े सात लाख अतिरिक्त रोज़गार की बात कर रहे हैं. प्रोजेक्ट भले अलग हैं, उनके नाम भले अलग हैं लेकिन रोज़गार को लेकर कभी बीस लाख, कभी साढ़े सात लाख, कभी पचास हज़ार, कभी एक लाख का दावा कर दिया जाता है.
क्या वाकई जितना कहा जाता है उतना रोज़गार पैदा होता है ? आज कल रोज़गार के दावों में यह ज़रूर जोड़ा जाता है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप इतना लाख रोज़गार मिलेगा. उसमें यह कभी साफ-साफ नहीं बताया जाएगा कि एक लाख रोज़गार में से प्रत्यक्ष नौकरियां कितनी होंगी, कैसी होंगी और कितने की होंगी ?
इस साल जुलाई में CII के एक सम्मेलन में नितिन गडकरी बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि देश में 35 जगहों पर मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक पार्क बनाने की पहचान हो गई है. ताकि लाजिस्टिक की लागत कम हो. इसके ठीक सात दिन बाद 22 जुलाई को लोकसभा में सरकार जवाब देती है कि वलसाड, पटना और विजयवाड़ा में इस प्रोजेक्ट के लिए जो अध्ययन हुआ है उसमें पाया गया है कि वहां पर पार्क बनाना सफल नहीं होगा. 35 से यह संख्या 32 पर आ गई है. वैसे भी इन 35 प्रोजेक्ट को लेकर 2017 से खबरें छप रही थीं जब कैबिनेट ने मंज़ूरी दी थी. पांच साल से अध्ययन और अधिग्रहण ही हो रहा है.
इन 35 जगहों पर बनने वाले मल्टी मॉडल लाजिस्टिक पार्क में नागपुर का भी नाम है, यह प्रोजेक्ट आज तक नहीं बना लेकिन इसे लेकर गडकरी जी ने क्या शानदार पोलिटिकल प्रमोशनल वीडियो बनाया है. यह वीडियो नवंबर 2020 को डाला गया है जिसके तीन महीने बाद गडकरी कहते हैं कि मुझे नहीं लगता कि मिहान अब पूरा होने वाला है.
नागपुर के इस प्रोजेक्ट को भी भारत का पहला कार्गो हब कहा जाता रहा था, जिस तरह से अभी नोएडा में बनने वाले एयरपोर्ट को भारत का पहला इंटरनेशनल कार्गो हब कहा जा रहा है. 1998 से बन रहे इस प्रोजेक्ट को गडकरी अपनी कल्पना बताते हैं. अब गडकरी ही कहते हैं कि पूरा नहीं होगा, इसे प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए. दूसरी तरफ इस वीडियो में दावा किया जा रहा है कि इस प्रोजेक्ट से 54000 लोगों को रोज़गार मिला है.
राजनेताओं से सीखिए कैसे बयान दिया जाता है. कितनी सफाई से गडकरी भी कह रहे हैं कि सपना है. पूरा होगा कि नहीं, कोशिश करेंगे. पिछले साल इकोनमिक टाइम्स में गडकरी का एक बयान छपा है कि TCS जैसी कंपनियों में कितनी नौकरियां मिली हैं. वे 50,000 से अधिक नौकरियों के आने का डेटा देते हैं. लेकिन उन्हीं की सरकार इस बात का डेटा नहीं देती है कि कितने लोगों को रोज़गार मिला है, महामारी के दौरान कितने लोगों की नौकरियां चली गई हैं ? एक बदलाव तो है कि चुनावी खबरों में रोज़गार के आंकड़े भी होने लगे हैं. सच हो या झूठ हों मगर होते हैं.
अमर उजाला की 23 नवंबर की खबर है कि यूपी विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में बैंकों की 700 नई शाखाएं और 700 नए एटीएम स्थापित किए जाएंगे. केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री डा. भागवत किशनराव कराडे की अध्यक्षता में यहां संपन्न राज्यस्तरीय बैंकर्स कमेटी की विशेष बैठक में यह फैसला हुआ है. इससे 23 हजार से अधिक लोगों को रोजगार प्राप्त हो सकेगा. इस खबर में लिखा है कि 31 मार्च, 2022 तक यूपी में 700 एटीएम लगा दिए जाएंगे. 700 एटीएम में 2100 लोगों को गार्ड का काम मिलेगा.
अमर उजाला की इस खबर में केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री ने दावा किया है कि चुनाव से पहले यूपी में बैंकों के 700 नए ब्रांच खुलेंगे, जिससे 21,000 लोगों को रोज़गार मिलेगा. अब यहां दो सवाल पैदा होते हैं. क्या पांच महीने में वाकई 700 नए ब्रांच खुल जाएंगे ? क्या इतनी तेज़ी से यूपी में कभी इतने नए ब्रांच खुले हैं ? क्या वित्त राज्य मंत्री बता सकते हैं कि यूपी भर में पिछले 5 में कितने नए ब्रांच खुले हैं ?
राज्यसभा के तीन सांसदों, सुखराम सिंह यादव, विश्वंभर प्रसाद निषाद और छाया वर्मा ने एक सवाल पूछा है कि क्या यह सही है कि बैंकों के विलय से ग्रामीण क्षेत्रों की शाखाएं बंद हुई हैं और यह भी बताएं कि पिछले पांच साल में ग्रामीण क्षेत्रों में कितनी नई शाखाएं खुली हैं ?
27 जुलाई को वित्त मंत्री की तरफ से लिखित जवाब दिया जाता है कि एक अप्रैल, 2016 से 31 मार्त 2021 तक 668 नई शाखाएं खोली गई हैं. इनमें से यूपी में 74 शाखाएं हैं. 22 जुलाई, 2019 में लोकसभा में दिए गए एक अन्य जवाब में सरकार ने कहा है कि पिछले 5 साल में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिसूचित बैंकों की करीब दस हज़ार नई शाखाएं खुली हैं. यानी हर साल 2000.
इन दोनों के सवाल अलग हैं लेकिन जवाब से अंदाज़ा मिलता है कि एक राज्य में एक साल में कितने नए ब्रांच खुलते रहे हैं. इससे एक अनुमान तो लगा ही सकते हैं कि अगले पांच महीनों में जब 700 नए ब्रांच खुलेंगे तो उनकी रफ्तार कितनी तेज़ होगी. उसमें 21,000 नौकरियां मिलेंगी. क्या आप जानते हैं कि एक साल में सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के लिए कितनी भर्ती निकलती है ? यह जानने के बाद ही आप समझ पाएंगे कि पांच महीने में यूपी में बैंकों के 700 ब्रांच खुलेंगे तो 21000 को नौकरी मिल जाएगी.
अभी बैंकों वाली खबर खत्म नहीं हुई है. इस खबर में यह भी है कि अगले पांच महीने में 700 ATM लगेंगे, जिसमें 2100 लोगों को रोज़गार मिलेगा. यानी हर ATM पर तीन गार्ड को रोज़गार मिलेगा. क्या आप ATM पर 24 घंटे गार्ड देखते हैं ?
खैर 23 नवंबर के अमर उजाला की इसी खबर में एक और डेटा है. लिखा है कि बैंकर्स समिति की बैठक में महानिदेशक संस्थागत वित्त शिव सिंह यादव ने एटीएम से गार्डों को हटाए जाने का मामला भी उठाया. यादव ने बताया कि प्रत्येक एटीएम पर तीन पालियों में एक-एक गार्ड की ड्यूटी होती है. कोविड काल में बैंकों ने एटीएम से गार्ड हटा दिए. इससे करीब 60 हजार गार्डों के सामने रोजगार का संकट आ गया. इसका असर ये हुआ कि एटीएम की सुरक्षा में स्थानीय पुलिस को लगाना पड़ता है.
क्या यह सही है कि 60,000 गार्ड एटीएम से हटाए गए ? क्या उन सभी को वापस काम पर लगाया गया है ? तब तो हेडलाइन यह होनी चाहिए कि जिन 60,000 गार्ड की नौकरी गई है उन्हें वापस काम मिल गया है लेकिन उसकी जगह क्या ये हेडलाइन कुछ फीकी नहीं लगती कि 2100 गार्ड तैनात होंगे ?
तो हमारा सवाल इतना है कि किसी भी प्रोजेक्ट के शिलान्यास के समय पत्थर पर ही सरकार लिखवा दे कि कितनों को रोज़गार मिलेगा और जब उद्घाटन हो तो उन सभी को बुलाकर एक कार्यक्रम करे जिन्हें रोज़गार मिला है. जिस तरह से सरकारी योजना के तहत पैसा या अनाज हासिल करने वालों को लाभार्थी बनाकर प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में बुलाया जाता है, उसी तरह रोज़गार प्राप्त करने वाले इन युवाओं को भी लाभार्थी बनाकर ऐसे प्रोजेक्ट के उदघाटन में बुलाना चाहिए. लाभार्थी एक नई पहचान है. सरकारी कार्यक्रमों की कुर्सियों को भरने वाला सारथी लाभार्थी.
प्रधानमंत्री के आज के कार्यक्रम के लिए कई ज़िलों से उन लोगों को बुलाया गया जिन्हें अलग-अलग सरकारी योजनाओं में कुछ न कुछ मिल रहा है. इन्हें लाभार्थी कहा जाता है. अगर आप सरकार की किसी योजना का लाभ लेंगे जैसे छात्रवृत्ति, गैस का सिलेंडर या मुफ्त अनाज तो सरकार के कार्यक्रम में आपको जाना पड़ेगा जैसे कि यूपी में बसों से बुलाए जा रहे हैं. इन लोगों ने भले मुफ्त अनाज के तहत सरकार की योजना का लाभ लिया होगा लेकिन कितनी अच्छी बात है कि एयरपोर्ट के शिलान्यास के कार्यक्रम में बुलाए जा रहे हैं !
जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट के शिलान्यास के समय एक अच्छी बात यह हुई कि उन किसानों को भी बुलाया गया था जिनसे ज़मीन ली गई है. उनका हक तो बनता ही है कि वे भी देखें कि जहां बरसों से तक वे बसे थे, वहां से उजड़ कर वे देश के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी दे रहे हैं.
इस भ्रम में न रहें कि इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर बड़े-बड़े सपने केवल मोदी सरकार या योगी सरकार ही दिखाते हैं. सभी पार्टी की सरकारों का यह हाल है. इंफ्रा का बनाना ज़रूरी है लेकिन जो दावे किए जाते हैं उनकी सच्चाई का पता न पहले पता चलता है और न बाद में.
दो महीने से यूपी में कितने इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के शिलान्यास से लेकर उद्घाटन के विज्ञापन आपने देखे होंगे लेकिन उसी यूपी में 15 करोड़ ग़रीब भी हैं जिन्हें सरकार मुफ्त अनाज दे रही है. 24 करोड़ की आबादी वाले राज्य में 15 करोड़ ग़रीब हैं. क्या इतने एयरपोर्ट और एक्सप्रेस वे बनने से 15 करोड़ लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ ?
भारत के उन 80 करोड़ लोगों को इन दावों पर भरोसा करना ही चाहिए जो कई महीनों से प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त अनाज पर आश्रित हैं. उम्मीद है कि एक दिन ग़रीबी दूर होगी और इंफ्रास्ट्रक्चर से दूर हो जाएगी.
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