उदयपुर में चल रहे फिल्म फेस्टिवल में तामिलनाडू से युवा फिल्मकार दिव्या बोल रही थीं. दिव्या कहती हैं – सिर पर टट्टी उठाना पेशा नहीं है बल्कि ये समाज द्वारा किया गया ज़ुल्म है.
दिव्या ने दलितों द्वारा तमिलनाडू के शहरों में झेले जा रहे भेदभाव पर फिल्म बनाने का तय किया. दिव्या के कुछ मित्रों ने फेसबुक पर अपील कर के कुछ समय के लिये कैमरा और माइक का इन्तज़ाम किया.
फिल्म बनाने के लिये दिव्या ने 30 हज़ार रूपये मे अपनी सोने की चेन गिरवी रखी. पैसा कम पड़ने पर दिव्या और उसकी फोटोग्राफर सहेली अक्सर रात को भूखे सो जाते थे.
दिव्या की फिल्म ‘कुक्कुस’ तैयार हुई लेकिन भाजपाई, हिन्दुत्ववादी और सवर्ण शक्तियां इस फिल्म के बनने भर से खौफ में डूब गई. पुलिस ने चालीस जगह फिल्म की स्क्रीनिंग रूकवा दी.
दिव्या फिल्म की सीडी और वीडियो प्रोजेक्टर लेकर गांव-गांव जाकर फिल्म दिखाने लगी. पुलिस ने दिव्या का प्रोजेक्टर छीन लिया. दिव्या को पुलिस ने गिरफ्तार किया. जान और बलात्कार की लगातार धमकियों के कारण दिव्या को तमिलनाडू छोड़ना पड़ा.
अन्त में दिव्या ने अपनी फिल्म यूट्यूब पर डाल दी. इस फिल्म को पांच लाख लोगों ने देखा. दिव्या की आंखों में दृढ़ता है, चमक है और आक्रोश है. पर यह सब सुनते हुए मेरा सर झुका हुआ है. आंखें नम होती हैं और गुस्से से जलती भी हैं.
हम महान संस्कृति, महान धर्म और महान लोकतंत्र होने का दावा करते हैं लेकिन हम सामान्य इंसान होने की योग्यता भी पैदा कर लें तो भारत एक सामान्य देश बन सकता है. अभी तो हम अपने करोड़ों लोगों के लिये ज़ालिम,पिछड़े और आतंकवादी बने हुए हैं.
दिव्या की फिल्म कुक्कुस का यू-ट्यूब लिंक :
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