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जय भीम : केवल कम्युनिस्ट ही आंदोलन करते हैं, तब लाल झंडा कैसे छिपाया जा सकता है ? – टीजे ज्ञानवेल

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जय भीम : केवल कम्युनिस्ट ही आंदोलन करते हैं, तब लाल झंडा कैसे छिपाया जा सकता है ? - टीजे ज्ञानवेल

केवल कम्युनिस्ट ही आंदोलन करते हैं, तब लाल झंडा कैसे छिपाया जा सकता है ?

– जय भीम फिल्म के निर्देशक टीजे ज्ञानवेल के साथ साक्षात्कार

आदिवासी समाज के बीच घटित होने वाली घटनाओं का छोटा चित्रण ही हो सकता है. एक तीन घंटे की फिल्म में अभी-अभी फिल्म ‘जय भीम’ देखी. फिल्म देखते समय ऐसा लग रहा था जैसे मैं इस फिल्म को जी रहा हूं. फिल्मों में आदिवासियों के साथ बाकी समाज पुलिस अदालतों और सरकार का रवैया मेरा अच्छे से देखा भाला हुआ है.

इस फिल्म को देखते हुए वह सारे मामले मेरी आंखों के सामने घूम रहे थे जो मैं अपनी जिंदगी में खुद अदालत तक ले गया लड़ा और जीत नहीं पाया. पुलिस आदिवासियों को पीट रही थी तो मुझे बस्तर की पुलिस याद आ रही थी. आदिवासियों की आंखों में मिर्च पाउडर डालने के दृश्य से मुझे वह दृश्य याद आ रहा था, जब दंतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग के बंगले पर आदिवासी पत्रकार लिंगा कोड़ोपी के मलद्वार में मिर्च और तेल से डूबा हुआ डंडा घुसा दिया गया था.

जब मारे गए आदिवासी की पत्नी अपने पति की लाश का फोटो देखती है और बाकी की महिलाएं उसे चुप करा रही हैं. वे दृश्य देख कर मुझे सिंगाराम गांव की याद आ रही थी, जहां पुलिस ने 19 आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके गोली से उड़ा दिया था. इस मामले को हम कोर्ट में ले गए थे. 12 साल हो चुके हैं मुकदमा अभी भी चल रहा है. इस गांव में जब मारे गए आदिवासियों के फोटो हमने उनके घर वालों को दिखाए तो ठीक वैसा ही दृश्य था जैसा इस फिल्म में दिखाया गया है.

वकील चंदरू का काम देखते हुए मुझे अपने वकील याद आ रहे थे. मैंने भी आज तक किसी मुकदमे के लिए किसी वकील को कोई फीस नहीं दी. मुझे बहुत अच्छे वकील मिले लेकिन मुझे जज इतने अच्छे नहीं मिले जितने फिल्म में चंदरू को मिल गए. हमने भी अनेकों हैबियस कॉरपस फाइल की है.

एक मामले में तो नेन्ड्रा गांव की दो लड़कियों को पुलिस वाले उठाकर ले गए थे. उनके दोनों भाइयों ने हैबियस कॉरपस हमारे कहने से फाइल की थी. लेकिन पुलिस वालों ने पीटकर और जज ने धमका कर दोनों भाइयों से वह हैबियस कॉरपस वापस करवा दी. फिल्म देखते हुए मुझे देजावू का अनुभव हो रहा था जब आपको लगता है ऐसा आप पहले भी देख चुके हैं.

कई बार मुझे लगा मैं चंदरू हूं. मैं भी इसी तरह आदिवासियों से उनकी आपबीती सुनता था, क्रोधित होता था, दु:खी भी होता था और मामलों को अदालत में ले जाता था. मेरे द्वारा दायर किए गए आदिवासियों के सैकड़ों मामले आज भी अदालतों में धूल खा रहे हैं.
कुछ मामलों में फैसला तो मिला लेकिन इंसाफ नहीं मिला.

सारकेगुड़ा में फैसला आ गया कि सीआरपीएफ द्वारा मारे गए 17 आदिवासी निर्दोष थे लेकिन किसी भी अपराधी के खिलाफ ना तो एफआइआर लिखी गई, ना मुकदमा चला, ना सजा मिली.

बरहाल इस फिल्म ने आदिवासियों की हालत पुलिस की क्रूरता और भ्रष्टाचार को एक छोटे से फ्रेम में दिखाने की कोशिश की है लेकिन यह समस्या बहुत विशाल है. इसमें आरोपियों में सरकारी राजनीतिक नेता है, प्रशासनिक अधिकारी है, जज है, भ्रष्ट वकील भी है और पूरा समाज है.

9 भाषाओं में प्रदर्शित किये जा रहे फिल्म ‘जय भीम’ में कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा देखकर समाज के कुछ लोग काफी परेशान हैं. तमिलनाडु में भी कम्युनिस्ट विरोधी और दलित विरोधी लोगों ने इस पर सवाल उठाए हैं. इस पर फिल्म के निर्देशक टीजे ज्ञानवेल ने जवाब दिया, ‘केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ही आंदोलन करती है, फिर लाल झंडा कैसे छिपाया जा सकता है ?’

फिल्म ने तमिलनाडु में जातिगत भेदभाव और इसके खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा छेड़े गए ऐतिहासिक संघर्षों पर एक सक्रिय चर्चा करते हैं. ताजा खबर यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के अनुरोध पर फिल्म के नायक सूर्या ने राजा कान्नु, जिसे तमिलनाडु पुलिस ने लॉकअप में पीट कर मार डाला था, के पत्नी पार्वती अम्माल (फिल्म में सेंकनी) की मदद करने के लिए 15 लाख रुपये का चेक कम्युनिस्ट नेता बालकृष्णन और पीबी सदस्य जी. रामकृष्णन की मौजूदगी में पार्वती अम्माल को सौंपा. अब देखिए फिल्म के डायरेक्टर के साथ साक्षात्कार –

सवाल : लाल झंडा और कम्युनिस्टों के प्रदर्शन और संघर्ष तमिल फिल्मों में दुर्लभ हैं. आपके फिल्म में लाल झंडा कैसे आया ?

जवाब: कम्युनिस्ट पार्टी ने शुरू से अंत तक राजा कान्नु की हत्या के पीड़ितों के साथ खड़ी रही, इसलिए चीजें ईमानदारी से पेश होनी चाहिए. कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता और न ही उसकी उपेक्षा की जा सकती है. मुकदमें के अधिवक्ता चंद्रू को जब पेश करते हैं, उनका समर्थन कम्युनिस्ट पार्टी का है, यह जानना जरूरी है. वह एसएफआई के संस्थापक नेताओं में से एक हैं. वह कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे और उन्हें पार्टी का समर्थन प्राप्त हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि वह एक सिद्ध कम्युनिस्ट है.

पूरी फिल्म में लाल झंडे और नेताओं के चित्र शामिल करना फिल्म का एक अनिवार्य घटक है. पार्वती अम्माल को न्याय दिलाने के लिए पार्टी का संघर्ष कैसे छिपाया जा सकता है ? मार्क्स, लेनिन और अम्बेडकर की मूर्तियों और चित्रों का उपयोग किया गया है. कोर्ट सीन में जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर की तस्वीर है, वह भी एक कम्युनिस्ट थे.

तमिलनाडु में जहां कहीं भी आदिवासियों और दलितों पर अत्याचार किया जाता है और मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जाता है, केवल कम्युनिस्ट पार्टियों ने ही आंदोलन किया है. मैंने ऐसा संघर्ष देखा है. यह जिलास्तरीय संघर्ष थी जिस पर फिल्म की कहानी बनी है.

मैं पार्टी के नेताओं और आदिवासियों की भागीदारी और न्याय के लिए उनके संघर्ष से प्रभावित था. तब तय किया गया था आदिवासियों और दलितों के पृष्टभूमि में एक फिल्म बनाना है. वकील चंद्रू, शेनकिनी और मैथरा लापता लोगों की तलाश में मून्नार पहुंचते हैं. इन वर्गों के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका दिखाने के लिए चुनाव जैसा माहौल बनाया गया था. उन लोगों का उल्लेख नहीं करना असंभव है जो लोगों के लिए जीते हैं.

सवाल: क्या सेंसर बोर्ड आपत्ति की थी ?

जवाब: सेंसर बोर्ड भी यह महसूस करते हुए फिल्म से एप्रोच किया कि सच्ची घटना के बारे में बात करते वक्त कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

सवाल: कहानी के साथ संपर्क करने पर सूर्या की प्रतिक्रिया क्या थी ?

जवाब: कहानी सुनाना शुरू किया और पांच मिनट के अंदर वह फिल्म बनाने और अभिनय करने के लिए तैयार हो गया. यह एक बड़ी मान्यता थी. बाद में जब मैंने पूरी कहानी पढ़ी तो रोमांचित हो उठा.

सवाल: क्या आपने सोचा था कि फिल्म हिट होगी ?

जवाब: इसके सफल होने की उम्मीद थी. यह सभी नौ भाषाओं में बहुत हिट हुई और सोशल मीडिया पर धूम मचा दी.

सवाल: अभिनेताओं के लिए प्रशिक्षण सहित तैयारी कैसी थी ?

जवाब: चूंकि यह वास्तविक घटना से संबंधित था इसलिए अच्छी तरह से प्रशिक्षित किया जाना था. अभिनेताओं का प्रशिक्षण दिनों तक चला. प्रशिक्षक जिजॉय राजगोपाल थे, जो पुणे फिल्म संस्थान में मलयाली शिक्षक थे. उन्होंने मुन्नार में गुमटीशॉप के मालिक के रूप में अभिनय किया है.

सवाल: क्या एक पत्रकार के रूप में आपके अनुभव ने मदद की ?

जवाब: आनंदविकाडन (एक तमिल मैगज़ीन) में पत्रकारिता का अनुभव शुरू से ही रहा है. हम, आदिवासियों के उत्पीड़न और इसके खिलाफ कम्युनिस्टों के संघर्ष और अन्य आंदोलनों को देखने और रिपोर्ट करने जाता था. राजा कान्नु और उनके परिवार पर जो अत्याचार हुआ है उसका सिर्फ 40 फीसदी हिस्सा ही फिल्म में है. इस तरह की और भी कई कहानियां हैं.

सवाल: यह मामला आपके संज्ञान में कैसे आया ?

जवाब: न्यायमूर्ति चंद्रू जब एक वकील थे, तब उनके साथ किये एक साक्षात्कार में राजा कान्नु के मामले का उल्लेख किया गया था. यह मेरे दिमाग में अटक गया. सिनेमा में आने में 15 साल लग गए. इसके लिए तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों की यात्रा की. दलित-आदिवासी महिलाओं और युवा नेताओं से मिलकर अनुभव प्राप्त किया.

मैं इस फिल्म को आप सभी को देखने की सिफारिश करता हूं.

(मलयालम से अनुवादित)

  • आशुतोष कुमार सिंह

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