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कुलपति स्पेशल विजिलेंस के हत्थे : ‘विश्वगुरु’ भारत में बाजार बनते ऐसे समाज की अनिवार्य परिणति

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कुलपति स्पेशल विजिलेंस के हत्थे : 'विश्वगुरु' भारत में बाजार बनते ऐसे समाज की अनिवार्य परिणति

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

पता नहीं, ये वीसी साहब कैसे और क्यों स्पेशल विजिलेंस के हत्थे चढ़ गए, बिहार में आमतौर पर ऐसा होता तो नहीं है. कितने वीसी रहे जिन्होंने लूट मचाने, नियमों, परंपराओं की ऐसी की तैसी करते हुए मजे से अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया, फिर माला पहन कर विदा हुए. कितने रजिस्ट्रार रहे जिनका काम वीसी की दलाली के अलावा कुछ और रहा ही नहीं. तब भी, कितना सम्मान रहा उनका. होना भी चाहिये. आखिर, वे गरिमामय पदों की ‘शोभा बढ़ाते हुए’ युनिवर्सिटी सिस्टम के शीर्ष पर विराजमान रहे.

बौद्धिक तबके के बड़े हिस्से का इतना नैतिक पतन हमारे दौर की ऐसी सच्चाई है, जिसे समाज ने स्वीकार ही नहीं, आत्मसात भी कर लिया है. तभी तो, कुलपति जैसे अति सम्मानित पद पर बैठे लोगों की कारगुजारियों की चर्चाओं को लोग अब सहज भाव से लेने लगे हैं. तर्क दिए जाते हैं कि फलां जी ने कुलपति बनने के लिये इतने लाख दिए, अब तो लाख पीछे छूट गया, करोड़ शब्द का उल्लेख होता है.

जाहिर है, जब पद पर आने के लिये लाख-करोड़ की बोलियों से गुजरना पड़े तो फिर मर्यादा और गरिमा को ताक पर रखने का लाइसेंस भी नियुक्ति पत्र के साथ ही हासिल हो गया. करोड़…! यह मामूली शब्द नहीं है. पता नहीं, वे प्रोफेसर कैसे होते हैं जिनके पास एक करोड़-सवा करोड़ रुपये होते हैं कि वे अपने लिये कुलपति का पद ‘खरीद’ सकें. पता नहीं, इन चर्चाओं का आधार क्या है ? लेकिन, चर्चाएं तो होती हैं और आजकल खूब होती हैं.

बिहार का शायद ही कोई कॉलेज हो जिसके स्टाफ रूम में बीते कुछ वर्षों में यह चर्चा आम न रही हो कि फलां प्रिंसिपल बहाली में रेट कितना ऊपर गया, कि कुलपति बहाली का रेट आजकल क्या चल रहा है. अब तो प्रोवीसी, रजिस्ट्रार सहित विश्वविद्यालयों के अन्य ऊंचे पदों के लिये भी रेट की चर्चाएं खुलेआम होती हैं. कोई ऐसे किसी पद पर नियुक्त हुआ नहीं कि ‘…इतने लाख लगे उनको इस पोस्ट के लिए…’ की चर्चाएं शुरू हो जाती हैं.

कोई आम, सामान्य प्रोफेसर हक्का-बक्का हो ऐसी चर्चाएं सुनता है और निराशा से भर उठता है. कुछ लोग कसम खाते पाए जाते हैं कि वे रिटायर होने तक शांति से नौकरी करेंगे और कभी भी कोई पद हासिल करने की इस ग़लीज़ प्रक्रिया में शामिल नहीं होंगे. ऐसी कसमें खा कर वे अपनी निरीहता को किसी नैतिक आभामंडल से ढकने की कोशिश करते हैं.

नहीं, यह सिर्फ किसी नीतीश कुमार, किसी लालू यादव या जगन्नाथ मिश्र के ही कार्यकाल की ही देन नहीं है, यह बाजार बनते ऐसे समाज की अनिवार्य परिणति है जिसमें ऐसी चीजें भी बिकने लगीं, ऐसी चीजें भी खरीदी जाने लगीं जो न बिकने के लिये बनी थीं न खरीदी जाने के लिये.

मसलन, अब खुलेआम विधायकों की राजनीतिक निष्ठाएं बिकने लगी हैं, चुनावों में कई पार्टियों की उम्मीदवारी के टिकट बिकने लगे हैं, बड़े-बड़े नामचीन न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम की बहसों के मुद्दे बिकने लगे हैं, नामी न्यूज एंकरों के आत्मसम्मान बिकने लगे हैं. जिलों और थानों की पोस्टिंग बिकने की चर्चाएं तो हम बचपन से ही सुनते रहे हैं, बाजार बनते समाज में अब और भी बहुत कुछ बिकने लगे हैं.

अब जब, इतनी चीजें बिकने ही लगी तो कॉलेजों की प्रिन्सिपली, विश्वविद्यालयों की साहबी भी बिकने लगी तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? इन पदों में कोई सुरखाब के पर थोड़े ही लगे हैं. समझ में नहीं आता कि कुलपति, रजिस्ट्रार आदि के पद बेचता कौन है ? इसके लिये तो निर्धारित प्रक्रियाएं हैं, नियम-परिनियम हैं, कई प्राधिकारों की भागीदारी है लेकिन, चर्चाएं आम हैं कि बिकती हैं.

बचपन में एक गाना रेडियो-टेपरिकार्डर पर सुनते थे ‘…दूल्हा बिकता है बोलो खरीदोगे…’. अब जब, विश्वविद्यालयों के शीर्ष पद खाली होते हैं तो प्रोफेसरों के बीच चर्चाएं आम होती हैं, ‘वीसी बनियेगा ? इतना जुटाइये तो जुगाड़ लग सकता है. प्रोवीसी के लिये इतना, रजिस्ट्रार के लिये इतना…’.

अब इस पर गाना बनना ही बाकी है. भोजपुरी एलबमों के कल्पनाशील गीतकार इस बारे में सोच सकते हैं, सोचना चाहिये. ‘…बेच के धरती, बेच के गैरत, हमरो नन्दोई भीसी बनिहें देवर बनिहें रजिस्टार…’ टाइप के गाने. अच्छी धूम मचेगी ऐसे गानों की. सरस्वती पूजा के समारोहों में खूब बजेंगी, प्रतिमाओं के विसर्जन जुलूसों में लड़के-बच्चे खूब नाचेंगे इनकी धुनों पर. हालात बद से बदतर होते गए और शिक्षक समुदाय के साथ ही पूरा समाज भी ऐसी बदतरी को स्वीकार, आत्मसात करता गया. सरकारों की बात ही क्या करनी.

नीतीश कुमार जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का हवाला देकर विश्वविद्यालय सेवा आयोग भंग कर दिया था जो लेक्चरर, प्रिंसिपल आदि की बहाली करता था. सारे अधिकार विश्वविद्यालयों की चयन समिति को दे दिए गए. इस समिति के अध्यक्ष कुलपति होते थे. हालांकि, पहली नजर में यह संस्थानों की स्वायत्तता के प्रति किसी मुख्यमंत्री की सदाशयता भी प्रतीत होती है.

हालांकि, समय ने साबित किया कि इन संस्थानों के शीर्ष पर काबिज लोग किसी मुख्यमंत्री की इस सदाशयता के काबिल नहीं थे.

इन चयन समितियों को लेक्चरर बहाली का मौका तो नहीं मिल सका. मिलता तो बिहार के विश्वविद्यालयों में लेक्चरर नियुक्ति में हुए भ्रष्टाचार को गिनीज बुक में स्थान मिलना तय था. लेकिन, प्रिंसिपल बहाली का मौका मिला. सब जानते हैं कि क्या हुआ. इधर प्रिंसिपल की वैकेंसी निकली नहीं कि उधर बाजार सजने की चर्चाएं शुरू हो गई. कॉलेजों के स्टाफ रूम में रेट के कयास लगने लगे. बहालियाँ हुईं. चर्चाएं आम हुईं कि इतने लाख तक रेट गए. मामला हाईकोर्ट गया. कितने पैनल रद्द हुए. फिर इंटरव्यू का आदेश. इस बार रेट और ज्यादा हाई होने की चर्चा. फिर केस. फिर पैनल रद्द.

आज की तारीख में बिहार में अधिकतर प्रिंसिपल ऐसे ही हैं जिनकी नियुक्ति विभिन्न न्यायालयों के विचाराधीन है. बरस पर बरस बीतते जा रहे, सनी देओल के शब्दों में ‘…तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख…’ केस करने वाले, लड़ने वाले लोग थक गए, कितने मर गए. केस चल रहे हैं. प्रिंसिपलों की इस पीढ़ी के अधिकतर लोगों की कारगुजारियों के किस्से शिक्षक समुदाय की चर्चाओं के केंद्र में रहते हैं.

अब प्रिंसिपल हैं तो और आगे नहीं बढ़ना है क्या ? जाहिर है, बढ़ना है. वीसी, प्रोवीसी, रजिस्ट्रार आदि भी बनना है. रेट हैं कि इनके बढ़ते जाने की ही चर्चा है. तो, पैसा तो कमाना ही होगा. पैसा कमाने के लिये प्रिन्सिपली का सदुपयोग करना होगा. दौड़ में पीछे नहीं रहना है. अधिकतर प्रिंसिपल साहबों की यही कहानी है.

जब कोई तंत्र बाजार में तब्दील होता जाता है तो नैतिकताएं कूड़ेदान की चीज बन जाती हैं, निर्धनताएँ निरीहता में बदल जाती हैं और निरीहताएँ हिकारत से देखी जाने वाली चीज बन जाती हैं.

आज जो सीनियर प्रोफेसर इस अंधी, अनैतिक दौड़ में शामिल नहीं हैं वे निरीह की ही श्रेणी में हैं. वे खुद की नैतिकता के आभामंडल में होने का भ्रम पाल सकते हैं, पाल भी रहे हैं, लेकिन तंत्र पर काबिज लोग उन्हें निरीह से अधिक नहीं मान रहे. नियमों, परिनियमों की धज्जियां उड़ा कर उनके माथे पर ऐसे लोगों को बिठा दिया गया है, बिठाया जा रहा है जो पद पाने के लिये ढेर सारे पैसे खर्च कर सकते हों. आप खुद को नैतिक मानो, तंत्र के लिये आप निरीह से अधिक कुछ नहीं हो.

जब से इन वीसी साहब के ऑफिस में, आवास में और पैतृक घर में स्पेशल विजिलेंस का छापा पड़ा है, यह मुद्दा गरमा गया है. खबरनवीसों के साथ ही आम लोग भी चटखारे ले रहे हैं. हालांकि, यह चटखारे लेने का नहीं, सोचने का मुद्दा है. पर, अब लोग सोचते नहीं, चटखारे लेते हैं ऐसी बातों पर.

हर गरम चीज फिर ठंडी भी होती है. अचानक से गरमा गया यह मुद्दा भी ठंडा होगा. बैताल फिर किसी पेड़ की डाल पर नजर आएगा. किन्हीं कारणों से कोई एक कुलपति अगर बदनाम हुए तो यह उनकी बदनसीबी. बाकी तो, भारत अगर ‘विश्वगुरु’ बनने की राह पर है तो बिहार तो सैकड़ों, हजारों वर्ष पहले विश्वगुरु बन कर उससे इस्तीफा भी दे चुका है. नालंदा और विक्रमशिला हमारे अतीत के ‘विश्वगुरुडम’ के शानदार प्रतीक ही थे न. अब, थोड़ा सुस्ता रहा है बिहार.

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