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अटल सरकार और उसके वित्त मंत्री पेंशन खत्म किये जाने को लेकर इतने उतावले क्यों थे ?

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अटल सरकार और उसके वित्त मंत्री पेंशन खत्म किये जाने को लेकर इतने उतावले क्यों थे ?

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

बीबीसी को पिछले साल दिये एक इंटरव्यू में यशवंत सिन्हा ने बताया कि वे प्रशासनिक सेवा छोड़ने का मन पहले ही बना चुके थे और जब वे अपनी सेवा अवधि के आधार पर पेंशन पाने के योग्य हो गए तो उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. सिन्हा साहब जयप्रकाश नारायण और चन्द्रशेखर जैसे शीर्षस्थ समाजवादी नेताओं के करीबी रहे थे और तय था कि नौकरी छोड़ने के बाद वे राजनीति में ही आने वाले हैं. वे आए भी और समाजवाद से राष्ट्रवाद की यात्रा करते चन्द्रशेखर और फिर वाजपेयी सरकार में विभिन्न विभागों के कैबिनेट मंत्री रहे.

इंटरव्यू में कही उनकी एक बात यहां रेखांकित करने योग्य है कि बहुत पहले से सोच लेने के बाद भी उन्होंने नौकरी से इस्तीफा तभी दिया, जब वे पेंशन पाने के हकदार हो गए. बावजूद इसके कि यशवंत सिन्हा को पता था, वे शीर्ष स्तर की राजनीति में शामिल होने वाले हैं तब भी उन्होंने पेंशन निश्चित होने के बाद ही नौकरी छोड़ी. उन्होंने सही ही किया क्योंकि बुढ़ापे में नियमित पेंशन की गारंटी रहे तो आदमी का मनोबल ही कुछ और होता है.

वही यशवंत सिन्हा जब देश के वित्त मंत्री बने तो उन्होंने सरकारी कर्मचारियों के पेंशन को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई. उन्होंने बड़ी ही बेमुरव्वती के साथ बयान दिया, ‘आदमी की औसत आयु बढ़ती जा रही है और रिटायर सरकारी कर्मियों को पेंशन देने में सरकारी कोष पर बहुत दबाव पड़ता है, इसलिये आगे से अब पेंशन दिया जाना संभव नहीं है.’ अटल सरकार और उसके वित्त मंत्री पेंशन खत्म किये जाने को लेकर इतने उतावले क्यों थे ?

1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में, जब भारत में आर्थिक सुधार अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका था, पर्दे के पीछे भारत सरकार पर देशी-विदेशी इंश्योरेंस कंपनियों का भारी दबाव पड़ रहा था कि सरकारी कर्मचारियों का पेंशन बंद कर दिया जाए. यही वह दौर था जब इंश्योरेंस सेक्टर में विदेशी निवेश की सीमा क्रमशः बढ़ाई जा रही थी और कंपनियां अपने ग्राहक आधार को बढ़ाने के लिये सरकारी कर्मियों की बड़ी संख्या पर नजरें गड़ाए थी.

बतौर वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने सरकारी कर्मचारियों के हितों और बुढ़ापे की चिंताओं को नजरअंदाज किया. जब पेंशन के खत्म होने की घोषणा हो गई तो अचानक से इंश्योरेंस सेक्टर में देशी-विदेशी निवेश की बाढ़ आने लगी.

पुराने पेंशन के बदले एनपीएस की जो शुरुआत की गई उससे प्राप्त होने वाली संभावित पेंशन राशि बुढ़ापे के बढ़ते खर्चों को देखते हुए अपर्याप्त थी. नए नियुक्त सरकारी कर्मियों में अपने भविष्य को लेकर आशंकाएं बढ़ने लगीं और बीमा कंपनियों ने उनकी इन आशंकाओं का जबर्दस्त दोहन करना शुरू किया. कर्मचारी अपने वेतन से पेंशन प्लान टाइप की योजनाओं में नियमित निवेश करने लगे.

इधर सरकारी पेंशन खत्म हुआ उधर इंश्योरेंस मार्केट में बहार आने लगी. कंपनियों का मुनाफा बढ़ने लगा और कर्मचारी दुबले होने लगे. लगभग दो दशक बाद, अब एनपीएस का खोखलापन सामने आने लगा है, साथ ही इंश्योरेंस कंपनियों के पेंशन प्लान आदि की सच्चाइयां भी उजागर होने लगी हैं कि इनसे कंपनियों को तो भारी लाभ होता है लेकिन निवेशक के रूप में आम आदमी अंततः घाटे में ही रहता है. पर, कोई विकल्प भी तो नहीं ऐसे प्लान में निवेश का.

यशवंत सिन्हा आजकल नरेंद्र मोदी के घोर विरोधी हैं क्योंकि नए निज़ाम ने उन्हें खास महत्व नहीं दिया. राजनीतिक बयानों में मोदी की बखिया तो वे उधेड़ते ही रहते हैं, आर्थिक नीतियों में भी नुक्स निकाल कर अक्सर उन्हें कोसते रहते हैं. भाजपा छोड़ तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम चुके सिन्हा अपने नए राजनीतिक अवतार में अब भाजपा विरोधियों के स्नेहभाजन बन गए हैं.

अरुण शौरी अपने समय के प्रखर पत्रकार और संपादक थे. उनके लेख जनमानस ही नहीं, तत्कालीन राजनीतिक सत्ता को भी झकझोरने वाले होते थे. फिर एक दिन, बजरिये भाजपा वे राजनीति में आये. वाजपेयी सरकार में पहली बार विनिवेश मंत्रालय बनाया गया जिसके वे मंत्री बने. उसके बाद, शौरी साहब अपनी तर्क शक्ति का प्रयोग देश को यह समझाने में करने लगे कि सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी या उनका पूरा का पूरा बिकना कितना जरूरी है.

विवाद तब उठने लगे जब बिकने वाली सरकारी सम्पत्तियों के मूल्य को लेकर सन्देह उपजे. आरोप लगे कि बिक्री का जो मूल्य कारपोरेट घराने दे रहे हैं वह सम्पत्तियों के वास्तविक मूल्य से काफी कम है. सन्देहों के आधार भी थे क्योंकि देखा गया कि जो सरकारी संपत्ति शौरी जी के मंत्रालय ने आज एक सौ रुपये में बेचे, खरीदने वाले ने महज चार महीने बाद ही उसे किसी और को दो सौ में बेच दिया और शत प्रतिशत मुनाफा पा कर मालामाल हो गया. यह क्रोनी कैपिटलिज्म का साक्षात उदाहरण था.

तब की सरकार के मित्र कारपोरेट घरानों ने इस बहती गंगा में जम कर डुबकियां लगाईं. उन सौदों को लेकर दो दशक बाद अभी दो तीन महीने पहले एक हाईकोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की और सरकारी सम्पत्तियों को अपने मित्र घरानों को औने-पौने दामों पर बेचने के लिये तत्कालीन सरकार को जम कर लताड़ लगाई.

आजकल शौरी साहब मोदी विरोध की लाइन पकड़े हुए हैं क्योंकि उन्हें वैसी अहमियत नहीं मिली जिसकी वे उम्मीद करते थे. चूंकि, वे मोदी सरकार की सख्त आलोचना करते हुए अक्सर वक्तव्य जारी करते रहते हैं इसलिये आजकल वे मोदी विरोधियों के प्रिय बने हुए हैं. उनकी कही गई बातों को सोशल मीडिया पर कोट किया जाता है.

सुब्रह्मण्यम स्वामी मान कर चलते हैं कि देश का वित्त मंत्री बनने के लिये उनसे बेहतर और कोई नहीं. वे चाहते थे कि नरेंद्र मोदी उन्हें अपना वित्त मंत्रालय सौंप दें, ऐसा नहीं हुआ. स्वाभाविक था कि स्वामी जी कुपित हो गए और तब से कोप भवन में ही हैं, बावजूद इसके कि वे भाजपा में हैं, नरेंद्र मोदी की नीतियों की आलोचना करते हुए उनके बयान निरन्तर आते रहते हैं और इन बयानों को मोदी विरोधी वर्ग हाथों-हाथ लेता है.

स्वामी का वैचारिक आधार क्या है, यह कोई रहस्य नहीं है. वे भाजपा के स्वाभाविक सहचर हैं, भले ही कभी किसी के साथ रहें कभी किसी और के साथ. सिन्हा, शौरी और स्वामी जैसों के उदाहरण बताते हैं कि कारपोरेट हितैषी, जनविरोधी होते हुए भी कोई भाजपा या मोदी विरोधी हो सकता है. नरेंद्र मोदी का घोर आलोचक होने का मतलब यह कतई नहीं कि वह आम लोगों का हितैषी है.

यशवंत सिन्हा को सरकारी नौकरी की पेंशन तो मिल ही रही होगी, संसद सदस्य वाली पेंशन भी मिल रही होगी, क्योंकि सरकारी नौकरी वाली पेंशन तो खत्म हो गई लेकिन एमपी और एमएलए वाली पेंशन तो बदस्तूर जारी ही है.

यह दौर ऐसा है जिसमें राजनीतिक धरातल पर वैचारिक कुहासा फैला हुआ है, यह अनायास नहीं, सायास है. आमलोगों को भ्रम में डाले रखने की सारी तैयारियां हैं क्योंकि इस कुहासे में जनहितैषी और जनविरोधी में फर्क कर पाना आसान नहीं. इस फर्क को समझना होगा.

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