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कृषि कानूनों को खत्म करने के साथ मोदी की माफी : रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई

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कृषि कानूनों को खत्म करने के साथ मोदी की माफी : रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई

आज सुबह केंद्र की तानाशाह नरेन्द्र मोदी की सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लिया है. यह घोषणा आज प्रधानमंत्री मोदी ने अपने राष्ट्र संबोधन में की है. इसी 26 नवंबर को अपने एक साल पूरे करने वाले इस आंदोलन की यह सबसे बड़ी जीत है. इसके साथ ही सत्ता के उन दलालों, समाज उन पिस्सुओं का मूंह काला हो गया, जिसके मालिक अदानी-अंबानी जैसे धनपशु हैं और सोशल मीडिया से लेकर गोदी मीडिया तक किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, गुंडा, चोर, मवाली आदि जैसे घिनौना विश्लेषण से नवाजते थे.

अंबानी-अदानी के चाटूकार नौकर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ‘मैं आज देशवासियोंसे क्षमा मांगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि आज मैं सभी को बताना चाहता हूं कि हमने तीनों कृषि कानूनों को खत्म करने का फैसला किया है.’ इसके साथ ही पीएमओ की ओर से भी दनादन ट्वीट बिना किसी लज्जा के खुद का पीठ थपथपाते हुए किया गया है.

मोदी के इस घोषणा पर जन पत्रकार रविश कुमार ट्वीट करते हुए कहते हैं – किसानों को बधाई. उन्हें भी, जिन्होंने किसानों को आतंकवादी, आंदोलनजीवी कहा ! किसानों ने देश को जनता होना सिखाया है, जिसे रौंद दिया गया था. आवाज़ दी है. गोदी मीडिया आज भी किसानों की बात किसानों के लिए नहीं ‘उनके’ लिए करेगा; किसानों ने समझा दिया कि किसानों को कैसे समझा जाता है !

आज जब अचानक सुबह-सुबह प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों कृषि कानून वापस लेना की घोषणा कर दी, तब सरसरी तौर पर कई बातें समझ में आती हैं, जिसमें पहला तो यही है कि मोदी सरकार के अहंकार की रस्सी जल गई लेकिन अभी तक ऐंठन नहीं गई. एन. के. गुप्ता मोदी के इस माफी और कृषि कानूनों की वापसी पर खुद की पीठ थपथपाते मोदी के ऐंठन पर बेहतरीन विश्लेषण किया है –

  1. सबसे पहली बात यह कि कानून सरकार ने वापस नहीं लिया है बल्कि किसानों ने उसे ऐसा करने पर बाध्य किया है. आज़ाद भारत के सबसे शानदार, संगठित और अहिंसक लड़ाई में किसानों को जीत मिली है, इससे यह समझ में आता है कि अगर आप नैतिक रूप से सही हों तो जीत आखिरकार आपकी ही होगी. सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं.
  2. देशद्रोही, आढ़तिये, मुट्ठीभर और खालिस्तानी जैसे तरह-तरह के विशेषणों से नवाजे जाने के बाद अचानक मोदीजी को किसानों पर इतना प्यार क्यों आया ? इसका उत्तर सतपाल मलिक जैसे भाजपा नेता कई महीनों से देते आये हैं. वे कह रहे हैं कि ग्राउंड रिपोर्ट्स बता रही है किसानों के विरोध की वजह से यह सरकार सिर्फ यूपी का चुनाव ही नहीं हारेगी बल्कि 2024 में सत्ता से पूरी तरह बेदखल हो जाएगी.
  3. कृषि कानूनों को लेकर सरकार का रवैया हद से ज्यादा अड़ियल और तानाशाही भरा रहा था. राज्यसभा तक में इसे नियमों को ताक पर रखकर पास करवाया गया था. किसानों को अपनी गाड़ी से कुचल देनेवाले व्यक्ति के पिता अजय मिश्रा टेनी आज भी मोदी सरकार में है इसलिए प्रधानमंत्री चाहकर किसानों के बीच यह संदेश नहीं भेज सकते कि यह फैसला उन्होंने किसानों से हमदर्दी के आधार पर लिया है.
  4. 700 किसानों की मौत और आम नागरिकों को हुई बेशुमार परेशानी के बाद कानून वापसी के फैसले को सरकार मास्टर स्ट्रोक किस तरह बताएगी और कॉरपोरेट मीडिया प्रधानमंत्री का तोहफा कैसे साबित करेगा यह एक बड़ा सवाल है। सरकार और सरकार समर्थक मीडिया दोनों की चुनौतियां बड़ी हैं.
  5. कृषि कानून के नाम पर पूरे साल देश में जो कुछ चला है, वह केंद्र सरकार को निरंकुश, अहंकारी और गैर-जिम्मेदार साबित करता है. पहला सवाल यह है कि देश के सबसे बड़े कार्मिक समूह यानी किसानों की जिंदगी और मौत से जुड़ा फैसला उन्हें बिना भरोसे में लिये क्यों किया गया ? अगर यह फैसला देशहित में इतना ही ज़रूरी था तो फिर इसे चुपके से वापस क्यों लिया जा रहा है ? ये सारे सवाल पीछा नहीं छोड़ेंगे. मनमाना फैसला थोपना निरंकुशता है तो कथित तौर पर देशहित से जुड़ा बड़ा कानून चुनावी फायदे के लिए वापस लेना मौकापरस्ती. सरकार को गैर-जिम्मेदार या मौका-परस्त दोनों में कोई एक विशेषण अपने लिए चुनना पड़ेगा, कोई और रास्ता नहीं है.
  6. इस पूरे प्रकरण से सबसे बड़ा धक्का प्रधानमंत्री मोदी की उस छवि को लगा है, जिसमें उन्हें कठोर और निर्णायक फैसले लेने वाले नेता के तौर पर चित्रित किया जाता है.
  7. कृषि कानूनों की वापसी के बाद अब शायद यूपी के गांवों में बीजेपी कार्यकर्ता घुस पाएंगे लेकिन किसानों के जख्म हरे हैं, इसलिए एक सीमा से ज्यादा डैमेज कंट्रोल नहीं हो पाएगा. कानून वापसी का इस्तेमाल विपक्ष यह संदेश देने में करेगा कि भाजपा को पता है कि वो चुनाव हार रही है यानी मोमेंटम विपक्ष की तरफ ही शिफ्ट होगा.

2024 अभी दूर है. अपना बदनाम चेहरा बचाने के लिए भाजपा और उसके दल्ले अब कौन-सी नई कहानी लेकर मैदान में उतरेगी, यह देखना दिलचस्प होगा. लेकिन अभी देश के किसान को आंशिक जीत मिली है, वह संघर्ष से पीछे नहीं हटेगा, यह आर-पार का संघर्ष है. अभी फसलों की MSP गारंटी को वैधानिक बनाना होगा. यही देश के किसान की बेहतरी के लिए और उसके शोषण को समाप्त करने के लिए आवश्यक है.

पाटलिपुत्रा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेमन्त कुमार झा किसान आंदोलन के सामने मोदी सरकार के इस घुटने टेकने को कॉरपोरेट और बाजारवादी शक्तियों की तात्कालिक पराजय के रूप में देखते हैं. इसके साथ ही तमाम आन्दोलनकारी ताकतों को किसान आन्दोलन से सीख लेने के लिए प्रेरित करते हुए लिखते हैं  –

आंदोलन में अगर चरित्र बल हो और आंदोलनकारियों को धैर्य का साथ हो तो शक्तिशाली सरकारें भी उनके समक्ष घुटने टेक सकती हैं. किसान बिल की वापसी की प्रधानमंत्री की घोषणा ने इसे एक बार फिर से साबित किया है.

अपने कदम पीछे खींचने के इस फैसले तक पहुंचना सरकार के लिये आसान नहीं रहा होगा. सब जानते हैं कि कृषि क्षेत्र में तथाकथित ‘सुधार’ के लिये सरकार पर ‘कारपोरेट वर्ल्ड’ का कितना दबाव था. दुनिया मुट्ठी में कर लेने के इसी अतिआत्मविश्वास का नतीजा था कि एक बड़े कारपोरेट घराने द्वारा कृषि कानूनों की औपचारिक घोषणा के पहले ही बड़े पैमाने पर अन्न संग्रहण की तैयारियां की जाने लगी थी.

आनन-फानन में तैयार किये गए इन विशालकाय अनाज गोदामों के न जाने कितने विजुअल्स विभिन्न न्यूज चैनलों पर आ चुके थे जो इस तथ्य की तस्दीक करते थे कि देश की कृषि संरचना पर काबिज होने के लिये बड़े कारपोरेट घराने कितने आतुर हैं.

दरअसल, किसानों के आंदोलन ने जिस द्वंद्व की शुरुआत की थी, उसमें प्रत्यक्षतः तो सामने सरकार थी लेकिन परोक्ष में कारपोरेट शक्तियां भी थी. इस मायने में, कृषि बिल की वापसी को हम हाल के वर्षों में हावी होती गई कारपोरेट संस्कृति की एक बड़ी पराजय के रूप में भी देख सकते हैं.

यह बाजार की शक्तियों की बेलगाम चाहतों पर संगठित प्रतिरोध की विजय का भी क्षण है जिसके दूरगामी प्रभाव अवश्यम्भावी हैं, क्योंकि यह एक नजीर है उन श्रमिक संगठनों के लिये जो प्रतिरोध की भाषा तो बोलते हैं लेकिन किसानों की तरह कारपोरेट की मंशा के सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पा रहे.

न जाने कितने आरोप लगाए गए कि सड़कों पर डेरा जमाए इन किसानों को विदेशी फंडिंग हो रही है, कि इनमें खालिस्तानी भी छुपे हुए हैं, कि ये देश के विकास में बाधक बन कर खड़े हो गए हैं…और…कि ये तो कुछ खास इलाकों के संपन्न किसानों का ऐसा आंदोलन है जिसे देश के अधिसंख्य किसानों का समर्थन हासिल नहीं है. आंदोलन को जनता की नजरों से गिराने की कितनी कोशिशें हुईं, यह भी सब जानते हैं. कितने न्यूज चैनलों ने इसे बदनाम कर देने की जैसे सुपारी ले ली थी, यह भी सबने देखा.

संगठित और संकल्पित किसानों ने उदाहरण प्रस्तुत किया कि नए दौर में नव औपनिवेशिक शक्तियों से अपने हितों की, अपनी भावी पीढ़ियों के भविष्य की रक्षा के लिये कैसे जूझा जाता है. उन्हें पता था कि अगर कारपोरेट और सत्ता के षड्यंत्रों का जोरदार विरोध न किया गया तो उनकी भावी पीढियां आर्थिक रूप से गुलाम हो जाएंगी.

जब किसी आंदोलित समूह के लक्ष्य स्पष्ट हों और उनके साथ उनका सामूहिक चरित्र बल हो तो सत्ता को अपने कदम पीछे खींचने ही पड़ते हैं. खास कर ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, जिनमें वोटों के खोने का डर किसी भी सत्तासीन राजनीतिक दल के मन में सिहरन पैदा कर देता है.

किसानों ने सरकार के मन मे इस डर को पैदा करने में सफलता हासिल की कि वह अगर आंदोलन के सामने नहीं झुकी तो इसका चुनावी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.

निजीकरण की आंच में सुलग रहे सार्वजनिक क्षेत्र के आंदोलित कर्मचारी सरकार के मन में यह डर पैदा नहीं कर सके. सत्तासीन समूह और उसके पैरोकार कारपोरेट घराने इन कर्मचारियों के पाखंड को समझते हैं. वे जानते हैं कि दिन में सड़कों पर मुर्दाबाद के नारे लगाते ये बाबू लोग शाम के बाद अपने-अपने ड्राइंग रूम्स में सत्ता के प्रपंचों को हवा देने वाले व्हाट्सएप मैसेजेज और न्यूज चैनलों में ही रमेंगे.

‘…विकल्प कहां है…?’ इस सवाल को दोहराने वालों में अग्रणी रहने वाले ये कर्मचारी अपने आंदोलनों से किसी भी तरह का चुनावी डर सत्तासीन राजनीतिक शक्तियों के मन में नहीं जगा पाए.

आप इसे राजनीतिक फलक पर शहरी मध्य वर्ग के उस चारित्रिक पतन से जोड़ सकते हैं जो उन्हें तो उनके हितों से महरूम कर ही रहा है, उनकी भावी पीढ़ियों की ज़िन्दगियों को दुश्वार करने की भी पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है.

कृषि बिल की वापसी की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वे आंदोलित किसानों को समझा नहीं पाए. वे सही ही कह रहे थे. जब अपने आर्थिक-सामाजिक हितों को लेकर किसी समूह की राजनीतिक दृष्टि साफ होने लगे तो उसे प्रपंचों और प्रचारों से समझा पाना किसी भी सत्तासीन जमात के लिये आसान नहीं होता.

हालांकि, वे सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को भी समझा नहीं पा रहे कि उनके संस्थानों के निजीकरण के बाद भी उनके हितों की सुरक्षा होगी. लेकिन, तब भी, वे इस समूह की राजनीतिक प्राथमिकताओं के प्रति फिलहाल तो आश्वस्त ही हैं. तभी तो, तमाम विरोध प्रदर्शनों के बावजूद अंधाधुंध निजीकरण का अभियान जोर-शोर से जारी है.

किसान आंदोलन की यह जीत कारपोरेट की सर्वग्रासी प्रवृत्तियों के खिलाफ किसी सामाजिक-आर्थिक समूह की ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धि है जो अन्य समूहों को भी प्रेरणा देगी...कि घनघोर अंधेरों में भी अपनी संकल्प शक्ति और साफ राजनीतिक दृष्टि के सहारे उजालों की उम्मीद जगाई जा सकती है. यह शक्तिशाली बाजार के समक्ष उस मनुष्यता की भी जीत है जिसे कमजोर करने की तमाम कोशिशें बीते तीन-चार दशकों से की जाती रही हैं.

बाजार और मनुष्य के बीच का द्वंद्व आज के दौर की सबसे महत्वपूर्ण परिघटना है. उम्मीद कर सकते हैं कि बाजार की यह पराजय मनुष्यता के विचारों को मजबूती देगी.

इसके साथ ही किसानों के अनेकों सवाल अभी भी मूंह बाये खड़ी है, जिसका जवाब अंबानी-अदानी के नौकर मोदी सरकार को देना होगा, जिसमें प्रमुख इस प्रकार हो सकते हैं –

 

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