जो काम दिलीप मंडल करते हैं, जो काम प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह करते हैं, जो काम मिथक पुनर्लेखन के नाम पर फारवर्ड प्रेस करते रहा, वही काम अब कंगना रनौत, योगी और मोदी कर रहे हैं. बिना तथ्य और तर्क के इतिहास का मनमाना तोड़-मरोड़ करके मनमानी व्याख्या करना. यह इसलिये किया जाता है कि यह तबका जानता है कि पिछड़ी जातियां बहुत-कम तर्कशील और अस्मिता पसंद लोग हैं. ओबीसी की हर जाति अपने इतिहास में एक अस्मिता की ख्वाहिश रखती है, बस उससे ही काम चल जाता है.
यह प्रक्रिया आज की नहीं है – बल्कि दशकों पहले से यह होते आया है. यादव क्षत्रिय महासभा ने 1920-30 के दशक में अहिर के लिये क्षत्रिय स्टेट्स की मांग की. उस समय उन्होंने सिद्ध करने की कोशिश की, वे यदुवंशी क्षत्रिय हैं इसलिये उनके नाम के पीछे यादव लिखना चाहिये. तब से लेकर आजतक यादव लिखने की प्रथा कायम है. उसी काल में कुशवाहा क्षत्रिय महासभा ने सिद्ध किया कि कोईरी राम के वंशज कुश के संतान है इसलिए उन्हें कुशवाहा लिखना चाहिये, आज लिखते भी हैं.
दलितों में अखिल भारतीय दुसाध महासभा कभी खुद दु:साध को दु:शासन का वंशज सिद्ध करने की कोशिश की तो कभी गहलोत क्षत्रिय. दु:शासन महाकाव्य का एक खलनायक था, चूंकि दलितों की इतनी हैसियत नहीं थी की खुद को महाकाव्य के नायक से जोड़े. बवाल हो सकता था इसलिए इस जाति के ‘चतुर सुजान’ ने रास्ता निकाल लिया. दु:साध में ‘दु’ के आगे विसर्ग है, दु:शासन में भी ‘दु’ के आगे विसर्ग है, तो विसर्ग की यह समानता सिद्ध करने के लिए काफी है कि दु:साध, दु:शासन वंशी है.
दु:शासन खलनायक था तो क्या वंश तो उसका क्षत्रिय था. इस तरह दु:साध अग्रजों ने दु: साध के लिये क्षत्रिय बनने का रास्ता साफ किया लेकिन उससे समाज को मिला क्या ? सच पूछिए तो घंट.
एक झटके में रंक से राजा बनाने का यह नुस्खा आज बीमारी का रूप ले लिया है. जिसे देखो, वही इतिहास में राजा बन बैठा है, वर्तमान में भले ही वह किसी के लिये पानी पिलाता हो या पालकी ढोता हो. पालकी ढोने पर याद आया कि कहार भी खुद को चंद्रवंशी कहता है और अपने को जरासंध से जोड़ता है. आरा में एक डीएम ने उनकी अस्मिता की रक्षक बन जरासंध चौक ही बना डाला.
मल्लाह खुद को निषाद वंशी कहने लगे. कुम्हार प्रजापति यानी सीधे ब्रह्मा से जुड़ गये. भं() ने तो सीधे वाल्मिकी पर दावा ठोक दिया है. इस तरह मिथक हमारे जन-जीवन का चेतन-अवचेतन का हिस्सा बन गये. इस मानसिकता का दोहन अगर राजनीति में बहुमत तैयार करने के लिए होता है तो किं आश्चर्यं ?
यह हाल केवल दलितों-पिछड़े का नहीं है, ब्राह्मण भी अस्मितापरक जिंदगी जीते हैं. कोई तिवारी है, कोई भरद्वाज है, कोई पांडे है, कोई मिश्रा है, कोई दूबे हैं, इन्होने भी कभी आत्मविश्लेषण करने की कोशिश नहीं की कि ये रंग-बिरंगे पूंछ कहां से उगा लिये जबकि सबकी जाति एक है – ब्राह्मण.
सारी जातियां, अपने पूंछ में खूब तेल लगाती है और उसे सुहराते रहती है. इस मानसिकता को वर्चस्ववादी शासन व्यवस्था खूब पहचानती है. वर्चस्ववाद का एक ही उद्देश्य होता है, येन-केन-प्रकारेण यथास्थिति बनाए रखना. यथास्थिति कैसे बनी रह सकती ? लोगो को विभिन्न अस्मिता में बांट कर उन्हें इतिहास का राजा सिद्ध कर दो, वर्तमान में भले उससे थाली धुलवाए या झाड़ू लगवाए.
अगर 6 हजार जातियां हैं तो 6 हजार राजा भी होंगे. जब सब जाति का एक ही राजा होगा तो वे एक मंच पर कैसे आ सकते हैं ? यही ध्यान रखकर अस्मिता रची जाती है. जैसे योगी तो इतने पागल नहीं है कि उन्हें न पता हो कि सिकंदर कौन था, चंद्रगुप्त कौन था. उन्होंने कुछ गलत भी नहीं कहा. उन्होंने कहा कि हमारे इतिहास में सिकंदर को महान पढ़ाया जाता है, चंद्रगुप्त तो उनसे भी महान थे, उनको महान क्यों नहीं कहा जाता ?
चूंकि चंद्रगुप्त मौर्य कोईरी से जुड़ गये हैं तो योगी कोईरियों को चु… काट गये. वे कोईरियों में एक जुगुप्सा जगा गये – हां यार, हमारा इतिहास भी तो इंटरनेशनल होना चाहिए, सिकंदर की तरह चंद्रगुप्त उससे कम थे क्या ? एक non – approachable (अगम्य) लक्ष्य रख दिया उन्होनें कोइरियों के सामने. यहां समाज का अवचेतन सक्रिय हो गया. योगी जी कह कर चुप हैं – लेकिन अवचेतन की जुगुप्सा सक्रिय है. अब जो योगी की बात का विरोध करेगा, वह कोईरियों का दुश्मन होगा. खेलो राजनीति आप लोग.
यह है राजनीति में इतिहास की मनमानी व्याख्या. इतिहास के प्रति अतार्किक और भाव दोहन का काम ओबीसी ने खुद शुरु किया. इस टेकनिक को अगर वर्चस्वशाली वर्ग राजनीति में इस्तेमाल कर रहा है तो लोग बिलख क्यों रहे हैं ?! यहां हर आदमी बिना तर्क और तथ्य के इतिहासकार बना फिरता है !
हमें इस पर आपति नहीं कि आप इतिहास के अनसुलझे सवाल पर सवाल मत खड़ा कीजिये. आपति इस बात पर है कि इतिहास में जाकर निर्णय और निष्कर्ष जल्दबाजी में मत दीजिए. यह तब और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब आप हाशिये के विमर्शकर्ता हो.
महत्वपूर्ण तब और हो जाता है जब आप पीएचडी धारक हों और बात मूर्ख आदमी की तरह करते हैं !
अब पीएचडी धारक प्रो. राजेन्द्र प्रसाद सिंह और दिलीप मंडल दोनों कहते हैं कि चाणक्य नाम का पात्र फर्जी है. सही बात है आप चाणक्य पर सवाल खड़ा कीजिये, लोग चंद्रगुप्त पर भी सवाल खड़ा करेंगें कि वह भी तो फर्जी है ? चंद्रगुप्त और अशोक का नाम किस शिलालेख में आता है या किस बौद्ध ग्रंथ में उनका राज काज वर्णित है ? जाहिर है आप इतना इतिहास नहीं पढ़े हैं कि इसका जवाब दे दीजियेगा !
इतिहास समझने और लिखने की अपनी वैज्ञानिक विधि है. बहुत सारे शोध हुये हैं इतिहास में, उन्हें आप पढ़ते क्यों नहीं ? चाणक्य फर्जी है तो कपिल वस्तु भी फर्जी है. कपिल वस्तु तो कपिल मुनि के नाम पर बसा था. अब हम बतायें कि कपिल मुनि कौन थे ? कपिल मुनि वेद और महाकाव्य के पात्र हैं और ब्राह्मण थे. तब आप कह दीजिए कि कपिलवस्तु झूठ था ? नहीं कहा जाएगा न ?
सांख्य दर्शन तो संस्कृत में है और बुद्ध कपिल वस्तु में पैदा हुए थे. मतलब बुद्ध ही नहीं, बुद्ध के बाप से भी पुराना कपिल मुनि और कपिल वस्तु है. यहां आपकी थियुरी कहां उड़ जायेगी की संस्कृत, पाली से नयी भाषा है और बुद्ध से पहले ब्राह्मण और संस्कृत था ही नहीं ?
वैसे एक सवाल और है – वर्तमान कोईरी यानी पूर्व के शाक्य ब्राह्मण के नाम पर अपनी राजधानी का नाम क्यों रखे हुए थे ? ब्राह्मण से इनका रिश्ता क्या था ? जब आप हाशिये के विमर्श में अंड-बंड लिखेंगें तो शासक वर्ग के लिये यह तो चुटकी बजाने भर का काम है.
- चांद मनीष
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