विजय शंकर सिंह
जवाहरलाल नेहरू अगर प्रधानमंत्री न होते, तो भी यह विश्व उन्हें एक महान लेखक के रूप में याद रखता. एक ऐसा लेखक, जिसकी इतिहास दृष्टि ने, इस देश के संस्कृति की, अलग तरह से व्याख्या की और देश की सांस्कृतिक विरासत को व्याख्यायित किया. नेहरू, कोई अकादमिक इतिहासकार नहीं थे पर उनकी समृद्धि इतिहास दृष्टि ने उन्हें एक अलग और विशिष्ट तरह के इतिहास लेखक के रूप में स्थापित किया.
स्वाधीनता संग्राम के संघर्ष से लेकर आज़ाद भारत में लोकतंत्र और अनेक संवैधानिक, गैर संवैधानिक संस्थाओं को मजबूती प्रदान कर, राष्ट्र और संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को आकार देने और आर्थिक योजनाओं के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखने वाले वे, एक बेजोड़ शिल्पी तो थे ही उतने ही बेजोड़ कलमकार भी थे.
जवाहर लाल नेहरू, न केवल आज़ादी के लिए किये गए संघर्ष के शीर्षस्थ नेताओं में से एक रहे हैं बल्कि वे देश के प्रथम प्रधान मंत्री भी रहे हैं. राजनीति में उनका एक अलग व्यक्तित्व रहा है. आधुनिक भारत के निर्माताओं में उनका स्थान प्रथम पंक्ति में है पर आज इस लेख में जिस क्षेत्र में उनके योगदान की चर्चा की जा रही है, वह राजनीति से बिलकुल अलग अकादमिक क्षेत्र है. यह क्षेत्र है, लेखन का, नेहरू के इतिहास बोध का.
अहमदनगर जेल में लिखी गयी उनकी कालजयी इतिहास पुस्तक,’द ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’, जिसका अनुवाद, ‘विश्व इतिहास की एक झलक’ मोटे तौर पर विश्व इतिहास की घटनाओं का एक सिलसिलेवार विवरण देती है. उसे इतिहास की टेक्स्ट बुक या अकादमिक इतिहास पुस्तक तो नहीं कहा जा सकता, पर वह दुनिया भर में घटने वाली ऐतिहासिक घटनाओं का रोचक विवरण अवश्य प्रस्तुत करती है. यह पुस्तक पत्र लेखन शैली में है. पिता नेहरू ने पुत्री इंदिरा को विश्व इतिहास की एक झलक दिखायी है. पत्र लेखन के माध्यम से इतिहास लिखने का यह एक अनुपम प्रयोग था.
इसके अतिरिक्त उनकी एक और प्रसिद्ध पुस्तक है, ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ( भारत एक खोज ). प्राचीन भारत के वेदों से ले कर अब तक भारत की यह काल यात्रा है. यह पुस्तक देश के अतीत के साथ साथ, प्राचीन वांग्मय और भारतीय मनीषा के साथ, नेहरू के जुड़ाव को दिखाती है. यह दोनों पुस्तकें यह प्रमाणित करने में सफल रहीं है कि वह एक स्वाधीनता संग्राम के संघर्षशील नायक और द्रष्टा प्रधानमंत्री ही नहीं थे, बल्कि एक सिद्धहस्त लेखक भी थे.
वकालत, नेहरू के परिवार का पुश्तैनी पेशा था. नेहरू बचपन में ही पढ़ने के लिये इंग्लैंड भेज दिए गए. प्रारंभिक शिक्षा, हैरो स्कूल और उच्च शिक्षा कैंब्रिज में हुयी. वहीं से इन्होंने बार ऐट लॉ की डिग्री ली. फिर स्वदेश आगमन और इलाहाबाद में रह कर वक़ालत का कार्य प्रारम्भ किया. इन्होंने 8 साल वकालत की. पिता मोती लाल नेहरू का रुझान तब तक देश सेवा की ओर हो चुका था. वह सर सी. आर. दास, जैसे बड़े वकीलों के साथ मिल कर स्वराज पार्टी बना चुके थे. गांधी का देश में आगमन हो चुका था. उनका असहयोग आंदोलन शुरू तो हुआ पर चौरी चौरा की हिंसक घटना के कारण आंदोलन की अकाल मृत्य हो गयी. गांधी को सजा हो गयी थी. वे जेल में थे. राजनीतिक परिवेश में ठंडापन था.
जवाहर लाल नेहरू जो 1919 में हुए जलियांवाला बाग़ नरसंहार के बाद से ही राजनीति में क़दम रख चुके थे, अब और सक्रिय हो गए. 1930 के ऐतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन, जो लाहौर में रावी नदी के तट पर हुआ, में वे राष्ट्रपति चुने गए. कांग्रेस अध्यक्ष को उन दिनों राष्ट्रपति कहा जाता था. यह अधिवेशन ऐतिहासिक कहा जाता है क्योंकि इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने भारत के पूर्ण स्वराज की मांग का प्रस्ताव पास कर अपना लक्ष्य और संघर्ष स्पष्ट कर दिया था.
स्वाधीनता संग्राम में नेहरू ने कुल 9 साल कारागार में बिताये. वह लाहौर, अहमदनगर, लखनऊ और नैनी जेलों में रहे. वहीं इनका अध्ययन और लेखन परिपक्व हुआ. कारागार के समय का इन्होंने सकारात्मक सदुपयोग किया. वह सुबह 9 बजे से लिखना पढ़ना शुरू करते थे, और देर रात तक उनका यह क्रम चलता रहता था. कारागार के जीवन के बारे में उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा को जो पत्र लिखा था, उसे पढिये –
‘रोज सुबह एक कप चाय पीने के बाद मैं लगभग 2 मील तक पैदल चलता हूं. पूजा के बाद मैं पढ़ना शुरू करता हूं. यहां रात का खाना 6 बजे तक ही होता है, उसके बाद पूरी रात में अपनी बैरक में होता हूं. सोने का समय 9 या 10:00 बजे के आस पास होता हूं और सबेरे 5:00 बजे उठ जाता हूं. मैं दरी बुनना चाहता हूं लेकिन उसे सीखने में काफी वक्त जाया होगा इसलिए मैंने चारपाई बुननी शुरू कर दी है. मैं आगे जरूर देखना चाहूंगा कि तुम अच्छी चारपाई बुनती हो या मैं. जेल का जीवन बेहद चौका देने वाला होती है. यहां पर अलग अलग तरीके के लोग मिलते हैं. अलग-अलग तरह के व्यक्तित्व को जानने का मौका मिलता है. यह बार-बार की जेल यात्रा मुझे पहले से ज्यादा ताकतवर बना देती है. हर बार मैं शक्तिशाली होकर लौटा हूं.’
जेल के एकांत और अवकाश ने उन्हें देश के इतिहास, सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के अध्ययन और पुनर्मूल्यांकन का अवसर दिया. उनका लेखन आत्म मुग्धता के लिए नहीं बल्कि देश की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए था, जिस से देश का स्वाभिमान जागृत किया जा सके. उन्होंने कुल चार पुस्तकें लिखीं. 1929 में पहली पुस्तक लिखी गयी –
- ‘लेटर्स फ्रॉम ए फादर टू ए डॉटर ‘, जिसमें उन्होंने प्रागैतिहासिक काल का विवरण दिया है.
- 1934,-1935 में उनकी क्लासिक कही जाने वाली पुस्तक, ‘The glimpses of world history’, (विश्व इतिहास की एक झलक), आयी.
- 1936 में उनकी आत्म कथा, ‘माय ऑटोबायोग्राफी,’ ( मेरी कहानी ) और
- 1946 में दर्शन, इतिहास और संस्कृति को ले कर लिखी गयी पुस्तक ‘The Discovery of india” (भारत एक खोज) प्रकाशित हुई.
उनके इतिहास बोध को समझने के पूर्व उनकी पुस्तकों के बारे में जानना आवश्यक है. पिता के पत्र पुत्री के नाम, जो 1929 में प्रकाशित पुस्तक थी, में इनके वे पत्र संकलित हैं, जो इन्होंने इलाहाबाद प्रवास के दौरान लिखा था. इंदिरा उस समय मसूरी में पढ़ रहीं थी. इतिहास के साथ, वन्य जीव जंतुओं और अन्य विषयों पर इन्होंने अपनी पुत्री की बाल सुलभ जिज्ञासाओं के समाधान की कोशिश की है.
यह प्रयास यह भी बताता है कि सार्वजनिक जीवन की तमाम व्यस्तताओं के बीच, उनमें एक आदर्श पिता जीवित रहा जिसने संतान को संवारने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी. अंग्रेज़ी में लिखे इन पत्रों का पुस्तक के रूप में अनुवाद महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने किया था. उनका एक पत्र जिसका उल्लेख यहां करना उचित होगा, जो वन्य जीव के विकास पर आधारित है. डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत तब तक अस्तित्व में आ चुका था. उन्होंने लन्दन स्थित केनिग्स्टन म्युजियम में रखे जानवरों के चित्रों पर इस पत्र को केंद्रित किया.
उन्होंने यह लिखा कि ठंडे और शीत ग्रस्त क्षेत्रों के जंतु अपने वातावरण के अनुसार ही शुभ्र होते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों के जंतु और वनस्पतियां विभिन्न रंगों की होती हैं. उनकी इस धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक शोध हो या न हो लेकिन, बाल सुलभ जिज्ञासा को शांत करने की उनकी यह शैली अद्भुत थी. दूसरा पत्र, मनुष्य की उत्पत्ति पर है. मनुष्य के विकास का विवरण देता यह पत्र नृतत्वशास्त्र में उनकी रूचि को भी बताता है. मूलतः यह पुस्तक बच्चों के लिए है. इसमें उनका कोई गंभीर इतिहास बोध नहीं झलकता है.
इतिहास की उनकी अवधारणा, तिथिक्रम का विवरण और घटनाओं का वर्णन ही नहीं है. विश्व इतिहास की एक झलक, जो 1934-35 में प्रकाशित हुई, में उन्होंने एशिया के साम्राज्यों के उत्थान और पतन पर विहंगम दृष्टि डाली है. अर्नाल्ड टॉयनाबी के इतिहास एक अध्ययन के तर्ज़ पर उन्होंने सभ्यताओं के उत्थान और पतन को समझने और समझाने का प्रयास किया है, जिस से उनके अध्येता होने का प्रमाण मिलता है. कोई भी व्यक्ति जो विश्व इतिहास की रूपरेखा समझना और जानना चाहता है और संदर्भों की शुष्क वीथिका से बचना चाहता है, वह इसका अध्ययन कर सकता है.
1934 में ही उनकी आत्मकथा, ‘मेरी कहानी’ प्रकाशित हुई. आत्मकथा लेखन एक आधुनिक साहित्य विधा है. पहले खुद के बारे में कुछ कहना और उसे प्रचारित करना आत्ममुग्धता समझा जाता था. इसीलिए पूर्ववर्ती अनेक महान साहित्यकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं होता है, जो मिलता है वह या तो किंवदंती के रूप में या समकालीनों द्वारा दिए विवरण के रूप में ही होता है. स्वयं को पारदर्शिता के साथ देखना बहुत कठिन होता है वह भी तब, जब कि मनुष्य सार्वजनिक जीवन में हो. पर अपनी आत्मकथा में उन्होंने जो भी लिखा है वह उनकी खुद की ईमानदार विवेचना है.
आप यूं भी कह सकते हैं कि उनकी आत्मकथा का काल 1932 में ही ख़त्म हो जाता है. जबकि उनके जीवन के अनेक विवाद इस काल के बाद हुए. सुभाष बाबू के साथ विवाद, भारत विभाजन और प्रधानमंत्री काल के अनेक निर्णय, जिनको लेकर उनकी आलोचना होती है, के समय की कोई आत्मकथा लिखी ही नहीं गयी. संकट काल और आलोचना से घिरे होने पर स्वयं को कैसे बिना लाग लपेट के प्रस्तुत किया जाय, इस में आत्मकथा लेखक की कुशलता और ईमानदारी दोनों ही निहित होती है.
लन्दन टाइम्स ने उनकी पुस्तक ‘मेरी कहानी’ को उस समय की पठनीय पुस्तकों के वर्ग में रखा था. इस पुस्तक में उनके परिवार, उनकी पढ़ाई और 1933 तक के आज़ादी के लिए किये गए संघर्षों का विवरण मिलता है. उस काल के शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक एक सन्दर्भ और स्रोत का भी काम करती है.
उनकी सबसे परिपक्व कृति ‘भारत एक खोज’ है. 1944 में यह पुस्तक प्रकाशित हुई. भारतीय मनीषा, सभ्यता और संस्कृति का अद्भुत सर्वेक्षण इस पुस्तक में है. पूर्णतः अंग्रेज़ी परिवेश में पले और पढ़े-लिखे नेहरू द्वारा वेदों से लेकर पुराणों का अध्ययन उनके अंदर छिपे प्राच्य दर्शन को दिखाता है. इस पुस्तक में भारत की एक यात्रा है. इतिहास है, परम्पराएं हैं और संस्कृति की जीवंतता है.
नेहरू के जीवनीकार एम. जे. अकबर इस पुस्तक की लेखन शैली की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं. वह बताते हैं कि उनकी दोनों पुस्तकें ‘विश्व इतिहास की एक झलक’ और ‘भारत एक खोज’ उन की लेखकीय प्रतिभा को ही नहीं बल्कि उनके पांडित्य को भी प्रदर्शित करती है.
इतिहासकार विपिन चंद्र ने उनकी आत्मकथा को आंशिक इतिहास और इतिहास को आंशिक आत्मकथा माना है. उन्होंने भूत की त्रुटियों को वर्तमान के सन्दर्भ से जोड़ते हुए वर्तमान को आगाह किया है तो वर्तमान में ही भूत ढूंढ़ने की कोशिश की गयी है. उन्होंने इतिहास को एक जीवंत अंतहीन यात्रा की तरह प्रस्तुत किया है. नेहरू इतिहास के विद्यार्थी नहीं थे और न ही वह कोई इतिहासकार थे. अतीत को उन्होंने अपनी नज़र से देखा और उसे प्रस्तुत कर दिया. वह स्वयं अपनी पुस्तक में कहते हैं –
‘The past is always with us and all that we are and what we have comes from the past. We are its products and we live immersed in it. Not to understand it and feel it as something living within us is not to understand the present. To combat it with the present and to extend to the future, to break from it when it cannot be united, to make of all these the pulsating and vibrating material for thought and action-that is life.’
वह लिखते है, अतीत मुझे अपनी गर्माहट से स्पर्श करता है और जब वह अपनी धारणा से वर्तमान को प्रभावित करता है तो मुझे हैरान भी कर देता है. इतिहासकार ई. एच. कार ठीक ही कहते हैं, सच में इतिहास वही लिख सकते हैं जिन्होंने इसकी दिशा को बदलते हुए महसूस किया हो. नेहरू खुद इतिहास के दिशा प्रवर्तक रहे है. इतिहास में अतीत से हम कहां से आये हैं, कि तलाश करते हुए यह जिज्ञासा भी उठती है कि हम जाएंगे कहां ?
इतिहास लिखना अतीत के दाय का निर्वहन भी है. उन देशों का इतिहास लेखन कठिन होता है जहां संस्कृति और सभ्यता की एक विशाल और अनवरत परंपरा रही हो. एशिया के दो महान देशों चीन और भारत के साथ यह समस्या अक्सर इनके इतिहास लेखन के समय हो जाती है. ऐसा इसलिए कि न केवल स्रोत और सामग्री की प्रचुरता है बल्कि अनवरतता भी है. अपने इतिहास लेखन को नेहरू अतीत के प्रति अपना कर्तव्य भी मानते हैं. हम कहां से आये हैं और हम कौन है कि आदिम दार्शनिक जिज्ञासा ही नेहरू के इतिहास लेखन का प्रेरणा स्रोत रहा है और इसी का प्रतिफल है ‘ द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ‘, या ‘भारत एक खोज’. अपनी इतिहास की अवधारणा को वह इन शब्दों में व्यक्त करते हैं –
‘A study of history should teach us how the world has slowly but surely progressed….. man’s growth from barbarism to civilisation is supposed to be the theme of history.’
नेहरू एक लोकतांत्रिक समाजवादी विचारधारा में विश्वास करते थे. उनके समाजवाद की अवधारणा मार्क्सवादी समाजवाद से अलग थी, हालांकि मार्क्स ने उन्हें प्रभावित भी किया था और रूस की सोवियत क्रान्ति के महानायक वी. आई. लेनिन के वे भी प्रशंसक थे, पर इस पाश्चात्य राजनीतिक अवधारणा के बावज़ूद प्राचीन वांग्मय के प्रति उनका रुझान उनकी पुस्तकों विशेषकर भारत एक खोज में खूब दिखा है.
वह सभ्यताओं का उद्भव एक सजग अनुसंधित्सु की तरह खोजते हैं, फिर उसे आधुनिक काल से जोड़ते हैं. वह किसी वाद विशेष के कठघरे में नहीं रुकते हैं पर भारतीय दर्शन के मूल समष्टिवाद को ले कर बढ़ते रहते हैं. भारतीय संस्कृति के वह परम प्रशंसक ही नहीं बल्कि वे इसे दुनिया की सबसे जीवंत संस्कृति के रूप में इस पर गर्व भी करते हैं. यह उनकी विशाल हृदयता और दृष्टि का परिचायक है. भारत एक खोज में वे लिखते हैं –
‘पांच हज़ार साल से प्रवाहित हो रही अविच्छिन्न संस्कृति के काल में डेढ़ सौ साल का ब्रिटिश काल एक दु:खद काल खंड है. पर उस से संस्कृति की ऊर्जस्विता और ओजस्विता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है.’
(सुगता बोस और आयशा जलाल, की पुस्तक, मॉडर्न साउथ एशिया पृ. 8.)
इतिहास में घटनाओं से अधिक व्यक्तित्वों ने उन्हें प्रभावित किया है. घटनाएं व्यक्तित्व गढतीं हैं या व्यक्तित्व घटनाओं की उपज है. इस पर भी बौद्धिक विमर्श हो सकता है पर दोनों ही एक दुसरे से जुड़े है. 19वी सदी के इतिहास लेखन में वे व्यक्तित्व की प्रतिभाओं से चमत्कृत होते हैं. वह तुर्की के मुस्तफा कमाल पाशा से बहुत प्रभावित दिखते हैं. उन्होंने इतिहास को वैश्विक समग्रता से देखा है. इसलिए वह एक वैश्विक गांव का इतिहास प्रस्तुत करते हैं. एक देश की घटनाएं दुसरे को अप्रभावित किये बिना नहीं रह सकती है. पूरी दुनिया के एक गांव में बदल जाने की प्रक्रिया 19वीं सदी से ही शुरू हो गयी थी. वह लिखते हैं –
‘In history, we read of great periods in the life of nations, of great men and women and great deeds performed and sometimes in our dreams and reveries we imagine ourselves back in those times and doing brave deeds like the heroes and heroines of old.’ ( The glimpses of world history. pg.2 )
नेहरू का एक इतिहास के विद्यार्थी या इतिहासकार के रूप में मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है. उन्होंने इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों के लिए इतिहास नहीं लिखा है. ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ में उन्होंने अपनी प्रिय पुत्री इंदिरा को देश विदेश का ज्ञान कराने के लिए लिखा था. यह एक व्यक्तिगत पत्रों का संकलन है पर लेखक ने उसे सबके लिए उपयोगी बना दिया.
‘विश्व इतिहास की एक झलक’, विश्व इतिहास की कोई टेक्स्ट बुक नहीं है, पर यह विश्व के महान संस्कृतियों के प्रवाह को दिखाते हुए, विभिन्न संस्कृतियों के आदान प्रदान को रेखांकित करते हुए, नेहरू के द्रष्टा और उनके सार्वभौमवाद को भी दिखाती है. ‘मेरी कहानी’ उनकी आत्मकथा तो है, पर वह आज़ादी के संघर्ष के एक काल खंड का इतिहास भी समेटे है.
‘भारत एक खोज’ भारत की एक दार्शनिक यात्रा है. हज़ारों साल से अस्मिता पर जो हमला हुआ था, धर्म और समाज में जो विकृतियां आ गयीं थी, उन सब के बावज़ूद भी, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की अकलुषित आत्मा की खोज है यह पुस्तक. इसमें, धर्म है, दर्शन है, और इतिहास है. नेहरू के सारी कृतियों में यह सबसे गंभीर और परिपक्व पुस्तक है. मूलतः विज्ञान और फिर विधि के विद्यार्थी रहते हुये भी उनकी इन सभी पुस्तकों में इतिहास के प्रति रुचि और इतिहास की समझ साफ़ दिखती है.
डिस्कवरी ऑफ इंडिया में जवाहरलाल नेहरू ने भारत के दीर्घ गौरवशाली अतीत की एक सुंदर टेपेस्ट्री प्रस्तुत की है, जो हमें हज़ारों साल के इतिहास की रोचक और दार्शनिक यात्रा करती है. यह पुस्तक, उनकी लेखनी के काव्य प्रवाह और उनकी उच्च बौद्धिक समझ का एक दुर्लभ संयोजन है. भारतीय सभ्यता के पतन के कारणों के बारे में उनकी अंतर्दृष्टि वास्तव में उल्लेखनीय है लेकिन नेहरू अपने पाठकों को यह भी आश्वस्त करते हैं कि भारत में कुछ ऐसा है, जिसके कारण उसकी आत्मा कभी नहीं मर सकती है, और उसे उसकी गहरी नींद से कभी भी फिर से जगाया जा सकता है, बशर्ते कि हम भारत के लोग इसके लिए प्रस्तुत हो जांय.
जब वे भारत के अतीत की महानता के बारे में बात करते हैं, तो नेहरू, एक उत्साहित और ऊर्जस्वित रूप में नज़र आते हैं, पर जब वे दासताकाल की बात करते हैं, तो उपनिवेशवाद के प्रति उनकी कड़वाहट स्पष्ट रूप से महसूस की जा सकती है लेकिन उनकी यह कड़वाहट कभी भी यूरोपीय संस्कृति और उसके लोगों के लिए घृणा में नहीं परिवर्तित होती है. वे कहते हैं, ‘राष्ट्रवाद एक संकुचित पंथ है’, लेकिन यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि यही राष्ट्रवाद, उनके दिमाग को बंद करने और उसे पक्षपातपूर्ण तरीके से सोचने के लिए मजबूर करने के बजाय, उनके दिमाग को विस्तृत करता है.
नेहरू का राष्ट्रवाद शायद राष्ट्रवाद की सबसे स्वस्थ अभिव्यक्ति थी. उनका मानना था कि राष्ट्रवाद भारत की सेवा है और उसके लोगों को न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि उनकी घोर गरीबी और निराशा से भी मुक्त करता है, और उनके दिमाग में, भारत की मुक्ति प्रत्येक लोगों की मुक्ति का प्रस्तावना थी. दुनिया में, और इस प्रकार मानवता के लिए सबसे बड़ा योगदान है.
अब एक सुना गया रोचक प्रसंग प्रस्तुत है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक सेमीनार हो रहा था. विषय था – इतिहास लेखन. उस सेमिनार में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक और उर्दू के महान शायर, रघुपति सहाय फ़िराक भी शामिल थे. फ़िराक, नेहरू के मित्र भी थे. उसी गोष्ठी में नेहरू के इतिहास लेखन पर भी चर्चा हुई. एक विद्वान वक्ता ने नेहरू के इतिहास लेखन को इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से गंभीर और अकादमिक नहीं माना.
प्रख्यात इतिहासकार, डॉ. ईश्वरी प्रसाद उस गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे. उन्होंने कहा नेहरू इतिहास के विद्यार्थी नहीं रहे हैं पर अतीत में झांकने और उसका मूल्यांकन करने का सभी को अधिकार है. उनकी रचनाओं के मूल्यांकन के पूर्व उनकी पृष्ठिभूमि पर भी विचार कर लिया जाय. डॉ. ईश्वरी प्रसाद, नेहरू की कृति, भारत एक खोज के प्रशंसक भी थे. बहस गंभीर हुई. तभी फ़िराक उठे और उन्होंने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा –
‘सुनो ईश्वरी, तुम इतिहास लिखते हो, उसने इतिहास बनाया है.’
फ़िराक अक्सर, बदज़ुबां भी हो जाते थे. नेहरू का इतिहास बोध, भारतीय संस्कृति की तरह विराट और विशाल तो था ही, गंगा की तरह अविरल प्रवाह्युक्त और सार्वभौम रहा है.
Read Also –
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]