वह जूडाई का गवर्नर था. जूडाई रोमन राजाओ का जीता हुआ इलाका था. साम्प्रदायिक तनाव के बीच एक अशान्त एशियन इलाका. झगड़े झंझट रोज की बात थे. रोमन सैनिक से पॉलिटिशियन तक का सफर तय करने वाले पाइलेट को, गवर्नर बने रहना रहना था. गवर्नर होने का मतलब इलाके को शांत रखो, कब्जे में बनाये रखो और ज्यादा से ज्यादा टैक्स का पैसा रोम भिजवाते रहो.
यहूदियों के बीच आपसी झगड़े से उन्हें मतलब नही था. मगर इस बार का झगड़ा अलग था.
एक साधु किस्म का व्यक्ति धार्मिक त्योहार के समय, सैकड़ों समर्थकों के साथ यरुशलम में घुस आया था. वह खुद भी यहूदी था, पर यहूदियों की धार्मिक कुरीतियों का मजाक उड़ाता. सभायें लेता, लोगो को धार्मिक शिक्षा देता, खुद को ईश्वर का सच्चा बेटा कहता. उसका समर्थन बढ़ रहा था. यही उसका अपराध था.
उसे पकड़कर दरबार मे लाया गया. मौत की सजा की मांग की गई. पाइलेट ने पूछा – क्यों ? उत्तर – इसलिए कि जनता ऐसा चाहती है. इसे न मारा तो दंगा हो जाएगा. यहूदी विद्रोह कर देंगे. इसे मारने पर जनता खुश होगी, राज्य स्थिर होगा.
पाइलेट ने पूरा मुकदमा सुना. उसे अब भी इस आदमी को मारना उचित नही लगता था, मगर यहूदी भीड़ उफान पर थी. त्योहार के कारण एक अपराधी को छोड़ने की प्रथा थी मगर लोग इस आदमी की जगह एक अन्य हत्यारे को माफी देना चाहते थे. महल के आगे भीड़ लगी थी. उसने जनता से पूछा- क्या मैं इसे मौत की सजा दूं ? जनता ने कहा एक स्वर में हामी भरी.
इसका खून किसके हाथों पर होगा ? – पाइलेट ने पूछा. वह अब भी इस कत्ल की जिम्मेदारी नही लेना चाहता था.
हम पर, हमारे बच्चो पर, हम यहूदियों के हाथ पर यह खून होगा – एकत्रित भीड़ ने समवेत स्वर में कहा.
अब खून यहूदियों के सर था. उनके बच्चों के सर था. अपराधी को कांटों का ताज पहनाया गया, घसीटा गया, थूका गया. एक ऊंची पहाड़ी पर ले जाकर दर्दनाक मौत दी गयी. लोग खुश हुए. जीत का अहसास लेकर घर गए.
वक्त का पहिया घूमा, मारा जाने वाला व्यक्ति देवता हो गया. दुनिया उसकी मुरीद हो गयी और यहूदी…!!!
पाइलेट के महल के सामने वो महज कुछ सौ यहूदी थे. मुट्ठीभर उन्मादियों ने जीसस क्राइस्ट के खून से अपने हाथ रंगे, जीत का अहसास किया, इस कृत्य ने पूरी कौम पर अपराध डाल दिया.
हजारों सालों बाद उनकी कौम, उनकी पीढियां अभिशप्त जी रही हैं. एक अदद धरती के टुकड़े, एक देश, एक शांत सुरक्षित जीवन के लिए.
मौत की सजा के मुकर्रर करने के बाद गवर्नर पाइलेट ने देर तक अपने हाथ धोए. यह संकेत था कि वह इस हत्या का दोषी नही. मगर उसका अंत भी आत्मघात से हुआ. मासूम खून के दाग किसी को नही बख्शते.
मुट्ठी भर नफरती, उन्मादियों को भड़काकर, उन्हें एक साथ इकट्ठा कर, सत्ता के ऊंचे आसन को हासिल करने वाले भी हर कत्ल से पहले पूछते हैं.
– ओ लोगों, क्या मैं इन्हें मार दूं ?
मुट्ठी भर भीड़ मचलती है, किलकारियां भरती है, मकतूलों का बहता खून अपने हाथ मे लेती है. अपनी आने वाली पीढ़ियों के सर लेती है. वह ये खून अपने धर्म के सर लेती है. अपने देश के सर लेती है. बार बार, हर रोज लेती है. उसे बहते खून से ताकत का अहसास होता है. और राजा उनकी खुशी के लिए, मासूमों को मारने का आदेश कर अपने हाथ धो लेता है.
क्या आश्चर्य की तमाम त्याग, कोशिशों, संसाधनों और योग्यताओं के बावजूद हम तेजी से फिसलते जा रहे हैं, गिरते जा रहे हैं. हमारे बच्चे उन्मादी बन रहे हैं, कुंठित हो रहे हैं. हमारी मेहनतों के फल नही मिलते. हम घरों में बंद होकर भुखमरी और मौत का इंतजार कर रहे हैं. जिस ओर देखिये, भविष्य अंधकार में दिखता है.
आप यकीन नही करेंगे. मगर सच यही है कि सैंकड़ो अखलाकों का खून अपना रंग दिखा रहा है. उन्माद अब भी शबाब पर है तो अभी ये रंग, और गहरे, और बदरंग होने है. सनद रहे, यह खून राजा के हाथ पर नही है.
- मनीष सिंह
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]