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कल्पनाशीलता की दरिद्रता का शिकार बॉलीबुड

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कल्पनाशीलता की दरिद्रता का शिकार बॉलीबुड

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

राजेश खन्ना जब अपने करियर के शिखर पर थे तो एक वक्त ऐसा आया जब वे निर्माता-निर्देशकों की कल्पनाशून्यता और लालच के शिकार होने लगे. एक ही ढर्रे की फिल्में, उनमें सुपरस्टार के वही हाव-भाव. दर्शक उकताने लगे.

जैसा कि कहा जाता है, खुद राजेश खन्ना के अनप्रोफेशनल रवैये ने भी उनके करियर को ढ़लान पर धकेलने में बड़ी भूमिका निभाई लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके अभिनय की रेंज और ‘भूतो न भविष्यति’ वाली उनकी अपार लोकप्रियता को संभालने में बंबई की फिल्मी दुनिया असमर्थ साबित हुई.

ऐसा ही कुछ अमिताभ बच्चन के साथ भी हुआ. जंजीर, दीवार और शोले के बाद जब वे अगले सुपर स्टार बने तो प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई आदि ने उनकी लोकप्रियता को कैश करना शुरू किया. इस क्रम में अमिताभ की कुछेक अच्छी फिल्में जरूर आई लेकिन जल्दी ही वे भी दोहराव के शिकार होने लगे.

अमिताभ बच्चन राजेश खन्ना के विपरीत अपने प्रोफेशनल रवैये के लिये जाने जाते थे और उन्होंने अपने पूर्ववर्त्ती सुपरस्टार की तरह अपने करियर को लापरवाही से भी नहीं लिया. लेकिन, उन्होंने भी अपनी एक्टिंग की जो रेंज दर्शाई थी, लोकप्रियता के जो मानदंड स्थापित किये थे, उसे कामयाब और कालजयी फिल्मों में तब्दील करने में फिल्मी दुनिया बौनी साबित हुई. वक्त ऐसा भी आया जब वे ‘शहंशाह’ और ‘गंगा जमुना सरस्वती’ जैसी फूहड़ और फालतू फिल्मों में नजर आए. ‘शोले’ को दोहराने की नाकामयाब कोशिश में ‘शान’ जैसी बेहद औसत फार्मूला फ़िल्म बना कर रमेश सिप्पी पहले ही एक त्रासदी रच चुके थे.

गिरावट अभी और आनी थी. अमिताभ की प्रतिभा और टिकट खिड़की पर जनता को खींचने की उनकी क्षमता का मजाक उड़ाते हुए उन्हीं मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा ने ‘तूफान’ और ‘जादूगर’ जैसी घटिया फिल्में परोस दी जो अतीत में ‘अमर अकबर एंथनी’ और ‘मुकद्दर का सिकन्दर’ जैसी बेहद सफल और मनोरंजक फ़िल्म बना कर अमिताभ के सुपरस्टारडम को नई ऊंचाइयों तक ले गए थे.

राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन के सुपरस्टारडम को कैश करने की चाहे जितनी सफल-असफल कोशिशें हुई हों, उनकी क्षमताओं और लोकप्रियता का जितना सार्थक उपयोग हो सकता था, नहीं हो सका. पहले स्टार होते थे. राजेश खन्ना भारत के पहले सुपर स्टार बने, अमिताभ बच्चन दूसरे. कह सकते हैं कि शाहरुख खान तीसरे सुपरस्टार हैं.

जिस तरह पहले के दौर में दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद की प्रतिभा के साथ तब के निर्देशकों ने न्याय किया, बीच-बीच में नाकामयाबी के बावजूद लगातार अच्छी और कालजयी फिल्में बनाईं, अवसरों की वैसी निरंतरता न खन्ना को मिली, न बच्चन को, न खान को.

राज कपूर तो खुद में एक संस्था थे लेकिन दिलीप कुमार जैसे महान अभिनेता को विमल राय और के आसिफ जैसे महान निर्देशकों का साथ मिला. तकनीक की सीमाओं के बावजूद वह दौर यूं ही हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग नहीं कहा जाता.

कलात्मक उत्कर्ष तक पहुंचने में अभिनेताओं के अभिनय से अधिक निर्देशकों की कल्पनाशीलता की भूमिका होती है. वह निर्देशक ही है जो अभिनेता की रेंज को नए आयामों तक ले जाता है. कहीं न कहीं, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान अपने करियर के शिखर पर कल्पनाशीलता की इस दरिद्रता के शिकार हुए.

अवतार, थोड़ी सी बेवफाई जैसे एकाध अपवादों को छोड़ राजेश खन्ना फिर कोई करिश्मा नहीं दुहरा सके, हालांकि 80 के दशक में भी श्री देवी, जयाप्रदा जैसी उस दौर की सफल अभिनेत्रियों के साथ वे अक्सर पर्दे पर आते रहे, खुद को निष्प्राण तरीके से दोहराते रहे.

अपनी दूसरी पारी में अमिताभ ने जरूर कुछ नए प्रयोग किये, अच्छी सफलताएं और तारीफें भी हासिल कीं, लेकिन इससे यह कसक नहीं मिटती कि जब दीवार और शोले से गुजरते हुए मुकद्दर का सिकंदर जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मों ने अमिताभ के कद और उनकी लोकप्रियता को विस्तार दिया, अचानक से जैसे सब कुछ ठहरने लगा था.

ऋषिकेश मुखर्जी जैसे फिल्मकार, जिन्होंने अपनी कुछ फिल्मों में अमिताभ के अभिनय की नई रेंज को उभारा था, अब उनके साथ नहीं थे. फिर तो, फिल्में आती रहीं, अमिताभ खुद को दोहराते रहे, हिट-फ्लॉप का सिलसिला चलता रहा. एकाध अच्छी प्रस्तुति के अपवाद के साथ लगातार दर्जन भर फालतू फिल्मों का आना बड़े से बड़े सुपरस्टार के करियर का कबाड़ा कर देता है. अमिताभ के साथ यही हुआ. 80 के दशक में कोई ऐसा अगला सितारा नहीं उभरा इसलिये सुपरस्टार का तमगा उनके ही नाम के साथ लगा रहा.

90 के दशक में यह फूहड़ता और कल्पनाशून्यता अपने चरम पर पहुंची, ‘मृत्युदाता’ और ‘लाल बादशाह’ जैसी फिल्मों से. फिर तो, ऐसा भी दौर आया जब सुपरस्टार बेरोजगार होने की नौबत तक पहुंच गया.

यह अमिताभ की खासियत थी कि फीनिक्स की तरह वे अपनी राख से नया जन्म लेकर नए रूप में सामने आए और आज भी मैदान में जमे हैं. वरना, पैसे से भरपूर किन्तु दिमाग से दिवालिया निर्देशकों ने उनके करियर की खाट तो खड़ी कर ही दी थी.

माना जाता है कि शाहरुख खान हिन्दी फिल्मों के अंतिम सुपरस्टार हैं. हालांकि, उनका कद राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की ऊंचाइयों को नहीं छू सका. राजेश खन्ना के बारे में कहा जाता है कि जिन शिखरों को उन्होंने छुआ वहां तक न उनसे पहले कोई पहुंचा न आगे कोई पहुंच सकेगा. अमिताभ भी अपने शिखर दिनों में ‘वन मैन इंडस्ट्री’ कहे जाते थे.

जबकि, शाहरुख के दौर में दो और खान उनके समानांतर चल रहे थे, आमिर और सलमान. इस खान त्रिमूर्त्ति ने जो तिलिस्म रचा, उस पर तो न जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं. तीन दशक बीतने को हैं, आज भी उनकी बगल में उनके बराबर के कद का कोई और खड़ा नहीं हो सका है. कहा जाता है कि आगे अब होगा भी नहीं, क्योंकि सुपरस्टारों का दौर बीत चुका.

अब तो कंटेंट और प्रस्तुति ही स्टार हैं. नए निर्देशकों की कतार है, रचनात्मकता के नए अध्याय हैं. कंटेंट, प्रस्तुति और विविधताओं का साथ अगर राजेश खन्ना को 1974 के बाद भी मिलता, अमिताभ को 1978 के बाद भी मिलता तो दुनिया देखती कि अपने शिखर दौर में वे और क्या कुछ कर सकते थे. कोई यूं ही सुपर सितारा नहीं बन जाता. उन दोनों में कुछ ऐसा था, जो दूसरों में नहीं था.

ऐसा ही कुछ शाहरुख के साथ भी हुआ. 90 के दशक का उत्तरार्द्ध उनके जबर्दस्त सुपरस्टारडम का गवाह बना और नई सदी की शुरुआत में तो नेहा धूपिया की कही यह बात कहावत बन कर आम हो गई थी कि ‘हिन्दी फिल्मों में या तो शाहरुख बिकते हैं या सेक्स.’ लेकिन, इस बेहतरीन अभिनेता की लोकप्रियता को कैश करने में ही फ़िल्म वाले लगे रहे, शाहरुख अगर यूनिक थे, जो कि अनेक फिल्मों में उन्होंने साबित किया, तो शिखर पर पहुंचने के बाद उनके साथ कुछ यूनिक रचने में वे फ़िल्म वाले असमर्थ रहे.

व्यावसायिकता कला को सहारा देती है लेकिन कल्पनाशून्य अति व्यावसायिकता उसका गला भी घोंटती है. लोग राजेश खन्ना को दोष देते हैं कि वे अपनी अकल्पनीय सफलता पचा नहीं सके और दोहरावों का शिकार होकर अस्त हो गए. लेकिन, उससे भी बड़ा सच यह है कि फ़िल्म उद्योग उन्हें सम्भाल नहीं सका. न उन्हें, न अमिताभ को, न शाहरुख को.

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