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नराधम ‘वीर’ सावरकार का ‘जेल यातना’ : मिथ या हकीकत

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नराधम 'वीर' सावरकार का 'जेल यातना' : मिथ या हकीकत

हिटलर का प्रचार मंत्री गोयबल्स का मूल मंत्र था – एक झूठ को सौ बार बोलो, तो लोग उसे सच मान लेते हैं. इसी अप्रतिम सफेद झूठ का सहारा लेकर हिटलर ने विश्व को थर्राया और तकरीबन 10 करोड़ लोगों (सैन्य-असैन्य) के मौत का कारण बना. हिटलर के इसी प्रचार मंत्र को भारत के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान नरेन्द्र मोदी इस रुप में बोलते हैं – ‘झूठ बोलो, झूठ बोलो और तब तक बोलते रहे जब तक लोग इसे सच न मान लें.’ साफ है नरेन्द्र मोदी गोयबल्स से सौ कदम आगे है.

नराधम सावरकर, जिसने खुद को ही ‘वीर’ की उपाधि दे दी, के अंग्रेजी हुकूमत के सामने आधे दर्जन पत्र लिखकर माफी मांगी और क्रांतिकारियों के खिलाफ खुलकर अंग्रेजों को खुद की ताबेदारी का भरोसा दिलाया. इस बार बार के माफीनामे से सन्न अंग्रेजों ने न केवल उसे जेल से ही रिहा कर दिया अपितु 60 रुपये मासिक का पेंशन भी दिया, जो भारत के क्रांतिकारियों के इतिहास में अजूबा है.

संघ और उसका राजनीतिक दल भाजपा समेत हजारों संगठन के गले की हड्डी बन गई है सावरकर का यह माफीनामा और उसका पेंशन. लोगों के निंदा का पात्र बनते सावरकर को अपना पितामह मानने वाले संघियों ने इसका एक तोड़ निकाला, वह है – जेलों में सावरकर पर अंग्रेजों द्वारा ढ़ाये गये अकथनीय जुल्म, पिटाई, यहां तक की कोल्हू में बैल की जगह उसे जोतने का दर्दनाक दृश्य प्रस्तुत करना ताकि लोग यह समझने लगे कि सचमुच अकथनीय पीड़ा के कारण ही सावरकर ने माफीनामा लिखा ताकि जेल से बाहर आकर फिर से आजादी के आन्दोलन में भाग ले सके.

इसके लिए संघी और उसके अनुसांगिक हिन्दुत्ववादी संगठन सावरकर की जेल यात्रा और उसकी पीड़ा को जाहिर करने के लिए बकायदा बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित करवाता है, टीवी चैनलों पर डिबेट आयोजित करवाता है, इससे भी आगे बढ़कर सोशल मीडिया नेटवर्किंग साइटों पर एक से बढ़कर एक झूठ परोसता है ताकि लोग उसके इस झूठ को सच मान लें. लेकिन इसके बाद भी संघी सावरकर के द्वारा अंग्रेजों के हाथों पाये जाने वाले पेंशन को न्ययोचित साबित नहीं कर पाते.

बहरहाल, इन दिनों तो बकायदा भारत सरकार के पदों को सुशोभित करने वाले संघियों ने तो हद ही कर दी, जब उसने सावरकर के माफीनामे को महात्मा गांधी के आदेश या आग्रह से जोड़कर अपने ही मूंह पर कालिख पोत ली. खैर, यहां हम संघियों द्वारा सावरकर के जेल यातना पर कल्पित विचारों को देखते हैं, जिसने सावरकर को ‘वीर’ और ‘पीड़ित’ साबित करने के लिए अपने चिरपरिचित दुश्मन गांधी और नेहरु का सहारा लेता है.

संघी पंकज आर्य यो. प्र. अपने सोशल मीडिया पेज पर लिखता है –

वीर सावरकार का माफीनामा (Truth of Mercy Petitions of Vinayak Damodar Savarkar)

आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे अग्रणी नाम वीर सावरकर जी की जयन्ती है. उनकी जीवनी तो कहीं न कहीं पढ़ ही लेंगे आप मगर एक बात जो अक्सर कुत्सित विरोधी विचारधारा के लोग बोलते हैं, उसका निवारण जरूरी है. वामपंथ और गांधी परिवार की पार्टी के लोगों का कहना है कि सावरकर ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेक दिए थे और माफ़ी मांगी थी.

अब इस प्रसंग पर आने से पहले कुछ और तथ्य जानना आवश्यक है. सावरकर ने इंग्लैण्ड में बैरिस्टरी की परीक्षा पास की मगर इन्होने ‘ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सदैव वफादार रहने’ की शपथ लेने से मना कर दिया और इसी कारण इन्हें डिग्री नहीं दी गयी.

एक तथ्य ये भी है की महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू भी इंग्लैंड से ‘डिग्रीधारी बैरिस्टर’ थे. ऐसा तो है नहीं कि नेहरू और गांधी के लिए नियम बदले होंगे. हां, गांधी जी ने और नेहरू जी ने छात्र जीवन में ही ‘ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सदैव वफादार रहने’ की शपथ ले ली थी. अतः वो डिग्रीधारी हो गए और सावरकर ने ‘अंग्रेजों का दलाल’ बनने की शपथ नहीं ली तो उन्हें डिग्री नहीं मिली.

स्वतंत्रता संग्राम में वीर सावरकर गांधी, नेहरू समेत लाखों लोग शामिल थे मगर जब नेहरू और गांधी को अंग्रेज गिरफ्तार करते थे, तो वो लोग जेल में आमलेट का नाश्ता करते हुए अखबार पढ़ते हुए समय बिताते थे और वीर सावरकर को अंडमान की जेल (काला पानी) में अत्यंत कठोर सज़ा के तहत दिनभर कोल्हू में बैल की जगह खुद जुतकर तेल पेरना, पत्थर की चक्की चलाना, बांस कूटना, नारियल के छिलके उतारना, रस्सी बटना और कोड़ों की मार सहनी पड़ती थी.

वीर सावरकर को, नेहरू की तरह जेल में खाने के लिए आमलेट नहीं मिलता था. उन्हें कोड़ो की मार मिलती थी और लाइन लगा कर दो सूखी हुई रोटियां. वीर सावरकर को, गांधी की तरह मीटिंग करने की इजाजत नहीं होती थी उन्हें तो अपनी बैरक में भी बेड़ियों में जकड़कर रखा जाता था.

आखिर अंग्रेज सावरकर से इतना भयभीत क्यों थे और नेहरू गांधी पर इतनी कृपा क्यों ?? याद कीजिये इंग्लैण्ड में ली गयी ‘ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सदैव वफादार रहने’ की शपथ’, जो नेहरू ने तो ली थी मगर सावरकर को स्वीकार नहीं थी.

अब आते हैं ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति सदैव वफादार रहने की ‘शपथ’ ले चुके कांग्रेसियों के प्रश्न पर कि सावरकर ने अंंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी ??

प्रसंग ये था कि सावरकर की प्रसिद्धि से भयभीत अंग्रेजों ने उन्हें काला पानी भेज दिया और भयंकर यातनाएं दी. अंग्रेज चाहते थे कि सावरकर की मृत्यु यहीं हो जाये. ऐसा ही हो भी रहा था. भयंकर शारीरिक एवं मानसिक यातना और पशुओं जैसे बेड़ी में जकड कर रखने के कारण सावरकर को कई गंभीर बिमारियों ने पकड़ लिया था और लगभग वो मरने वाले थे.

मगर देश को क्रांतिकारियों को ऐसे वीर की जरूरत थी क्योंकि जंग मरकर नहीं जीती जाती. ऐसे समय में काला पानी जेल के डॉक्टर ने ब्रिटिश हुकूमत को रिपोर्ट भेजी कि सावरकर का स्वास्थ्य अत्यंत ख़राब है और वो थोड़े दिनों के और मेहमान हैं. इस रिपोर्ट के बाद, जनता के भारी दबाव में सन् 1913 में गवर्नर-जनरल के प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेडॉक को पोर्ट ब्लेयर सावरकर की स्थिति जानने के लिए भेजा गया.

उस समय काला पानी से निकल कर भारत आकर क्रांति को आगे बढ़ाना प्राथमिकता थी, अतः वीर सावरकर ने अंग्रेजों के इस करार पत्र को स्वीकार किया और कई अन्यों को भी इसी रणनीति से मुक्त कराया, जिसका फार्मेट निम्नवत है –

‘मैं (….कैदी का नाम…) आगे चलकर पुनः (….) अवधि न तो राजनीती में भाग लूंगा न ही राज्यक्रांति में. यदि पुनः मुझ पर राजद्रोह का आरोप साबित हुआ तो आजीवन कारावास भुगतने को तैयार हूं.’

यहां ये ध्यान देने योग्य बात है कि अंग्रेजों के चंगुल से निकलने के लिए, ऐसा ही एक पत्र शहीद अशफाक उल्ला खां ने (जिसे कुछ लोग क़ानूनी भाषा में माफिनामा भी कह सकते हैं) भी लिखा था मगर अंग्रेज इतने भयभीत थे की उन्हें फांसी दे दी. तो क्या अशफाक को भी अंग्रेजों का वफादार, देश का गद्दार मान लिया जाए ?? माफ़ कीजिये ये क्षमता मेरे पास नहीं मेरे लिए अशफाक देशभक्त और शहीद ही हैं, हां कांग्रेस या वामपंथी ऐसा कह सकते हैं.

‘सावरकर ब्रिटिश राजसत्ता के वफादार होंगे’ ऐसा उस समय का मूर्ख व्यक्ति भी नहीं मानने वाला था तो फिर अंग्रेज कैसे विश्वास करते. रेजिनाल्ड क्रेडोक ने सावरकर की याचिका पर अपनी गोपनीय टिपण्णी में लिखा ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने ह्रदय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है. सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है. भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसम खाते हैं और यदि उसे भारत भेज दिया गया तो निश्चय ही भारतीय जेल तोड़कर वे उसे छुड़ा ले जाएंगे.’

इस रिपोर्ट के बाद कुछ अन्य कैदियों को रिहा किया गया मगर भयभीत अंग्रेजों में वीर सावरकर को जेल में ही रक्खा. लगभग एक दशक इसके बाद काला पानी जेल में बिताने के बाद 1922 में वीर सावरकर वापस हिन्दुस्थान आये.

अब आप स्वयं निर्णय कर लें की ‘अंडमान की जेल में कोल्हू में जूतने वाले सावरकर’ अंग्रेजों के वफादार थे या ‘एडविना की बाहों में बाहें डालकर कूल्हे मटकाने वाले चचा नेहरू’ अंग्रेजों के ज्यादा करीब थे ?

सावरकर को निर्दोष और मासूम साबित करने के लिए इस संघी ने जिस कपोलकल्पना का इस्तेमाल किया है, वह सचमुच लोगों खासकर अशिक्षित, अर्ध शिक्षित और कुशिक्षितों को भावुकता से भर देने के लिए पर्याप्त कोशिश है. इसी भावुकता से वह झूठ का नया नया पिटारा खोलता है, जिसपर एक यूजर ने अपने सोशल साइट्स पेज पर इस प्रकार की टिप्पणी की है –

सावरकर दुनिया के पहले वीर योद्धा थे जिसका हथियार बलात्कार था. इस बलात्कारी योद्धा के बलात्कार करने की चमत्कारिक क्षमता से अंग्रेज थर्राते थे, जो अंततः माफी मांगते हुए देश छोड़कर भाग खड़ा हुआ.

कहा जाता है कि सावरकर ने एकबार मूतना जो शुरु किया तो इंगलैंड बाढ़ में डुब गया. भारी आरजु मिन्नत और 60 रुपये मासिक भुगतान के बाद मूतना बंद किया.

भारत में पहले एक भी पहाड़ पठार नहीं होता था. ये जो पहाड़ पठार आज दीख रहे हैं, वह सावरकर के हगने का परिणाम है. एक बार सावरकर इतना जोर से हगा कि आज उसने हिमालय का शक्ल ले लिया है.

कामुक वीर सावरकर एक बार नाथूराम को देखकर इतना मोहित हो गया कि उसका वीर्यपात हो गया. नाथूराम ने उस वीर्य का पान कर लिया, उससे नाथूराम ने एक महा प्रतापी पुत्र को जन्म दिया, जिसको आज नरेन्द्र मोदी के नाम से सारा संसार जानता है.

बहरहाल, इस गोपोड़ों के अलावा सावरकर की जेल यात्रा की कठिनाई की सच्चाई इस प्रकार है, जो कृष्ण अय्यर ने लिखा है –

सावरकर ने कालापानी में कभी भी कोल्हू से तेल नहीं निकाला था. ये एक फ़र्ज़ी कहानी है. असल में सावरकर जेल में ‘ऑयल डिपो’ का ‘फोरमैन’/क्लर्क था. यानी जेल में ब्रिटिश की नौकरी कर रहा था. सैलरी मिलती थी.

इस बात के सैंकड़ों लिखित सबूत है, मैं 3 सबूत लिखता हूं. सारे सबूतों के स्क्रीनशॉट यहां पर साथ ही दे रहा हूं –

1.सावरकर की खुद की डायरी : ‘मैं जेल में ऑयल डिपो का फोरमैन था’ : ये सावरकर ने खुद की डायरी में लिखा था. ये डायरी ‘सावरकर स्मारक’, शिवाजी पार्क में आज भी रखी हुई है. सावरकर का नाती रंजीत सावरकर इस स्मारक का चीफ है. कोई भी संघी आज जा कर डायरी पढ़ सकता है. (TOI का स्क्रीनशॉट देखिए)

2. धनंजय कीर, सावरकर का जीवनीकार : ‘सावरकर जेल में क्लर्क की नौकरी करता था. बाद में सावरकर को ऑयल डिपो और ऑइल डिपार्टमेंट का ‘फोरमैन’ बनाया गया था’. धनंजय कीर एक संघी है और संघियों में बहुत इज्जत है. (स्क्रीनशॉट देखिए)

3. श्री निरंजन टाकले साहब का लेख : जेल में हर कैदी की ‘जेल टिकट हिस्ट्री’ होती है. इसमें कैदी के कामों का पूरा ब्यौरा रहता है. सावरकर की जेल टिकट हिस्ट्री में कोल्हू में तेल निकालने का कोई जिक्र नहीं है. इसमें लिखा है कि सावरकर जेल में रस्सी बनाने का काम देखता था. ये काम सबसे आसान और सहज था.

दूसरे कांग्रेसी कैदी कोल्हू चलाते थे और सावरकर ब्रिटिश के लिए कांग्रेसी कैदियों से काम करवाता था और ये वीर कहलाता है ? धिक्कार है.

सावरकर के जेल की ‘यातनाओं’ की कहानियां इतनी बार सुनाई और दोहराई गई कि लोग सचमुच नराधम सावरकर को बहुत दुःखी और बेबस समझने लगे, परन्तु, ये धूर्त संघी यह नहीं बताते कि अंग्रेजों के खिलाफ देश के संघर्ष में हजारों लोग न केवल अंग्रेजों के गोलियों का ही शिकार हुए, फांसी पर चढ़े बल्कि जेलों में यातनाओं को झेलते हुए शहीद भी हो गये, परन्तु किसी ने भी माफी नहीं मांगी. किसी ने भी पेंशन नहीं लिया.

इस हजारों-लाखों देशवासियों के दुःख, पीड़ा और असमय शहादत के बाद भी किसी एक ने भी अंग्रेजों के साथ संधि नहीं की, माफी नहीं मांगी और न ही किसी प्रकार की रियायतों के लिए रिरियाये. परन्तु, आज जब इन तमाम शहादतों के ऊपर एक डरपोक कायर सावरकर को रखा जा रहा है, और उन शहीदों के परिवारों को आज देशद्रोही, गद्दार साबित किया जा रहा है, तब सावरकर के असली लिजलिजे चेहरा को लोगों के सामने लाना ही होगा, जैसा कि विजय शंकर सिंह कहते हैं –

अंडमान के पहले के सावरकर, दृढ़ प्रतिज्ञ, स्वाधीनता के प्रशस्त पथ के सजग पथिक, एक इतिहास बोध सम्पन्न व्यक्तित्व के लगते हैं. अंडमान के बाद वही सावरकर अंग्रेज़ों के समक्ष आत्मसमर्पित, क्षमा याचिकाओं का पुलिंदा लिये और स्वाधीनता संग्राम से अलग हटते हुए, नास्तिकता को तिलांजलि देकर धर्म की राजनीति करते हुए नज़र आते हैं.

गांधी की हत्या के बाद वही सावरकर, निंदित और हत्या के षड़यंत्र के अभियुक्त के रूप में, जो बाद में अदालत से बरी हो जाता है और फिर पूरी ज़िंदगी अकेले संत्रास में गुजारता हुआ 1966 में अकेले ही प्राण त्याग देते हुए दिखते हैं.

सावरकर की आलोचना और निंदा, उनकी अंडमान बाद गतिविधियों और गांधी हत्या में भूमिका के लिये की जानी चाहिये, क्योंकि, अखंड भारत के सपने के साथ खंड-खंड भारत करने वाली साम्प्रदायिक राजनीति के वे एक हिस्सा रहे हैं.

हलांकि विजय शंकर सिंह सावरकर के सम्पूर्ण जीवनशैली की अलग-अलग समीक्षा करने की बात करते हैं, जो सही भी है, परन्तु आज जिस तरह गद्दारों ने देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया है और एक एक कर तमाम गद्दारों को महिमामंडित करने के साथ-साथ देशभक्तों और उनके परिजनों को गद्दार-देशद्रोही बताने की कबायद भारत की केन्द्रीय सत्ता द्वारा की जा रही है, उस वक्त सावरकर के अंतिम राजनीतिक चिंतन को आधार बनाकर उस नराधम सावरकर को गद्दार और देशद्रोही माना जाना चाहिए.

कम्युनिस्ट पार्टी की यही वैज्ञानिक परंपरा है. किसी भी व्यक्ति का विश्लेषण उसके अंतिम क्षणों तक की दृढ़ता और उसके चिंतन को आधार बनाया जाता है. हिन्दू धर्म में भी यही कहा गया है. व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम क्षण में किस तरह का व्यवहार करता है, उसी से उसके स्वर्ग और नरक की जगह तय की जाती है. फिर सावरकर अपवाद कैसे हो सकता है ?

आप भगत सिंह की दृढ़ता का आधार उनके अंतिम क्षणों में लेनिन से मिलन और ईश्वर की सत्ता को दृढ़तापूर्वक नकारने से तय करते हैं, तब फिर आप सावरकर जैसे अंग्रेजी जासूस, जो अंग्रेजों द्वारा दी जा रही पेंशन की राशि पर पल रहा था, देश के क्रांतिकारियों के खिलाफ साजिश रच रहा था, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दिलवाने के लिए झूठे गवाह तैयार कर रहा था, गांधी जैसे जननेता की हत्या में शार्गिद था, को यह छूट कैसे दी जा सकती है ?

अंत में, सावरकर एक नराधम था, जिसने अपने कुकर्म से न केवल देश के क्रांतिकारियों के जीवन को संकट में डाला अपितु देश को धर्म के आधार पर बंटवारा कर एक स्थायी तौर पर संकट में डाल दिया. हिन्दुत्व के नाम पर न केवल हिन्दुओं को नफरत के दहकती आग में झोंकने का प्रयास किया बल्कि देश में जाति-धर्म की आग भी लगाई. इसके लिए उसने झूठ और बलात्कार को अपना हथियार बनाया. ऐसे नराधम सावरकर न केवल गद्दार और देशद्रोही ही है, बल्कि मानवता का शत्रु है.

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ROHIT SHARMA

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