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कौन थे सज्जाद जहीर ?

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‘हम कोई माफी की गुहार नहीं लगाना चाहते. हम पहले से जानते हैं या तो तैरना सीख जाएंगे या फिर डूब जाएंगे. हम नतीजे को लेकर खौफ में नहीं रहे. हम आमतौर पर इंसानियत और खासतौर पर हिंदुस्तानियों की अभिव्यक्ति की आजादी और खुलकर आलोचना की आजादी के साथ खड़े हैं. लेखकों के साथ जो भी हो, लेकिन हमें उम्मीद है, बाकी लोग मायूस नहीं करेंगे. हमारा व्यवहारिक प्रस्ताव प्रगतिशील लेखकों की एक लीग का गठन करना है, जो समय-समय पर अंग्रेजी और हमारे देश की भाषाओं में इस रोशनी में लेखन जनता के सामने लाए. हम उन सभी लोगों से अपील करते हैं, जिनकी इन ख्यालात में दिलचस्पी है. ऐसे लोग हमसे संपर्क करें.’

कौन थे सज्जाद जहीर ?

5 अप्रैल 1933 को महमूद-उज़-ज़फ़र ने इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले मशहूर अखबार ‘द लीडर’ के लिए ‘इन डिफेंस ऑफ़ अंगारे’ नाम से एक लेख लिखा था, जिसका यह हिस्सा है. यह लेख उसी दौर में हिंदुस्तान टाइम्स समेत कई अन्य अखबारों ने भी शीर्षक बदलकर प्रकाशित किया था.

आज यह पूरा किस्सा 5 नवंबर 2021 को आप ‘द लीडर हिंदी’ पर सुनिए. आज खासतौर पर इसलिए, क्योंकि 5 नवंबर 1899 को जन्मे सज्जाद जहीर का आज जन्मदिन है और आज पूरे भारतीय उप महाद्वीप में जिन लेखकों, शायरों, गीतकारों को सदाबहार माना जाता है, आज भी जिनकी रचनाएं अमर हैं, उन सबको एक मंच पर लाकर आम इंसान के मन की खुशी, गम, मुश्किल, बदलाव के आंदोलन की बुनियाद रखने वाले सज्जाद जहीर ही थे.

पहले सज्जाद जहीर की जिंदगी और ख्यालात के बारे में जान लेते हैं, फिर अंगारे के बारे में बात करेंगे. सैयद सज्जाद ज़हीर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज रहे सैयद वज़ीर हसन के चौथे बेटे थे, जो लखनऊ में पैदा हुए. उन्होंने 1924 में लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया और फिर आगे की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड के न्यू कॉलेज गए. ऑक्सफोर्ड में उन्हें टीबी हो गई और उन्हें स्विट्जरलैंड के एक अस्पताल में भेज दिया गया.

इंग्लैंड लौटे तो कम्युनिस्ट नेता शापुरजी सकलतवाला मुलाकात के बाद ऑक्सफोर्ड मजलिस में शामिल हो गए. फ्रैंकफर्ट में साम्राज्यवाद के खिलाफ लीग की दूसरी कांग्रेस में भाग लिया, जहां वीरेन चट्टोपाध्याय, सौम्येंद्रनाथ टैगोर, एनएम जयसूर्या और राजा महेंद्र प्रताप मिले, जिन्होंने आजाद भारत की सरकार का गठन काबुल में किया था और लेनिन से भी भेंट की.

खैर, सज्जाद जहीर ने 1930 में इंग्लैंड में भारत नाम से समाचार पत्र निकालना शुरू किया. 1931 में ऑक्सफ़ोर्ड से उपाधि लेने के बाद भारत वापसी से पहले जर्मनी, इटली, डेनमार्क और ऑस्ट्रिया की यात्रा की.

दिसंबर 1932 में ज़हीर ने दोस्तों के एक समूह के साथ अपनी पहली किताब ‘अंगारे’ प्रकाशित की. यह सज्जाद ज़हीर, रशीद जहां, महमूद-उज़-ज़फ़र और अहमद अली की नौ लघु कहानियों और उर्दू में एक नाटक का संग्रह है. यही वह किताब थी, जिसने पूरे भारतीय उप महाद्वीप में कोहराम मचा दिया. इस किताब के विरोध में हंगामा हुआ, विरोध प्रदर्शन हुए. किताब को प्रकाशन के कुछ महीनों बाद संयुक्त प्रांत की सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया. हंगामे के बाद सज्जाद जहीर को मार्च 1933 में उनके पिता ने ‘लिंकन इन’ में कानून की पढ़ाई करने लंदन भेजा दिया लेकिन वह रुकने वाले कहां थे ?

1935 में उपन्यासकार मुल्कराज आनंद के साथ संस्कृति की रक्षा के लिए हुई अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लेने पेरिस पहुंच गए. इस कांग्रेस से प्रभावित होकर उन्होंने लंदन में इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना की और फिर भारत लौटने के बाद 9 अप्रैल 1936 को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन किया, जिसमें फैज अहमद फैज और मुंशी प्रेमचंद जैसी शख्सियत मौजूद थी. जहीर इस संघ के महासचिव बने. इसके बाद सोहन सिंह जोश के साथ सहारनपुर से उर्दू भाषा में चिंगारी नाम से पहली मार्क्सवादी पत्रिका निकालना शुरू की.

इसी समय सज्जाद जहीर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के उत्तर प्रदेश राज्य सचिव और 1936 में कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बने. उन्हें 1939 में सीपीआई की दिल्ली शाखा का इंचार्ज भी बनाया गया. दूसरे विश्वयुद्ध में भारत की भागीदारी का विरोध करने पर उन्हें जेल भेज दिया गया.

विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1942 में रिहाई हुई और उनको बंबई में सीपीआई के अखबार कौमी जंग (पीपुल्स वॉर) और नया जमाना (न्यू एज) का संपादक बनाया गया. इसी दौर में उन्होंने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और अखिल भारतीय किसान सभा के विस्तार में अहम भूमिका निभाई.

देश विभाजन के बाद सज्जाद ज़हीर ने सिब्ते हसन और मियां इफ़्तेख़ार-उद-दीन के साथ पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत की और उस पार्टी के महासचिव बने. 1951 में उन्हें फैज अहमद फैज के साथ रावलपिंडी षड्यंत्र केस मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. चार साल तक जेल में रहे. बताया जाता है कि रिहा होने पर जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें भारतीय नागरिकता दी. वो असल में पाकिस्तान मुसलमान होने के नाते नहीं गए थे, बल्कि भारत में जिस मजदूर क्रांति के पक्षधर थे, उसी मकसद से वहां पहुंचे थे.

भारत में रहते हुए उन्होंने सीपीआई की ओर से सांस्कृतिक गतिविधियों में काम करना फिर जारी कर दिया. ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन को पुनर्जीवित किया, एफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन के भारत सचिव बने. अवामी दौर (पीपुल्स एरा) और दैनिक हयात के संपादक के रूप में काम किया. 13 सितंबर 1973 में कज़ाखस्तान के अल्मा अता में एक साहित्यिक सम्मेलन में भाग लेने के दौरान उनकी मृत्यु हो गई.

साहित्यिक याेगदान बतौर देखा जाए तो सज्जाद जहीर ने अंगारे संग्रह में जो लिखा, उसके अलावा 1935 में लंदन के तजुर्बे की बुनियाद पर लंदन की एक रात नाम का उपन्यास लिखा. साल 1944 में लखनऊ और इलाहाबाद की जेलों से पत्नी को लिखे गए पत्रों का एक संग्रह नुक्श-ए-जिंदान प्रकाशित हुआ. प्रगतिशील आंदोलन के शुरुआती दिनों का इतिहास जैसा संस्मरण रोशनी लिखा, इसके अलावा मशहूर फारसी कवि हाफिज के कामों की आलोचनात्मक समीक्षा ज़िक्र-ए-हाफ़िज़ और कविता संग्रह भी लिखा. वह शानदार अनुवादक भी थे, जिन्होंने टैगोर के गोरा, वोल्टेयर के कैंडाइड और शेक्सपियर के ओथेलो को उर्दू में भावांतरित किया.

लौटकर अंगारे पर आते हैं, वही, नौ कहानियों का किस्सा. इस कहानी संग्रह में सबसे विवादास्पद कहानी सज्जाद जहीर की लिखी ‘जन्नत की बशारत’ यानी’ विजन ऑफ़ हैवेन’ रही. इस संग्रह ने उस दौर में क्या गुल खिलाया होगा, इसका अंदाजा एक कहानी के हिस्से से लग सकता है –

अली अहमद की ‘महावतनो की एक रात’ (ए नाइट ऑफ़ विंटर रेंस) कहानी में लिखा गया : ‘खुदा, रहम कर. अल्लाह गरीबों के साथ रहता है, उनकी मदद करता है, उनके दुख-दर्द को सुनता है. क्या मैं गरीब नहीं हूं ? अल्लाह ने मेरी क्यों नहीं सुनी ? अल्लाह का वजूद है या नहीं ? और खुदा आखिर है क्या ? वह जो कुछ भी है, वह बहुत क्रूर और बेहद अन्यायी है … वह हमारे बारे में परवाह क्यों नहीं करता है ? उसने हमें क्यों बनाया ? दु:खों और मुसीबतों का सामना करने के लिए ? यह कैसा न्याय है ! वे अमीर क्यों हैं और हम गरीब हैं ? इस सबका हिसाब जिंदगी के आखिर के बाद मिलेगा, ऐसा मौलवी हमेशा कहते हैं. आखिर किसकी जिंदगी ? जिंदगी के बाद भी नरक का खौफ. मेरी परेशानियां यहां और अभी हैं, मेरी ज़रूरतें यहां और अभी हैं.’

दरअसल, सज्जाद ज़हीर, रशीद जहां, अली अहमद और महमूद-उज़-ज़फ़र, सभी ऑक्सफ़ोर्ड में शिक्षित थे और एक हद तक मार्क्सवादी लेखन से काफी प्रेरित थे. वे न केवल मुस्लिम समुदाय के भीतर दकियानूसी तत्वों की, बल्कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के शासन के दकियानूसी तत्व को बनाए रखने के कदमों के भी आलोचक थे.

जहीर की कहानियों और लेखन में प्रचलित सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं और आर्थिक असमानता का विरोध है. यौन दमन को भी उनका लेखन उजागर करता है, जो असल में धर्म आधारित बंदिशों का नतीजा हैं. रशीद जहां की कहानियां मुस्लिम महिलाओं के लिए दमनकारी दुनिया और उनके समाजों की पुरानी धार्मिक और सामाजिक हठधर्मिता से जुड़ी हैं. अली की कहानियां गरीबी, घरेलू शोषण, यौन इच्छा और विधवाओं द्वारा अनुभव की जाने वाली लालसा पर आधारित हैं.

‘अंगारे’ संग्रह दिसंबर 1932 में निज़ामी प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुआ. प्रकाशन के चार महीने बाद, 15 मार्च 1933 को आईपीसी की धारा 295A के तहत पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. लखनऊ और अलीगढ़ में आंदोलन हुए और पुस्तक की प्रतियां सार्वजनिक रूप से जलाई गईं. पुलिस ने दो प्रतियां ब्रिटिश आरिएंटल लाइब्रेरी और इंडिया ऑफिस कलेक्शंस भेजने के अलावा सभी प्रतियां नष्ट कर दी.

विरोध का आलम ये था कि अखबारों और पत्रिकाओं ने किताब की निंदा करते हुए गुस्से में संपादकीय लिखे. हिंदुस्तान टाइम्स ने पुस्तक के प्रकाशन की निंदा करते हुए अखिल भारतीय शिया सम्मेलन लखनऊ द्वारा पारित एक प्रस्ताव का हवाला देकर लेख ‘उर्दू पैंफलेट डिनाउंस : शिया ग्रेवली अपसेट’ प्रकाशित किया. पुस्तक की समीक्षा जामिया मिलिया इस्लामिया के अख्तर हुसैन रायपुरी, मुंशी दया नारायण निगम और मुहम्मद मुजीब जैसे विद्वानों ने इस पुस्तक पर विस्तृत आलोचना लिखी लेकिन ‘अंगारे’ तब तक ‘दावानल’ बन गए.

प्रतिबंध के बावजूद चारों लेखकों ने माफी मांगने से इनकार कर दिया. प्रगतिशील आंदोलन का चक्का घूम गया और अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ, जिसने बाद में सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई और फैज़ अहमद फैज़ जैसे लेखकों को आकर्षित किया.

1987 में पुस्तक की माइक्रोफिल्म लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित मिल गई और दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख कमर रईस भारत वापस लेकर आए. कहानियों को खालिद अल्वी ने संपादित किया और यही पुस्तक 1995 में एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली द्वारा उर्दू में ‘अंगारे’ फिर प्रकाशित हुई. फिलहाल ऑक्सफोर्ड से लेकर टेक्सास यूनिवर्सिटी तक इसके अनुवाद सहेजकर रखे हुए हैं.

  • आशीष सक्सेना, बरेली

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