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डॉ नरेंद्र दाभोलकर – एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व

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डॉ नरेंद्र दाभोलकर - एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व

जन्म 1 नवंबर 1945 को महाराष्ट्र सतारा जिला में हुआ था. सन 1970 में मिरज मेडिकल कॉलेज सांगली से डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की उपाधि प्राप्त की. अपने चिकित्सीय पेशे के दौरान ही समाज मे व्याप्त बुराइयों के प्रति उनका ध्यान गया और उन्होंने अंधविश्वास, अज्ञानता के विरुद्ध कदम बढ़ाया और हर वह क्षेत्र जहां सामाजिक बुराइयां और मानव जीवन प्रताड़ित हो रहा था वहां डट कर खड़े हुए.

महाराष्ट्र में अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, जातिभेदभाव, तंत्र-मंत्र-यंत्र, जाटूटोना, पोंगापंथियों द्वारा शोषण आदि अतार्किक विषयों को सामने रख कर उन्होंने 1989 में ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ की स्थापना की. उन्होंने समाज मे व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों तथा अंधविश्वास जैसी बुराइयों खिलाफ जंग का एलान किया और उनके इस मिशन के प्रति पूर्ण सजगता के साथ समर्पित थे.

सीधी लड़ाई के साथ साथ वे सोचते थे कि अंधश्रद्धा फैलाने वालों के खिलाफ सरकार भी संवैधानिक दायित्व निर्वाह करे- जिसमें वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देने की बात कही गई है. जब 3 अप्रैल, 2005 को अंधश्रद्धा निर्मूलन कानून का मसौदा तैयार हुआ तब राजनैतिक स्तर पर और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के तरफ से इसका विरोध होना शुरू हो गया.

महाराष्ट्र राज्य मंत्रिमंडल ने इसका नाम बदल कर – ‘जादूटोना एवं धार्मिक कर्मकांडों के आधार पर अमानवीय हरकतों को रोकना’ नाम दे कर हिन्दू संगठनों के घोर विरोध के बावजूद इस विधेयक को अध्यादेश रूप में जारी कर के डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की.

इस कानून के बनने से जादू, टोना, बलि, अघोरी प्रथा जैसे कृत्यों के लिए दंड के प्रावधान होंगे, जिसके तहत सात साल की सजा हो सकती है. यह कानून पूरे देश के लिए एक मॉडल के रूप में आया, जिसके लिए जरूरी है कि अन्य राज्यों में भी सक्रिय तर्कशील संगठन इसे कानून के रूप में लागू करवाने की पहल करें. देश में अकेला कानून तब तक सार्थक नहीं होगा जब तक अंधविश्वास के प्रति जागरूकता का अभाव रहेगा. जादूटोना, तंत्रमंत्र की आड़ में सबसे ज्यादा महिलाएं शोषित होती है.

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के मार्गदर्शन से पूरे महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के लगभग 200 ब्रांच कार्यरत हुई थी. इस समिति के पास ‘विद्यादान बोध वाहिनी’ नामक एक चलती फिरती वैज्ञानिक प्रयोगशाला है, जिसमें आधुनिक वैज्ञानिक यंत्र लगे हैं. यह मोबाइल वैन जो पूरे महाराष्ट्र में कालाजादु, तंत्रमंत्र, भाग्यवाद व ज्योतिषियों का पर्दाफाश करती हुई घूमती है.

इस तरह अन्धश्रद्धा से निपटने के लिए डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की नेतृत्व में इस समिति में दस हजार कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया गया है ताकि ये लोग चमत्कार का पर्दाफाश करते हुए जन साधारण में वैज्ञानिक चेतना का प्रचार प्रसार कर सकें.

डॉ. दाभोलकर ईश्वर में आस्था रखनेवालों पर ताने कसने की बजाय उनके लिए सहानुभूति जताते, वे कहते थे ‘मुझे कुछ नहीं कहना है उन लोगों के बारे में जिन्हें संकट के समय ईश्वर की ज़रूरत होती है लेकिन हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए, जो काम-धाम छोड़कर धर्म का महिमा मंडन करें और मनुष्य को अकर्मण्य बनाएं. मैं जानता हूं इस तरह की लड़ाइयां युगों तक चला करती है.’

उनका मकसद था कि धर्म के नाम पर चल रहे करोड़ों रुपये का इस काले व्यापार का भंडाफोड़ कर देश के असंख्य अनपढ़ व नादान लोगों को इस कुचक्र से बाहर निकाल सकें और तथाकथित धार्मिक चमत्कारों को तर्क की कसौटी पर परखने की सोच पैदा कर सकें.

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर संगठन में सक्रिय रहने के साथ साथ समाज को अंधश्रद्धा के प्रति जागरूक करने के लिए कई तर्कशील किताब लिखे हैं. तथाकथित चमत्कारों के पीछे छिपी हुई वैज्ञानिक सच्चाइयों को उजागर करने पर उन्होंने अधिक ध्यान दिया. ऐसे कैसे झाले भोंदू (ऐसे कैसे बने पोंगा पंडित), अंधश्रद्धा विनाशाय, अंधश्रद्धा: प्रश्नचिन्ह आणि पूर्णविराम (अंधविश्वास: प्रश्नचिन्ह और पूर्णविराम), भ्रम आणि निरास, प्रश्न मनाचे (सवाल मन के) आदि पुस्तक उनमें सम्मिलित है. उन्होंने वैज्ञानिक व वैचारिक दृष्टीकोण को बढ़ाने के लिए इस तरह कई रचनाएं की है.

महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक कार्याध्यक्ष डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को आठ साल पूरे हो गए. अंधविश्वास और धार्मिक पाखंडों के मकड़जाल में उलझे समाज को जगाने की सजा शायद मौत है, तभी तो डॉ नरेंद्र दाभोलकर जैसी शख्सियत जिनका ध्येय ही समाज को अंधविश्वास की दलदल से बाहर निकालना था उन्हें दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया जाता है.

अगस्त, 2013 में दो अज्ञात बंदूकधारियों ने उनकी उस वक़्त गोली मारकर हत्या कर दी थी, जब वो सुबह टहल रहे थे. उनका दोष ये था कि वो क़ानून की चौखट पर सही बातों को लोगों के सामने रख रहे थे. कुछ लोगों को जब उनकी ये भूमिका पसंद नहीं आई तो उनके विचारों का मुकाबला करने की बजाय उनपर गोलियां चला दी. 2014 में उन्हें मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

  • ममता नायक

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