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खुदरा में विदेशी घुसपैठ

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[ केन्द्र की मोदी सरकार ने खुदरा बाजार में निवेश सौ फीसदी कर दिया है, जबकि वह खुद जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, और प्रधानमंत्री बनने के लिए चुनाव लड़ रहे थे, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 51 फीसदी एफडीआई का विरोध किये थे. ऐसे में उसी वक्त यह लेख प्रकाशित हुआ था, जिसकी महत्ता को देखते हुए आज इसे हम अपने साईट पर प्रकाशित कर रहे हैं.]

भारत में रीटेल क्षेत्र के भीतर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई नया नहीं है लेकिन अब तक यह एकल ब्रांड तक ही महदूद था. अब जबकि केंद्र सरकार ने मल्टीब्रांड में एफडीआई के लिए रीटेल क्षेत्र को खोलने का फैसला ले लिया है, तो उसकी आलोचना हो रही है. सरकार का रवैया बिल्कुल वैसा ही अडि़यल है, जैसा 2005 में अमरीका के साथ नाभिकीय संधि के दौरान दिखा था. इस मौके पर हमें कुछ साल पहले नाभिकीय रिएक्टर बनाने वाली लॉबी द्वारा अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर भारत के साथ नाभिकीय संधि करने संबंधी बनाए गए भारी दबाव को याद करना होगा, जिसके आगे अपनी सरकार के वजूद को खतरे में डालकर यूपीए-1 के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घुटने टेक दिए थे, जिसके बाद संसद ने इसे मंजूरी दे दी थी. और अब विदेशी रिटेल कंपनियों की लॉबिंग और दबाव के चलते यूपीए 2 के मंत्रिमंडल ने भारतीय खुदरा व्यापार में 51 फीसदी विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी है.

दरअसल वाल मार्ट 2007 से ही अमरीकी कानून निर्माताओं के बीच भारत में अपने प्रवेश की योजना को लेकर पैरवी व प्रचार करता रहा है और इसके द्वारा पक्षपोषित मुद्दों में भारत में निवेश के लिए संवर्द्धित बाजार पहुंच भी शामिल रहा है. 2007 से 2009 के बीच कंपनी ने लॉबिंग पर 52 करोड़ रुपए खर्च किए. पंद्रह देशों में कारोबार और सालाना 400 अरब डॉलर के कुल विक्रय वाली अमरीका की इस शीर्ष कंपनी ने वहां और भारत दोनों ही जगहों पर तगड़ी लॉबिंग की है.

वॉशिंगटन से जारी पीटीआई की रिपोर्ट कहती है- हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स और सीनेट में दर्ज हालिया लॉबिंग डिसक्लोज़र रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका की कंपनियों और उद्योग समूहों ने 2012 की शुरुआत से लेकर अब तक लॉबिंग पर लाखों डॉलर खर्च किए हैं जिनके तहत भारत में एफडीआई, भारत के कराधान ढांचे में बदलाव और व्यापार संबंधी अन्य मुद्दे शामिल हैं.

रिपोर्ट कहती है कि वाल मार्ट ने 30 जून 2012 को खत्म हुई तिमाही में भारत में एफडीआई से संबंधित व अन्य मुद्दों पर लॉबिंग के लिए 15 लाख डॉलर खर्च किए हैं. रिपोर्ट बताती है कि कंपनी ने 2010 के शुरुवाती तीन महीनों में भारत में एफडीआई संबंधी परिचर्चा पर छह करोड़ रुपए खर्च किए हैं.

विदेशी बाजारों में पहुंच के लिए विशाल कॉरपोरेट घराने अकेले लॉबिंग का ही इस्तेमाल नहीं करते. वे अपने देश के बड़े राजनीतिक रसूख वाले लोगों को भी अपने बोर्ड में शामिल करते हैं जो दूसरी सरकारों पर कॉरपोरेट हितों को पूरा करने के लिए पूरी बेशर्मी से दबाव बनाते हैं. ज़रा देखिए कि कैसे नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास को सितम्बर 2009 में भेजे अपने संदेश में (प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के कुछ दिनों बाद) अमरीकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन अप्रत्यक्ष तौर पर वाल मार्ट के प्रवेश का संदर्भ उठाती हैं (हिंदू-विकीलीक्स इंडिया केबल सीरीज़ः 18 मार्च 2011 के मुताबिक): शर्मा (वाणिज्य मंत्री) भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दिशानिर्देशों पर क्या राय रखते हैं, किन क्षेत्रों को खोलने की उनकी योजना है, मल्टीब्रांड रीटेल को खोलने में उन्हें संकोच क्यों है.

हिलेरी के इन सवालों और वाल मार्ट के हितों के बीच रिश्तों पर अगर अब भी भरोसा ना हो तो एबीसी न्यूज़ की 31 जनवरी 2008 की रिपोर्ट देखें जिसका शीर्षक था ”यूनियनों पर वाल मार्ट के दमन पर क्लिंटन खामोश”. रिपोर्ट कहती है कि वाल मार्ट के बोर्ड में निदेशक रहते हुए हिलेरी ने दसियों हजार डॉलर कमाए और वाल मार्ट के अधिकारियों व लॉबिस्टों ने 2007-08 में उनके चुनाव प्रचार पर हजारों डॉलर खर्च किए. यह भी कहा गया है कि निदेशक के तौर पर हिलेरी ”कंपनी की वफादार बनी रहीं.”

इस तरह यह कहा जा सकता है कि रीटेल और अन्य क्षेत्रों को 100 फीसदी एफडीआई के लिए खोलना भारतीय अर्थव्यवस्था की ज़रुरत नहीं है बल्कि मनमोहन सिंह की सरकार की इस बेचैनी के पीछे ”विदेशी हाथ” है. रीटेल के अलावा अन्य कारोबारों में भी अमरीकी कंपनियां बाजार पहुंच की कवायद कर रही हैं. इनमें डाउ केमिकल्स का भी नाम है जिसने पिछली तिमाही ”ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप मार्केट ऐक्सेस इंडिया” के मुद्दे पर 36 लाख डॉलर खर्च किए. भारत के साथ व्यापार से जुड़े मसलों पर खर्च करने वाली अन्य कंपनियों में डेल, मोर्गन स्टेनली, जि़रॉक्स, कारगिल, एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन ऑफ अमरीका और चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऑफ यूएस शामिल हैं.

दुनिया भर में कॉफी की दुकानों की श्रृंखला चलाने वाला स्टारबक्स भारत में एकल ब्रांड रीटेल में 100 फीसदी एफडीआई के लिए लॉबिंग करता रहा है. अमरीकी सीनेट के सामने दिए गए डिसक्लोज़र बयान के मुताबिक कंपनी ने 2011 की पहली छमाही में ”भारत में बाजार खोलने संबंधी पहलों” पर एक करोड़ रुपए खर्च किए थे. ध्यान देने की बात है कि स्टारबक्स की पहल कामयाब हुई क्योंकि भारत सरकार ”विदेशी दबाव” के आगे झुक गई और कुछ समय पहले वो एकल ब्रांड रीटेल में 100 फीसदी एफडीआई को मंजूरी दे चुकी है.

अब सवाल उठता है कि भारत में रीटेल बाजार तक पहुंच के लिए विदेशी कॉरपोरेट ने इतनी तगड़ी लॉबिंग क्यों की ? इसे समझने के लिए हमें भारत में रीटेल बाज़ार का आकलन करना होगा. भारत का खुदरा क्षेत्र बहुत बिखरा हुआ है और यहां 97 फीसदी कारोबार असंगठित खुदरा विक्रेता चलाते हैं. इसीलिए भारत के खुदरा क्षेत्र में भारी संभावनाएं देखी जाती हैं और अनुमान के मुताबिक 2007 के 330 अरब डॉलर के मुकाबले इसकी बढ़त 2015 में दोगुना यानी 640 अरब डॉलर हो जाएगी. इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च एंड इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के अनुमान के मुताबिक 2006-07 में असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार भारत में 408.8 अरब डॉलर और पारंपरिक खुदरा दुकानों की कुल संख्या 1.3 करोड़ थी. एक अध्ययन के मुताबिक भारतीय खुदरा बाजार का आकार अनुमानतः 704 करोड़ रुपए का है जो कुल खुदरा बाजार का सिर्फ 3 फीसदी है. एक रिपोर्ट कहती है कि 2003 से 2008 के बीच खुदरा बिक्री सालाना 8.3 फीसदी की दर से बढ़ती रही है.

विश्लेषकों के मुताबिक अगले दस साल में यह क्षेत्र 9 फीसदी सालाना की दर से बढ़ेगा और संगठित खुदरा दुकानों की संख्या में भी वृद्धि होगी. उन्हें उम्मीद है कि संगठित खुदरा कारोबार मौजूदा 4 फीसदी से 2018 में 25 फीसदी पर पहुंच जाएगा. वे मानते हैं कि भारत में संगठित खुदरा बाजार के विकास की भारी संभावनाएं हैं चूंकि यहां उपभोक्ता बाजार बहुत बड़ा है. कृषि के बाद यह क्षेत्र रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत है और ग्रामीण भारत में इसकी गहरी पहुंच है, जहां देश के जीडीपी में 10 फीसदी से ज्यादा का यह योगदान दे रहा है.

भारत का विशाल खुदरा क्षेत्र खोलने से आखिर किसे फायदा होगा. क्या इससे भारतीस उपभोक्ताओं को लाभ होगा या किसानों को. कहीं यह विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों के हितों को तो साधने में ही नहीं लग जाएगा. कुछ लोग सरकारी दलील देते हैं कि मलटीब्रांड रीटेल में एफडीआई से बड़े पैमाने पर देश में विदेशी पूंजी आएगी जिससे वित्तीय घाटा कम होगा और परिणामस्वरूप आर्थिक वृद्धि होगी. बार-बार वे एक ही दलील देते हैं कि रीटेल में एफडीआई को लाने से बिचैलियों की समाप्ति हो जाएगी जिससे न सिर्फ किसान बल्कि उपभोक्ता भी फायदे में रहेगा. यदि हम संगठित खुदरा क्षेत्र के काम करने के वास्तवित तरीके पर नज़र डालें तो यह दलील कहीं नहीं ठहरती.

सच्चाई यह है कि पूरे काम में बिचौलियों से निजात नहीं पाया जा सकता. फर्क बस यह आएगा कि मौजूदा बिचैलियों की जगह बड़े और अमीर बिचैलिए आ जाएंगे और ये सभी खुद रीटेलर के अपने लोग होंगे. यह बात ध्यान देने की है कि किसान से खुदरा दुकानदार को सीधी बिक्री तब तक नहीं हो सकती जब तक कि रीटेलर का अपना खेत न हो.

जहां तक किसान के लाभान्वित होने का तर्क है तो यह विचार भी गड़बड़ जान पड़ता है. जो लोग यह कहते हैं कि रीटेल में एफडीआई से किसानों को बेहतर दाम मिलेगा और उपभोक्ता को कम पैसे चुकाने पड़ेंगे उन्हें इस बात का जवाब देना चाहिए कि जब घरेलू रीटेलरों के कामकाज से किसानों को लाभ नहीं मिल सका है तो विदेशी रीटेलरों से यह कैसे संभव होगा. इसके अलावा विशाल बहुराष्ट्रीय रीटेलरों के कारोबार का मंत्र ही होता है ”सबसे कम में खरीदो, सबसे ज्यादा में बेचो.” ऐसे रीटेलर बाजार में अपनी शर्तें चलाने के हिसाब से काम करते हैं. चूंकि उनका काम ही अधिकतम मुनाफा कमाना है, इसलिए वे किसानों का न्यूनतम भुगतान करेंगे. चूंकि फल और सब्जियां जल्द खराब होने वाली चीज़ें हैं और देश में प्रशीतन का ढांचा अच्छा नहीं है, लिहाजा किसानों को रीटेलरों के मनमाफिक दाम पर अपने उत्पाद बेचने पड़ेंगे.

भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान को एक बार पश्चिमी देशों में किसानों के हालात पर नज़र दौड़ा लेनी चाहिए जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रीटेल श्रृंखला पर कब्ज़ा है. कई रिपोर्टें पश्चिम से इस बाबत आ रही हैं कि खेती के निगमीकरण और खरीद की प्रक्रिया में प्रसंस्करण कंपनियों व रीटेलरों के वर्चस्व के चलते हजारों किसानों को खेती छोड़ देनी पड़ी.

रिपोर्टें आ रही हैं कि अमरीका में छोटे किसानों पर खतरा है और साल दर साल भारी संख्या में वे खेती छोड़ कर जा रहे हैं. हालत यह हो गई है कि इंग्लैंड में रायल एसोसिएशन आफ ब्रिटिश डेयरी फार्मर्स ने शिकायत की है कि ताज़े दूध के बदले किसानों को जो कीमत मिल रही है वह बेहद कम है औसत किसान को प्रति लीटर उत्पादित दूध पर नुकसान हो रहा है जबकि पिछले कुछ वर्षों में इसी से सुपरमार्केट को हो रहा मुनाफा लगातार बढ़ा है. भारत में उपभोक्ता एक लीटर दूध के लिए जितने पैसे देता है, उसका 75 फीसदी तक किसान को मिल जाता है.

मल्टीब्रांड रीटेल में एफडीआई को मंजूरी देने के बाद तो अब भारत का डेयरी किसान भी बरबाद हो जाएगा. सरकार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए जो अनिवार्यता रखी थी कि उन्हें अपनी जरूरत के सामान का 30 फीसदी स्थानीय स्तर पर ही जुटाना होगा, कंपनियों के दबाव को देखते हुए उसे भी छोड़ना पडा. ये कंपनियां आम तौर पर अपने देश से सामान का आयात करती हैं या फिर उन देशों से जहां श्रम सस्ता है (जैसे चीन). इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ प्रदान करे. इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है. चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे.

इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुई हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ‘‘राष्ट्रीय बरताव’’ किया जाना होगा.

ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात करेंगे. केर सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘‘यूएस फार्म क्राइसिस’’ कहती है कि ‘‘हाल के वर्षों में विशाल निगमों ने उत्पादन अनुबंध और ऐसे ही अन्य एकीकरण उपकरणों के माध्यम से किसानों की आजादी को छीना है.’’ प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामिनाथन द्वारा इसी संदर्भ में कहे गए ये शब्द हमेशा याद रखने होंगे- ‘‘किसानों की जरूरतों, सुरक्षा और मोलभाव करने की उसकी क्षमता को सुनिश्चित किए बगैर अनुबंध खेती की जल्दबाजी इस क्षेत्र में भारी विस्थापन पैदा करेगी.’’

मई 209 में रीटेल पर एफडीआई विषय पर वाणिज्य पर संसदीय समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को भी नहीं भुलाया जाना होगा, जिसमें उसने सभी पहलुओं को संज्ञान में लेकर सभी पक्षकारों से बातचीत करने के बाद रीटेल में एफडीआई को मंजूरी नहीं देने की सिफारिश की थी. दिक्कत यह है कि जब विदेशी कारपोरेट ही यूपीए सरकार को चला रहे हों, तो भारतीय किसानों के प्रति सरोकारों की उम्मीद उनसे कैसे की जा सकती है.

फैसला वाल मार्ट जैसी विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में ही आया है, जो बरसों से इसके लिए काफी कवायद कर रही हैं. ये बात वाल मार्ट के अंतरराष्ट्रीय डिवीज़न के मुखिया जोन मेन्ज़र के 2005 की सालाना बैठक में कही गयी इस बात से भी साफ़ हो जाता है- ‘‘सरकार के साथ अपनी छह बैठकों में हमने वाल मार्ट की काफी अच्छी छवि स्थापित की है…’’ और ‘‘हमने भारत में एफडीआई लाबी को प्रोत्साहित कर विरोधी लाबी के प्रयासों को पहले ही चिह्नित कर लिया है.”

मल्टीब्रांड रीटेल में एफडीआई: दावों का पोस्टमॉर्टम

सिंगल ब्रांड खुदरा बाज़ार में 100 फीसदी और मल्टीब्रांड में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने तबाही की अंतिम खुराक इस देश को खिला दी है. दस-बारह साल का खेल और है, फिर कुछ कहने या समझाने की ज़रूरत नहीं होगी. बहरहाल, देश बिक रहा है लेकिन दिमाग हर स्थिति में स्वस्थ रहना चाहिए. एफडीआई पर जो सरकारी दावे हैं, भ्रम हैं, उनको कुछ हद तक साफ करने की नीचे एक कोशिश है. वक्त निकाल कर एक बार पढ़ें.

सवाल: घरेलू खुदरा क्षेत्र पर रीटेल में एफडीआर्इ का क्या असर होगा ?

भारत का खुदरा क्षेत्र कृषि के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है. हालिया राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 के मुताबिक 4 करोड़ लोग इस क्षेत्र में कार्यरत हैं. इनमें से अधिकतर छोटे असंगठित और स्वरोजगाररत खुदरा कारोबारी हैं जिन्हें अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में लाभकर रोजगार मिलना मुश्किल या असंभव है.

भारत की उच्च जीडीपी वृद्धि दर के हो-हल्ले के बावजूद एनएसएस 2009-10 ने इस बात की पुष्टि की है कि यह वृद्धि रोजगारों को नहीं बढ़ा रही. कुल रोजगार वृद्धि दर 2000-2005 के दौरान 2.7 फीसदी से घट कर 2005-2010 के दौरान सिर्फ 0.8 फीसदी रह गर्इ है. गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि दर 4.65 फीसदी से गिर कर 2.53 फीसदी रह गर्इ है. राष्ट्रीय स्तर पर सभी कामगारों के बीच करीब 51 फीसदी स्वरोजगाररत थे, 33.5 फीसदी अनियमित मजदूर थे और सिर्फ 15.6 फीसदी नियमित वेतन-भत्ता पाने वाले कर्मचारी थे.

ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट और हाइपरमार्केट श्रृंखलाओं का प्रवेश छोटे और असंगठित खुदरा विक्रेताओं को बड़े पैमाने पर विस्थापित करेगा. आर्इसीआरआर्इर्इआर द्वारा असंगठित रीटेलरों का 2008 में किया गया नमूना सर्वेक्षण बताता है कि एक असंगठित खुदरा व्यापारी की दुकान का औसत आकार करीब 217 वर्ग फुट होता है जिसमें हॉकरों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले ठेले और कियोस्क शामिल नहीं हैं (इम्पैक्ट ऑफ ऑर्गनाइज्ड रीटेलिंग ऑन दी अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर, आर्इसीआरआर्इर्इआर, मर्इ 2008). रिपोर्ट के मुताबिक असंगठित रीटेल का कुल सालाना कारोबार 2006-07 में 408.8 अरब डॉलर था और कुल पारंपरिक दुकानों की संख्या 1.3 करोड़ थी. लिहाजा एक दुकान का सालाना औसत कारोबार 15 लाख रुपए के आसपास आता है. सर्वे के मुताबिक एक औसत दुकान में दो से तीन लोग काम करते हैं.

अमेरिका में वालमार्ट सुपरमार्केट का औसत आकार 108000 वर्ग फुट होता है जिसमें 225 लोग काम करते हैं. वालमार्ट ने 2010 में 28 देशों के अपने 9800 आउटलेट से 405 अरब डॉलर के सामानों की बिक्री की जिनमें कुल 21 लाख लोग रोजगाररत थे.

इसका अर्थ यह हुआ कि वालमार्ट की एक दुकान भारत की 1300 छोटी दुकानों को निगल जाएगी और 3900 लोग एक झटके में बेरोजगार हो जाएंगे. इसके बदले उस स्टोर में कुल 214 नौकरियां सृजित होंगी (या फिर अमेरिकी औसत अधिकतम 225). ज़ाहिर है, यदि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारत में प्रवेश दिया गया तो रोजगारों में भारी कटौती होगी.

सवाल: क्या रीटेल में एफडीआर्इ देने से तीन साल में एक करोड़ नौकरियां सृजित होंगी ?

वाणिज्य मंत्री ने दावा किया था कि रीटेल में एफडीआर्इ के आने से तीन साल में एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे और प्रत्यक्षत: 40 लाख रोजगार पैदा होंगे, बाकी बैक एंड के कामों में पैदा होंगे. नीचे हम दुनिया भर में शीर्ष चार रीटेलरों के स्टोर और उनमें काम करने वाले लोगों के आंकड़े दे रहे हैं:

कंपनी दुनिया में कुल स्टोर कुल कर्मचारी औसत कर्मचारी
वाल मार्ट 9826 21,00,000 214
कारफूर 15937 4,71,755 30
मेट्रो 2131 2,83,280 133
टेस्को 5380 4,92,714 92

इसका मतलब यह हुआ कि यदि तीन साल में 40 लाख नौकरियां भी पैदा करनी हैं, तो अकेले वालमार्ट को भारत में 18600 सुपरमार्केट खोलने होंगे. यदि इन चार शीर्ष रीटेलरों का औसत निकाला जाए, यानी 117 कर्मचारी प्रति स्टोर, तो तीन साल में 40 लाख लोगों को नौकरी देने के लिए 34180 से ज्यादा सुपरमार्केट खोलने होंगे यानी प्रत्येक 53 शहरों में 64 सुपरमार्केट. क्या वाणिज्य मंत्री के ऐसे अटपटे दावे को गंभीरता से लिया जा सकता है ?

इसके अलावा, हमारा पहले का अनुमान बताता है कि सुपरमार्केट में पैदा हुर्इ हर एक नौकरी के लिए भारतीय असंगठित खुदरा क्षेत्र में 17 लोगों की नौकरी चली जाएगी. यानी यदि तीन साल में सुपरमार्केटों में 40 लाख लोगों को नौकरी मिलेगी, तो भारत में समूचा असंगठित खुदरा क्षेत्र (4 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाला) पूरी तरह साफ हो जाएगा.

सवाल: क्या सरकार द्वारा लागू की गर्इ बंदिशें भारतीय रीटेलरों की रक्षा कर पाएंगी ?

शुरुआत में 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 53 शहरों में बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केट खोले जाने की बंदिश निरर्थक है क्योंकि असंगठित क्षेत्र के अधिकतम छोटे खुदरा विक्रेता इन्हीं शहरों में हैं. इन 53 शहरों में 17 करोड़ लोग हैं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या दो करोड़ से ज्यादा है. यहीं सबसे ज्यादा विस्थापन होगा. बहुराष्ट्रीय रीटेलरों की दिलचस्पी सबसे ज्यादा बाजार के महानगरीय और शहरी सेगमेंट को कब्जाने की है जहां लोगों की क्रय शक्ति ज्यादा है. अर्धशहरी या ग्रामीण इलाकों में काम करने में उनकी दिलचस्पी नहीं है.

रीटेल में 500 करोड़ के न्यूनतम निवेश की शर्त भी बेकार है क्योंकि जो कंपनियां भारतीय बाजार में प्रवेश करने की इच्छुक हैं, वे विश्वव्यापी हैं. सबसे बड़ी कंपनी वालमार्ट का सालाना राजस्व 400 अरब डॉलर है और कारफूर, मेट्रो या टेस्को का भी सालाना कारोबार 100 अरब डॉलर से ज्यादा है. अपने देशों यानी अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंगलैंड इत्यादि में इन्हें मंदी का सामना करना पड़ रहा है, इसीलिए ये उभरते हुए बाजारों जैसे भारत में आना चाहती हैं. इनके पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं और इन्हें पता है कि घरेलू रीटेलरों को बाजार से बाहर करने के लिए विभिन्न आकार और प्रकार के आउटलेट कैसे खोले जा सकते हैं.

हो सकता है कि भारत में मौजूदा बड़े रीटेलरों को ये कंपनियां खरीद लें. इसी तरीके से लातिन अमेरिका और एशिया के अन्य देशों में इन्होंने अपना कारोबार फैलाया है. मसलन, 1991-92 में वालमार्ट ने मेक्सिको में प्रवेश के दौरान स्थानीय रीटेलर सिफ्रा के साथ 50-50 फीसदी की हिस्सेदारी कर ली. 1997 तक इसने अधिकांश हिस्सेदारी ले ली और 2000 तक इस संयुक्त उद्यम में साठ फीसदी हिस्सा ले लिया. वालमार्ट अकेले समूचे मेक्सिको में कुल खुदरा बिक्री का 25 फीसदी हिस्सेदार है और विशाल रीटेलरों के कुल विक्रय में इसकी हिस्सेदारी 43 फीसदी है.

सवाल: क्या भारत के छोटे और मझोले उद्यमों को वैश्विक रीटेलरों के आने से लाभ होगा ?

सरकार द्वारा छोटे और मझोले उद्यमों से 30 फीसदी सामान खरीदने की बहुराष्ट्रीय रीटेलरों पर लादी गर्इ अनिवार्यता ने भ्रम पैदा करने का काम किया है. वाणिज्य मंत्री कहते हैं कि यह प्रावधान भारत के छोटे और मझोले उद्यमों के लिए किया गया है, लेकिन उन्हीं के मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस नोट साफ तौर पर कहता है, ”तीस फीसदी खरीदारी छोटे और मझोले उद्यमों से की जानी है जो दुनिया के किसी भी हिस्से से की जा सकती है और यह भारत के लिए बाध्य नहीं है. हालांकि इस मामले में यह प्रावधान है कि 30 फीसदी खरीदारी उन छोटे और मझोले उद्यमों से की जाएगी जिनके पास 10 लाख डॉलर के बराबर संयंत्र और मशीनरी होगी.

इसके अलावा गैट समझौते का अनुच्छेद 3 किसी भी पक्ष के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह दूसरे पक्ष के साथ अनुबंध के तहत उसके उत्पादों को ”राष्ट्रीय बरताव” प्रदान करे. इसमें साफ तौर पर घरेलू उद्योगों से संसाधन लेने की जरूरत संबंधी नियमन को बाहर रखा गया है. चूंकि भारत ने इन्हीं शर्तों पर विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता ली थी, लिहाजा सिर्फ भारतीय उद्यमों से 30 फीसदी संसाधन लेने की बाध्यता वह लागू नहीं कर सकता क्योंकि इसे दूसरे देश चुनौती दे देंगे. इसके अतिरिक्त भारत ने 71 देशों के साथ द्विपक्षीय निवेश संवर्द्धन और संरक्षण संधियां की हुर्इ हैं जिसके तहत इन देशों के निवेशकों के साथ ”राष्ट्रीय बरताव” किया जाना होगा. ज़ाहिर है ये देश अपने यहां के छोटे और मझोले उद्यमों से सामग्री आयात की बात कहेंगे. इसका मतलब यह हुआ कि 30 फीसदी की अनिवार्यता का व्यावहारिक अर्थ दुनिया भर के छोटे व मझोले उद्यमों से सस्ते उत्पाद मंगवा कर शुल्क संरक्षण का उल्लंघन करते हुए इन्हें भारत में डम्प करना हुआ जो सीधे तौर पर भारतीय किसानों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा. सरकार के पास इसे रोकने का कोर्इ तरीका नहीं है.

सवाल: क्या बहुराष्ट्रीय रीटेलर हमारी खाध आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण कर देंगे ?

वाणिज्य मंत्रालय का दावा है कि बहुराष्ट्रीय रीटेलरों द्वारा किए गए निवेश का आधा हिस्सा हमारे बुनियादी ढांचे के विकास में खर्च होगा जिससे आपूर्ति श्रृंखला आधुनिक बनेगी, सक्षमता बढ़ेगी और संसाधनों की बरबादी कम होगी. यदि इन कंपनियों को ताजा फल, सब्ज़ी, दुग्ध उत्पाद और मीट भारी मात्रा में बेचना है, तो उन्हें अपने हित में बुनियादी ढांचे को विकसित करना मजबूरी होगी. लेकिन शीतगृह, प्रशीतन वाले परिवहन और अन्य व्यवस्थाएं जो वे लागू करेंगे, वे पूरी तरह उनके अपने कारोबार को समर्पित होंगे, किसानों और उपभोक्ताओं के व्यापक हितों के लिए नहीं इसलिए यह दावा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला को आधुनिक बना देंगी, सिर्फ एक दुष्प्रचार है.

अमेरिका में 1578 कोल्ड स्टोरेज में से 839 सरकारी हैं और 739 निजी या अर्ध-सरकारी. सरकारी गोदाम कहीं ज्यादा बड़े हैं जिनमें कुल भंडारण क्षमता का 76 फीसदी आता है जबकि निजी क्षेत्र के गोदामों की हिस्सेदारी महज 24 फीसदी है. भारत में 5381 कोल्ड स्टोरेज हैं जो अपेक्षया छोटे आकार के हैं, जिनमें से 4885 निजी क्षेत्र के हैं, 356 सहकारी हैं और सिर्फ 140 सरकारी हैं. भारत की कुल भंडारण क्षमता में निजी क्षेत्र का हिस्सा 95 फीसदी से ज्यादा का है जबकि सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी सिर्फ 0.44 फीसदी है. इसके अलावा 75 फीसदी से ज्यादा क्षमता का उपयोग सिर्फ आलू रखने के लिए होता है. नतीजतन कोल्ड स्टोरेज का औसत उपयोग सिर्फ 48 फीसदी के आसपास हो पाता है.

चीन, जो कि हर साल 50 करोड़ टन अन्न पैदा करता है, वहां कोल्ड स्टोरेज की क्षमता महज 39 करोड़ टन की है जो मोटे तौर पर सरकारी कंपनी साइनोग्रेन से संचालित होते हैं. इस सरकारी निगम ने न सिर्फ यहां के अनाज प्रबंधन को आधुनिक बनाया है बल्कि यह अनाज और तेल प्रसंस्करण के क्षेत्र में भी अपना विस्तार कर चुका है. इसके बरक्स भारत में कुल अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन है जबकि कुल भंडारण और कोल्ड स्टोरेज क्षमता पांच करोड़ टन की है. एफसीआर्इ और केंद्रीय भंडार की क्षमता 4 करोड़ टन की है, बाकी राज्यों के केंद्रीय भंडार निगम जरूरत को पूरा करते हैं. पर्याप्त भंडारण की इस कमी के चलते अधिकतर अनाज बरबाद हो जाता है और सरकारी खरीद पर भी बंदिशें लग जाती हैं.

भारत जैसे बड़े देश में आपूर्ति श्रृंखला का आधुनिकीकरण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रास्ते नहीं हो सकता जो कि सिर्फ अपने कारोबारी लाभ के बारे में सोचती हैं. भंडारण क्षमता को सरकारी और सहकारी क्षेत्र में बढ़ाने की बहुत जरूरत है और इनका प्रबंधन दुरुस्त करने की दरकार है. रीटेल में एफडीआर्इ सक्रिय जनभागीदारी और इस निर्णायक क्षेत्र में सरकारी निवेश का विकल्प नहीं बन सकता.

सवाल: क्या भारतीय किसानों को रीटेल में एफडीआर्इ से लाभ होगा ?

रीटेल में एफडीआर्इ के पैरोकार दावा कर रहे हैं कि बिचौलियों के सफाए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा सीधी खरीद से किसानों को बेहतर दाम मिलेंगे. सच्चार्इ यह है कि मौजूदा बिचौलियों के मुकाबले बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसानों से मोलभाव करने की ज्यादा मजबूत स्थिति में होंगी.

मौजूदा मंडियों को आधुनिक बनाने और उनके प्रभवी नियमन की यहां बहुत जरूरत है क्योंकि इनमें व्यापारियों के बीच गोलबंदी देखी जाती है जिसके चलते छोटे किसानों को नुकसान होता है और उनसे अपना मुनाफा कमा कर व्यापारी अनाज की तहबाजारी और कालाबाजारी कर लेते हैं. हालांकि, कृषि खरीद में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश इस समस्या को और बदतर बना कर छोड़ेगा. आज मंडियां जिस तरीके से काम करती हैं, जहां किसानों से उनके उत्पाद खरीदने के लिए व्यापारियों को प्रतिस्पर्धा करनी होती है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने के बाद खरीदार सिर्फ एक होगा. इसके चलते किसान उन पर पूरी तरह निर्भर हो जाएंगे और उनके शोषण की गुंजाइश और ज्यादा बढ़ जाएगी.

अंतरराष्ट्रीय तजुर्बा इस बात की तस्दीक करता है. यूरोपीय संघ की संसद के अधिकांश सदस्यों ने फरवरी 2008 में एक संकल्प पारित किया था जो कहता है, ”यूरोपीय संघ में खुदरा बाजार पर अधिकतर सुपरमार्केट श्रृंखलाओं का कब्जा होता जा रहा है… यूरोपीय संघ से इकट्ठा किए गए साक्ष्य बताते हैं कि बड़े सुपरमार्केट खरीदने की अपनी क्षमता का दुरुपयोग कर के आपूर्तिकर्ताओं को मिलने वाले दाम को अनपेक्षित स्तरों तक गिरा रहे हैं (यूरोपीय संघ के भीतर और बाहर दोनों जगह) और उन पर पक्षपातपूर्ण शर्तें थोप रहे हैं. फ्रांस, इटली, नीदरलैंड्स, बेल्जियम, आयरलैंड और हंगरी जैसे यूरोपीय देशों के किसानों द्वारा सुपारमार्केट के विरोध के बाद यह संकल्प पारित किया गया था. इन सभी की शिकायतें एक सी थीं: दूध, मीट, कुक्कुट, वाइन आदि उत्पादों के मामले में सुपरमार्केट चलाने वाले रीटेलर किसानों को चूस रहे थे और कर्इ मामलों में उन्हें लागत से नीचे के दाम पर उत्पादों की बिक्री करने के लिए मजबूर कर रहे थे. घरेलू खाद्य और कृषि बाजारों में निगमों के संकेंद्रण और प्रतिस्पर्धा पर 2010 में अमेरिकी न्याय और कृषि विभाग ने संयुक्त रूप से कार्यशालाएं और जन सुनवाइयां भी आयोजित की थीं.

दक्षिण दशियार्इ देशों के अनुभव भी बताते हैं कि सुपरमार्केट के विस्तार से छोटे किसानों को कोर्इ लाभ नहीं होता. मलयेशिया और थाइलैंड में सुपरमार्केटों ने समय के साथ सब्जि़यों और फलों के आपूर्तिकताओं की संख्या घटार्इ और किसानों के बजाय थोक विक्रेताओं व दूसरे बिचौलियों से उत्पाद खरीदने में लग गए. इसके अलावा कर्इ अध्ययनों में इन सुपरमार्केट द्वारा अनियमितताएं भी सामने आर्इ हैं जैसे भुगतान में देरी, आपूर्तिकर्ता के निर्विकल्प होने की स्थिति में आखिरी वक्त पर दाम में कमी, बगैर नोटिस और समर्थन के मात्रा और गुणवत्ता में लाया गया बदलाव, बगैर उपयुक्त कारण से आपूर्तिकर्ता को सूची में से हटा देना और कर्ज पर भारी ब्याज वसूलना, इत्यादि.

भारत में अधिकांश किसान छोटे और हाशिये के हैं जो दो हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती करते हैं. आज उनके सामने सबसे बड़ी समस्या लागत में इजाफा, कम दाम, संस्थागत कर्ज तक पहुंच का अभाव, तकनीक और बाजार से जुड़ी है. इन्हें सरकारी मदद और प्रोत्साहन की जरूरत है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खरीद इनकी समस्या को सुलझाने के बजाय इन्हें और बदहाल बनाएगी.

सवाल: क्या सुपरमार्केट के बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालन से महंगाई को थामा जा सकता है ?

सरकार द्वारा रीटेल में एफडीआर्इ के समर्थन में किया गया सबसे बड़ा दुष्प्रचार यही है कि यह महंगार्इ को कम करेगा. विशाल रीटेल श्रृंखलाओं के आने से प्रतिस्पर्धा खत्म हो जाती है और बाजार में एकाधिकार स्थापित हो जाता है. बाजार में संकेंद्रण लंबी दौड़ में महंगार्इ को बढ़ाता है.

दुनिया भर में पिछले दो दशक के दौरान खासकर विशाल संगठित रीटेलरों का हिस्सा बढ़ा है. हालांकि इससे महंगार्इ कम नहीं हुर्इ है, बल्कि 2007 के बाद से वैश्विक खाद्यान्न कीमतों में तीव्र इजाफे का श्रेय खाद्य श्रृंखला और व्यापार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकारी नियंत्रण को ही जाता है. 2011 के मध्य में एफएओ की वैश्विक खाद्यान्न कीमतें एक बार फिर रिकार्ड स्तर पर पहुंच गर्इ थीं, बावजूद इसके कि दुनिया भर में उस वक्त मंदी थी.

सबसे विशाल वैश्विक रीटेलरों की भूमिका साफ दिखाती है कि सुपरमार्केट महंगार्इ को थाम पाने में नाकाम हैं. वालमार्ट ने अपना कारोबारी नारा ”हमेशा कम कीमतें” में हमेशा को 2007 में छोड़ दिया और उसकी जगह नारा लाया गया ”पैसा बचाओ, बेहतर जियो”. वालमार्ट ने 2011 में अपने अमेरिकी प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले सभी खाद्यान्न उत्पादों जैसे ब्रेड, दूध, कॉफी, पनीर इत्यादि के दाम बढ़ा दिए. कारफूर ने भी इस साल फ्रांस में दाम बढ़ाए हैं. टेस्को ने आयरलैंड में 2011 में ही 8000 उत्पादों के दाम बढ़ा दिए थे ताकि फरवरी में वित्त वर्ष के अंत से पहले वह मुनाफा कमा सके और इसके बाद बड़ी चालाकी से उसने मार्च में बिक्री बढ़ाने के लिए दामों में कटौती कर दी.

विशाल रीटेलर कम मार्जिन पर ज्यादा सामग्री बेचकर मुनाफा कमाते हैं. जब कभी उनकी बिक्री कम होती है, वे दाम बढ़ाने को मजबूर हो जाते हैं ताकि अपने मुनाफे को समान स्तर पर बनाए रख सकें. कारोबार चलाने के लिए मुनाफे का यह स्तर ही उनका पैमाना होता है, महंगार्इ थामने की कोर्इ कटिबद्धता इनके साथ नहीं होती. जब 2009 में मंदी आर्इ थी, उस साल 250 शीर्ष वैश्विक रीटेलरों की खुदरा बिक्री में सिर्फ 1.3 फीसदी का इजाफा हुआ था जबकि 90 रीटेलरों की बिक्री के आकार में गिरावट आर्इ थी. हालांकि 250 शीर्ष रीटेलरों का शुद्ध मुनाफा 2008 के 2.4 फीसदी के मुकाबले 2009 में फिर भी 3.1 फीसदी रहा था. लागत कटौती के उपायों के साथ कीमतें बढ़ाने के चलते ही यह संभव हो सका था.

सवाल: यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां दूसरे देशों में सुपरमार्केट चला सकती हैं तो भारत में क्यों नहीं ?

विकसित देशों के अनुभव बताते हैं कि हाइपरमार्केट और सुपरमार्केट के आने से रीटेल बाजार में संकेंद्रण बड़े पैमाने पर पैदा हो जाता है. ऑस्ट्रेलिया में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 97 फीसदी पहुंच गया है जबकि इंगलैंड और अन्य यूरोपीय देशों में यह 50 फीसदी से ज्यादा पर बना हुआ है. विकासशील देशों के बीच भी दक्षिण अफ्रीका में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी 80 फीसदी से ज्यादा है, ब्राज़ील में 25 फीसदी से ज्यादा है और रूस में करीब 10 फीसदी है. ऐसे संकेंद्रण से छोटी खुदरा दुकानें खत्म हो गर्इं, आपूर्तिकर्ता बरबाद हो गए और उपभोक्ताओं के सामने विकल्पों की कमी हो गर्इ. दुनिया भर में हाल के दिनों में वैश्विक खुदरा श्रृंखलाओं की नकारात्मक भूमिका पर काफी बहस हुर्इ है.

दक्षिण पूर्वी एशिया में पिछले दशक के दौरान रीटेल का यह आधुनिक संस्करण काफी तेजी से बढ़ा है जिसके पीछे बहुराष्ट्रीय समेत घरेलू रीटेलरों का भी हाथ है. नील्सन कंपनी की रिपोर्ट ”रीटेल एंड शॉपर्स ट्रेंड: एशिया पैसिफिक, दी लेटेस्ट इन रीटेलिंग एंड शॉपर्स ट्रेंड्स फार दी एफएमसीजी इंडस्ट्री”, अगस्त 2010 के आंकड़े दिखाते हैं कि 2000 से 2009 के बीच जहां कहीं ऐसे आधुनिक स्टोरों का विस्तार हुआ है (जैसे कोरिया, सिंगापुर, ताइवान, चीन, मलयेशिया और हांगकांग), वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या काफी कम हुर्इ है. जिन देशों में इनके विस्तार की गति धीमी रही है, वहां पारंपरिक दुकानों की संख्या बढ़ी है.

रीटेल में एफडीआर्इ के पैरोकार अकसर इस मामले में चीन को सफलता की दास्तान के रूप में बताते हैं. इस दौरान यह छुपा लिया जाता है कि चीन में सबसे बड़ी रीटेल श्रृंखला सरकार द्वारा चलार्इ जाती है जिसका नाम शंघार्इ बेलियन समूह है जिसके देश भर में 5500 से ज्यादा सुपरमार्केट हैं. अन्य छोटी सरकारी दुकानों का भी इसमें विलय हो चुका है. इस समूह की बाजार हिस्सेदारी वालमार्ट और कारफूर से ज्यादा रही है और चीन में शीर्ष पांच रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी भी 10 फीसदी से कम रही है. इसके बावजूद चीन अपने यहां पारंपरिक दुकानों को कम होने से रोक नहीं सका है.

मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड जैसे दक्षिण पूर्व एशियार्इ देशों में आधुनिक रीटेल स्टोरों पर कर्इ बंदिशें लागू हैं. एक नियम यह है कि हाइपरमार्केट शहरी बाजारों और पारंपरिक हाट से एक तय दूरी पर ही खोले जा सकते हैं. इनके न्यूनतम आकार और काम करने के घंटों पर भी नियम हैं. एक दशक पहले इन देशों में छोटे दुकानदारों द्वारा किए गए विरोध के बाद ये नियम कानून लागू किए गए. मलयेशिया ने 2002 में नए हाइपरमार्केट खोलने पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसे 2007 में उठा लिया गया. नियमन के बावजूद मलयेशिया, इंडोनेशिया और थाइलैंड में शीर्ष पांच रीटेलरों का बाजार हिस्सा 29, 24 और 36 फीसदी है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान थाइलैंड में टेस्को और इंडोनेशिया में कारफूर के आउटलेट खोले जाने के खिलाफ काफी विरोध प्रदर्शन हुए हैं.

इन मामलों से उलट भारत में अब भी आधुनिक रीटेलरों की बाजार हिस्सेदारी पांच फीसदी के आसपास है और कुल खुदरा बिक्री में शीर्ष पांच रीटेलरों का हिस्सा एक फीसदी से भी कम है. यह दिखाता है कि घरेलू कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा आधुनिक रीटेल के विस्तार के बावजूद अब भी पारंपरिक दुकानदार उन्हें टक्कर देने की स्थिति में बना हुआ है. हालांकि आर्इसीआरआर्इर्इआर और अन्य अध्ययनों में यह बात सामने आर्इ है कि बड़े रीटेल आउटलेट के पड़ोस में स्थित छोटी खुदरा दुकानों की बिक्री में गिरावट आर्इ है. छोटे दुकानदारों की रक्षा करने और रीटेल बाजार में संकेंद्रण को रोकने के लिए जरूरी है कि एक प्रभावी नियमन का ढांचा लागू किया जाए. दुकान के आकार और उसकी जगह के संदर्भ में लाइसेंसिंग प्रणाली के माध्यम से विशाल रीटेल स्टोरों की संख्या पर रोक लगार्इ जानी होगी. खरीद के नियम भी तय किए जाने होंगे. अब तक सरकार ने ऐसे किसी नियमन के संदर्भ में कोर्इ परिचर्चा या रायशुमारी नहीं की है, न ही असंगठित, सहकारी और सरकारी क्षेत्र की मौजूदा रीटेल दुकानों के आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कोर्इ पहल की गर्इ है.

रीटेल में एफडीआर्इ को मंजूरी दिए जाने के बाद ऐसा कोर्इ भी नियमन असंभव हो चुका है क्योंकि उसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने धनबल का इस्तेमाल कर के अपना विस्तार करेंगी और देश भर से भारी मुनाफा काटेंगी क्योंकि भारत आज दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ एफएमसीजी बाजार है. भारतीय कॉरपोरेट अपने कारोबारों को उन्हें बेचकर उनकी मदद ही करेंगे, खासकर वे कारोबार जो काफी कर्ज लेकर अपना भारी विस्तार कर चुके हैं. इस तरह संगठित रीटेल का हिस्सा तेजी से बढ़ेगा और बदले में बड़ी संख्या में छोटे दुकानदार विस्थापित हो जाएंगे, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ जाएगी. पहले से ही बेरोजगारी की खराब तस्वीर के बाद ऐसा होने से देश में सामाजिक तनाव और असंतुलन बढ़ेगा.

कुछ तबकों की ओर से दलील आ रही है कि भारतीय बाजार की वृद्धि दर पर्याप्त है कि वह बहुराष्ट्रीय सुपरमार्केटों और असंगठित खुदरा क्षेत्र को समानांतर समाहित कर सके. हालांकि इसके पीछे यह धारणा है कि पिछले दिनों में भारत की क्रय शक्ति में वृद्धि हुर्इ है और यह आगे भी जारी रहेगी, लेकिन यह गलत है. मंदी के संकेत अभी से ही मिलने लगे हैं. विकसित देशों में दोहरी मंदी और रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि निवेश और वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल रही है. ऐसे परिदृश्य में बहुराष्ट्रीय रीटेलरों को भारतीय बाजार में प्रवेश की अनुमति देना वृद्धि और रोजगार सृजन तो दूर, विनाश को आमंत्रित करने जैसा है.

पीयूष पंत

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