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चेतन भगत जैसे लेखक कारपोरेट के प्रवक्ता बन गए हैं

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चेतन भगत जैसे लेखक कारपोरेट के प्रवक्ता बन गए हैं

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

बड़े होने के क्रम में चंपक, नंदन, पराग आदि से गुजरते कब गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी जैसों के इश्क में गिरफ्तार हुए, पता भी नहीं चला. खास कर गुलशन नंदा, जो दो तीन पीढ़ियों तक खासे लोकप्रिय रहे, जिनके कई उपन्यासों पर सुपरहिट फिल्में बनीं, अपने दौर के बेस्ट सेलर रहे.

कल्पना करें कि अगर किसी दिन किसी न्यूज प्लेटफार्म पर भारत सरकार की आर्थिक नीतियों पर गुलशन नंदा का कोई आलेख छपा नजर आ जाता तो उनके पाठकों या प्रशंसकों पर क्या गुजरती ?

गुलशन नंदा अगर बैंक राष्ट्रीयकरण या कोयला खदानों जैसे मुद्दों से उपजे विवादों पर कोई आलेख लिखते तो चाहे उनके विचार कुछ भी होते, उनकी भाषा अच्छी होती, उनके नाम के कारण लोगों की नजरें उस पर जरूर जाती.

चेतन भगत गुलशन नंदा के आधुनिक अंग्रेजी संस्करण हैं. उनके कुछ उपन्यास बेस्ट सेलर्स में शुमार किये गए हैं जिनके हिन्दी अनुवाद भी आए हैं और जिन पर फिल्में भी बनी हैं.

जब पहली बार, किसी अखबार में चेतन भगत के किसी आलेख पर नजर गई, जो शायद सरकारी बैंकों के निजीकरण से संबंधित थी तो अचानक एक कौतूहल सा जगा. चेतन भगत का आलेख निजीकरण की नीतियों पर…?

फिर मन में आया कि सोशल मीडिया के इस दौर में जब हर तीसरा-चौथा आदमी आर्थिक-राजनीतिक विशेषज्ञ बना हुआ है तो चेतन भगत क्यों नहीं. आखिर उनका नाम है और बाजारवाद के इस दौर में नाम एक ब्रांड की हैसियत अख्तियार कर लेता है. जाहिर है, उनके आलेख प्रकाशित करना अखबारों के लिये व्यावसायिक दृष्टि से भी अनुकूल है.

अपने जमाने में गुलशन नंदा भी चाहते तो आर्थिक मुद्दों पर लिख ही सकते थे, हालांकि तब के नामचीन अखबारों में कितने उन्हें हाथों-हाथ लेते, यह विमर्श का विषय है लेकिन, जमाना बदल गया है. अब चेतन भगत को अखबार वाले ऐसे आलेखों के लिये भी हाथों-हाथ ले रहे हैं जिनमें व्यक्त उनके विचार बेहद सतही प्रतीत होते हैं.

मसलन, अभी कल ही एक नामी अखबार के एडिटोरियल पेज पर भगत जी के आलेख का शीर्षक देखा, ‘एअर इंडिया की बिक्री निजीकरण की मास्टरक्लास.’ वे लिखते हैं कि इस बिक्री से स्वस्थ निजीकरण के प्रति मानसिकता बदलेगी.

उनके शब्दों पर गौर करें – ‘स्वस्थ निजीकरण.’ जब भी कोई सरकार अंधाधुंध निजीकरण का अभियान छेड़ती है तो इतिहास गवाह है, उसमें ‘स्वस्थ’ शब्द तो सिरे से गायब रहता है. प्रायोजित मीडिया और प्रायोजित लेखक उस अभियान की चाहे जैसी व्याख्या करें.

वाजपेयी सरकार के समय जिन सार्वजनिक संपत्तियों की बिक्री हुई थी उनमें से अनेक को लेकर अब सच्चाई सामने आ रही है कि उन्हें वास्तविक या वाजिब से चौथाई से भी कम दामों पर किसी कारपोरेट घराने के हवाले कर दिया गया था. विवाद तब भी उठे थे जबकि उन सौदों को लेकर हाल में ही कोर्ट की भी सख्त टिप्पणियां हमारे सामने आई हैं. मनमोहन सरकार में भी ऐसे विवाद अक्सर सामने आते रहे.

आजकल जितनी तेजी से इन बिक्रियों को अंजाम दिया जा रहा है उनमें जनता के हितों और खरीदने वालों के हितों के बीच असंतुलन तो इतिहास के अध्यायों में कभी पढ़ाए जाएंगे, क्योंकि दौर तो होते ही हैं बदलने के लिये और वक्त आएगा जब इस दौर को इतिहास अपनी निर्ममता के साथ परखेगा.

हालांकि, चेतन भगत जैसे निजीकरण समर्थक लेखक हितों के इस असंतुलन को ‘स्वस्थ’ बताने की अप्रत्यक्ष कोशिशें करते इस दौर के गहराते बौद्धिक अंधकार के ही प्रतीक लगते हैं.

राजनीति और कारपोरेट के गठजोड़ से उपजी सत्ता में निजीकरण की प्रक्रिया के साथ ‘स्वस्थ’ शब्द जोड़ना ऐसे आदर्श की कल्पना करना है, जिसे कभी हासिल नहीं किया जा सकता लेकिन, जनता के मानसिक अनुकलन के लिये मीडिया के द्वारा ऐसे लेखकों को आगे लाया जाना जरूरी है. जैसा कि उसी आलेख में चेतन भगत लिखते हैं, ‘एअर इंडिया की 100 प्रतिशत बिक्री बताती है कि निजीकरण किया जा सकता है और नागरिकों को इस पर कोई ऐतराज नहीं है.’

‘…नागरिकों को इस पर कोई ऐतराज नहीं है…’ ये शब्द काबिलेगौर हैं. जब जनता को यह पता ही नहीं चलने दिया जाएगा कि निजी विमानन कंपनियों के व्यावसायिक हितों को साधने के लिये किस तरह एअर इंडिया को सुनियोजित तरीके से बर्बाद किया गया, जब जनता को हर दूसरे-तीसरे दिन किसी खबर में यह पढ़ने को मिले कि एअर इंडिया लगातार घाटे में जा रही है, कि उस पर कर्जों का बोझ बढ़ता ही जा रहा है, कि इन स्थितियों में उसे बेच दिया जाना ही सर्वोत्तम विकल्प है तो जनता क्या करे !

लेकिन तब भी, कोई लेखक कैसे यह कह सकता है कि विमानन क्षेत्र में राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके इस सरकारी कंपनी के बिक जाने से जनता में कोई विरोध भाव नहीं है ?

यह जनता के प्रवक्ता का पद जबर्दस्ती हथियाने जैसा है. अपर मिड्ल क्लास के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े युवाओं, जो निजीकरण के असल लाभार्थी भी हैं, के बीच पढ़े जाने वाले चेतन भगत भारत की जनता के प्रवक्ता कैसे बन सकते हैं ? लेकिन, वे बन रहे हैं.

वे आगे लिखते हैं, ‘यह निजीकरण का मौसम है, सरकार को ऐसे और निजीकरण करने चाहिये.’ वे सलाह देते हैं कि सरकारी कंपनियों की बिक्री के लिये उनका ‘सही मोल’ लगाना जरूरी है, वर्ना ‘कोई भी इन्हें खरीदने नहीं नहीं आएगा.’
‘सही मोल…’ मतलब खरीदने वाले के अनुकूल मोल, परिसंपत्तियों का वास्तविक मोल नहीं.

छुपे तौर पर कारपोरेट का प्रवक्ता कोई लेखक जनता का प्रवक्ता बनने का स्वांग रचते जब अखबारों के पन्नों पर अपने शब्दों के साथ नमूदार होता है तो ऐसे ही आलेख, ऐसे ही विचार सामने आते हैं.

यह अजब छद्म का दौर है. बाकायदा प्रायोजित छद्मों का दौर, जिनका एक ही लक्ष्य है – जनता को भरमाना. उन्हें यह समझाना कि जो हो रहा है वह उनके भले के लिये ही हो रहा है, कि इस होने का कोई विकल्प नहीं है. इन छद्मों को रचने में मीडिया का बड़ा तबका लगा है, लेखकों के कुछ समूह लगे हैं, राजनीति के कितने बड़े-छोटे खिलाड़ी लगे हैं.

किसी सरकारी कंपनी को जानबूझकर बर्बाद करना, बीएसएनएल सहित जिसके कई उदाहरण हैं, और फिर उन्हें ‘बोझ’ घोषित कर ‘सही मूल्यों’ पर बेच देने का उपक्रम करना जनता के साथ सबसे बड़ा धोखा है.

लेकिन, यह सुनियोजित तरीके से सांस्थानिक तौर पर हो रहा है. त्रासदी यह है कि लेखकों का एक वर्ग भी इन षड्यंत्रों का हिस्सा बनता देखा जा रहा है.

इस बीच यह सवाल भी मन में उठता है कि आज अगर गुलशन नंदा होते और इन विषयों पर लिखते तो क्या वे जनता के साथ खड़े दिखते या कारपोरेट संपोषित सत्ता के साथ ?

मन नहीं मानता कि वे सत्ता, प्रकारान्तर से कारपोरेट के प्रवक्ता बनते. क्योंकि, वे हिन्दी के लेखक थे और उनके विशाल पाठक वर्ग में धनी-गरीब, अधिक पढ़े-लिखे, कम पढ़े-लिखे तमाम लोग शामिल थे.

कोई लेखक आखिर अपने पाठकों के हितों के साथ द्रोह कैसे कर सकता है ? गुलशन नंदा भी शायद नहीं करते. हिन्दी अंततः सत्ता के प्रतिरोध की भाषा ही रही है. न केवल सत्ता, बल्कि किसी भी तरह के शोषण के प्रतिरोध की भाषा के रूप में ही हिंदी का साहित्यिक विकास हुआ है. अपवाद में आज के अधिकतर हिन्दी अखबार जरूर हैं जो अपने पाठकों के साथ सत्ता प्रायोजित छद्म के सहयात्री बने हुए हैं.

चेतन भगत नए उभरते ‘न्यू इंडिया’ के भारतीय अंग्रेजी लेखक हैं. उनका साहित्य किसी बौद्धिकता या नवोन्मेषी चेतना का वाहक नहीं, अंग्रेजी पढ़ कर सत्ता, प्रशासन और निजी क्षेत्र में बड़े पदों पर काबिज होने वालों के मनबहलाव का माध्यम है.
सच तो यही है कि वे भी अपने पाठक वर्ग के हितों के अधिक प्रतिकूल नहीं जा रहे. उन्हीं के पाठक वर्ग के लिये तो यह नया भारत बनाया जा रहा है.

जिस दौर में सिस्टम ही जनता के खिलाफ षड्यंत्र करने वालों के हाथों में सिमटती जाए, उस दौर में जनता की बात करना किसी भी सेलिब्रिटी के लिये बड़ी हिम्मत की बात है. चेतन भगत जैसे लेखकों और उनके आलेख प्रकाशित करने वालों से जनता की बातें करने की उम्मीद करना ही बेमानी है.

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ROHIT SHARMA

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