कपाल क्रिया से लौट कर
ब्रह्म भोज में शामिल होने के बीच
ब्राह्मण भोजन का रिवाज है.
मृतक की रुचि के अनुसार
भोजन बनाते समय
मेनू के बाहर लिखा था
नून रोटी।
स्वजातीय लोगों के अपमान के लिए
मैं तैयार नहीं था
इसलिए सोचने लगा
अगर मृतक की कोई ख़्वाहिश होती
तो वह क्या खाना चाहता
हर रोज़
या किसी रोज़
क्योंकि
वैसे तो हरेक शाम का खाना
उसके लिए
किसी चमत्कार से कम नहीं था
मृतक जब उतना नहीं मरा था
जितना कि आज है
उच्छिष्ट को भी अदृश्य को बिना धन्यवाद दिये
ग्रहण नहीं करता था
इतना तो मालूम था मुझे
मंदिर की सीढ़ियों पर
दानी में ईश्वर ढूंढते हुए
बीती हुई सदियों की याद
उसकी धुंधली आंखों में
पीले लट्टुओं सी कौंधती थीं
बारिश में लिपटे
ताज़ा पकौड़ियों की महक के साथ
जिस रोज़गार से भी मरहूम था वह.
पांच किलो मुफ़्त अनाज भी नहीं था
दस्तरस में उसके
क्योंकि
मुफ़्तख़ोरी को संभालने के लिए
उसने कभी माचिस की डिबिया भी नहीं ख़रीदी.
वह ज़मीन का आदमी था
उसे ज़मीन पर आंखें गड़ाए चलना अच्छा लगता था
बीड़ी, सिगरेट के फेंके हुए टुकड़ों की ख़ातिर
और माचिस तो कोई भी नशेड़ी उधार दे देता.
अब ऐसे आदमी के ब्रह्म भोज में
उसकी रुचि का क्या पकवान बनाऊं
नून रोटी के सिवा
मैंने कहानियों के संसार को टटोला
धर्म ग्रंथों के पन्नों को पलटा
कविताओं की दुनिया में ढूंढा
क्रांतियों के इतिहास को खंगाला.
कहीं उत्तर नहीं मिला
उस आदमी का ज़िक्र हर जगह था
लेकिन, उसकी रुचि के भोजन का ज़िक्र
कहीं नहीं था.
उच्छिष्ट और कंगाली भोजन की बैसाखी पर
टिका हुआ उसकी चालीस साल की ज़िंदगी में
कोई मेनू कार्ड बन नहीं पाया था
लाल कार्ड भी नहीं.
उसे न नोटबंदी लाईन में लगा सकी
न ही पांच किलो मोदी झोला
और न ही कोरोना की वैक्सीन
तालाबंदी में भूख निगलता रहा
और एक दिन मर गया
म्युनिसिपैलिटी की हद से बाहर
ठीक मेरे घर के सामने
शहर की हद के बाहर
जहां क़ानून, लोकतंत्र और संविधान की लाशें
मरी पड़ी रहती हैं
ठीक उसी जगह मर गया वो मुआ
और छोड़ गया अपने अंतिम संस्कार की लाशों को मेरे टूटे हुए कंधों पर.
ब्रह्म भोज में शामिल होने के लिए
सभी तैयार थे
क़ातिल भी और मक्तूल भी
अस्पतालों में तकिये से मुंह दबा कर मारने वाले भी
और रेत में लाशों को दफ़नाने वाले भी
खून पीने वाले हुक्मरान
और अंधी आवाम भी
सभी शामिल थे ब्रह्म भोज में
गिद्ध
पर्यावरण में विलुप्त होती एक प्रजाति है
और देश पर्यावरण से बाहर एक सच्चाई
ठीक जैसे
उसकी लाश का
म्युनिसिपैलिटी की हद से बाहर मिलना.
मैंने तय कर लिया
अब मैं ब्रह्म भोज में सिर्फ़
नून रोटी परोसूंगा
क्यों कि
मेरी समझ की लाश
मृतक की इच्छाओं के शहर के बाहर
पड़ी है.
- सुब्रतो चटर्जी
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