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किसान का दर्द समझिए

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भाजपा के उपेक्षित नेता वरुण गांधी ट्वीट करते हैं : उत्तर प्रदेश के किसान श्री समोध सिंह पिछले 15 दिनों से अपनी धान की फसल को बेचने के लिए मंडियों में मारे-मारे फिर रहे थे, जब धान बिका नहीं तो निराश होकर इसमें स्वयं आग लगा दी. इस व्यवस्था ने किसानों को कहां लाकर खड़ा कर दिया है ? कृषि नीति पर पुनर्चिंतन आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है.

एक अन्य यूजर लिखते हैं : यूपी के ललितपुर में भोगी पाल डीएपी खाद के लिए दो दिन से लाइन में लग रहे थे, पर नहीं मिली. एक दिन रात को सहकारी समिति के बाहर ही सो गए. सुबह उठकर सबसे पहले लाइन में लग गए. थोड़ी देर बाद बेहोश होकर गिरे और मौत हो गई. उधर सरकार कहती है कि खाद की कोई कमी नहीं।

इस किसान का दर्द समझिए. आखिर अपने ही फसल में क्यों आग लगा रहा है ? फिर समझ में आ जाएगा आखिर कृषि कानूनों का विरोध क्यों हो रहा है ? यह किसान जिस निराशा और गुस्सा में अपने खून पसीना से सिंचित किए अपने ही उगाए धान में आग लगा रहा है, उसी निराशा और कुंठा में कभी-कभी अपनी जान तक लेता है, जिसे हम आत्महत्या का नाम दे देते हैं.

आइए, बिहार (चम्पारण) में खेती के लाभ हानि का गणित समझते हैं.

धान के खेती का प्रति एकड़ लागत (न्यूनतम) –

  • खेत की जुताई का खर्च – 6000 रूपये
  • संकर नस्ल के बीज तैयारी का खर्च – 4000 रूपये
  • उर्वरक एवं कीटनाशक (सामान्यतः प्रयुक्त) – 7000 रूपये
  • रोपाई की मजदूरी – 3000 रूपये
  • सिंचाई एवं अन्य खर्च – 3000 रूपये
  • कटाई से लेकर भण्डारण तक का लागत – 5000 रूपये

 

  • अनुमानित न्यूनतम लागत – 28000 रूपये प्रति एकड़
  • अधिकतम उत्पादकता – 20-22 क्विंटल प्रति एकड़
    (सामान्य मौसम होने के स्थिति में)
  • धान का औसत कीमत – 1500 रूपये प्रति क्विंटल
  • धान का कुल कीमत – 30000-33000 रूपये
  • शुद्ध लाभ – 2000-5000 रूपये

सामान्य मौसम होने पर एक किसान प्रति एकड़ अधिकतम 5000 रूपये का लाभ कमता है. अर्थात 4 महीने के परिश्रम के बाद कुल आमदनी 5000 रूपये है. देश के 80 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर (लगभग 5 एकड़) या उससे कम जमीन है. देश में लोगों के पास औसतन कृषि भूमि 1.08 हेक्टेयर (2.7) एकड़ है. इस हिसाब से प्रति किसान धान के फसल से कुल आय 17500 रूपये है, जो प्रति मास आय 4375 रूपये है. मौसम के मार पड़ने से सारी गणित धरी ही रह जाती है.

बढ़ती मंहगाई पर यूजर लिखते हैं : लगातार बढ़ते रसोई गैस के दामों के कारण गरीब परिवारों का गैस भरवा पाना मुश्किल हो गया. एमपी के भिंड में उज्जवला योजना के तहत मिले गैस को लोग कबाड़ियों के हाथ बेच रहे हैं. धुंआ मुक्ति का संकल्प था लेकिन महंगाई ने एक बार फिर से गरीब जनता को धुंए में ही धकेल दिया. 

अब विचार कीजिए. इस आय में किसान 1000 रूपये का गैस खरीदेगा, अपने बच्चों को पढ़एगा, ईलाज कराएगा या बाकी के जरूरतों को पुरा करेगा ? निजीकरण ने ऐसे ही शिक्षा और स्वास्थ्य को गरीबों, किसानों और मजदूरों के पहुंच से कोसों दूर कर दिया है, ऐसे में अगर किसान किसान विरोधी कानूनों को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के गारंटी के लिए आन्दोलन कर रहे है तो कौन सा अपराध कर रहे हैं ?

उपर से बढ़ती मंहगाई पर लोगों का मजाक उड़ाते हुए योगी सरकार के खेल एवं युवा कल्याण मंत्री उपेंद्र तिवारी कह रहे हैं कि देश की 95 फीसदी जनता पेट्रोल-डीजल का उपयोग नहीं करती. अभी जो रेट है वह बहुत कम है. यूपी में प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हुई है.

क्या समाज के बेहतरी और एक मजबूत भारत के निर्माण के लिए यह जरूरी नहीं कि देश में आय के वितरण में संतुलन स्थापित किया जाए ? अगर किसान अपना हक मांग रहे हैं तो क्या यह जरूरी नहीं कि हम सब उस आन्दोलन में भागीदार बनकर एक नागरिक के फर्ज का निर्वहन किया जाए ?

(आंकड़े सोशल मीडिया के एक लेख से लिया गया)

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ROHIT SHARMA

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