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किसान और क्रांति यानी मजदूर-किसान गठबंधन

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किसान और क्रांति यानी मजदूर-किसान गठबंधन

आज की दुनिया में मजदूर-किसान गठबंधन सिर्फ जमींदारी के खिलाफ संघर्ष के लिए ही जरूरी नहीं है, क्योंकि किसानों की जनतांत्रिक आकांक्षाएं इसका तकाजा करती हैं और इन आकांक्षाओं को मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही पूरा किया जा सकता है. मजदूर-किसान गठबंधन इसलिए भी जरूरी है कि पूंजीवाद के मौजूदा चरण में, मजदूर वर्ग और किसानों की नियतियां इस तरह आपस में गुंथी हुई हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है और वे दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और उसके घरेलू घटक यानी घरेलू इजारेदार पूंजीपतियों के हमले के शिकार हैं.

मार्क्सवादी सिद्धांत, बदलते वक्त के साथ विकसित होता है, जैसे कि खुद पूंजीवाद विकसित होता है इसीलिए तो मार्क्सवाद अब भी एक जीवंत सिद्धांत बना हुआ है. पूंजीवाद का अतिक्रमण संभव बनाने वाली क्रांतिकारी प्रक्रिया में किसानों की भूमिका के प्रश्न पर, मार्क्सवादी सिद्धांत में उल्लेखनीय विकास हुए हैं, मैं यहां इन्हीं पर चर्चा करने जा रहा हूं.

एंगेल्स की मूल संकल्पना

हालांकि फ्रेडरिक एंगेल्स ‘द पीजेंट वार इन जर्मनी’ में पहले ही इस तथ्य को रेखांकित कर चुके थे कि पूंजीवाद को क्रांतिकारी तरीके से उखाड़ फेंकने के अपने संघर्ष में, मजदूर वर्ग को किसान जनता के हिस्सों तथा खेत मजदूरों के साथ गठबंधन करना होगा, इसके बाद भी लंबे अर्से तक मार्क्सवादी सिद्धांत क्रांति में किसानों की भूमिका को लेकर अस्पष्ट बना रहा था.

वास्तव में, नदेझ्दा कु्रप्सकाया का लेखन हमें बताता है कि कार्ल काउत्स्की, जो दूसरे इंटरनेशनल के मुख्य सिद्धांतकार थे और एडवर्ड बर्नस्टीन के संशोधनवाद के खिलाफ क्रांतिकारी मार्क्सवाद के हिमायती थे, यही मानते थे कि, ‘शहरी क्रांतिकारी आंदोलन को, किसानों और जमींदारों के बीच के रिश्तों के सवाल पर तटस्थ रहना चाहिए.’ वह आगे जोड़ती हैं, ‘काउत्स्की के इस दावे से इल्यिच परेशान तथा दु:खी थे और उन्होंने उसको यह कहकर माफ कर देने की भी कोशिश की थी कि शायद यह बात पश्चिमी योरप के संबंधों के लिए सही हो, लेकिन रूसी क्रांति तो किसानों के समर्थन से ही विजयी हो सकती है.’ (मेमोरीज ऑफ लेनिन, पेंथर हिस्ट्री पेपरबैक, 1970, पृ0 110-111)

लेनिनवादी विकास : मजदूर किसान गठबंधन

लेनिन ने खुद एंगेल्स के तर्क को आगे बढ़ाया था और उस विचार को विकसित किया था जो अगली सदी के लिए, बुनियादी मार्क्सवादी रुख बनने जा रहा था. उनका तर्क इस प्रकार था :

उन देशों में जो देर से पूंजीवादी व्यवस्था में आए थे, पूंजीपति वर्ग ने, जो पहले ही सर्वहारा की चुनौती का सामना कर रहा था, सामंती जमींदारों के साथ हाथ मिला लिए थे क्योंकि उसे डर था कि सामंती संपत्ति पर कोई भी हमला पलटकर, पूंजीवादी संपत्ति पर हमले में तब्दील हो सकता है.

इसलिए, सामंती संपत्ति के खिलाफ मरणांतक प्रहार करने के बजाए, जैसा प्रहार उसने इससे पहले के दौर में तब किया था, जब 1789 में फ्रांस में उसने पूंजीवादी क्रांति का नेतृत्व किया था, वह सामंती जागीरों की मिल्कियत का किसानों के बीच पुनर्वितरण करने से और सामंती प्रभुओं की सामाजिक सत्ता पर प्रहार करने से पीछे हट गया, जिसके चलते किसानों की जनतांत्रिक आकांक्षाएं अधूरी ही रह गयीं. इन आकांक्षाओं को सर्वहारा के नेतृत्व में जनतांत्रिक क्रांति के जरिए ही पूरा किया जा सकता है और इसके लिए वह किसानों को अपने सहयोगी के तौर पर साथ ले सकता है.

इसलिए, लेनिन ने मजदूर-किसान गठबंधन का विचार सामने रखा था, जो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में, जनवादी क्रांति को पूर्णता तक पहुंचाएगा. इसके बाद, मजदूर वर्ग समाजवादी क्रांति के रास्ते पर बढ़ जाएगा, जिसके क्रम में क्रांति के चरण के अनुसार रास्ते में वह, किसान जनता के बीच अपने सहयोगियों को बदल रहा होगा.

मेंशेविक प्रवक्ताओं के खिलाफ, जो इसकी वकालत करते थे कि मजदूर वर्ग को जनवादी क्रांति के लिए उदार पूंजीपति वर्ग के साथ गठबंधन करना चाहिए, लेनिन ने यह दलील दी थी कि चूंकि उदार पूंजीपति वर्ग सामंती प्रभुओं से अपना गठबंधन नहीं तोड़ेगा, वह अनिवार्यत: किसान जनता के साथ दगा ही करेगा. इसलिए, मजदूर वर्ग को, उदार पूंजीपति वर्ग के साथ गठजोड़ के जरिए अपने हाथ बांधने और इस तरह जनवादी क्रांति को रोकने के बजाए, जनवादी क्रांति को पूरा करने के लिए, किसानों के साथ गठबंधन कायम करना चाहिए.

पिछली पूरी सदी में दी क्रांति को दिशा

संक्षेप में यह कि सर्वहारा वर्ग द्वारा किसानों के साथ गठबंधन कर के ही, जनवादी क्रांति को पूरा किया जा सकता है, जबकि सर्वहारा वर्ग और उदार पूंजीपति वर्ग का गठबंधन तो, जनवादी क्रांति के साथ दगा ही करेगा. तदनुसार, क्रांति से पहले बोल्शेविकों कार्यक्रम तय हुआ ‘मजदूरों और किसानों का जनवादी अधिनायकवाद’, जिसे आगे चलकर ‘सर्वहारा के अधिनायकवाद’ तक पहुंचना था.

यही समझदारी, जो कि मार्क्सवाद के एक उल्लेखनीय विकास को दिखाती थी, अगली सदी भर समूची तीसरी दुनिया में, क्रांतिकारी आंदोलनों के पीछे रही थी. बहरहाल, लेनिन के समय के बाद से पूंजीवाद में हुए बदलावों ने, लेनिन के विश्लेषण के महत्व को और मजदूर-किसान गठबंधन की जरूरत को और पुख्ता कर दिया है, हालांकि उसके और पुख्ता होने के कारणों में, लेनिन ने जो कारण बताए थे, उनके अलावा कारण भी जुड़ गए हैं.

अब और जरूरी हुआ मजदूर किसान गठबंधन

दो घटना विकास इस संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक हैं. पहला यह कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के उभार और उसके वर्चस्व के तहत नवउदारवादी नीतियों के आने से, किसानी खेती पर घरेलू इजारेदार पूंजी तथा अंतर्राष्ट्रीय बड़े कारोबारियों द्वारा अतिक्रमण किए जाने के रास्ते खुल गए हैं. संक्षेप में यह कि आज किसानों को सिर्फ जमींदार वर्ग के उत्पीड़न का ही सामना नहीं करना पड़ रहा है बल्कि इजारेदार पूंजी की निरंकुशता का भी सामना करना पड़ रहा है.

इजारेदार पूंजी, मुक्त प्रतिस्पर्द्धा के पूंजीवाद के अंतर्गत जो मुनाफे की सामान्य दर होती है, उसके ऊपर से जो सुपर प्रोफिट कमाती है, सिर्फ मजदूरों की कीमत पर (यानी अतिरिक्त मूल्य की दर बढ़ाने के जरिए) ही नहीं कमाती है बल्कि छोटे पूंजीपतियों और लघु उत्पादकों की कीमत पर भी कमाती है, जिसमें किसान भी शामिल हैं. वह ऐसा करती है, व्यापार का वर्गीय संतुलन किसानी खेती के खिलाफ तथा इजारेदाराना पूंजी के पक्ष में बदलने के जरिए. और वह ऐसा राज्य या शासन के माध्यम से भी करती है, मिसाल के तौर पर राजकोषीय मदद को किसानी खेती की ओर से हटाकर, इजारेदार पूंजीपतियों की ओर मोडऩे के जरिए. जब इजारेदारों के लिए सब्सीडियों तथा कर रियायतों में बढ़ोतरी की जाती है और उसी हिसाब से किसानों के लिए मदद तथा खरीदी के दाम को दबाने के जरिए, किसानों के लिए राजकोषीय सहायता में कटौती की जाती है, वह भी किसानों की कीमत पर इजारेदारों द्वारा सुपर मुनाफे बटोरे जाने का ही मामला बन जाता है.

लेकिन, किसानी खेती पर इजारेदार पूंजी द्वारा यह अतिक्रमण सिर्फ आर्थिक प्रवाह के रूप में यानी आय के किसानों से छीनकर, इजारेदारों के हक में पुनर्वितरण के रूप में ही नहीं होता है. इजारेदार पूंजी का यह अतिक्रमण स्टॉक के रूप में यानी परिसंपत्तियों पर नियंत्रण के ही किसानों के हाथों से छीनकर, इजारेदारों के हाथों में दिए जाने के रूप में भी होता है. वास्तव में अतिक्रमण के ये दोनों रूप आम तौर पर परस्पर गुंथे रहते हैं. उनका कुल मिलाकर नतीजा होता है : किसानी खेती का बर्बाद हो जाना और तबाह किसानों का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करना.

दूसरा घटनाविकास जो उभरकर सामने आता है, वह है प्रौद्योगिकीय विकास का प्रतिस्पर्द्धी प्रवेश. यह ऐसे अपेक्षाकृत बेरोक-टोक व्यापार के साथ आता है, जो कि नवउदारवाद की पहचान कराने वाली विशेषता ही है. इसका निहितार्थ यह है कि बेरोजगारी में वृद्धि की दर आमतौर पर धीमी पड़ रही होती है.

नवउदारवादी व्यवस्था के अंतर्गत जब जीडीपी की वृद्धि दर तेजी से बढ़ती है तब भी, श्रम की उत्पादकता की दर इतनी बढ़ रही होती है कि रोजगार में वृद्धि सुस्त पड़ जाती है. और अगर जीडीपी में तेजी से वृद्धि भी नहीं हो रही हो, तब तो रोजगार की वृद्धि और भी नीचे खिसक जाती है.

इसका अर्थ यह है कि जब संकट के मारे किसानों का शहरों की ओर पलायन बढ़ता है, तब भी वह सिर्फ श्रम की सुरक्षित सेना यानी बेरोजगारों की फौज बढ़ाने का ही काम करता है. और यह मजदूरों के बहुत ही छोटे से यूनियनबद्ध हिस्से की मालिकान से सौदेबाजी करने की ताकत को भी घटाने का काम करता है. और चूंकि श्रम की यह सुरक्षित सेना, कोई रोजगार के बाजार से पूरी तरह से बाहर ही रखे जाने वाले बेरोजगारों की फौज नहीं होती है बल्कि अपर्याप्त रोजगार में से ही कुछ न कुछ हिस्सा पाने वालों की फौज होती है, इसका मतलब काम की उतनी ही मात्रा का, मजदूरों की बढ़ती संख्या के बीच बांटा जाना होता है. इसलिए, किसानी खेती के इस तरह निचोड़े जाने का कुल मिलाकर नतीजा यह होता है समग्रता में मेहनतकश आबादी के जीवन स्तर में, शुद्ध गिरावट आती है.

एक हुई मजदूरों और किसानों की नियति

इसलिए, इजारेदार पूंजीवाद के मौजूदा चरण को लांघने के संघर्ष के लिए, मजदूर-किसान गठबंधन और भी जरूरी हो जाता है. चूंकि इजारेदार पूंजीवाद के इस चरण को लांघने का अर्थ, प्रतिस्पर्द्धी पूंजीवाद के किसी विगत युग में लौटना नहीं हो सकता है, पूंजीवाद के इस चरण को लांघने का संघर्ष, पूंजीवाद को ही लांघने की प्रक्रिया का समानार्थी है.

इसी अर्थ में, भारत में इस समय जारी किसानों का संघर्ष, एक निर्णायक महत्व का संघर्ष है. किसान जिन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, किसानी खेती के दरवाजे इजारेदार पूंजी द्वारा अतिक्रमण के लिए खोलने के लिए बनाए गए कानून हैं. इन तीन कानूनों से पहले मोदी सरकार ने मजदूर विरोधी कानून बनाए थे, जो मजदूरों के संगठन को कमजोर करेेंगे और मजदूरों के शोषण को बढ़ाने का काम करेंगे.

इसलिए, आज की दुनिया में मजदूर-किसान गठबंधन सिर्फ जमींदारी के खिलाफ संघर्ष के लिए ही जरूरी नहीं है, क्योंकि किसानों की जनतांत्रिक आकांक्षाएं इसका तकाजा करती हैं और इन आकांक्षाओं को मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही पूरा किया जा सकता है.

मजदूर-किसान गठबंधन इसलिए भी जरूरी है कि पूंजीवाद के मौजूदा चरण में, मजदूर वर्ग और किसानों की नियतियां इस तरह आपस में गुंथी हुई हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है और वे दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और उसके घरेलू घटक यानी घरेलू इजारेदार पूंजीपतियों के हमले के शिकार हैं.

इस तरह भारत में किसानों का संघर्ष कोई साधारण संघर्ष नहीं है. यह सिर्फ इस या उस आर्थिक मांग के लिए संघर्ष नहीं है, जिसे कुछ ‘ले-देकर’ निपटाया जा सकता हो. यह तो ऐसा संघर्ष है जो वर्तमान परिस्थिति संयोग की जड़ तक जाता है. यह करो या मरो की लड़ाई है. इसने सरकार को ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां उसे साफ-साफ इसका एलान करना पड़ेगा कि वह देश की जनता के साथ है या अंतरराष्ट्रीय बड़ी पूंजी के साथ है. और अगर सरकार खुलकर अंतरराष्ट्रीय बड़ी पूंजी के साथ खड़ी होती है, जैसा कि वह अब तक करती आयी है, तो यह हमारे देश में जनतंत्र के लिए बहुत भारी धक्का होगा.

  • प्रभात पटनायक

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ROHIT SHARMA

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