15 अक्टूबर की सुबह सिंघु बार्डर जो कि दिल्ली की सीमा से सटा हुआ हरियाणा में आता है, वहां जहां 10 महीनों से किसान तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ धरने पर बैठे हैं, संयुक्त किसान मोर्चे के मंच से तकरीबन 50 मीटर की दूरी पर ये बर्बरतापूर्ण हत्या हो जाती है. किन्तु यह भी देखा जा सकता कि जहां ये जघन्य हत्या हुई पुलिस का अस्थाई कैम्प तो मंच से भी कम दूरी पर है, लगभग 20 मीटर की दूरी पर है.
ये घटना रात के सुबह 3 बजे के आस पास का है, तो जाहिर है कि मंच का संचालन नहीं हो रहा था, ना ही वहां संयुक्त किसान मोर्चे के लोग थे और ना ही इन निहंग सिक्खों का संयुक्त किसान मोर्चे का कोई लेना-देना है.
दो महीने पहले किसान नेता बलवीर सिंह राजेवाल ने सिंघु बॉर्डर से निहंगों को चले जाने को कहा था, अब यह बात योगेंद्र यादव ने दुहराई है. योगेंद्र यादव ने कहा कि किसान आंदोलन कोई धार्मिक मोर्चा नहीं है. इसमें निहंगों की कोई जगह नहीं है, लेकिन कोई हटने को तैयार नहीं है.
यह धरना संयुक्त किसान मोर्चे की व्यक्तिगत प्रापर्टी नहीं है, वह खुली सार्वजनिक सड़क पर है. वहां पर हर तरह के लोग उपस्थित हैं, और आते जाते भी हैं. कुछ तो संयुक्त किसान मोर्चे के विरोधी हैं और कुछ लोग तो संयुक्त किसान मोर्चे के समानान्तर मोर्चा भी चला रहें हैं. इनमें वे लोग भी हैं जो 26 जनवरी की लाल किले की घटना में इन्वाल्व थे, जिन्हे 26 जनवरी के बाद प्रशासन ने पक्का बैरिकेट लगाकर संयुक्त किसान मोर्चे से अलग कर दिया है.
संयुक्त किसान मोर्चा ने कई बार शासन/प्रशासन को बताया है कि उन लोगों से हमारा कोई लेना देना नहीं है तो फिर शासन/प्रशासन उन लोगों को क्यूँ धरने पर बैठाए हुए है ? अब उस सार्वजनिक सड़क पर कोई भी घटना घटे तो क्या सारी जिम्मेदारी संयुक्त किसान मोर्चे की होगी ? क्या शासन/प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं ? यदि नहीं तो फिर पुलिस वहां क्यूँ तैनात की गयी है ?
संयुक्त किसान मोर्चा कई बार निहँगो को लेकर बयान दे चुका है कि इन निहँगो से हमारा कोई लेना देना नहीं. वैसे भी संयुक्त किसान मोर्चा की किसी भी बैठक में किसी एक भी निहंग शामिल नहीं होता है क्योंकि वो संयुक्त किसान मोर्चे का हिस्सा नहीं हैं तो फिर शासन/प्रशासन क्यों उनको वहां ठहराए हुए है ?
सिंघु बार्डर पर हुई इस घटना पर कई सवाल उठते हैं. उत्तर प्रदेश में आम चुनाव होने वाले हैं और उसको प्रभावित करने के लिए बीजेपी सरकार दलित बनाम सिक्ख कार्ड खेल रही है. निश्चित ही यूपी चुनाव को प्रभावित करने के लिए इस घटना को अंजाम भी इन्ही लोगों ने दिया होगा. वैसे भी किसान आन्दोलन को कमजोर और बदनाम करने के लिए 26 जनवरी को गंदा खेल खेल चुकी है और अभी कुछ दिन पहले तिकुनिया जैसा कांड को अंजाम दिया और अब ये जघन्य हत्या.
पूर्व नियोजित कार्यक्रम के तहत किसान आन्दोलन को बदनाम करने के लिए सारा का सारा ठीकरा संयुक्त किसान मोर्चे पर डाल दिया जा रहा है. इस बर्बरतापूर्ण हत्याकांड का निष्पक्ष तरीके से जाँच हो तो दूध का दूध और पानी की तरह साफ हो जाएगा.
जिस व्यक्ति की बर्बरतापूर्ण हत्या हुई उस की पहचान लखबीर सिंह के तौर पर हुई है. वह पंजाब के तरण तारण जिले के चीमा खुर्द का रहने वाला था. मजदूरी कर वह पेट पालता था. इस व्यक्ति की उम्र 35 साल के आसपास है. जब लखबीर छह महीने का था, तब उसे हरनाम सिंह नाम के एक व्यक्ति ने गोद लिया था.
बताया जाता है कि हरनाम लखबीर के फूफा हैं. लखबीर के असली पिता का नाम दर्शन सिंह था. उसकी बहन का नाम राज कौर है. लखबीर शादीशुदा था. उसकी पत्नी जसप्रीत उसके साथ नहीं रहती थी. उनके तीन बेटियां भी हैं.
लखबीर की हत्या की जिम्मेदारी निहंग समूह निर्वैर खालसा-उड़ना दल ने ली है. इसका कारण पवित्र ग्रंथ सर्बलोह की बेअदबी बताई है. निहंग समूह के एक सदस्य बलविंदर ने यहां तक कहा है कि आगे भी जो कोई बेअदबी का दुस्साहस करेगा, उसके साथ भी यही किया जाएगा.
सुबह लखबीर का शव एक बैरिकेड से बंधा लटका हुआ मिला. उसका बायां हाथ और दायां पांव कटा था. शरीर पर कई घाव थे. उसके बाजुओं को बैरिकेड से रस्सी से बांधा गया था, वह उसी से लटका हुआ था. पुलिस ने शव को पोस्टमार्टम के लिए सोनीपत सिविल अस्पताल भेजा है.
हत्या के आरोपी ने पुलिस के पास आत्मसमर्पण किया है. निहंग सरबजीत ने हत्या की जिम्मेदारी ली है. पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया है. बाद में तीन और निहंग गोविंद सिंह, भगवंत सिंह और नारायण सिंह ने आत्मसमर्पण किया.
ऐसी घटनाओं के बाद समाज दो वर्गों में बंट जाता हैं – एक, जो शासक वर्ग के साथ में होता है. दूसरा, बहुसंख्यक गरीब जनता के साथ में होता है.
शासक वर्ग के साथ के लोग झूठे नरेटिव के सहारे अपने हित साधने वाले लोगों की फौज खड़ी कर देते हैं. ये लोग उस दिन फ़र्ज़ी सेक्युलर और नास्तिक बन जाते हैं और फिर उस घटना के सहारे उस पूरे के पूरे धर्म को टारगेट पर ले लेते हैं. साथ में ये भी बताते हैं कि उनका बहुसंख्यक धर्म (भारत के मामले में हिन्दू) कितना सहिष्णु है.
मुस्लिमों के मामले में हम देख चुके हैं कि अगर अमानवीय घटना को अंजाम देने वाला मुस्लिम है तो पूरे के पूरे मुस्लिम धर्म को टारगेट पर ले लिया जाता है. अब निहंग सिक्खों के इस मामले में भी दिख रहा है कि इस घटना के सहारे कैसे ये लोग सिक्खों को टारगेट कर रहे हैं, दलाल मीडिया और उसके दलाल पत्रकारों के सहारे.
एक ऐसी जमात जो बर्बरतापूर्ण हत्या को सर्बलोह ग्रन्थ की बेअदबी से जोड़कर जायज ठहराने में लगे हैं, वह लोग उस इस मॉब लींचिंग के हक में खड़े हो गए, जिसमें आरोपी को अपनी बेगुनाही साबित करने का एक मौका तक नहीं मिला. यह ट्रेंड इतना खतरनाक है कि दस-बीस-तीस लोग किसी को भी पकड़कर पीट-पीट कर मार दें और फिर कह दें कि यह गुरु ग्रन्थ साहिब या गीता-कुरान-बाइबल…. पवित्र धर्मग्रंथ की बेअदबी कर रहा था या फलां देवी/देवता/मूर्ति को खंडित या फलां धर्म की भावना के खिलाफ बोला है.
तो फिर क्या पीट-पीट कर मारने वालों को उस मरने वाले के कृत्य के सबूत देने की जरूरत भी नहीं पड़ती कि उसने किया भी है या नहीं ? और यदि किया है तो क्यूँ ? और उसके पीछे कोई षडयंत्र तो नहीं ? फिर लोगों का एक हुजूम उन मॉब लिंचर्स के हक में खड़ा हो जाता है. वे इतिहास से फूहड़ तर्क निकाल-निकाल कर मॉब लींचिंग की घटना को जस्टिफाई करने लगते हैं और जायज ठहराने की पूरी कोशिश करते हैं.
शासन/प्रशासन भी उनकी पूरी मदद करता है इसलिए अब तक मॉब लींचिंग में हुई घटनाओं में मॉब लिंचर्स को कोई भी सजा नहीं मिली. इसीलिए ऐसे लोग सीना तानकर ये दुष्कृत्य करते हैं.
आप इस घटना के वायरल विडियो को देखेंगे तो वो निहंग सिक्ख पंजाबी में गर्व से कहता है कि ‘ये हत्या हमने किया है और इसका पूरा क्रेडिट हमको मिलना चहिए.’ आगे खुले आम सीना चौड़ा कर धमकी भी देता है कि ‘जो कोई बेअदबी का दुस्साहस करेगा, उसके साथ भी यही किया जाएगा.’ अब आप स्वयं सोचें कि ये हिम्मत ऐसे लोगों को कहां से आती है ?
दूसरी जमात, जो शासक वर्ग द्वारा चले गए चाल में फंस जाते हैं, उनमें से कुछ लोग जान-समझकर और कुछ लोग नासमझी में शासक वर्ग की दी हुई जातिवादी लाइन पर चलने लगते हैं और उसमें जातिवाद ढूंढकर उस घटना में जातिवादी एंगेल घुसेड़कर पूरी घटनाक्रम को एक नया रूप-रंग दे देते हैं और हमारी भोली-भाली जनता जातिवाद के चंगुल में फंसकर उस घटना को जातिवादी एंगेल से देखने लगती है.
कुछ लोग अपनी पोलिटिकल करेक्टनेस के हिसाब से तथ्यों को पेश कर और जरूरत पड़ने पर छिपाकर और कुछ झूट का मसाला भी जोड़कर और अपनी जातिवादी दुकानदारी चलाते हैं. जैसे इस घटना में दलित जातिवादी एंगेल खोजकर दलित बनाम सिक्ख बना रहे हैं और अपने आपको दलित हितैषी घोषित कर चुके शासक वर्ग के कई लोग और शासक वर्ग की दलाल मीडिया और उनके दलाल पत्रकार कह रहे हैं कि लखबीर सिंह को इसलिए मार दिया गया कि वह दलित था और इसने धार्मिक ग्रन्थ को छू लिया.
इसमे कोई दो राय नहीं कि लखबीर सिंह दलित थे किन्तु शासक वर्ग समर्थित दलाल मीडिया और दलाल जातिवादी संगठन एक तथ्य यह छुपा गए कि लखबीर को मारने वाले भी दलित ही थे. उनका काम शासक वर्ग के हिसाब से सिलेक्टेड तथ्यों को बरतना है ताकि उनकी दुकानदारी चलती रहे और हमें यूं ही आपस में सवर्ण बनाम दलित यानी 15 बनाम 85 में उलझाकर आपसा में लडाती रहे और शासक वर्ग निश्चिंत होकर यूं ही हमें लूटती रहे.
आखिर में बस यही कहूंगा कि सब के अपने पाले तय हैं. अंधभक्तों को तो किसी के सही और गलत होने से मतलब नहीं. उन्हें तो शासक वर्ग द्वारा फेंके गए पोलिटिकल करेक्टनेस की चाशनी में बने जातिवादी राजनीति से किसान आन्दोलन को बदनाम करने से मतलब है. उनकी दलाल मीडिया को भी अपनी दुकानदारी चलाने के लिए आधे-अधूरे, झूठे और जातिवादी तथ्यों के जरिए शोषक वर्ग का पक्ष लेने से मतलब है.
एक तरफ किसानों का शांतिपूर्ण आंदोलन दूसरी तरफ शोषक वर्ग की बर्बर दमनकारी नीति. अन्धभक्तों व दलाल मीडिया ने तो अपना पाला तय कर लिया है, अब आम जनता को तय करना है कि आप किस पाले में हैं ? शासक वर्ग के पाले में या फिर शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे किसानों के पाले में ?
- अजय असुर
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