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गांधी, कांग्रेस और लोकसेवक संघ

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गांधी, कांग्रेस और लोकसेवक संघ

Kanak Tiwariकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

आजाद के बाद कांग्रेस के भविष्य को लेकर गांधी ने अपनी प्रार्थना सभाओं में बहुत कुछ कहा है. वे कांग्रेस के लिए आशंकित, आशान्वित और ऊपरी तौर पर तटस्थ भी होते थे. गांधी ने कहा कांग्रेस पूरे भारत की पार्टी है. उसे देखना है हिन्दू, मुसलमान, पारसी और सभी धर्मों, जातियों के लोग सुखी रहें. मैं कतई नहीं कहना चाहता कि कांग्रेस केवल मुसलमानों को खुश करे या कायर बनी रहे. मैंने कायरता की पैरवी कभी नहीं की. बहादुरी के साथ शांति की स्थापना कांग्रेस का मुख्य कार्यक्रम होना चाहिए.

28 जुलाई, 1947 को गांधी ने फिर कहा. मुसलमानों ने भले ही अपना अलग राष्ट्र बना लिया है लेकिन भारत हिन्दू इंडिया नहीं है. कांग्रेस केवल हिन्दुओं का संगठन नहीं बन सकती. हिन्दुस्तान को रचने वाले मुसलमान कभी नहीं कहते वे भारतीय नहीं हैं. अपनी कमजोरियों के बावजूद हिंदू धर्म ने कभी नहीं कहा उसे बटवारा चाहिए. कई धर्मों के मानने वालों ने मिलकर हिन्दुस्तान बनाया है. वे सब भारतीय हैं. तलवार की जोर पर आजमाई ताकत के बदले सत्य की ताकत बड़ी होती है.

गांधी ने 18 नवम्बर, 1947 को डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद से बातचीत में कहा मौजूदा हालत में तो कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए या फिर बहुत ऊर्जावान व्यक्ति के नेतृत्व में जिंदा रखा जाना चाहिए. यहां गांधी समग्र विचार के बाद कांग्रेस को भंग कर देने का निर्विकल्प प्रस्ताव नहीं रच रहे थे. जाहिर है वे कांग्रेस के नेतृत्व से पूरी तौर पर असंतुष्ट थे.

मरने के एक पखवाड़े पहले गांधी ने 16 जनवरी को एक पत्र में लिख दिया था कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है, इसी रूप में वह कायम रहेगी. उसे राजनीतिक सत्ता मिलेगी तो वह देश की कई पार्टियों में से केवल एक पार्टी कहलाएगी.

इतिहास यह बात हैरत के साथ दर्ज करेगा कि अपनी मौत के एक दिन पहले 29 जनवरी को कांग्रेस संविधान का ड्राफ्ट लिखते जांचते गांधी ने फिर कहा था. कांग्रेस संविधान में शामिल किया जाए. कांग्रेस स्वयमेव खुद को भंग करती है. वह लोकसेवक संघ के रूप में पुनर्जीवित होकर संविधान में लिखे बिंदुओं के आधार पर देश को आगे बढ़ाने के काम के प्रति प्रतिबद्ध होती है.

इसी कथन का अमित शाह ने आधा अधूरा उल्लेख किया है. यही प्रमुख और बुनियादी दस्तावेज है जिसे बीज के रूप में भविष्य की कांग्रेस के गर्भगृह में गांधी ने बोया था. वह बीज एक विशाल वृक्ष के रूप में गांधी की मर्यादा के अनुसार विकसित नहीं हो सका, यह बात अलग है.

हरिजन में ‘फेसबुक फ्राइडे’ (निर्णायक शुक्रवार) शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में प्यारेलाल लिखते हैं : गांधी जी 29 तारीख को दिन भर इतने व्यस्त रहे कि अन्त में थककर चूर हो गये. कांग्रेस-संविधान के मसौदे की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा : ‘मेरा सिर चकरा रहा है फिर भी मुझे इसे समाप्त करना होगा.’ गांधीजी ने कांग्रेस का संविधान तैयार करने का कार्य अपने हाथ में लिया था. फिर उन्होंने कहाः  ‘मुझे डर है कि मुझे देर तक जागना पड़ेगा.’

अगले दिन गांधीजी ने मसौदे में संशोधन करके, ‘ध्यान से पढ़ने के लिए’ कहकर प्यारेलाल को दे दिया. गांधीजी ने उनसे कहा कि ‘यदि विचार में कहीं अन्तर आ जाये तो उन्हें पूरा कर देना. इसे मैंने भारी थकान की हालत में लिखा है. प्यारेलाल जब मसौदे में संशोधन करके गांधीजी के पास ले गये तो उन्होंने ‘आद्योपान्त पढ़ने की अपनी स्वभावगत विषेषता के अनुसार एक-एक मुद्दे को लेकर उसमें जोड़-बदल किये और पंचायतों की संख्या के हिसाब में हुई भूल को ठीक किया.’

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव आचार्य जुगल किशोर ने प्रस्तुत मसौदा निम्नलिखित टिप्पणी के साथ समाचारपत्रों के लिए 7 फरवरी को जारी कियाः  ‘जैसा कि इस बारे में समाचारपत्रों में पहले भी कुछ प्रकाशित हो चुका है…महात्माजी ने कांग्रेस संविधान में फेर-बदल करने का प्रस्ताव रखा था. उसका पूरा मसौदा जो उन्होंने मुझे विनाशकारी 30 जनवरी को सुबह दिया था, मैं जारी कर रहा हूं. ….यह हरिजन में ‘हिज लास्ट विल टैस्टामेण्ट’ (गांधीजी का आखिरी वसीयतनामा) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था.

(भारतीय जनसंघ की स्थापना 1952 में हुई. 1977 में वह जनता पार्टी में विलीन हो गया अर्थात राजनीतिक दल भंग हो गया. जनता पार्टी का संविधान उस धड़े का भी अनुशासन तंत्र हो गया. 1980 आते आते जनता पार्टी के भारतीय जनसंघ के शामिल तबकों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता लेते दोहरी सदस्यता का पचड़ा खड़ा किया इससे जनता पार्टी में टूट हुई और भारतीय जनसंघ के लोगों ने निकलकर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया. उसका नया संविधान बना.

अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में गांधीवादी समाजवाद को पार्टी का मुख्य ध्येय बनाया गया हालांकि अब वह काॅरपोरेटीकरण के गुलामों में तब्दील हो गया है. पार्टी की संरचना में ढांचागत परिवर्तन होकर दूसरी पार्टी में विलीन होने पर भी इसे राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ का भंग होना नहीं कहा जा सकता क्योंकि विचारधारा तो कायम रही है. ढांचा बदलता गया.

गांधी इसी तरह कांग्रेस की विचारधारा, संविधान और कार्यक्रम जारी रखना चाहते थे. उसका केवल नाम बदलना बताया. देश में जनता के लिए उसकी केन्द्रीय भूमिका नहीं बदली. उन्होंने कहा कांग्रेस पूरे भारत की पार्टी है. यह भी कि ‘यद्यपि भारत का विभाजन हो गया मगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रयुक्त साधनों से देश को आजादी मिलने के बाद कांग्रेस के अपने मौजूदा स्वरूप में अर्थात एक प्रचार माध्यम और संसदीय तन्त्र के रूप में उपयोगिता समाप्त हो गई है.

भारत को अपने सात लाख ग्रामों की दृष्टि से जो उसके शहरों और कस्बों से भिन्न हैं, सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है. भारत में लोकतन्त्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघ होना अनिवार्य है. हमें कांग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ्य सपर्धा से दूर रखना है. ऐसे ही अन्य कारणों से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार ‘लोक सेवक संघ’ के रूप में उसे विकसित करने का निश्चय करती है. इस संघ को आवश्यकता पड़ने पर इन नियमों में परिवर्तन करने का अधिकार रहेगा.’

इस नजर से देखने पर यह साफ होगा कि गांधी और कांग्रेस के रिश्ते को समझना आसान नहीं है. गांधी का लिखा, कहा एक तरह से, बल्कि सभी तरह से, एक पिता का संतान पीढ़ी के लिए लिखा संदेश या वसीयत है. वह एक पारिवारिक हलफनामा है. उसके आधार पर गांधी विरोधी विचारधारा अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बने कि गांधी ने मानो कांग्रेस को खत्म कर देने का कोई ऐलान या फतवा जारी किया था.

गांधी पाठशाला में गांधी से मुठभेड़

मैं गांधीवादी नहीं हूं. यह कहने में मैं सत्य के अधिक निकट होता हूं. गांधी मेरी पसंद की अनिवार्यता या ढकोसला नहीं हैं. उनके विचारों की तह में जाना, उनके प्रखर कर्मों के ताप झेलना और उनका वैचारिक परिष्कार करना शायद किसी के वश में नहीं है. गांधी का पुनर्जन्म यदि हो जाये तो शायद उनके वश में भी नहीं. ऐसा लगता है कि गांधी एक घटना की तरह पैदा हो गये और 80 वर्ष के लम्बे जीवन में लगातार विद्रोह करते करते उल्कापात की तरह गिरे.

गांधी भारत की आधी 20वीं सदी पर छाते की तरह तने रहे. उसके पूर्वार्द्ध के कम से कम आखिरी 30 वर्ष लिहाफ की तरह हिन्दुस्तान के सियासी, बौद्धिक और सामाजिक जीवन को गांधी ही ओढ़े रहे. यह व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास का एक फेनोमेना है. उसको समझने की कोशिश करना धुएं को अपनी बाहों में भरना है.

निपट देहाती औसत हिन्दुस्तानी की खोपड़ी, चमकती हुई, कभी शरारतपूर्ण तो कभी करुणामय आंखें, इकहरी देह के बावजूद सिंह-शावक की सी बौद्धिक चपलता, बेहद पुराने फैशन की कमरखुसी घड़ी, एक सदी पुराने फैशन का चश्मे का फ्रेम, गड़रिए की सी लाठी, सड़क किनारे बैठे चर्मकार के हाथों सिली सेंडिलनुमा चप्पलें, अधनंगा बदन. ये भारत के सबसे महान् योद्धा के कंटूर हैं. उन्हें सात समुन्दर पार भी सूरज अस्त नहीं होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हुक्मरानों ने कम आंका.

मुझे गांधी कभी बूढ़े, लिजलिजे या तरसते नहीं लगे. दहकते प्रौढ़ अंगारों के ऊपर पपड़ाई राख जैसा उनका पुरुष व्यक्तित्व बार-बार लोगों को प्रश्नवाचक चिन्ह की कतार में खड़ा करता रहा. प्रचलित समझ के विपरीत मैंने गांधी को ऋषि, संत, मुनि या अवतार जैसा नहीं देखकर करोड़ों भारतीय सैनिकों के लड़ाकू सेनापति देखा है. मुझे गांधी के अन्य रूपों में न तो दिलचस्पी रही है और न ही वे मेरी गवेषणा के विषय बने हैं.

गांधी की याद को पुनः परिभाषित करना साहसिक, रूमानी और मोहब्बत भरा काम है. यह सरल है कि उन्हें प्रचलित अर्थ में ही समेटा जाए. बार-बार गांधी को ऐसी सोहबत में बिठाया जाए जिससे उन्हें उद्दाम समुद्र या तेज तरंगों में बहते किसी महानद के मुकाबले छोटा-सा तालाब बनाया जाए. इस तरह के गांधी-यश से सड़ांध की बू आने लगी है. लोग गांधी क्लास में पास होने, एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद गांधी शैली में दूसरा गाल सामने करने और सुसंस्कृत जीवन के हर छटा-विलोप में गांधी दर्शन दिखाकर उसका इतना मज़ाक उड़ा चुके हैं कि इस बूढे़ आदमी के साथ रहने में मन वितृष्ण हो जाता है.

भारतीय लोकतंत्र के जनवादी आन्दोलन के संदर्भ में मिथकों के नायक राम और कृष्ण के बाद कालक्रम में तीसरे स्थान पर गांधी ही खड़े होते हैं, कई अर्थों में उनसे आगे बढ़कर उन्हें संशोधित करते हुए. इस देश में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ जिसने गांधी से ज़्यादा शब्द बोले हों, अक्षर लिखे हों, सड़कें नापी हों, आन्दोलनों का नेतृत्व किया हो, बहुविध आयामों में महारत हासिल की हो और फिर लोक-जीवन में सुगंध, स्मृति या अहसास की तरह समा गये हों.

‌ शंकराचार्य, अशोक, बुद्ध, अकबर, तुलसीदास, कबीर जैसे अशेष नाम हैं जो भारतीय-मानस की रचना करते हैं. गांधी केवल मानस नहीं थे. कृष्ण के अतिरिक्त हिन्दुस्तान के इतिहास में गांधी ही हुए. वे प्रत्येक अंग की भूमिका और उपादेयता से परिचित थे. ऐसे आदमी को किंवदन्ती, तिलिस्मी या अजूबा बनाया जाना भी सम्भव होता है. मोहनदास करमचन्द गांधी को साजिश से बचाना भी सामूहिक कर्तव्य है.

गांधी ने अपनी पत्नी, पुत्र, बहन सबको दु:ख दिया. राम के बाद वे ऐसे लोकतांत्रिक थे जो मर्यादा की भुजा उठाए अपनी भावनाओं की हत्या करते रहे. उनकी बहती छाती के रक्त के कणकण में राम का नाम गूंजा था. फिलहाल सांस्कृतिक पेटेन्ट कानून के अनुसार राम नाम अयोध्या में ही गूंज रहा है. गांधी को हरिजन नाम प्रिय था. वह भी उनसे छीन लिया गया. वह जीवन भर बकरी का चर्बी रहित दूध पीते रहे. उनके जन्मस्थान पोरबन्दर के नाम पर घी के व्यापारियों की तोंदें फूल रही हैं. वे गरीबों की लाठी टेकते अरबसागर में नमक सत्याग्रह करते रहे. उनकी याद में दांडी नमक बेचते व्यापारी अरबपति हुए जा रहे हैं. गांधी के सियासी बेटों और निन्दकों के शरीर का नमक घटता जा रहा है. चेहरे की चाशनी बढ़ती जा रही है.

गांधी 150 बरस के हो चुके. केन्द्र और राज्य सरकारें जश्न मनाने तैयारियों में मशगूल हो नहीं पाईं. गांधी शांत भाव से सब देखते रहे. पहले भी उन्होंने क्या कुछ कर लिया था. अब तक देखते ही रहे थे. हिन्दू मुसलमान एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए. जिन्ना की अगुआई में कट्टर मुसलमानों ने पाकिस्तान बना ही लिया. गांधी ने बहुत रोका. जवाहरलाल की अगुवाई में अंग्रेजी संसद, अदालतें, हकूमतशाही, भाषा और फितरतें आ ही गईं.

अंगरेज सांप चला गया, अंगरेजियत की केंचुल सांप से ज़्यादा भारत को जहरीले दांतों से काटती पस्तहिम्मत कर रही है. अट्टहास भी करती है. हिन्दुस्तान में साल के दो दिन एक भुला दिए गए पुरखे की तस्वीर दीवार से उतारी जाती है. उसकी फोटो बाजार में लोग ढूंढते है. साथ-साथ फिल्मी गानों की किताब और प्रतिबंधित कामुक साहित्य भी खरीदते चलते हैं. कुरते-पाजामे, धोती-कुरता का चलन खत्म हो चला है. टी शर्ट, जींस वगैरह नौजवान तो क्या बुजुर्ग भी पहनते गांधी विचार विश्वविद्यालय के प्रस्तोता और प्रवक्ता भी बने इठला रहे हैं. सियासती भूख के लिए गांधी हींग का छौंक हैं. उनका तड़का लगाए बिना एक दूसरे के मुकाबले भ्रष्टाचार की रकम खाने वाली भूख नहीं खुलती.

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महानता एक तरह से व्यक्तित्व का चरमोत्कर्ष है लेकिन हीनतर व्यक्तित्वों का मनोवैज्ञानिक शोषण भी है. महानता में सात्विक अहंकार और नैतिक अहम्मन्यता का पुट अपने आप ठुंस जाता है. एकांगी महान व्यक्ति किसी क्षेत्र में बहुत ऊंचा हो जाता है, बाकी लोग बौने लगते उसकी ओर टकटकी लगाए रहते हैं. गांधी अलग तरह के महान व्यक्ति थे. उन्होंने सदैव व्यापारिक कुशलता बरती कि उनमें कहीं देवत्व, पांडित्य या आसमानी अंश उग नहीं आए.

कहना मुश्किल है कि अपनी महानता का बोध उन्हें नहीं रहा होगा. उन्होंने सतर्क रहकर बार-बार इस बात के विपरीत उल्लेख किए हैं. गांधी भारत के हर खेत में इंसानियत की फसल उगाने के फेर में थे. उन्होंने अपने पैरों का उपयोग दूसरों के सिर पर रखने के बदले सड़कें और पगडंडियां नापने में किया. धवल, भगवा या भड़कीले वस्त्र पहनने के बदले वस्त्रों की किफायत को ही अपनी कैफियत बनाया. देह को धूल, मिट्टी और पसीने से सराबोर किया. पहली बार आराध्य अपने भक्तों के मुकाबले दिखाऊ नहीं बना.

(गांधी प्रखर, प्रभावशाली या बोझिल दीखने से परहेज करते थे. उनकी विनम्रता सायास हथियार नहीं नैसर्गिक गुण रही है. नैसर्गिक जन्मजात के अर्थ में नहीं, उनकी व्यापक रणनीति की केन्द्रीय संवेदना के अर्थ में थी. उन्हें भीरुता, कायरता तथा हीन आत्म समर्पण से बेसाख्ता नफरत थी. वे इसी नस्ल और क्रम के औरों की तरह अहिंसा के प्रवर्तक पुरोहित थे. गांधी ने वस्तुतः अहिंसा को केवल महसूस करने से आगे बढ़कर लोक हथियार के रूप में तब्दील किया था. प्रचलित शिक्षाओं से आगे बढ़कर उन्होंने व्यक्तिगत अहिंसा के साथ साथ समूहगत अहिंसा के मैदानी प्रदर्शन का भी पुख्ता उदाहरण भी पेश किया. यही बीजगणित है जो गांधी को आज तक हमारे सामाजिक व्यवहार का ओषजन बनाए हुए है.

सुभाष बाबू ने अपनी एक सैन्य टुकड़ी का नाम गांधी के नाम पर भी रखा. हालांकि सुभाष बोस के त्रिपुरी कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद शायद गांधी के इशारे पर कार्यसमिति ने सहयोग नहीं किया. गांधी की पत्नी और बहन से भी नहीं पटी. उन्होंने साबरमती आश्रम में कुष्ठ रोग से पीड़ित एक नामालूम इंसान का मल उठाने से इंकार कर दिया था.

महात्मा के चार पुत्रों में किसी ने उनके नाम का फायदा नहीं उठाया. परिवारवाद का शब्द गांधी के लिए गाली की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. जिस पार्टी को उसने रचा वह खुद नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारवाद के चक्कर में फंस गई. गांधी के सपनों का भारत तो किसी ने गढ़ने की कोशिश नहीं की, फिर भी राष्ट्रपिता कहलाता गांधी राष्ट्रपति भवन से लेकर जजों के पीछे दीवारों पर टंगा लाचार मुअक्किलों को ढाढ़स बंधाता रहता है. उसकी तस्वीर के नीचे बैठे मंत्री करोड़ों की घूस लेते देश के लिए अरबों की हेराफेरी करते रहते हैं.

गांधी की रक्षक लाठी एक बकरी तक को मार नहीं पाती. वह अल्पसंख्यकों को गोरक्षकों और बीफ के बीच फंसा देखकर लाचार होता होगा. वह देख रहा है विदेश से आने वाला हर राजपुरुष उसके स्मारक पर मत्था टेकता है. वह यह भी सह रहा है कि राजघाट के दरवाजे जनता के लिए बंद कर वहां हिन्दुत्व की विचार बैठकें आयोजित हों. उनमें गांधी का प्रिय भजन ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम‘ जाहिर तौर पर खारिज भी किया जाए.

संचार, संवाद, संस्कृति, सम्पर्क आदि के साधनों के अभाव में भी गांधी में ऐसी जिजीविषा के बीजाणु थे, जो खुद उनकी जानकारी में नहीं थे. एक ब्राह्मण का दर्प, काठियावाड़ी वैश्यता, मर सकने का क्षत्रिय साहस और अंतिम व्यक्ति तक को बांहों में भरने का नैतिक शूद्रत्व गांधी की देह में कुलबुलाते थे. दक्षिण अफ्रीका में जो हुआ, वह तो गांधी ने ही किया. इतिहास ने जैसे गांधी को अपना भवितव्य ठेके पर सौंप दिया था. मोहनदास करमचंद गांधी के शरीर से बैरिस्टरी के वस्त्र उतरते गए, अन्ततः चर्चिल के जुमले में वे ‘नंगे फकीर‘ बन गए.

देह के अनावृत्त होने के बाद आत्मा के दरवाजे खुलते गए. गांधी भारत की आत्मा बन गए. आत्मा दर्पण की तरह होती है इसलिए गांधी की आत्मा में देश ने अपना चेहरा देखना शुरू किया. देश को लगा कि उसकी तो महान विरासत है. गौरवमय अतीत है. संघर्ष की अकूत सम्भावना है. उसने गांधी को महात्मा मान लिया. उसके जरिए अपने वजूद को संवारने के प्रति संकल्पित हो उठा. गांधी सजावटी किस्म के स्वैच्छिक संगठनों का सरगना नहीं हो सके. लोक आंदोलनों के सुयश थे.

मोह कहता है कि गांधी का जन्म इतिहास की विसंगति, संयोग या सद्भावनाजन्य दुर्घटना है. मनुष्यता के दीर्घ इतिहास में महापुरुषों के समानांतर, अनुपूरक या परिपूरक भी होते रहे हैं. बापू को समझने अन्य ऐतिहासिक व्यक्तित्व से तुलना की जरूरत नहीं होती. गांधी व्यापक परिवेश हैं. ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में पसरे पड़े हैं और इन्द्रियातीत भी हैं. उनकी प्रशंसा करने में अतिशयोक्तियों की ज़रूरत नहीं पड़ती. ऐसा जतन हो तो उनको समझने की कशिश है.

गांधी की राजनीति को खारिज कर दिया जाए, अक्षर जिज्ञासु के रूप में भी उन्हें खारिज करें, सत्यशोधक के रूप में भी भूल जाएं, तब भी इतिहास-समीक्षक और न जाने कितने रूपों में उनका लगातार मनुष्य बने रहने का सात्विक हठ भारतीय अस्तित्व की धुरी पर अप्रतिहत है. मौज़ूदा वक्त गांधी को सचेतन भूलने का इरादा लिए हुए है. फिर भी गांधी कौंध की तरह हैं. उनकी उपस्थिति अहसास की तरह है. उनके बारे में सोचना खुद को समझने की तरह है.

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गांधी का बचपन किसी रूमानी आख्यान के राजकुमार की दिनचर्या नहीं है. इस पूत के पांव पालने में नहीं दिखाई दिए. वह चमत्कार पुरुष नहीं था. उसमें हीन और दयनीय भावनाएं अंदर ही अंदर घुटती रही. वैसा तजुर्बा करोड़ों मुफलिसों को भी होता ही रहता है. वह धीरे-धीरे किसी कद्दावर वटवृक्ष की तरह अपने अनुभवों से सिंचता हुआ उठता रहा.

पीटरमेरिट्ज़ बर्ग स्टेशन पर सामान की तरह फेंक दिया. उसे लात, घूंसों और लाठियों तक से पीटा गया. कई रातें उसने बिना सोए और बिना खाए पिए भी काटी. वह मीलों तक चलकर शाकाहारी भोजन भी ढूंढ़ता था. उसने दक्षिण अफ्रीका जैसे परदेस में अपना देश अपनी परंपराओं में बिंधकर ढूंढ़ लिया. उसने कांग्रेस केे पूरे आंदोलन को उसके तामझाम से अलग करके सबको आईना दिखाया.

आईना आत्ममुग्धता का एक बड़ा कारण होता है. आईने के अंदर खुद का ईमान, अक्स और चरित्र ढूंढ़ने की कला को भी गांधी ने ही ईज़ाद किया. आत्मा वही है जो अन्याय करने पर खुद को अपना मुंह नोचने की मौलिकता और हिम्मत दे. इतिहास गांधी के लिए कभी कोई सज़ा तजवीज़ नहीं कर पाया. उसने खुद को बार बार सजा दी. उसने खुद को गुनहगार पाया. गांधी ने आत्मसम्मोहन की मिथकीय अवधारणा तक को मनोविज्ञान के इलाके से बेदखल कर दिया.

असफल कोशिशें जारी हैं कि इस बूढ़े आदमी को इक्कीसवीं सदी में खारिज कर दिया जाए. उसे बीत गए इतिहास में दाखिल दफ्तर कर दिया जाए. मानवीय सभ्यता की ऊंचाइयों और उसकी असफलताओं का लेखाजोखा लिए एक अजूबा बने गांधी अपनी कौंध लिए धरती पर आए. उनमें आसमानी देवता होने का अंश नहीं दिखा. वे एक साथ पांचों कर्मेन्द्रियों और पांचों ज्ञानेन्द्रियों के समुच्चय बनकर औसत मनुष्य होने का शाश्वत बोध कराते हैं. यही तो कबीरदास ने कहा था शायद गांधी के लिए, लेकिन पांच छह सौ वर्षों पहले, कि इसने अपने होने की चादर जैसी पाई थी, वैसी ही ओढ़ी और वैसी ही बाद की पीढ़ियों को वापस कर दी.

एक ताबीज गांधी ने दी थी. कहा था जब कोई भी काम करो, यह सोचो कि तुम्हारे ऐसा करने से देश के अंतिम व्यक्ति का क्या होगा ? मुनाफे के सरकारी कारखाने काले बाजारियों को औने पौने बेचे जा रहे हैं. निजीकरण शब्द को राष्ट्रीयकरण का समानार्थी कहा जा रहा है. अमेरिका जाना मक्का मदीना या बद्रीनाथ जाना हो रहा है.

काॅरपोरेटिये हमारी आत्मा में समा गए हैं. सामुदायिक हिंसा में मनुष्य नहीं कीड़े मकोड़े मारे जा रहे हैं. देश के करोड़ों लोगों के पास रोजगार नहीं है. उसके मुकाबले आप्रवासी भारतीयों के अधिकार तय करने की प्राथमिकताएं हैं. हिंसा, आगजनी, अपहरण, बलात्कार, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं. इनसे निपटने नेता और वरिष्ठ नौकरशाह विदेशों में ट्रेनिंग ले रहे हैं. अपराधियों को जेल में जगह नहीं मिल पा रही है इसलिए वे रेलवे के ‘तत्काल आरक्षण‘ की योजना के अनुसार संसद और विधानसभाओं में अपनी जगहें सुरक्षित कर रहे हैं.

न्यायालय अधिकतर पटवारियों, कोटवारों और बाबुओं को सजा देने में मुस्तैद हैं. कालाबाजारिए, हलवाई, मुनाफाखोर, तांत्रिक, धर्माचार्य बाइज्जत बरी होने का नवयुग उद्घाटित कर रहे हैं. अनुकम्पा नियुक्तियां नहीं हो रही हैं. मंत्रियों, अधिकारियों और भ्रष्टों की अनुकम्पा पर नियम विरुद्ध नियुक्तियां हो रही हैं. उन अछूतों के लिए माले मुफ्त शराब पीने के बाद बुद्धिजीवी लिख रहे हैं कि गांधी की दलितों के लिए करुणा संदिग्ध थी.

गांधी बनाम अम्बेडकर का मिथक रचा जा रहा है. गांधी ने ही बाबा साहब की असाधारण मेधा के कारण उन पर भारत के संविधान रचने की महती जिम्मेदारी सौंपने का आग्रह किया था. गांधी की मूर्तियां खंडित की जा रही हैं उनकी याद में दिए जाने वाले पुरस्कार गांधी विरोधी आचरणों को भी दिए जा रहे हैं गांधी माला की सुमरनी नहीं हैं जिनके नाम का जाप किया जाए.

कई गांधीवादियों ने अलबत्ता करोड़ों के सरकारी अनुदान डकार कर गांधी बनते मैली कुचैली धोती, छितरी दाढ़ी, हिंसक विनम्रता और लिजलिजे व्यक्तित्व का तिलिस्म बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. गांधी दरअसल एक वामपंथी हैं, लेकिन मार्क्स की नकल के नहीं. भारतीय औपनिवेशिक परम्परा के ऋषि चिन्तन के असल की तरह. उनका उत्तर आधुनिक पाठ भी बनता है. कोई उनसे मिले तो, उनका हालचाल पूछे तो.

राजघाट पर समाधि जिसकी है, वह गांधी नहीं है. गांधी तो जनघाट पर ही अपनी मुक्ति पा सकता है. गांधी को लेकिन मुक्ति नहीं चाहिए थी. उसने मरण को संस्कार बनाया है. इसलिए जो भी इस रास्ते पर चलेगा, उसे ही मोहनदास करमचंद गांधी को जिलाए रखने का हक होगा.

हो सकता है कि अपनी भावुकता के कारण हम गांधी के बारे में सही निर्णय नहीं कर पायें क्योंकि हम उनके बहुत निकट हैं. युगों बाद इतिहास इस पर अपना फैसला करेगा. मुझे भी लगता है कि आगे चलकर गांधी के सभी युगीन रूप झड़ जायेंगे और तब हमें गांधी की सही शक्ल दिखाई देगी. आज हम उनके बारे में मोहग्रस्त होकर सोचते हैं, इसलिये हमारा स्वप्न भंग हो रहा है.

यह सोचना कि गांधी हमारी सभी समस्याएं हल कर देंगे, हमारी मूर्खता है क्योंकि जब तक हम उनके बारे में ठंडी, तटस्थ और निरपेक्ष दृष्टि नहीं बनायेंगे, हमें उनके बारे में खीझ हो सकती है लेकिन हम उनका सही मूल्यांकन नहीं कर पायेंगे. गांधी को हमने पुस्तकालयों, अजायबघरों और मुर्दा स्मारकों में कैद कर दिया है. सारा देश गांधी का नाम केवल तोते की तरह रटता है. हम सार्वजनिक भाषणों में गांधी की प्रशंसा करते हैं और करते हैं निजी जीवन में अगांधी आचरण. उनके लिए तो यह एक भयानक आघात है जो गांधी युग में पैदा होकर भी उन्हें देख नहीं सके. आज देश में सब कुछ है, शायद गांधी की आत्मा नहीं है.

गांधी लेकिन फकत आयोजनों और बकवास के मोहताज नहीं हैं. उनके सम्बन्ध में ठोस वैचारिक चिन्तन की जरूरत है. मर चुकी बेरहम बीसवीं सदी उपनिवेशवाद तथा आर्थिक वैश्वीकरण की वजह से विचार, अध्ययन और किताबों को लेकर जेहाद भी नहीं कर पाई, जिन्होंने गांधी के यश की राजनीतिक दूकानें सजा रखी हैं, वे हर मुद्दे पर यही फिकरा कसते हैं कि हमें गांधी के रास्ते पर चलते हुए गांवों में जाना चाहिए लेकिन जाता कोई नहीं है.

अंधेरे के घटाटोप अट्टहास के बीच यदि कोई नन्ही कन्दील बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले जलने की कोशिश करती है, तो उसे यह बताने की जुर्रत की जाती है कि जब सूरज तक अंधेरे का स्थायी उत्तर नहीं है, वह तो केवल आधा उत्तर है, तब कन्दील जलाने की क्या जरूरत है. विचारहीनता यदि शासनतंत्र का अक्स है तो गांधी एक तिलिस्मी, वायवी और आकारहीन फेनोमेना की तरह मुट्ठियों में पकड़ने लायक नहीं हैं.

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यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि जिस व्यक्ति ने विचार बनकर दुनिया के इतिहास में शायद पहली और आखिरी बार एक नैतिक क्रांति के जरिए देश आजा़द कराया, उसके सहकर्मियों द्वारा रचे गये संविधान की आस्थाओं में उसका उल्लेख तक क्यों नहीं है ? क्यों नहीं यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि अपने देश, धरती, इतिहास, परम्पराओं, संस्कृति और समकालीनता को जिस व्यक्ति ने सर्वाधिक आत्मसात होकर अनुभूत किया, क्या उसकी सलाह से भी यह देश नहीं चलेगा ? उनकी सलाह को अनिवार्यता देने में क्या मजबूरी है ? गांधी हमारी गवेषणा के विषय हैं, जिज्ञासा के प्रश्नवाचक चिन्ह हैं, परेशान दिमाग लोगों के लिए अब भी अनसुलझी पहेली हैं लेकिन वे कब हमारा गहरा सरोकार बन पायेंगे ?

महात्मा गांधी का यश और यादों को उनके वंशजों द्वारा एक अमेरिकी कम्पनी को पेटेन्ट कानूनों के तहत बेचे जाने की भी पुरजोर खबर रही है. बापू नीम, टमाटर, बासमती चावल और दवाइयों वगैरह की श्रेणी में हो गए ? पोरबन्दर घी, सेवाग्राम तेल और दांडी नमक पहले से ही बाजार में हैं. नाथूराम गोडसे ने उन्हें पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है.

कांग्रेसियों ने भी उन्हें मूर्ति, तस्वीर, जन्म जयंती और पुण्यतिथि बनाकर रखा था. गांधी की बची खुची कीर्ति पर यह तुषार भी पड़ सकता है कि अमेरिकी कम्पनी से पूछकर ही उनके चित्र, पेंटिंग, कार्टून वगैरह बनाए जाएं. फिल्में, नाटक और बैले वगैरह अमेरिकी ही खेलने कहें. धीरे धीरे उन पर किताबें, समीक्षा, मूल्यांकन और जिरह भी हिंगलिश के बाद यांकी जुबान में जुगाली की शैली में अमेरिकी ही करें.

ताजा परमाणु करार की तरह क्या गांधी धीरे से इंडो-अमेरिकन हो जाएंगे ? वे उसी तरह तफरीह के लिए भारत आएंगे जैसे हरगोविन्द खुराना, चंद्रशेखर, अमर्त्य सेन और स्वराज पाॅल आते रहते रहे हैं ?

गांधी को समाजवाद से नफरत नहीं थी. वे मार्क्स को ठीक से जानने का अलबत्ता दावा भी नहीं करते थे. आज देश की नौकरशाही से नेता बनी चौकड़ी के चंगुल में लोकतंत्र की आत्मा फंस गई है. धर्मनिरपेक्षता की बलिवेदी पर बापू की देह को जिबह कर दिया गया. उसके बाद भी शाहबानो के मामले में घुटने टेके गए. बाबरी मस्जिद को सुप्रीमकोर्ट, संविधान, संसद और मुख्यमंत्री अपनी अपनी विवशताओं का मुखौटा लगाकर नहीं बचा सके.

गांधी देश में जनता का स्वराजी लोकतंत्र चाहते थे. फिर भी वोट हैं कि कबाड़े जा रहे हैं. छापे जा रहे हैं. मांगे नहीं जा रहे हैं, छीने जा रहे हैं. हिन्दू-मुसलमान इत्तहाद के लिए अदमत्तशद्दुद के उस मसीहा ने खुद को ताबूत बना लिया. शहीदों की चिताओं के लिए ताबूत के नाम पर कमीशनखोरी की रोटी सेंकी जा रही हैं.

अमरीकी प्रेसीडेन्ट हमारे ही घर आकर हमें आंखें दिखाता है. विश्व बैंक के मुलाजिम नये कौटिल्य बने हुए हैं और जनपथ हो गया है राजपथ. देश गर्क में जा रहा है, जनता नर्क में, फिर भी सत्ताधीशों को फर्क नहीं पड़ रहा है. नीम की पत्ती की चटनी, खजूर, बकरी का दूध, चोकर की रोटी गांधी की आत्मा के हथियार थे. पांच सितारा होटलों की अय्याशी, भुनी हुई मछली, कीमती स्काॅच, ‘आक्सब्रिज की अंग्रेजी, उद्योगपतियों का कालाबाजार, मूर्ख मंत्रिपरिषदें समेटे गांधी के दुरंगे और तिरंगे राजनीतिक वंशज देश की देह को दीमकों की तरह नोच नोच कर विश्व बैंक का ब्याज बनाते चले जा रहे हैं, फिर भी गांधी हैं कि चुप हैं.

गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम देश के कोई काम नहीं आया. उनका ब्रह्मचर्य देश में बलात्कार से हार रहा है. उनकी अहिंसा नक्सलवाद और पुलिसिया बर्बरता से पिटकर भी जीवित रहना चाहती है. उनके सात लाख गांव दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में धूल खा रहे हैं. उनके नाम पर बनी संस्थाएं अनुदान डकार रही हैं. सरकारी आयोग उन्हें भ्रष्ट करार दे रहे हैं. उनकी टोपी अफसरों के चरणों पर रखकर नेता जेल जाने से बचने के लिए हृदय परिवर्तन कर रहे हैं.

भारत में उन्हीं की इज्जत है जो नाॅन रेसिडेन्ट इन्डियंस हैं. वे भारत में रहते तो नहीं हैं लेकिन सच्चे, प्रतिष्ठित और ख्यातिलब्ध भारतीय हैं. क्या बापू अब उनके ही सरगना बन जाएंगे ! उनकी गरीबी को हम विश्व बैंक कहेंगे ! उनकी बकरी कसाइयों के लिए पेटेन्ट हो जाएगी ! उनकी लाठी पुलिस के लिए ! उनके चरखे से लोग कहेंगे ‘चर, खा.’ कितना बड़ा अहसान होगा इन सौदेबाजों का भारत के ताजा इतिहास और इक्कीसवीं सदी पर.

गांधी जानते थे कि वे इतिहास की धरोहर हैं लेकिन घर के दरवाजे खोंखों करता पितामह खून, पसीने और आंसुओं का संगम होने के अतिरिक्त बलगम बनकर भी थुक जाता है. क्या उन्हें इतनी सी बात मालूम नहीं थी ? जब राष्ट्र वैश्वीकरण का रैम्प बनाया जा रहा है, तब राष्ट्रपिता से माॅडलिंग करने कौन कहेगा ?

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गांधी के वक्त इंटरनेट, कम्प्यूटर, प्रक्षेपास्त्र, दूरसंचार वगैरह की दुनिया इतनी समुन्नत नहीं थी इसलिए 1909 में गांधी ने मशीनीकरण के सीमित प्रतीकों, रेलों, अस्पतालों और अदालतों को विनाश का प्रतीक बनाकर अपना तर्कमहल खड़ा किया. उसमें उन्होंने कई भविष्य वातायन खुले भी रखे, परंतुक भी लगाए और विकल्पों से भी परहेज नहीं किया.

गांधी की मशीन-दृष्टि हिन्दुस्तान में गहरी आलोचना, चिंता और असहमति का सैलाब बनी रही है. किसी ने उनके नजदीक जाकर उन विसंगतियों की खोल में तर्कबुद्धि की निस्सारता को खारिज करने के बदले उनका फलसफा भी ठीक तरह नहीं समझा. आखिर दुनिया में मशीनों की शैतानियत की हुकूमत ने इंसानियत को जकड़ तो लिया है.

गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से अंततः भारत लौटे. तब तक उनकी भारत में शोहरत होने पर भी शीर्ष राष्ट्रीय ख्याति नहीं हो पाई थी. कांग्रेस में भी उनकी उतनी पूछपरख नहीं थी. जितना मर्तबा उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के जनसंघर्ष में एक भारतीय के रूप में हासिल कर लिया था. वे धीरे धीरे अपने व्यक्तित्व के डैने पसारते राष्ट्रीय आंदोलन को अपने आगोश में प्रारब्ध तथा अपने साहसिक एडवेंचर के जरिए लेते रहे.

1921 का वर्ष इतिहास में कई कारणों से महत्वपूर्ण है. सिविल नाफरमानी, असहयोग और खिलाफत आंदोलनों वगैरह की पृष्ठभूमि में गांधी की ख्याति ने अंतरराष्ट्रीय कद हासिल कर लिया था. इसके पहले खेदा सत्याग्रह और 1917 में चंपारण्य आंदोलन की असाधारण सफलता और खासकर 1920 में कांग्रेस के तब तक शीर्ष नेता रहे बालगंगाधर तिलक के निधन के बाद गांधी अपरिहार्य नेता के रूप में जनमानस में मजबूती के साथ स्थापित हो गए थे.

1921 में प्रकाशित ‘हिन्द स्वराज‘ के अंगरेजी संस्करण की भूमिका में गांधी ने कुछ संशोधित, नए, मौलिक और आत्मविश्वास से लबरेज तर्कों का स्वराज्य की समझ को लेकर रेखांकन किया. गांधी ने फिर कुछ सूत्र बिखेरे. उन्हें उनके ही शब्दों में पढ़ लेना बेहतर होगा –

  1. यह किताब द्वेशधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है. हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है. पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है.
  2. इस किताब में आधुनिक सभ्यता की कड़ी आलोचना की गई है. 1909 में लिखी मेरी वह मान्यता मुझे आज भी उतनी ही मजबूत लगती है.
  3. हिन्दुस्तान यदि आधुनिक सभ्यता का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ होगा.

एक विरोधाभास बीजगणित के जटिल सवाल की तरह है. भारतीय पुरातन मर्यादाओं को समझने और आत्मसात करने वाले गांधी महात्मा होते रहे और वैसा ही दिखते भी रहे. गांधी विक्टोरियाई युग की कई व्यवस्थाओं और विसंगतियों से भी तालमेल बिठाकर अपनी समझ को समुन्नत और विस्तारित करते चलते हैं. इस स्थिति में गांधी नई राह तोड़ते हैं, किसी अन्य हिन्दू विचारक के समानान्तर नहीं हैं. यही करतब हिन्दू संप्रदायवादियों के उनसे लगातार छिटकते रहने का कारण है.

खादी की आधी टांगों पहनी धोती, कमर खुसी घड़ी, अजीब तरह के फ्रेम की ऐनक लगाए गांधी बिल्कुल वैसे दिखते हैं जैसे कि वे हैं ही. यह तब महसूस होता है जब गांधी को समझने की चेष्टा ही नहीं की जाए. वे अधबुझे कोयले पर पड़ी सफेद राख की तरह दिखते हैं. फूंक मारकर उनके ताप और रोशनी को देखा और महसूस किया जा सकता है. इस अर्थ में गांधी हरीकेन का मानव रूप हैं. वे लगातार अपनी सात्विक जिद के सत्याग्रही हथियारों सिविल नाफरमानी और असहयोग को अंगरेजी सल्तनत को ढहाने करोड़ों मुफलिसों, अशिक्षितों, कमजोरों, पस्तहिम्मतों को हमकदम कर लेते हैं.

बीसवीं सदी की राजनीति में ऐसा अजूबा बस केवल एक बार यही तो हुआ, इससे बाकी राजनेताओं और धर्माचार्यों की हेठी नहीं होती. गांधी की तरह बहुआयामी होने पर चमत्कारों की जरूरत नहीं होती. कठिन परिश्रम, अध्यवसाय और हठवादी मुद्रा को अपनाने के मनुष्य-अवतरण की तरह भी इस फेनोमेना को समझा जा सकता है. जानना दिलचस्प है अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा अपने सीनेट कार्यालय में गांधी का एक बड़ा चित्र प्रेरणा पुरुष की तरह लगाते हैं.

गांधी क्लास को थर्ड क्लास का समानार्थी कहता हिकरत भरा एक अज्ञानी जुमला गांधी पर चस्पा कर दिया जाता है. गांधी ने बैरिस्टरी पढ़ते रोमन लाॅ के पर्चे को हल करने के लिए लेटिन भाषा ही सीख ली. अंगरेजी गद्य में उनकी ऐसी महारत अंततः है कि यदि वे राजनीति के पचड़े में नहीं भी पड़ते, तो केवल लेखन के इतिहास में हिन्दुस्तान क्या देश के बाहर भी सबसे बड़े गद्यकारों में शामिल होते. आशीष नंदी के शब्दों में गांधी के अंगरेजी गद्य में बाइबिल की पवित्रता, सरलता और सहज संप्रेषणीयता है.

इसके बरक्स उस दौर के दूसरे बड़े सियासती बुद्धिजीवी ‘हिन्द स्वराज‘ के कटु आलोचक लेकिन अनुयायी और उत्तराधिकारी नेहरू की भाषा एडवर्डीय अंगरेजी की है. नेहरू की वसीयतनुमा भाषा और गांधी के ‘हिन्द स्वराज्य’ को भारत के इतिहास और भविष्य ने आत्मसात कर लिया है. गांधी चिंतन के उस अमूर्त दीखते प्राणतत्व को अपनी चेतना में विकसित करते चलते हैं.

वह कहता है भारतीय संस्कृति की असल ताकत उसके समावेशी चरित्र के नैरंतर्य में है. यही तर्क तमाम व्यक्तियों और विचारों से मुठभेड़ करता हुआ गांधी को मौलिक विचारक बनाता है. अपनी सादगी, मासूमियत, लाचारी और जगहंसाई के किस्सों के चलते गांधी ने अपना अध्ययन क्रम लगभग गोपनीय ढंग से जारी रखा. गांधी में बुद्धिजीवी विचार एक वृक्ष की तरह विकसित नहीं होता तो संभव है दुनिया के कई संघर्षशील जननेताओं की तरह गांधी भी इतिहास के बियाबान में केवल याद होते रहने के लिए दफ्न हो जाते.

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गांधी जानते हैं पुरानी हवेली जीर्णशीर्ण हो जाए, तो उसकी चूलों, जड़ों और बुनियाद को हिलाने के बदले नई परिस्थितियों के अनुकूल राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सरंजाम करना चाहिए. गांधी का विचार और निदान रामबाण औषधि नहीं है. ऐसी प्रशंसा करने से उनका यश धूमिल ही होता है. गांधी में आत्मस्वीकार और आत्मविश्वास दोनों है. नैतिक अहम्मन्यता भी है. वे निराश, कुंठित, पराजित होने पर भी विघ्नसंतोषी नहीं रहे. हर पराजय को मुख्यतः अहिंसा की व्यावहारिक और आचरणगत असफलता के बाद भी सत्य की ड्योढी पर खड़े होकर ही गांधी आचरणबद्ध करते हैं. मनसा, वाचा, करुणा की ज़िन्दगी के तिहरेपन के आईने के सामने विकाररहित खड़े होकर आत्मपरीक्षण करते हैं.

गांधी में तो हताश होने का उम्दा कलात्मक शऊर है. वे अमूमन रोते नहीं. आंखें डबडबाती भी नहीं. हताशा की हालत में भी गांधी घटनाओं से निरपेक्ष लेकिन जीवनमूल्यों की अपनी प्रतिबद्धता से सापेक्ष रहकर कालजयी नायकों जैसा बर्ताव करते हैं.

बहुत-सा गांधी सहजता से पचता भी नहीं है. बहुत सा विवेकानंद आकाश या वायु तत्व लगता है. उनमें धरती की बल्कि मिट्टी की सोंधी गमक अलबत्ता है. स्वैच्छिक सादगी का आह्वान करने वाले गांधी शुरुआती जीवन में अंगरेजी वस्त्रों और भौतिक सुविधाओं से लैस रहे हैं. धीमी गति का पाठ पढ़ाने वाले गांधी के जीवन में इतनी तेज़ गतिमयता रही है कि वह भारत में किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति में देखने को नहीं मिलती. स्वैच्छिक गरीबी का उनका उद्घोष अलबत्ता उनके जीवन में प्रदर्शित रहा.

इसका यह आशय नहीं है कि राजनीतिक घटनाक्रमों के चलते गांधी अपने जीवन की आंतरिक लय के साथ नहीं थे. यह भी नहीं कि वे जीवन में सादगी का लक्ष्य लाखों अनुयायियों में विस्तारित नहीं कर पाए. इतिहास में लेकिन कई निर्मम क्षण आए हैं, तब गांधी ने उन राजनीतिक व्यवस्थाओें को स्वीकार किया जिनका प्रखरतम विरोध ‘हिन्द स्वराज‘ में व्यक्त है.

अंगरेजी पार्लियामेन्ट को शुरू में वेश्या और बांझ कहने वाले गांधी भारतीय जीवन को उसी संसदीय पद्धति से बचा नहीं पाए. इस निर्णय को भारतीय जनमानस का हुक्म होने के नाते उन्होंने स्वीकार कर लिया. वे अपने अनुयायियों को ‘हिन्द स्वराज,‘ ‘रचनात्मक कार्यक्रम‘ और ‘सर्वोदय‘ के सूत्रों से दीक्षित नहीं कर पाए.

‘हिन्द स्वराज‘ के बहुत से मंत्रबिद्ध वाक्यों की बाद में गांधी फलसफा गांठें खोलता रहा. ‘हिन्द स्वराज‘ एक तरह का पांचजन्य भी है. वह आज़ादी की महाभारत कथा में क्लैव्य के हर क्षण के दीखते ही बजने लगता है. यह एक अकेले लेखक की किताब से ज्यादा बढ़कर एक समाज के सामूहिक विमर्ष का ऐसा जन-प्रतिवेदन है, जिसमें लगातार संशोधनों और व्याख्याओं की इजाजत है.

क्या महात्मा गांधी अपने वैचारिक दर्शन और मीमांसा में मौलिक कहे जा सकते हैं ? क्या उन्होंने उन्हें उपलब्ध सभी ज्ञान स्त्रोतों का एक अध्यवसायी, अनुसंधित्सु और चतुर वणिक गुण संग्र्राहक की तरह ही इस्तेमाल किया है ? कई अर्थों में गांधी रूढ़ हिन्दू और ईसाई मान्यताओं तक के मूर्ति भंजक रहे हैं लेकिन कई बार वे लगभग विपरीत लगती सभ्यता के अवयवों से समझौता करने की मुद्रा में भी दिखाई देने का तिलिस्म भी रचते लगते हैं. ऐसे अवसरों पर वे विपरीत लगते दृष्टिकोणों में निहित तर्कों के सामने सहनशील समर्पण नहीं करते बल्कि पारस्परिक विश्वास के आधार पर वांछनीय दृष्टिकोण की अनुकूलता को तलाशते और तराशते भी नज़र आते हैं.

यह गांधी के प्रखर वैचारिक ताप पर राख की तरह पपड़ियाती उनकी बौद्धिक मुद्रा का अद्भुत लक्षण रहा है. अपनी मान्यताओं को स्थापित, पुष्ट और संशोधित करने के निरंतर प्रयासों में गांधी ने ऐतिहासिक युगों, सांस्कृतिक संदर्भों और जीवन गाथाओं का गहरा अध्ययन किया. वे केवल बौद्धिक नहीं थे, अन्यथा इतिहास में वे एक और बड़ी बौद्धिक उपस्थिति लेकर दर्ज भी हो सकते थे.

इसके बावजूद उन्होंने जिस दृष्टिकोण का विस्तार किया और जिस पर उनका लगभग पेटेंट दिखाई देता है, उसकी बुनियाद में एक ऐसा गहरा मूल्य बोध है जो दुनिया के बड़े विचारकों की दार्शनिक उपपत्तियों से अन्योन्याश्रित रिश्ता भी रखता दिखाई देता है.

छाती पर नाथूराम गोडसे की पिस्तौल की तीन गोलियां खाने के बाद गांधी ने ‘हे राम !‘ कहा था. 150 वीं जयन्ती मनाने ‘हे राम !‘ के बदले ‘जयश्रीराम‘ कहते चेहरों पर वीरता की मूंछें उगती रही है. चम्पारण में गांधी ने किसानों की बदहाली और अधनंगी देहें देखकर काठियावाड़ी पगड़ी, अंगरखा, कुरता सब उतार फेंका. नम आंखों से उनकी याद करने के अपेक्षित जश्न को रेशमी पोशाकों से लकदक जनप्रतिनिधि, फिल्मी सितारों और उद्योगपतियों के बिगड़ैल बच्चों को भी फैशन परेड के रैंप पर पराजित करने की धनलोलुप सुविधा से लदे फंदे हैं.

गांधी के जन्मप्रदेश गुजरात में पट्टशिष्य लौहपुरुष की चीन से बनी संसार की सबसे ऊंची मूर्ति हजारों किसानों को उजाड़कर नर्मदा के सरदार सरोवर पर निश्चेष्ट अगांधी मुद्रा में खड़ी है. उजड़े किसानों के दिल में धड़कते गांधी लौहपुरुष का ही चुंबक हैं. गांधी की लाखों कुरूप मूर्तियां तोड़ी, उजाड़ी, खंडित भी की जा रही हैं, उन पर कालिख भी पोती जा रही है. गांधी अमर समुद्र हैं तो भी उन पर लाठियां भी भांजी जा रही हैं.

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एक विरोधाभास या असमंजस भी है. संसदीय विधायन, न्यायपालिका और तमाम प्रशासन का सरंजाम संविधान के सुपुर्द होता है. संविधान की उद्देशिका में शुरुआत के शब्द हैं ‘हम भारत के लोग‘ और फिर अंत में इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.’ संविधान के उद्घोष से संगति बिठाएं, तो हम भारत के 130 करोड़ लोग संविधान के निर्माता हैं. यह अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के. के. मैथ्यू के अनुसार 27.05 प्रतिशत लोगों ने ही वोट देकर संविधान सभा को बनाया था.

इतने वर्षों के बाद अनुभव यह है कि कार्यपालिका अर्थात मंत्रिपरिषद ने न्यायपालिका और विधायिका को लगभग दरकिनार करके अमलकारी शक्ति अपनी मुट्ठी में कर ली है. चुटकुला भी चलता है कि देश को पीएम, सीएम और डीएम ही तो चलाते हैं. गांधी का कथित अंतिम व्यक्ति तो अब करोड़ों के बहुवचन में तब्दील हो गया है. तब की कतार भीड़ में तब्दील हो गई है. तब का विचार विमर्श अब नागरिक जीवन में भीड़ का कोलाहल है.

जिस पद्धति का स्वराज्य गांधी चाहते थे, वह मौजूद तो है, लेकिन वहां भारी अफरातफरी है. नागरिकता, निजता, शिक्षा, इलाज, संस्कृति, रोजगार और नियोजन आदि के अधिकारों के चश्मों पर धुंध छा गई है या अकिंचनता की आंखों के चश्मों का नंबर बदल गया है. गांधी बेतरह गायब हैं. बुलाने से भी आते, मिलते नहीं हैं.

सात समुंदर पार के चौबीसों घंटे चमकने वाले विलायती नस्ल के मालिक सूरज को गांधी ने बोलने की आजादी के तहत चुनौती दी थी. बोलने की आजादी के पैरोकार गांधी के अखबारों ‘यंग इंडिया‘, ‘हरिजन‘, ‘नवजीवन‘, ‘इंडियन ओपिनियन‘ वगैरह के वंशज काॅरपोरेटी मीडियामुगलों के ढिंढोरची बने चौथे स्तंभ को ज़मींदोज़ कर चुके हैं. उनके राजनीतिक वंशज गांधी के जन्म और शहादत तक के सवालों के अज्ञान के कारण जगहंसाई करा रहे हैं.

चम्पारण, बारदोली, दांडी, साबरमती, सेवाग्राम धीरे धीरे गुमनामी में डूबते सूरज हैं. गुम हो रही रोशनी में ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्मार्टसिटी‘, ‘बुलेट ट्रेन’, ‘स्टार्ट अप‘, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भुखमरी, पस्तहिम्मती, तशद्दुद, खूंरेजी का अंधेरा उग रहा है. गांधी को वहम क्यों है कि अब भी भारत को उनकी जरूरत है. यही व्यंग्य तो गांधी की पूंजी है. अभिमन्यु के रथ के चाक की तरह भारत की बीसवीं सदी को अपने कांधे उठाए गांधी झिलमिलाते ध्रुवतारे की तरह क्यों हैं ?

भारत की एकता, अस्मिता और ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया के सामने कथित सांस्कृतिकता का विदेशी राक्षस आकर खड़ा हो गया है. आधी रात के बाद दूरदर्शन में उत्तेजक फिल्में और सीरियल शुरू होते हैं. दिन में अपसंस्कृति पर व्याख्यान देने वाले रात में जागकर उन्हें खुद देखते हैं.

भारतीयता पर धुंआधार भाषण देने वाले राष्ट्रवादी नेता, उद्योगपति और नौकरशाह अपने बच्चों को विदेशों में ही पढ़ाते हैं. राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों के कर्ताधर्ता अपनी संतानों के लिए देशों विदेशों से आयातित सेल फोन, वाॅकमैन, लैपटाॅप कम्प्यूटर, जीन्स वगैरह के तोहफे विश्व हिन्दी सम्मेलनों से खरीद कर लाते हैं. स्वदेशी के तमाम पैरोकारों के आसपास से विदेशी गंध आती रहती है.

अब तो प्यास की राष्ट्रीय आदत का यह आलम है कि वह पेप्सी और कोका कोला की बोतलों से कम पर समझौता ही नहीं करती. गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस, गांधी जयंती वगैरह के मुख्य अतिथियों और अन्य कपड़ों से नीनारिक्की, चार्ली, ब्रूट, जोवन, सेक्स अपील जैसे विदेशी इत्रफुलेलों की गंध वातावरण में ठसके से समाती जा रही हों.

कुछ मुठभेड़े नहीं हो पाईं या एकाध बमुश्किल हुईं. रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, गांधी और भगतसिंह वगैरह आपस में बौद्धिक जिरह नहीं कर पाए. गांधी बेलूर मठ में जाने के बाद भी विवेकानन्द से मिल नहीं पाए. नेहरू और भगतसिंह में विमर्श हुआ है. सामूहिक तर्क के पड़ाव तक पहुंचने के बदले मसीहाओं के विचार कुछ लोग हाईजैक करके ले गए. रामकृष्ण मिशन तो सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा हारा है, जहां वह कहने की कोशिश कर रहा था कि हमें प्रचलित और रूढ हिन्दू धर्म का अनुयायी नहीं माना जाए.

उन्हीं दिनों रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद पर एक नायाब निबंध लिखा, जो रवीन्द्रनाथ ने कहा वही तो नरेन्द्रनाथ ने शिकागो में कहा. दोनों लकदक पोशाकें पहनते थे. इसलिए उन्हें छोड़ ‘चर्चिल के अधनंगे फकीर‘ को बिंदेश्वरी पाठक के जजमानों ने दीवार में चस्पा कर दिया. उनके विचार उनके जिस्म से नोचकर फेंक दिए.

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संसार में केवल गांधी बोले थे कि वे रोज़ अपने को सुधारते हैं. पीढ़ियां और इतिहासकार उनकी आखिरी बात को सच मानें. विपरीत, विसंगत और विकृत विचारों के किराए के भाषणवीर गांधी-विचार के सरोवर में डूबकर नहा रहे हैं. खुद के मन से बासी विचारों की सड़ांध बाहर नहीं निकालते. गांधी तो नदी बने ‘चरैवेति‘ के सिद्धांत के मनुष्य आचारण की तरह वक्त के आयाम में लगातार बह रहे हैं.

गांधी आज होते तो लुटते आदिवासियों के साथ खड़े होकर गोली भी खा सकते थे. उनकी करुणा का क्रोध सड़कों पर अस्मत लुटाती दलित स्त्रियों की धमनियों के लिए शीलरक्षक खून बन जाता. उनका अठारह सूत्रीय रचनात्मक कार्यक्रम दफ्तर के कूड़े के डिब्बों में डाल चुके मंत्री गांधी प्रवक्ता बने अखबारों के पहले पृष्ठ पर विज्ञापित होते टर्रा रहे हैं.

इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में गांधी विरोधी उनकी ही विचारधारा का मुंह नोच रहे हैं. जेहन और नीयत में गांधी की इंसानी मोहब्बत को नापने का थर्मामीटर देश के सत्ता प्रतिष्ठान में ही नहीं है. हर पांच साल में गांधी के पक्ष विपक्ष में खड़े होकर नेताओं के विकल्प सत्ता की चाबी जेब में डाल लेते हैं. गांधी अपनी मातृभूमि की ऐतिहासिकता की नीयत थे. उनके सियासी, प्रशासनिक, वैचारिक वंशजों ने उन्हें मुल्क की नियति नहीं बनाया.

जश्नजूं भारत फिर भी गांधी के नाम पर इतिहास को लगातार गुमराह करते रहने से परहेज़ नहीं करेगा क्योंकि उसे आइन्स्टाइन की भविष्यवाणी को सार्थक करना है कि आने वाली पीढ़ियां कठिनाई से विश्वास करेंगी कि ‘हाड़ मांस का ऐसा कोई व्यक्ति धरती पर कभी आया था.’

भारत एक उत्सवधर्मी देश है. रोज़ कहीं न कहीं, कोई न कोई त्यौहार लोकजीवन के गद्य को मनुष्य बनाने की कविता की सांस्कृतिक धर्मिता से आंजता रहता है. धर्म और संस्कृति के नाम पर यात्राएं, जुलूस, यज्ञ, रोज़ाअफ्तार पार्टियां, भजन, मंदिर-मस्जिद जैसे अनुष्ठान देश को दैहिक, आर्थिक, वैचारिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चिंताओं से अस्थायी सही, छुटकारा कराते रहने का आसरा तो हैं. त्यौहारों की रूढ़ परंपरा में वाहवाही लूटने, दबदबा बढ़ाने, छवि चमकाने के व्यवस्थाजनित आयोजन भी नागरिक जीवन में लदफंद गए है.

‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा‘ की कहावत के मुताबिक हमारे कई पुरखे अपने जन्म, मृत्यु, कर्म और उपलब्धियों के कारण आयोजन का मौका होते यादों की झोली से आ गिरते हैं. सरकारों, संस्थाओं, सियासी लोगों और कई पेशेवर खटरागियों की आंखें फड़कती रहीं कि कब गांधी 150 बरस के हों. उनका नाम जपते साल भर लोकप्रतिष्ठा की टीआरपी पार की जाये. गांधी 2 अक्टूबर, 2019 को आ ही गए. कुछ नहीं हुआ. सब टांय टांय फिस्स हो गया. अगली 30 जनवरी हर बार की रस्मअदायगी को नहीं मरे. उन्हें साल भर यादों के वेंटिलेटर पर जिंदा जो रखा जा रहा है.

गांधी का जीवन एक औसत व्यक्ति की तरह था. देहधरे के दोष की तरह बुराइयों के मकड़जाल उस पर लिपटते भी रहे. वेश्या, चोरी, सिगरेट, शराब, मांसाहार, ब्रम्हचर्य बनाम यौन परस्त्री का आकर्षण वगैरह अच्छे बुरे अनुभवों और आमंत्रण की औसत जिंदगियों की तरह गांधी में भी आवक जावक का लेखा जोखा रहा है. यह सरासर गलतबयानी है कि गांधी तृतीय श्रेणी और एक गाल में थप्पड़ खाकर दूसरा गाल सामने करने के हिमायती थे. उनकी अहिंसा में अभय था. उसका स्त्रोत महाभारत की गीता में है.

उन्होंने कृष्ण और अर्जुन दोनों भूमिकाओं को अपने तईं गड्डगड भी किया. महाभारत की भौतिक हिंसा में उन्होंने और विनोबा ने अहिंसा की विजय ढूंढ ली. वे वांगमय में अकेले हैं. उनका मर्म यदि हर भारतीय समझे तो पूरब का यह देश रोशन रहने के लिए विचारों में बांझ नहीं रहेगा.

हिंदू धर्म को हिंदुत्व का समानार्थी बनाने वाले भाषा विन्यास के लालबुझक्कड़ और बहुरूपिए मंदबुद्धि नहीं हैं. वे गांधी के अंधे भक्तों से कहीं ज्यादा उनकी इबारत की धार को समझते हैं. वे नहीं चाहते लोग गांधी को पढ़ें और उनके पास जाएं. उनसे संवाद करें. जिरह करें. उनकी कालजयी मुस्कराहट मेें भी वेदना को देखें जो पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति की जीवन की सांस थी.

क्या जरूरत है सरकारी सब्सिडी लेकर मक्का मदीना जाने या नहीं जाने का वितंडावाद बनाने की ? क्यों जरूरी है कि वोट बैंक पुख्ता करने के लिए चुक गए बुजुर्गों को विचार अनाथालय बनाते तीर्थ यात्रा में रेवड़ बनाकर भेज दिया जाए ? क्या जरूरत है अय्याश मंत्रियों को करोड़ों रूप्यों की खर्चीली जिंदगी में फबते रहने की ?

गांधी ने सौ बरस के पहले कहा था. ऐसे भी डाक्टर हैं और रहेंगे भी जो मरीज की लाश को वेंटिलेटर पर डालकर उसके गरीब परिवार का आर्थिक बालात्कार करेंगे. वे जानते थे कि अंगरेजी नस्ल की अदालतों, जजों और उनमें कार्यरत कारिंदे और दलाल बना दिये जाने वाले वकीलों की फौज गलतफहमियों में उलझे भाइयों के पक्षकारों को अपना पेट पालने की रसोई के किराने का पारचून समझेगी, सब कुछ वैसा ही हो रहा है.

गांधी निर्भीक और साहसी थे लेकिन उनकी भाषा में सभ्यता और शाइस्तगी थी. वे नामालूम, लाचार और कुछ टुटपुंजिए कलमकारों की तरह नहीं थे जो सेठियों के चैनल और अखबारों में सच और ईमान की मिट्टी पलीद करते अट्टहास भी करते हैं. दक्षिण अफ्रीका में साधन नहीं होने पर भी और फिर हिंदुस्तान में उनके अखबारों ने सच लिखा. उसकी मुस्कराहट के सामने बर्तानवी हुकूमत का गुस्सा अपनी हेकड़बाजी के बावजूद पानी भरता रहता था.

गांधी ने मनुष्य की जिंदगी को कुदरत का करिश्मा बताया. वह गाय को गोमाता कहते अंगरेज के खिलाफ विद्रोह कर सकते थे. जाहिल जनता को बता सकते थे कि गोमाता वैतरणी पार कराती है. गाय की सेवा में अपना जीवन झोंक देने के बावजूद उन्होंने गाय को केवल पशु कहा.

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गांधी हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दू-ईसाई और सभी धर्मों और जातियों की एकाग्रता के प्रतीक थे, केवल मिलावट के नहीं. बस यही वह बिंदु था जो कुछ संकीर्ण विचारकों को पसंद नहीं आया. तिलिस्म यही है कि जो सौ करोड़ के पार हैं वे दूसरे मजहब के पंद्रह करोड़ से इतनी प्रतिहिंसात्मक स्थायी नफरत करते हैं. उससे परिणाममूलक वोट सत्ता में चिपके रहने के लिए बरसते रहें.

गांधी ने हमारी कौमों को प्यार, भाईचारा, कुर्बानी और पारस्परिकता का पाठ पढ़ाया. बहुमत उनके साथ था, फिर भी माचिस की एक साम्प्रदायिक तीली उनके विचार पुस्तकालय को जलाती रहती है. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. अपनी पराजय का बोध लिए दृढ़ हनु के साथ आजादी के दिन नोआखाली में हिन्दू मुसलमान भाइयों के बीच फैली हिंसा के मुकाबिल इंसानी चट्टान के रूप में खड़े हो गये.

पश्चिमी विचार से गांधी का प्रत्यक्ष संपर्क 1888 में हुआ जब वे लंदन में कानून की पढ़ाई कर रहे थे. ‘आत्मकथा’ के अनुसार उन्होंने अपने अध्ययन में गहरी रुचि ली थी. गांधी ने इसी दरम्यान लेटिन भाषा भी सीखी ताकि जस्टिनियन जैसे विद्वानों के मूल पाठों को पढ़ सकें. इस अध्ययन ने युवा गांधी के मस्तिष्क पर एक गहरा प्रभाव डाला कि नैतिक सिद्धांत किसी भी कानूनी ज्ञान से बेहतर और श्रेष्ठ हैं. इसकी व्याख्या ‘हिन्द स्वराज’ के सत्रहवें अध्याय में गांधी ने की है.

उन्होंने कहा ‘जिस आदमी में सच्ची इन्सानियत है, जो खुदा से डरता है, वह और किसी से नहीं डरेगा. दूसरे के बनाये हुए कानून उसके लिए बंधनकारक नहीं होते. बेचारी सरकार भी नहीं कहती कि ‘तुम्हें ऐसा करना ही पड़ेगा.’ वह कहती है कि ‘तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हें सजा होगी.’ हम अपनी अधम दशा के कारण मान लेते हैं कि हमें ‘ऐसा ही करना चाहिये, यह हमारा फर्ज़ है, यह हमारा धर्म है.’ … अगर लोग एक बार सीख लें कि जो कानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना नामर्दगी है, तो हमें किसी का भी जुल्म बांध नहीं सकता. यही स्वराज्य की कुंजी है.’

गांधी का व्यावहारिक विधिक ज्ञान जिसके तहत उन्होंने अंग्रेजी गद्य को ड्राफ्ट करने की असाधारण महारत हासिल की थी, विधि के विद्यार्थी के रूप में इंग्लैंड में की गई उनकी पढ़ाई का परिणाम था. राजनीति के प्रति उनका दृष्टिकोण कानून की शिक्षा से भी उपजा था.

1893 का वर्ष हिंदुस्तान की सियासी और सांस्कृतिक यात्रा के घुमावदार मोड़ के जरिए याद रखा जाएगा. 11 सितंबर 1893 को विवेकानंद ने शिकागो धर्म सम्मेलन में ‘अमेरिकी बहनों और भाइयों !‘ क्या कहा, 8 मिनट के भाषण में अंतहीन तालियां बटोरीं. संसार को लगा जैसे पूरा भारत अपनी सांस्कृतिक, समावेशी अस्मिता के साथ वहां परोस दिया गया था.

एक नामालूम घटना 7 जून 1893 को दक्षिण अफ्रीका के पीटर मेरिट्सबर्ग स्टेशन पर घट चुकी थी. अंगरेजी ठसक के सूटबूट में लकदक एक आप्रवासी भारतीय युवा बैरिस्टर को प्रथम श्रेणी के डिब्बे का वैध टिकट होने पर भी अंगरेज सार्जेन्ट ने प्लैटफाॅर्म पर सामान की तरह उठाकर फेंक दिया था. प्रकटतः दब्बू, सहनशील और अपमानित तथा पीड़ा महसूस करते उस नौजवान वकील की आंखों में कालक्षण नया इतिहास लिखने को दफ्न हो गया था.

उसके अंदर कोई अकुलाहट चुनौतियां बिखेरती मनुष्य की आजादी ढूंढ़ने की भवितव्यता को लेकर बेचैन हो गई थी. वह जन्मतः प्रतिभाशाली नहीं कर्मगत अध्यवसायी था इसलिए धीरे धीरे ही सही मनुष्य की समझ के सोपान पर चढ़ने, सतह के ऊपर उठता गया. सोलह वर्ष तक उसे अकुलाहट, संशय, पराजय और अनिश्चितता की फड़कती अपशकुन वाली बाईं आंख के साथ जीना पड़ा. उसने संयम के साथ ढेरों किताबें पढ़ीं. एक के बाद एक आश्रम बनाए. अंगरेजी और गुजराती में अखबार निकाले. विदेशों में रहकर उसके अस्तित्व के हर आयाम में उसमें लेकिन हिन्दुस्तान जीता रहा.

उसने साफ कहा मेरे जीवन पर तीन लोगों का सबसे ज्यादा असर है. समवयस्क लेकिन गुरु समान जैन साधु श्रीमद्राजचंद्र, महान रूसी उपन्यासकार और मानवतावादी काउंट लियो तालस्तोय और फिर ‘अन टु दिस लास्ट’ को उसके जीवन में बौद्धिक चुनौतियों की तरह गाड़ देने वाले प्रसिद्ध अंगरेज लेखक जाॅन रस्किन लेकिन प्राथमिकताओं के इसी क्रम में.

पश्चिम और विशेषकर इंग्लैंड को समझने के प्रस्थान बिंदु पर महात्मा गांधी केवल भारतीय प्रज्ञा का गुण गायन नहीं करते जो आज भी इक्कीसवीं सदी के कई रूढ़ बल्कि मूढ़ भारतीय वैचारिकों का शगल बना हुआ है. ‌ गांधी का यह मानना था कि पश्चिम की भौतिक और नैतिक उपलब्धियों के पीछे ज्ञान को परिमार्जित करने की लगातार कोशिशों की एक विकसित परंपरा है जिससे असहमत होने के बावजूद उसका तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए.

उनका केवल यह कहना नहीं था कि पश्चिम की अधुनातन मान्यताएं भारत के संदर्भ में अप्रासंगिक, बेअसर और असंगत हैं. ‘हिन्द स्वराज’ केवल एक नवोन्मेशी देश की निर्मित हो रही आकांक्षाओं का प्रतिफलन नहीं है, उसे स्वयं पश्चिम और विशेषकर यूरोप के संदर्भों के साथ खंगालकर देखने की ऐतिहासिक जरूरत है. ‘हिन्द स्वराज’ के गांधी के शब्दों में ‘काल ने चेतावनी बिखेरी है-‘ जैसा अमरत्व बोध भी अब उभरकर आता दिखाई पड़ता है.

और विशेषकर इंग्लैंड को समझने के प्रस्थान बिंदु पर महात्मा गांधी केवल भारतीय प्रज्ञा का गुण गायन नहीं करते जो आज भी इक्कीसवीं सदी के कई रूढ़ बल्कि मूढ़ भारतीय वैचारिकों का शगल बना हुआ है. गांधी का यह मानना था कि पश्चिम की भौतिक और नैतिक उपलब्धियों के पीछे ज्ञान को परिमार्जित करने की लगातार कोशिशों की एक विकसित परंपरा है जिससे असहमत होने के बावजूद उसका तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए. उनका केवल यह कहना नहीं था कि पश्चिम की अधुनातन मान्यताएं भारत के संदर्भ में अप्रासंगिक, बेअसर और असंगत हैं.

‘हिन्द स्वराज’ केवल एक नवोन्मेशी देश की निर्मित हो रही आकांक्षाओं का प्रतिफलन नहीं है, उसे स्वयं पश्चिम और विशेषकर यूरोप के संदर्भों के साथ खंगालकर देखने की ऐतिहासिक जरूरत है. ‘हिन्द स्वराज’ के गांधी के शब्दों में ‘काल ने चेतावनी बिखेरी है-‘ जैसा अमरत्व बोध भी अब उभरकर आता दिखाई पड़ता है.

गांधी का समकालीन यूरोप प्रकारांतर से भविष्य का भारत भी रहा है. इस अर्थ में कि यदि सभी तत्कालीन परंपराएं यूरोप में अप्रतिहत विकसित होती रहीं तो वे सब आगे चलकर भारत की भूमि पर रोपी जाएंगी और अप्रतिहत ही विकसित होंगी. गांधी इस दोहरे खतरे से बाखबर आशंकित बल्कि आतंकित तक दिखाई देते हैं. ‘हिन्द स्वराज’ इस तरह गांधी की प्रज्ञा में कोई छिटका हुआ सवाल नहीं था, वह उनमें पारा बनकर रेंग रहा था ताकि इस थर्मामीटर से वे मनुष्यता और विचार के संलिष्ट रिश्तों को माप सकें.

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गांधी की आत्मा में वे सारे सवाल पिछले कई वर्षों से उठ-गिर रहे थे. दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रही के रूप में गांधी के पास अद्भुत अनुभवों का जखीरा था, जब उन्होंने गोरे साम्राज्यवाद की यातनाएं झेली. दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में इस सत्याग्रही ने एक काठियावाड़ी वणिक की मूल संरचना से उठकर खुद को वहां के सबसे महत्वपूर्ण जननेता के रूप में स्थापित और विस्तारित किया.

ट्रांसवाल और अन्य स्थानों पर सत्याग्रह करते हुए गांधी ने चम्पारण और बारदोली की अपनी भूमिका का पूर्वाभ्यास दक्षिण अफ्रीका में ही किया. इसी क्रम में साबरमती आश्रम और सेवाग्राम की पूर्व पीठ के रूप में फीनिक्स आश्रम को भी समझा जा सकता है.

यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी को जो सामाजिक परिवेश मिला वह भारत के मुकाबले कहीं अधिक आधुनिक, व्यापक और रेस्पांसिव था. विशेषकर दक्षिण अफ्रीका की महिलाएं भारत की महिलाओं के मुकाबले ज्यादा खुलेपन के साथ कार्यक्रमों और सत्याग्रहों में शामिल होती थीं. हिन्दू-मुसलमान एका का भी दक्षिण अफ्रीका जीवित गवाह रहा है. इसके उलट धार्मिक, सामाजिक बीमारी के कारण बाद में गांधी को भारत-पाक विभाजन का अभिशाप तक अपनी आंखों देखना पड़ा.

गांधी के एक बड़े अध्येता भीखू पारेख उनकी कुछ कमियों की ओर भी इशारा करते हैं. उनका तर्क है कि आधुनिक सभ्यता की गांधी-समीक्षा कुछ उपलब्धियों की अनदेखी करती है. मसलन सभ्यता की वैज्ञानिक और आलोचनात्मक अन्वेषण वृत्ति, मनुष्य द्वारा प्रकृति का नियंत्रण और सभ्यता की स्वयं की सांगठनिक शक्ति.

पारेख का कहना है कि ऐसी उपलब्धियों का यह भी निहितार्थ है कि इनका कुछ न कुछ आध्यात्मिक आयाम तो है जिसे गांधी ने ठीक से नहीं देखा होगा. गांधी का फोकस एक खास युग की आधुनिक सभ्यता की समीक्षा और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की बुराइयों को देखने का था. यह अलग बात है कि गांधी ने कोई सौ वर्ष पहले पाठक के जरिए जो सवाल पूछे थे, उन्हें अब तक तथाकथित अविकसित और विकासशील देशों की दुनिया पश्चिम की मालिक सभ्यता से अब तक पूछ रही है.

गांधी ने भारत को सभ्य बनाए जाने के इंग्लैंड के मिशन की वैधता और नीयत पर ही सवाल किया था. उसे लगभग अकेले/पहले भारतीय के रूप में खारिज भी कर दिया था. उन्हें पश्चिम से कुछ सीखने की इच्छा ही नहीं थी, यद्यपि पश्चिम से बहुत कुछ सीखा गया और सीखा भी जा सकता था इसलिए गांधी ने केवल अभिनय करते हुए यह कहा कि यदि भारतीय अपनी गौरवशाली ऐतिहासिक उपलब्धियों का अहसास कर लें तो उन्हें पश्चिम से कुछ सीखने की स्थिति का तिरस्कार करना होगा.

गांधी तो क्या कोई भी व्यक्ति, विचार या व्यवस्था निर्विकल्प नहीं है. मौजू़दा हालातों में गांधी एक बेहतर और कारगर विकल्प हैं, यह बात धीरे धीरे दुनिया में गहराती जा रही है. अकादेमिक इतिहासकारों के बनिस्बत यदि इतिहास निर्माता खुद आंखों देखा, बल्कि भोगा हुआ सच लिखें, तो वह बाद की पीढ़ी के भी किसी देशज बुद्धिजीवी के वर्णन, विवरण से ज़्यादा विश्वसनीय, प्रामाणिक और उद्वेलित करता हुआ होता है.

इतिहास की ऐसी गांधी-समझ बुद्धिजीवियों का नकार नहीं करती. गांधी दृष्टि विदेशी लेखकों से उस सांस्कृतिक समझ और मुहावरे की उम्मीद भी करती है, जिनके अभाव में इतिहास का निरपेक्ष, तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन हो सकना गांधी स्वीकार नहीं कर पाते हैं. क्या इससे यह नहीं लगता कि टीपा गया इतिहास एक ऐसा बयान है जो घटित नहीं हुआ होगा. वह ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया जो वहां था ही नहीं. गिबन ने तो लगभग चिढ़कर खुद कहा है कि ‘औपचारिक इतिहास होता कहां है ? वहां तो केवल जीवनियां होती हैं.’

जनसमर्थन और जनप्रतिनिधित्व के बिना लोकतंत्र में किसी नेता को जन-भविष्य गढ़ने का उत्तरदायित्व नहीं दिया जा सकता. भारत में लेकिन यही हो रहा है. राजनीतिक मनुष्य का विकास धरती में गड़ गए बीज की तरह होता है जो पौधे से धीरे धीरे वृक्ष में तब्दील होता है. देश के प्रधानमंत्री का विकास और विस्तार स्वाभाविक नहीं रोपित है. उनके चेहरे के तेवर को पढ़ने से यह समझ नहीं आता कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं. देश महंगाई की मार से अपनी टूटी हुई कमर को सहलाना चाहता है, प्रधानमंत्री के पास कोई उत्तर नहीं है. उनकी बौद्धिकता में सात्विक अहंकार की अनुगूंजें हैं.

हर तीन माह बाद महंगाई के कम होने की मृग-तृष्णा का आश्वासन है. आश्वासन देने के दूसरे दिन ही कीमतों में बढ़ोत्तरी की सरकारी घोषणाएं हो जाती हैं. अमेरिका भारत की संसद में आकर अट्टहास करता है. प्रधानमंत्री के चेहरे पर पुरस्कार प्राप्त छात्र की तरह मुस्कान तैरने लगती है. मीडिया कॉरपोरेटियों से प्राप्त प्रमाणपत्र को महात्मा गांधी की सीख के ऊपर चस्पा कर देने को इतिहास लेखन समझता है.

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गांधी और कांग्रेस – 1

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि एक चतुर बनिया गांधी ने कांग्रेस को भंग कर देने कहा था. उन्होंने पूरी बात नहीं कही. गांधी चतुर भी थे और बनिया भी थे, लेकिन चतुर बनिया नहीं थे, आजादी के युद्ध के सेनापति थे. चतुराई के बनिस्बत सत्य और अहिंसा का प्रयोग कर इतिहास में मौलिक जगह सुरक्षित कर ली है.

बनिया का चतुर व्यापार सामाजिक समझ के अनुसार असत्य और हिंसा पर टिका होता है. झूठ और हिंसा व्यापार के पैर होते हैं. व्यापार उनकी बैसाखी पर चलता है. यह बात अम्बानी, अदानी और मोदी तथा शाह जैसे कारपोरेटिये और उनके प्रोत्साहनकर्ता समझते होंगे. जनसेवा व्यापार नहीं है.

आजादी के बाद भविष्य को लेकर गांधी ने अपनी प्रार्थना सभाओं में बहुत कुछ कहा है. वे कांग्रेस के लिए फिक्रमन्द, उम्मीदजदा और ऊपरी तौर पर तटस्थ भी होते थे. एक पत्रकार ने उनसे 24 जुलाई 1947 की प्रार्थना सभा में पूछा कि ‘कांग्रेस तो सत्य और अहिंसा के रास्ते आजादी के लिए लड़ने का ऐलान करती रही. आजादी के बाद कांग्रेस क्या करेगी ?’

गांधी ने पहले कहा कि इसके बारे में कांग्रेस ही बता पाएगी. फिर खुलकर बोले ‘कांग्रेस का विनम्र सेवक होने के नाते मानता हूं कि हमने विद्रोह कर विदेशी हुकूमत को खत्म किया है. हम बाहरी तौर पर सत्य और अहिंसा के साथ रहे. हमारे अंदर हिंसा तो भरी थी. हमने पाखंड का भी इस्तेमाल किया. उससे तरह तरह की पारस्परिक तकलीफें हुईं. आज भी हमारा दृष्टिकोण युद्धपरस्त है. अगर इससे नहीं हटे तो बड़ा खतरा आएगा. यह 1857 के गदर की तरह हो सकता है. उस वक्त हिंदुस्तान में मुनासिब चेतना नहीं होने से 1857 का युद्ध केवल सिपाहियों तक सीमित रह गया. अंगरेजों को मारा गया, बाद में अंगरेजी सेना ने अपने विरोधियों को मार दिया.

गांधी ने कहा कि वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि देश का मौजूदा जीवन हिंसा से सना हुआ नहीं रहे. सैकड़ों हजारों ने देश की आजादी के लिए कुर्बानियां दी हैं. हम गफ़लत में रहे तो इंग्लैंड, रूस, अमेरिका या चीन कोई भी हमारे देश पर हमला कर हमें गुलाम बना सकता है. कौन चाहेगा कि आने वाले 15 अगस्त को हिंदू मुसलमान और सिक्ख आपस में लड़ते कटते रहें. बेहतर है कोई भूकंप ही आ जाए, हम सब उसमें समा जाएं.

गांधी ने कहा कांग्रेस पूरे भारत की पार्टी है. उसे देखना है कि हिन्दू, मुसलमान, पारसी और सभी धर्मों, जातियों के लोग सुखी रहें. मैं कतई नहीं कहना चाहता कि कांग्रेस केवल मुसलमानों को खुश करे या कायर बनी रहे. मैंने कायरता की पैरवी कभी नहीं की. बहादुरी के साथ शांति की स्थापना कांग्रेस का मुख्य कार्यक्रम होना चाहिए.

28 जुलाई, 1947 को गांधी ने फिर कहा- भारत का विभाजन दो सार्वभौम इलाकों का विभाजन है. मूल भारत को दो राष्ट्र क्यों समझा जाए. दोनों मुल्कों में कांग्रेस काम कर सकती है. भारत संघ के अंतर्गत कोई सामंती राज्य हो तो क्या वहां कांग्रेस काम नहीं करेगी ? कांग्रेस को बेहतर सियासी सूझबूझ, गम्भीर बहस मुबाहिसा और व्यावहारिक फैसले और हल ढूंढ़ने होंगे. उनकी उसे उसकी फिलहाल कल्पना भी नहीं होगी.

मुसलमानों ने भले ही अपना अलग राष्ट्र बना लिया है, लेकिन भारत हिन्दू इंडिया नहीं है. कांग्रेस केवल हिन्दुओं का संगठन नहीं बन सकती, जो करेंगे वे भारत और हिन्दू धर्म का नुकसान करेंगे. करोड़ों हैं जिनकी आवाज सुनी नहीं जाती. केवल शहरी वाचाल समझते हैं कि वे देश की अगुआई कर रहे हैं. वे उपेक्षित करोड़ों लोगों के प्रतिनिधि नहीं हैं.

हिंदुस्तान को रचने वाले मुसलमान कभी नहीं कहते कि वे भारतीय नहीं हैं. अपनी कमजोरियों के बावजूद हिंदू धर्म ने कभी नहीं कहा कि उसे बंटवारा चाहिए. कई धर्मों के मानने वालों ने मिलकर हिंदुस्तान बनाया है. वे सब भारतीय हैं. एक दूसरे को प्रताड़ित करने का किसी को अधिकार नहीं है. तलवार की जोर पर आजमाई ताकत के बदले सत्य की ताकत बड़ी होती है.

चिमनलाल एन शाह की शिकायत के कारण गांधी ने यूं ही अलबत्ता लिख दिया कि यदि कांग्रेस सड़ गई है तो उसका मर जाना ही बेहतर है. सड़ी चीजों की दुनिया में बदबू फैलाने की क्या ज़रूरत है ? 14 नवम्बर 1947 की प्रार्थना सभा में कांग्रेस से उपेक्षित गांधी ने कहा कांग्रेस स्वराज्य लाना चाहती थी, जो मिला वह स्वराज्य तो नहीं है. ऐसी हालत में इस संस्था को भंग कर दिया जाना चाहिए. हम सबको पूरी ताकत के साथ देश सेवा में लग जाना चाहिए.

जयप्रकाश नारायण में असीमित ताकत है लेकिन वे पार्टीबंदी के कारण आते नहीं हैं. देश को जहां मिले ऊर्जावान लोगों का लाभ लेना चाहिए. गांधी ने 18 नवम्बर, 1947 को डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद से बातचीत में कहा कि मौजूदा हालात में तो कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए या फिर बहुत ऊर्जावान व्यक्ति के नेतृत्व में जिंदा रखा जाना चाहिए.

यहां गांधी समग्र विचार के बाद कांग्रेस को भंग कर देने का निर्विकल्प प्रस्ताव नहीं रच रहे थे. जाहिर है कि वे कांग्रेस की लीडरशिप से पूरी तौर पर नाखुश थे. कांग्रेस के सत्ताधारी नेताओं के लिए गांधी की शख्सियत और शिक्षाओं का कोई मतलब नहीं रह गया था. गांधी कई त्रासदियों और यातनाओं को भोगने वाले लोगों को ढाढस बंधाकर मानो अपनी हत्या करवाने फिर दिल्ली आ गए थे.

मरने के एक पखवाड़े पहले गांधी ने 16 जनवरी, 1948 को एक पत्र में लिख दिया था कि कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है, इसी रूप में वह कायम रहेगी. उसे राजनीतिक सत्ता मिलेगी तो वह देश की कई पार्टियों में से केवल एक पार्टी कहलाएगी.

गांधी और कांग्रेस – 2

इतिहास यह बात हैरत के साथ दर्ज करेगा कि अपनी मौत के एक दिन पहले 29 जनवरी, 1948 को कांग्रेस संविधान का ड्राफ्ट लिखते जांचते गांधी ने फिर कहा था कि कांग्रेस को संविधान में शामिल किया जाए. कांग्रेस स्वयमेव खुद को भंग करती है तो वह लोकसेवक संघ के रूप में दुबारा जीवित होकर संविधान में लिखे बिंदुओं के आधार पर देश को आगे बढ़ाने के काम के प्रति प्रतिबद्ध होती है. यही प्रमुख और बुनियादी दस्तावेज है जिसे बीज के रूप में भविष्य की कांग्रेस के गर्भगृह में गांधी ने बोया था. वह बीज एक विशाल वृक्ष के रूप में गांधी की मर्यादा के अनुसार विकसित नहीं हो सका, यह बात अलग है.

बापू के जीवनीकार प्यारेलाल के ‘हरिजन’ के लेख के अनुसार 29 जनवरी को गांधी पूरे दिन कांग्रेस संविधान का प्रारूप तैयार करते रहे. बुरी तरह थक गए थे, फिर भी काम पर डटे रहे. उन्होंने आभा गांधी से कहा कि मुझे देर रात तक जागना पड़ेगा. 30 जनवरी की सुबह वह प्रारूप उन्होंने प्यारेलाल को दिया. प्यारेलाल से वापिस मिलने पर फिर सुधारा. 30 जनवरी की सुबह प्रारूप संविधान कांग्रेस पार्टी को दिया. आखिरकार वह प्रारूप पार्टी के महासचिव आचार्य जुगलकिशोर ने 7 फरवरी 1948 को जारी किया था.

किसी कथन को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए शब्दार्थ, निहितार्थ, संदर्भ, समझ और सूचनात्मक ज्ञान का समुच्चय ज़रूरी है. मंतव्य साफ है. एक जीवित संगठन के रूप में कांग्रेस की उपयोगिता नहीं रह गई थी इसलिए क्या गांधी ने कांग्रेस को खत्म कर देने की सलाह दी थी ? गांधी ने दरअसल यह सलाह एक कालजयी दस्तावेज के अनुसार कांग्रेस के इच्छापत्र के रूप में रच दी थी.

दक्षिणपंथी राजनेताओं के लिए गांधी राजनीति का अनपच हैं. वे जानते हैं गांधी ने उन्हें कम से कम तीस चालीस बरस सत्ता में आने से रोक रखा था. मरने के बाद भी गांधी के कारण 1967 तक गैरकांग्रेसवाद फलाफूला नहीं था. गांधी ने सांस्कृतिक धार्मिक रूपक प्रतीक बल्कि रूढ़ियां भी सहेज रखी थी. अपनी सयानी बुद्धि के तहत गांधी ने कांग्रेस के फकत मौजूदा स्वरूप को ही तिरोहित करने की बात कही थी. यदि भंग करने कहते तो गांधी के राजनीतिक फलसफे से ही मुठभेड़ करनी पड़ती.

कांग्रेस को समाप्त करने के अपने भावुक आग्रहों में गांधी ने सलाहें नहीं थोपी, कांग्रेस से आत्ममंथन करने कहा. लोग कई बार मरने की दुआ मांगते हैं लेकिन मुकम्मिल तौर पर जीना चाहते हैं. गांधी भी यही ठनगन करते रहते हैं. गांधी के अनुसार किसी मुद्दे पर उनकी आखिरी बात ही सच मानी जाए. इस लिहाज से देखना होगा गांधी ने कांग्रेस को भंग करने को लेकर आखिरी तीर क्या चलाया था ?

गांधी कांग्रेस में कब रहते थे, कब छोड़ देते थे ? आखिरी के दो तीन वर्षों में कांग्रेस से अलग थलग गांधी की सलाह बाहरी व्यक्ति की थी. वे खिन्न थे, उदास थे, पराजित और थका हुआ भी महसूस करते थे. नेहरू-पटेल युति ने देश और कांग्रेस को सम्हाल लिया था. फिर भी अपनी हत्या के एक दिन पहले गांधी कांग्रेस के संभावित संविधान के बीज रूप का विन्यास समर्पण के साथ कर रहे थे.

उस संक्षिप्त दस्तावेज में गांधी ने स्वाभाविक ही कांग्रेस की इच्छा पर छोड़ा कि वह खुद का शरीर छोड़कर अपनी आत्मा को लोकसेवक संघ जैसे किसी संगठन की देह में प्रत्यारोपित या अंतरित कर दे. गांधी के बहुत से विचार व्यावहारिक नहीं होते थे वरना गांधी सरकारी कार्यक्रमों में शिरकत करते पाए जाते. गांधी नाम, सर्वनाम, विशेषण, समास सभी कुछ होकर भारतीय याद घर में किसी के शकुन तो किसी के अपशकुन की आंख बनकर फड़कते रहते हैं.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी अपने किसी भी केवल एक बुजुर्ग का वसीयतनामा नहीं हो सकती थी. इतनी बौद्धिक क्षमता, नीयत और समय हो कि बीसवीं सदी के शुरुआती इतिहास की पड़ताल करें, तो गांधी से अभिभूत होना पड़ जाएगा.

गांधी को जिन्ना ने भी बनिया कहा था. फलितार्थ यह था कि गांधी बंटवारे के हर सौदे में हानि लाभ का जोखिम देखते थे. चर्चिल ने उन्हें अधनंगा फकीर कहा था. उसमें वस्त्रहीनता पर कटाक्ष नहीं, फकीरी की आड़ में अंग्रेज को निपटाने वाले सूरमा के लिए वीर समर्थन का भाव था. शाह की वक्रोक्ति से गांधी के लिए प्रशंसा का निर्झर नहीं बहता. वह गांधी को कुनबापरस्त कांग्रेसी बुजुर्ग होने तक सीमित करता है. इसीलिए तो गांधी को मोदी सरकार ने सुलभ शौचालय का प्रहरी ही बनाया है। उनके रचनात्मक कार्यक्रम का ककहरा भी सरकार नहीं पढ़ती. सियासत का लिटमस कागज नीला से लाल हो जाए तो गांधी और लाल से नीला हो जाए तो गोडसे की फिल्म चलने लगती है.

बनिया सम्बोधन तो बीत चुके व्यापार युग की कौंध है. काॅरपोरेटियों के चंदे, दोस्ती, मार्गदर्शन, दबाव और रिटर्न गिफ्ट के चलते मोदी शासन गांधी और बनिया जैसे सम्बोधनों की युति को इतिहास का कूड़ा ही तो बना रहा है. वह गांधी को राष्ट्रऋषि, हर हर गांधी, आइकाॅन, बाॅस, गांधी इज़ इंडिया वगैरह तो कहने से रहा. वह नहीं जानता गांधी फीनिक्स पक्षी हैं, देह जल जाने के बाद राख को फूंक मारने से वे पुनर्जीवित हो जाते हैं.

पिछली पीढ़ी का असम्मान बल्कि उपहास वैश्विक बाजार का ताजा फंडा है. मौजूदा शासन उसका बोनस लेते रहने को आतुर है. गांधी को बीत गए इतिहास का हाशिया समझकर मदनमोहन मालवीय, सरदार पटेल, सुभाष बोस आदि के मुकाबले परास्त कर संघ विचार अपने कुल पूर्वजों की अप्रतिष्ठा को कैशलेस स्मृतियों और इतिहास के बैंक में जमा रखने को आतुर है. गांधी आंख की किरकिरी हैं. उसकी दवा रामदेव के योगासन में भी नहीं मिलती.

गांधी की देह गंध दलितों में सूंघने से मौजूदा शासकों को घिन भी होने लगती. वह दलितों की हत्या और बलात्कार में भी बदलती रहती है. इसलिए गांधी को दलित, आदिवासी, सेक्युलर, धर्मनिष्ठ प्रतिनिधि भारतीय भूमिका से बेदखल कर बिका हुआ मीडिया बार बार इस मुद्दे को उछालता रहेगा. कहेगा गांधी को बनिया तो भी कहने में क्या बुरा है ?

किसान आंदोलन में गांधी – 1

भारत का यह किसान आंदोलन राष्ट्रीय पर्व की तरह याद रखा जाएगा. वह अवाम के एक प्रतिनिधि अंश का आजादी के बाद सबसे बड़ा जनघोष हुआ है, उसमें सैकड़ों किसानों की मौतें (शहादतें) हो चुकी हैं. वह लाखों करोड़ों दिलों का स्पंदन गायन बना है. वह ईंट दर ईंट चढ़ते इरादों की मजबूत दीवार की तरह है. पुलिस-किसान भिड़ंत की कुछ हिंसक होती घटनाओं के कारण आन्दोलन स्थगित या रद्द हो भी जाए तो अहिंसा की सैद्धांतिकी से भी क्या उसे कोई नया मुकाम मिलेगा ?

चौरीचौरा की घटनाओं के कारण गांधी ने आंदोलन वापस लिया था. उनकी बहुत किरकिरी की गई थी. 1942 में तो उससे कहीं ज़्यादा हिंसा हुई, फिर भी भारत छोड़ो आंदोलन हिंसा की सामाजिकी का इतिहास विवरण अंगरेज द्वारा भी नहीं कहा जाता. उसमें केन्द्रीय भाव के रूप में अहिंसा ही अहिंसा गूंजती है. आज उसके अनुपात में सरकार और मीडिया कैसे कह सकते हैं कि किसान आंदोलन का चरित्र हिंसक हुआ है ? रामचरितमानस में क्षेपक कविता का मूल पाठ नहीं है.

इस सिलसिले में गांधी का नाम बहुत तेजी से उभरा है. कुछ को मलाल है किसान आंदोलन पूरी तौर पर गांधीजी की अहिंसा की बैसाखी पर चढ़कर क्यों नहीं किया गया ? कुछ का कहना है आंदोलन का भविष्य गांधी की अहिंसा के लिटमस टेस्ट के जरिए ही आंका जा सकता है. कुछ का पूछना है इस पूरे आंदोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि और सरकार के भी आचरण में गांधी रहे भी हैं क्या ?

असल में दुनिया के सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन के जन्मदाता और प्रतीक गांधी मौजूदा निजाम की वैचारिकता द्वारा खारिज और अपमानित कर दिए जाने के बाद भी भले लोगों के लिए टीस या कभी कभी उभरते अहसास और सरकारों के लिए असुविधाजनक परेशानदिमागी बनकर वक्त के बियाबान को भी इतिहास बनाने अपनी दस्तक देते रहते हैं. मौजूदा निजाम-विचार ने तो उन्हें अपमानित करने की गरज से सफाई और स्वच्छता का रोल माॅडल बनाकर शौचालय के दरवाजे पर चस्पा कर दिया है

गांधी की पार्टी और राजनीतिक वंशज उनका नाम भूल गए, भले ही उनके उपनाम से आज तक अपनी दूकान चला रहे हैं. कभी नहीं कहा था महात्मा ने कि लिजलिजे, पस्तहिम्मत, कायर और हताश लोगों के जरिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा सकता है. यह भी नहीं कहा था अपने से कमजोर के लिए मन में खूंरेजी, नफरत और हथियारी ताकत लेकर अट्टहास करने वालों के जरिए की जा रही प्रतिंहिंसा को अहिंसा कह दिया जाए.

कुछ किताबी बुद्धिजीवी, समझदार नागरिक और गांधी की तात्विकता को समझने वाले भले लोग नैतिक रूप से सही कह रहे हैं कि किसान आंदोलन की सद्गति गांधी की आत्मा की रोशनी के बिना अपने वांछित मुकाम या हर पड़ाव तक पहुंचने में दिक्कत का अनुभव करेगी. इस सैद्धांतिक सीख की आड़ और समझ के गुणनफल के हासिल के रूप में यह सहानुभूतिपूर्ण समझाइश गूंजी है कि किसानों को संसद के बाहर धरना या प्रदर्शन करने का इरादा स्थगित कर देना चाहिए.

यह भी कि किसान संगठनों को प्रायश्चित्त और मलाल में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे झंडे के बावजूद अन्य झंडा फहराने के आरोप के कारण उपवास या अनशन करना चाहिए. ईमानदार, उत्साही और अतिरिक्त सुझाव यह भी है कि फिलहाल आंदोलन को ही स्थगित कर देना चाहिए. ऊहापोह की ऐसी स्थितियों के संदर्भ और गर्भ में इतिहास की कुलबुलाहट है कि इन सबमें गांधी कहां हैं ?

‘जयश्रीराम‘ के बदले ‘रामनाम सत्य है‘ या ‘हे राम‘ का उच्चारण वाले अहिंसाभक्त गांधी की याद करने की क्या मजबूरी है ? गांधी के जीवित रहते संविधान सभा और बाद में भी न केवल उनकी अनदेखी की गई बल्कि उन पर अपमानजनक टिप्पणियां की गईं. गांवों पर आधारित गांधी का हिंदुस्तान जाने कब से भरभरा कर गिर पड़ा है. गांवों पर दैत्याकार महानगर उगाए जा रहे हैं. उन्हें अंगरेजी की चाशनी में ‘स्मार्ट सिटी‘ का खिताब देकर किसानों से उनकी तीन फसली जमीनों को भी लूटकर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के नाम पर अंबानी, अडानी, वेदांता, जिंदल, मित्तल और न जाने कितने काॅरपोरेटियों को दहेज या नज़राने की तरह तश्तरी पर रखकर हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है.

मौजूदा निजाम चतुर कुटिलता का विश्वविद्यालय है. उसकी विचारधारा के प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या करने के बावजूद अपनी कूटनीतिक सयानी बुद्धि में समझ रखा है कि फिलहाल इस अहिंसा दूत को उसके ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग‘ के मुकाबले ‘झूठ के साथ मेरे प्रयोग‘ जैसी नई थ्योरी बनाकर धीरे धीरे अपमानित किया जाए. उसे देश और दुनिया की यादों के तहखाने से ही खुरचा जा सके, फिर धीरे धीरे जनता के स्वायत्त जमीर को दीमकों की तरह चाट लिया जाए. फिर हिंसा के खुले खेल में ‘जयश्रीराम‘ को बदहवास नारा बनाते विपरीत विचारधाराओं को रावण के वंश का नस्ली बताया जाए. दल बदल का विश्व कीर्तिमान बनाकर सभी दलों से नर पशुओं को खरीदा जाए. ईवीएम की भी मदद से संदिग्ध चुनावों को लोकतंत्र की महाभारत कहा जाए.

सदियों से पीड़ित, जुल्म सहती, अशिक्षित, गरीब, पस्तहिम्मत जनता को कई कूढ़मगज बुद्धिजीवियों, मुस्टंडे लेकिन साधु लगते व्यक्तियों से अनैतिक कर्मों में लिप्त कथित धार्मिकों के प्रभामंडल के जरिए वैचारिक इतिहास की मुख्य सड़क से धकेलकर अफवाहों के जंगलों या समझ के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए. भारत के अतीत से चले आ रहे राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, चैतन्य, दादू, कबीर, विवेकानन्द, गांधी, दयानन्द सरस्वती, पेरियार, फुले दंपत्ति, रैदास जैसे असंख्य विचारकों के जनपथ को खोदकर लुटियन की नगरी बताकर अपनी हुकूमत के राजपथ में तब्दील कर दिया जाए.

मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर और औरंगजेब रोड नाम हटाकर या इलाहाबाद को प्रयागराज कहकर सांप्रदायिक नफरत को भारत का नया और पांचवां वेद बना दिया जाए, फिर भी कुछ लोग हैं जो आज गांधी की मरी मरी याद कर रहे हैं.

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