हिंदू और मुसलमान दोनों एक हज़ार वर्षों से हिंदुस्तान में रहते चले आये हैं. लेकिन अभी तक एक-दूसरे को समझ नहीं सके. हिंदू के लिए मुसलमान एक रहस्य है और मुसलमान के लिये हिंदू एक मुअम्मा (पहेली). न हिंदू को इतनी फुर्सत है कि इस्लाम के तत्वों की छानबीन करे, न मुसलमान को इतना अवकाश है कि हिंदू-धर्म-तत्वों के सागर में गोते लगाये. दोनों एक दूसरे में बेसिर-पैर की बातों की कल्पना करके सिर-फुटौव्वल करने में आमादा रहते हैं.
हिंदू समझता है कि दुनियाभर की बुराइयां मुसलमानों में भरी हुई हैं : इनमें न दया है, न धर्म, न सदाचार, न संयम. मुसलमान समझता है कि हिंदू, पत्थरों को पूजने वाला, गर्दन में धागा डालने वाला, माथा रंगने वाला पशु है. दोनों बड़े दलों में जो बड़े धर्माचार्य हैं, मानो द्वेष और विरोध ही उनके धर्म का प्रधान लक्षण है.
हम इस समय हिंदू-मुस्लिम-वैमनस्य पर कुछ नहीं कहना चाहते. केवल ये देखना चाहते हैं कि हिंदुओं की, मुसलमानों की सभ्यता के विषय में जो धारणा है, वह कहां तक न्यायी है.
जहां तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महत्ता नहीं दी, जितनी इस्लाम ने दी है. इस्लाम धर्म की बुनियाद न्याय पर रखी गयी है. वहां राजा और रंक, अमीर और गरीब के लिए केवल एक न्याय है. किसी के साथ रियायत नहीं, किसी का पक्षपात नहीं. ऐसी सैकड़ों रवायतें पेश की जा सकती हैं जहां बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली अधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल पर विजय पायी है. ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं है जहां बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेग़म, यहां तक कि स्वयं को भी न्याय की वेदी पर होम कर दिया.
हज़रत मोहम्मद ने धर्मोपदेशकों को इस्लाम का प्रचार करने के लिए देशांतरों में भेजते हुए उपदेश दिया था : जब लोग तुमसे पूछें कि स्वर्ग की कुंजी क्या है, तो कहना कि वह ईश्वर की भक्ति और सत्कार्य में है.
जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्यूब तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फहराता था, मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी नहीं रखती थी. बड़े-बड़े राज्य-पदों पर ग़ैर मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी.
महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे. इस पद के लिए केवल योग्यता और विद्वता ही शर्त थी, धर्म से कोई संबंध नहीं था. प्रत्येक विद्यालय के द्वार पर ये शब्द खुदे होते थे : पृथ्वी का आधार केवल चार वस्तुएं हैं – बुद्धिमानों की विद्वता, सज्जनों की ईश प्रार्थना, वीरों का पराक्रम और शक्तिशालियों की न्यायशीलता.
मुहम्मद के सिवा संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवा किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया हो ? मुहम्मद के बनाये हुए समाज में बादशाह का स्थान ही नहीं था. शासन का काम करने के लिए केवल एक ख़लीफा की व्यवस्था कर दी गयी थी, जिसे जाति के कुछ प्रतिष्ठित लोग चुन लें. इस चुने हुए ख़लीफा को कोई वजीफ़ा, कोई वेतन, कोई जागीर, कोई रियासत न थी. यह पद केवल सम्मान का था.
अपनी जीविका चलाने के लिए ख़लीफ़ा को भी दूसरों की भांति मेहनत-मज़दूरी करनी पड़ती थी. ऐसे-ऐसे महान पुरुष, जो एक बड़े साम्राज्य का संचालन करते थे, जिनके सामने बड़े-बड़े बादशाह अदब से सिर झुकाते थे, वे जूते सिलकर या कलमी किताबें नक़ल करके या लड़कों को पढ़ाकर अपनी जीविका अर्जित करते थे.
हज़रत मुहम्मद ने स्वयं कभी पेशवाई का दावा नहीं किया, खज़ाने में उनका हिस्सा भी वही था, जो एक मामूली सिपाही का था. मेहमानों के आ जाने के कारण कभी-कभी उनको कष्ट उठाना पड़ता था, घर की चीज़ें बेच डालनी पड़ती थी. पर क्या मजाल कि अपना हिस्सा बढ़ाने का ख्याल कभी दिल में आए.
जब नमाज़ पढ़ते समय मेहतर अपने को शहर के बड़े-से-बड़े रईस के साथ एक ही कतार में खड़ा पाता है, तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगें न उठने लगती होंगी. इस्लामी सभ्यता को संसार में जो सफलता मिली वह इसी भाईचारे के भाव के कारण मिली है.
(इस्लामी सभ्यता पर मुंशी प्रेमचंद का यह लेख सबसे पहले 1925 में ‘प्रताप’ में प्रकाशित हुआ था.)
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