केन्द्र की मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर और उसकी जनता समेत देश के हर सवाल पर अपना मूंह सील लिया है. उसे न तो देश की जनता से कोई मतलब है और न ही उसकी किसी भी समस्याओं से ही. खुले तौर पर उसकी एकमात्र जवाबदेही है अंबादानी का जूता चाटना और कॉरपोरेट घरानों की सेवा में खुद को समर्पित कर देना, जिसका नजारा सारी दुनिया ने पिछले दिनों राकेश झुनझुनवाला के जूतों को चाटते नरेन्द्र मोदी को देखा है.
बहरहाल, कनुप्रिया लिखती है, कश्मीर फिर अशांत हो गया. 370 हट गई, लॉक डाउन हो गया. दुनिया भर के पत्रकारों पर रोक लगा दी, कश्मीरी नेताओं को साल भर क़ैद रखा, क्या हुआ ? कश्मीरियों की कमाई मुख्यतः टूरिज़्म पर टिकी होती है. फिर भयंकर ठंड पड़ती है तब इसी कमाई पर गुज़ारा चलता है. उनके टूरिस्ट महज एक उनके धर्म के ही नहीं होते, हर धर्म के लोग जाते हैं वहां.
उनकी रोज़ी रोटी इन टूरिस्टों से चलती है इसलिये उनका धार्मिक यक़ीन कुछ भी हो वो बेहतरीन मेहमान नवाज़ होते हैं. उनका धार्मिक ईश्वर कोई हो वो अपने कंधों पर टूरिस्टों को लादकर उन टूरिस्टों के धर्म की यात्राएं करवाते हैं क्योंकि ईश्वर का स्थान भी भूख के बाद है, इसलिये मेरी सामान्य बुद्धि में ये बात घुसती नहीं कि आतंक से आम कश्मीरियों को क्या लाभ होता है सिवा पेट पर लात पड़ने के ?
घाटी में आतंक रोकने की जिम्मेदारी किसकी है ? लोग कहते हैं, पहले नहीं था, मगर अब तो कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया न ? क्या कश्मीर के साथ और उसकी जनता के साथ अब भी दोगला व्यवहार किया जाएगा ? आतंक की जिम्मेदारी प्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों और अप्रत्यक्ष रूप से घाटी के सर ही मढ़ी जाएगी ? क्या सेना की गुप्तचर सेवा में कमी है ?
सुना है कि बिन्द्रू की हत्या का अंदेशा पहले ही था. क्या सीमा पर घुसपैठ से सुरक्षा की कमी है ? क्या वहां चप्पे चप्पे पर सेना नहीं है ? क्या हथियारों की ख़रीद में कमी है ? या भारत सरकार ने सख़्ती में कोई कमी कर दी ?
एक मूवी देख रही थी. उसमें एक अमेरिकी जो कभी इराक़ में तैनात था अपना अनुभव बताते हुए कहता है कि जब तक हमारी पलटन वहां थी, एक भी अमेरिकी सैनिक नहीं मरा, फिर जब हम वापस आ गए और हमारी जगह नए सैनिक पहुंचे तो उन्होंने हमसे राय लेने की ज़रूरत नहीं समझी और एक महीने में 7 सैनिक शहीद हो गए. क्या अंतर था ? हमने लोकल लोगों के साथ भरोसे और सहयोग का रिश्ता क़ायम किया था, जबकि उन्होंने हथियार और बल पर ज़्यादा यक़ीन किया.
एक महाशय लिख रहे थे ‘वेश्या के कोठे से गया बीता है सेकुलर कोठा. कश्मीरी हिंदू सिखों के लिये उनके भीतर कोई दर्द नहीं, देखें राहुल अब कश्मीर के हिन्दू सिखों को गले लगाने जाते हैं या नहीं.’ ऐसे लोगों को अब जवाब देने का मन नहीं करता, तुरन्त अमित्र किया.
मज़ेदार बात है कि सिखों के लिये दर्द महसूस करने वाले ये लोग पूरे किसान आंदोलन को महज इसलिये खालिस्तानी कहते हैं कि उनमें सिख हैं. कश्मीरी पंडितों के दर्द का इन्होंने ही ठेका लिया हुआ है, जबकि पिछली बार कश्मीरी पंडितों के पलायन के समय भाजपा के जगमोहन ही राज्यपाल थे और अब जब पलायन हो रहा है तब सब कुछ इन्हीं के कंट्रोल में है.
कभी कभी ये भी लगता है कि पाक समर्थक आतंकवादियों का भारत सरकारों से कोई अनकहा गठजोड़ है, हमेशा मौके पर ही चौका मारते हैं, जिसका फ़ायदा उन्हें तो जाने क्या मिलता है कभी समझ नहीं आया, मगर सीधा फ़ायदा यहां की धार्मिक राजनीति को ज़रूर होता है.
कोविड की चिताएं ठंडी हो चुकी हैं. अब कश्मीर से बह रही हवा उत्तरप्रदेश की धार्मिक भावनाओं के शोलों को फिर जगाने काम आएगी. हरियाणा में फिर से रौंदे गए किसानों का ज़िक्र अख़बारों में नहीं है. उत्तरप्रदेश सुर्खियों से ग़ायब है. उसकी जगह फिर से कश्मीर ने ले ली है. उत्तरप्रदेश का चुनाव कश्मीर जितवा सकता है, आख़िर भारत एक है.
वहीं रविश कुमार लिखते हैं, जम्मू कश्मीर में क्या हो रहा है, यह जानना होगा तो आप किसी न किसी से पूछेंगे. सेना और पुलिस के बयान से किसी घटना की जानकारी मिलती है लेकिन राजनीतिक तौर पर कश्मीर के भीतर क्या हो रहा है इसकी आवाज़ तो उन्हीं से आएगी जिनकी जवाबदेही है. इतना कुछ हो रहा है फिर भी कश्मीर पर कोई विस्तृत प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं है.
इसके अलावा बाकी के पारंपरिक रास्ते या तो बंद हो चुके हैं या कमज़ोर कर दिए गए हैं जैसे राजनीतिक दल, नागरिक संगठन, NGO और मीडिया. 5 अगस्त 2019 को धारा 370 की समाप्ति के बाद इन सभी की हालत पर आप गौर कर लेंगे तो पता चलेगा कि कश्मीर पर जानने के लिए आपके पास गोदी मीडिया ही है जो कि ख़ुद नहीं जानता कि वहां क्या हो रहा है.
धारा 370 की समाप्ति के दो साल से भी अधिक समय हो चुके हैं, न तो राज्य की बहाली हुई है और न ही राजनीतिक प्रक्रिया को लेकर ठोस पहल. जिसकी बहाली के लिए दिल्ली में 24 जून को दिल्ली में कश्मीर के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री ने बैठक भी की. इस बैठक में कश्मीरी पंडितों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था, न उनका ज़िक्र हुआ था.
बैठक के करीब चार महीने बाद भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली किस हद तक आगे बढ़ी है यह तो सरकार बताएगी, जब भी बताएगी. इस बैठक में शामिल दलों ने कुछ समय के बाद इसे फोटोबाज़ी कहना शुरू कर दिया. बेनतीजा बताना शुरू कर दिया.
इस ऐतिहासिक बैठक के बाद कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं हुई और न बाद में हुई जिससे पता चलता है कि इससे निकला क्या. बैठक में भाग लेने वालों ने उनसे धारा 370 की बहाली की मांग की थी. सरकारी बयान में लिखा था कि प्रधानमंत्री ने इस बात को लेकर प्रसन्नता ज़ाहिर की कि सभी लोकतंत्र को लेकर प्रतिबद्ध हैं.
दो साल से अधिक समय हो गया, जम्मू कश्मीर को न तो राज्य का दर्जा वापस मिला है और न ही वहां चुनाव हो सके हैं. घाटी में नया नेतृत्व पैदा करने के लिए विकास परिषद का चुनाव तो हुआ लेकिन इस वक्त तथाकथित उस नए नेतृत्व से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही है.
इन हालात से निपटने की पूरी प्रक्रिया में कश्मीर में सक्रिय क्षेत्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की कोई भागीदारी नहीं दिखती है. प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में कहा कि भारत लोकतंत्र की ‘मां’ है. इंग्लिस में ‘मदर’ है.
नज़ीर मसूदी की एक पुरानी रिपोर्ट का हिस्सा यह समझने में आपकी मदद करता है कि धारा 370 की समाप्ति के बाद पत्रकारों को किन हालात से गुज़रना पड़ा. एक सेंटर में आकर उन्हें अपनी रिपोर्ट फाइल करनी होती थी. तब हिन्दी प्रदेश के दर्शकों पाठकों ने कोई परवाह नहीं की कि कश्मीर के बारे में हम जानेंगे कैसे. इंटरनेट बंद रहा, पत्रकार काम नहीं करेंगे. आर्थिक गतिविधियां और इंटरनेट बंदी से पत्रकारों की नौकरी चली गई. कई पत्रकार मारे भी गए और कई पर UAPA भी लगा. कश्मीर में विकास की गंगा बह रही है इसकी जानकारी मंत्रियों के बयान से ही मिलती है.
इस हालात को आप जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के एक फैससे से समझ सकते हैं जो 26 अगस्त 2021 को आया था. हाईकोर्ट ने कहा कि ‘प्रेस की आवाज़ दबाने के लिए FIR एक मॉडल बन गया है.’ 19 अप्रैल 2018 को जम्मू के अखबार अर्ली टाइम्स में पत्रकार आसिफ़ इक़बाल नायक ने पुलिस हिरासत में टार्चर पर एक रिपोर्ट छाप दी तो चार हफ्ते बाद पुलिस ने पत्रकार पर ही केस कर दिया कि इक़बाल नायक लोगों को सड़क रोकने और सरकारी सम्पत्ति को नुक़सान पहुंचाने के लिए उकसा रहे थे.
जस्टिस रजनीश ओसवाल ने कहा कि पुलिस ने आसिफ़ को चुप कराने का एक नायाब तरीक़ा निकाला जो कि नि:संदेह प्रेस की आज़ादी पर हमला है. जस्टिस ओसवाल ने ये भी कहा कि जिन धाराओं के तहत FIR की गई उसका केस ही नहीं बनता है.
तो कश्मीर में क्या हो रहा है आपके पास जानने के रास्ते या तो बंद हैं या फिर बहुत कम हैं. इसी तरह कश्मीर से बाहर भी आप जानकारी के नाम पर प्रोपेगंडा ही जानते हैं, पत्रकारिता की क्या हालत जानते हुए भी.
अक्टूबर के पहले हफ्ते में कश्मीरी पंडित मोहन लाल बिंद्रू की हत्या के बाद कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया तो बहस इस दिशा में चली कि कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जा रहा है. जल्दी ही तथ्य सामने आने लगे कि पिछले कुछ दिनों में आतंकियों ने जो हत्याएं की हैं उनमें ज्यादातर कश्मीर के स्थानीय मुसलमान हैं तो बहस कन्फ्यूज हो गई. जब प्रवासी मज़दूरों की हत्या की खबरें आने लगीं तब बहस ठंडी ही हो गई.
उधर सरकार के लिए सब कुछ इतना सामान्य है कि वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल कश्मीर के दौरे पर हैं और अमित शाह कश्मीर की जगह पोर्ट ब्लेयर के दौरे से दिल्ली लौटे हैं. प्रधानमंत्री धारा 370 की समाप्ति के बाद कश्मीर नहीं गए.
नजीर मसूदी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सेना और पुलिस दोनों ने खंडन किया है कि सुरक्षा कारणों से प्रवासी मज़दूरों को रक्षा कैंपों में रखने का कोई ऐलान नहीं हुआ है लेकिन एक तस्वीर कुछ और कह रही है. एक कमरे में जमा सारे मज़दूर प्रवासी हैं जो आतंकी हमलों को लेकर चिन्तित हैं, आज तक इन्हें आतंकवादियों ने निशाना नहीं बनाया.
हर साल बिहार, यूपी और बंगाल से दो तीन लाख प्रवासी मज़दूर कश्मीर के बागों में काम करने आते थे. कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम करते थे. जब से आतंकियों ने राजा ऋषिदेव, सगीर अहमद, जोगिंदर, अरविंद कुमार शाह, वीरेंद्र पासवान की हत्या की है प्रवासी मज़दूरों का भरोसा हिल गया है. इस बार वहां से केवल कश्मीरी पंडित ही नहीं प्रवासी मज़दूर भी जान बचाने के लिए पलायन करते देखे जा रहे हैं.
वहां की दो मस्जिदों में कहा गया कि ऐसा कुछ न करें जिससे कश्मीरी पंडितों का भरोसा हिल जाए, जिसका कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति ने स्वागत भी किया. इन घटनाओं से गोदी मीडिया और आईटी सेल को हिन्दू मुस्लिम एंगल देने में मदद नहीं मिली.
इस साल जनवरी में आतंकवादियों ने पंजाबी खत्री सतपाल निश्चल की हत्या कर दी. उसके बाद मशहूर कृष्णा ढाबा के मालिक के बेटे आकाश मेहरा की हत्या हुई. आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने राज्य सभा में सवाल पूछा था कि क्या जम्मू कश्मीर में आम लोगों की हत्या हो रही है ? मार्च महीने में सरकार ने इसके जवाब में कहा कि आतंकियों ने 2019 में 39 लोगों की हत्या की है और 2020 में 37. इस साल भी आतंकियों ने 32 लोगों की हत्या की है जिनमें से 22 मुसलमान हैं.
शुरू में पुलिस प्रमुख ने कहा था कि कश्मीरी पंडित की हत्या कर सांप्रदायिक तनाव पैदा करना चाहते हैं लेकिन हर दिन की खबर बता रही है कि आतंकियों के निशाने पर सभी हैं. लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा कह रहे हैं कि आम लोगों की हत्या का बदला लिया जाएगा लेकिन यहां सवाल आम लोगों की सुरक्षा का भी है. उनमें भरोसा पैदा करना होगा.
लेकिन पुंछ में 11 अक्टूबर से आतंकवादियों और सेना के बीच चल रहा एनकाउंटर कुछ और कह रहा है. इतना लंबा एनकाउंटर कभी नहीं चला. इन 11 दिनों में आतंकियों ने सेना के दो अफसरों सहित 9 जवानों की हत्या कर दी लेकिन एक भी आतंकी सेना के हाथ नहीं आया. इसी 28 जुलाई को केंद्र सरकार राज्य सभा में कह रही थी कि 2019 की तुलना में 2020 में आतंक की घटनाएं 59 फीसदी कम हो गई हैं.
जून 2020 तक की घटनाओं से तुलना करें तो जून 2021 तक आतंकी घटनाओं में 32 प्रतिशत की कमी हो गई है. लेकिन पुंछ में मामला डेटा का नहीं है, इसका है कि आतंकी कैसे इतनी तैयारी से यहां जम गए. 90 के हालात से तुलना की जा रही है लेकिन यह 90 नहीं है, 2021 है और एक सरकार है जो कभी नोटबंदी तो कभी धारा 370 से आतंक के सफाये का एलान करती रहती है. 90 के हालात की बात करना इस सरकार की तमाम क्षमताओं पर भी सवाल करना है जो सुरक्षा के मामले में बढ़चढ़कर दावे करती रहती है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गृह मंत्री अमित शाह को नहीं, प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को फोन कर रहे हैं. यह बताने की ज़रूरत नहीं कि लेफ्टिनेंट गवर्नर केंद्र का प्रतिनिधि भर होता है. बिहार में विपक्षी दल मांग कर रहे हैं कि सरकार कश्मीर से आ रहे मज़दूरों को काम और मुआवज़ा दे.
मज़दूरों के लौटने से कश्मीर के लोग भी चिन्तित हैं. उन्हें पता है कि इससे वहां के कारोबार पर क्या असर पड़ेगा. जम्मू कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष रवींद्र रैना का बयान ट्विटर पर मिला. रैना मजदूरों से कह रहे हैं कि ‘वे वापस न जाएं. सरकार आतंकियों का सफाया कर रही है जिससे आतंकी संगठन बौखलाए हुए हैं. सरकार उनका मुंहतोड़ जवाब दे रही है.’
रवींद्र रैना की इस बात पर घाटी से चले आने वाले कश्मीरी पंडितों को कम भरोसा है इस बार. अब प्रवासी मज़दूर लौट रहे हैं. कश्मीर की समस्या के बारे में पाले खींचने से पहले उसे गहराई से समझने का प्रयास कीजिए पता चलेगा कि नारों से समस्याएं दूर नहीं होती हैं.