पिछले दिनों हरिद्वार के गांव रौशनाबाद में भारतीय हॉकी टीम की शानदार खिलाड़ी वंदना कटारिया के घर के आगे कुछ हुड़दंगबाज़ पटाखे चलाते हैं, नंगा होकर नाचते हैं और जातिसूचक गालियां निकालते हैं. उनका कहना था कि टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम की सेमीफ़ाइनल में हार की वजह दलित खिलाड़ी थे.
कुछ दिन पहले पंजाब के जीदा गांव की एक वीडियो सामने आती है, जिसमें गांव के कुछ ख़ुद बने जज गांव की चौपाल में कुछ व्यक्तियों को बेरहमी से डंडों के साथ पीट रहे हैं. पीटे जाने वालों पर तार की चोरी का इल्ज़ाम है.
इन्हीं दिनों सिरसा ज़िले के एक गांव की दलित परिवार की 9वीं में पढ़ने वाली लड़की अगवा होती है, जिसकी गली-सड़ी लाश 5 दिनों बाद खेतों में से मिलती है. दिल्ली के एक शमशानघाट में एक 9 साल की बच्ची को सामूहिक बलात्कार के बाद जला दिया जाता है, जो वहीं मंदिर के सामने मांगकर गुज़ारा करने वाली दलित औरत की बेटी थी.
ऊपर जिन चार ख़बरों का उल्लेख किया गया है, ज़्यादातर लोग ऐसी ख़बरें सुनने के आदी हो गए हैं लेकिन इन सारी घटनाओं में एक साझा बात यह है कि पीड़ित पक्ष का संबंध तथाकथित निचली जातियों के साथ है. बेशक हमारे देश में तथाकथित उच्च जातियों द्वारा किया जाने वाला दमन कोई नया सिलसिला नहीं है लेकिन मोदी के कार्यकाल में दलितों, अल्पसंख्यकों (ख़ासकर मुसलमानों) और औरतों पर हमलों में तेज़ी आई है.
ऐसी घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार व्यक्तियों को आम तौर पर ताक़तवर राजनीतिक लोगों की शह भी हासिल होती है लेकिन चिंताजनक बात यह है कि पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं, पुलिस प्रशासन और अफ़सरशाही का अपराधी क़िस्म के लोगों के साथ एक क़िस्म का नापाक़ गठजोड़ बन गया है.
अपराधी आम तौर पर बड़े से बड़ा गुनाह करके भी साफ़ बच निकलते हैं. जनाक्रोश के दबाव में कई बार यदि कार्रवाई ज़रूरी भी हो जाए तो अपराधियों में से ही किसी ग़रीब या दलित की बलि दे दी जाती है. सरकारी दरबार में असर-रसूख़ रखने वाले गुनाहगार बच जाते हैं. जेलों में मौजूद क़ैदियों के बारे में हुए एक सर्वेक्षण में यह सामने आया था कि भारत में बड़ी संख्या क़ैदी मज़दूरों, दलितों और अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं.
भारत के मज़दूरों, किसानों और अन्य मध्यमवर्गीय मेहनतकश तबक़ों का हर क़िस्म के दमन के ख़िलाफ़ संघर्षों का शानदार इतिहास रहा है लेकिन वर्तमान समय में हम एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं, जब पूंजीवाद के असमाध्य संकट के कारण भारत के बड़े पूंजीपतियों ने फासीवाद का सहारा लिया है और भारत की फासीवादी पार्टी भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए तिज़ोरियों के मुंह खोल दिए हैं.
पूंजीपतियों की अन्य पार्टियां भी दूध से धुली नहीं हैं लेकिन भाजपा और संघ परिवार के पास अपने सैकड़ों संगठनों की मदद से, देश के मेहनतकश लोगों को प्रभावित करने वाला विशाल ताना-बाना है, जिसकी मदद से उन्होंने हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को तेज़ी से आगे बढ़ाया है.
हिंदुत्वी राष्ट्रवादियों का घोषित मक़सद तो राम राज्य लाना है, लेकिन गुप्त मक़सद, संकटग्रस्त बड़े पूंजीपति वर्ग की सेवा करना है. मज़दूरों, किसानों और दलितों की ज़िंदगी में सुधार लाने से इनका कोई लेना-देना नहीं है. सबूत के तौर पर एक तथ्य ही काफ़ी है कि जैसे-जैसे हिंदू राष्ट्र की मुहिम तेज़ हुई है, तैसे-तैसे ही पूरे देश में मज़दूरों, दलितों और अल्प संख्यकों पर हमले तेज़ हो गए हैं.
मक़सद स्पष्ट है. मेहनतकश आबादी में धर्म, जाति, सांप्रदायिकता और अंध राष्ट्रवाद के नारों के साथ फूट डालो. नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए मेहनतकशों में फूट ज़रूरी है.
केवल और केवल मेहनतकश जनता की एकता के साथ ही देशी-विदेशी पूंजी के इस बड़े हमले को रोका जा सकता है. इन हालतों में एक तरफ़ पूरे देश में आक्रोश फूटता नज़र आ रहा है, दूसरी ओर मज़दूरों, किसानों और मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का सचेतन हिस्सा चिंतित है कि बिखरे-बिखरे आक्रोश को एक विशाल लहर में कैसे बदला जाए.
हमारे सामने कुछ गंभीर चुनौतियां मौजूद हैं. बड़ी चुनौती जो मेहनतकशों की एकता में रुकावट है, वह है हमारा सांस्कृतिक पिछड़ापन. हमारे इतिहास का दुखांत है कि वर्ण जाति प्रथा वाले सामंतवाद के दौर से पूंजीवाद के दौर में परिवर्तन के दौरान, विश्व पूंजीवाद साम्राज्यवाद के दौर में दाख़िल हो चुका था. इस वजह से विशेष ऐतिहासिक हालतों में हमारे देश को उपनिवेशवादी आर्थिकता का संताप भोगना पड़ा.
उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी शासकों ने हमारे यहां के कच्चे माल और श्रम शक्ति की लूट करने की नीति के तहत निचले स्तर पर मेहनतकश आबादी को नियंत्रण में रखने के लिए, भरोसेमंद सहयोगी के रूप में, सामंतवादी प्रथा को कायम रखा.
दूसरी ओर 19वीं सदी में देश में उद्योग लगने शुरू हो गए थे. नतीजे के तौर पर भारत में पूंजीपति वर्ग पैदा हो चुका था. उसके साथ ही आधुनिक मज़दूर वर्ग वजूद में आ चुका था. 1947 में एक समझौते के तहत सत्ता पूंजीपतियों के हाथ आई.
देशी शासकों के सामने देश को पूंजीवादी रास्तों पर विकसित करने की चुनौती थी लेकिन उपनिवेशवाद की कोख में से पैदा हुए बीमार और कमज़ोर पूंजीवाद ने सामंती संबंधों को क्रांतिकारी तरीक़े से बदलने की बजाए, समझौतों के ज़रिए प्रशियाई तरीक़े से, सामंती आर्थिक संबंधों को पूंजीवादी संबंधों में बदलना शुरू किया. इससे आर्थिक संबंधों में तो तब्दीली आ गई मगर संस्कृति में जाति, औरत विरोधी मानसिकता, अंधविश्वास जैसे सामंती सांस्कृतिक मूल्य बड़े स्तर पर बचे रहे.
आज जब हमारे बहुराष्ट्रीय देश भारत की विशाल मेहनतकश आबादी देशी-विदेशी पूंजी की लूट के ख़िलाफ़ संघर्षों के रास्ते तलाश रही है, हमारे समाज का सांस्कृतिक पिछड़ापन मेहनतकशों की एकता की राह में एक बड़ी रुकावट बना हुआ है.
यूरोप की तरह हमारा समाज किसी क़िस्म के नव-जागरण और ज्ञान प्रसार जैसा कोई बड़ा आंदोलन भी नहीं खड़ा कर सका. उपनिवेशवादी शासकों ने, भक्ति आंदोलन और अन्य साहित्यिक आंदोलन के रूप में उठ रहे ज्ञान प्रसार के आंदोलन को ना केवल रोक ही दिया, बल्कि उसे रास्ते से भटकाने में भी मदद की.
आगे चलकर उपनिवेशवादी शासकों की तरह भारत के पूंजीवादी शासकों ने भी पिछड़े सामंती सांस्कृतिक मूल्यों को पूंजीवादी मंडी की ज़रूरतों के अनुसार ढालकर क़ायम रखने में ही अपना भला समझा. जातिवादी अहंकार इसका एक उभरा हुआ रूप है. कहीं ब्राह्मणवादी दबदबे, कहीं क्षत्रीय या राजपूत दबदबे के रूप में यह आज भी काफ़ी हद तक क़ायम है.
ज़मीनों के मालिक वर्ग जिन्हें मध्ययुगीन सामंतवादी दौर में काम करने वाली जातियों में गिना जाता था, मौजूदा पूंजीवादी दौर में हावी आर्थिक और सामाजिक रुतबे के कारण जाति व्यवस्था में ऊपरी दर्जे में आ गए हैं. जहां तक जाति उत्पीड़न और अहंकार का सवाल है, पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों में जहां ब्राह्मणवादी दबदबा लगभग नहीं है, यहां ब्राह्मण की जगह जट्ट और जाटों ने ले ली है.
लेकिन क्या मौजूदा वक़्त का जातिवाद हूबहू सामंती दौर की वर्ण जाति व्यवस्था जैसा ही है ? नहीं, बिल्कुल नहीं. ऊंच-नीच और सामाजिक भेदभाव के मामले में यह पुरानी वर्ण जाति व्यवस्था की ही निरंतरता है लेकिन बहुत कुछ बदल भी चुका है.
जाति प्रथा की तीन मुख्य विशेषताएं थीं. पहली दर्जाबंदी (ऊंच-नीच), दूसरा जाति आधारित काम का विभाजन और तीसरी अंतर्जातीय विवाह संबंधों की मनाही. वर्तमान पूंजीवादी दौर में इन संबंधों को कायम रखने का भौतिक आधार ख़त्म हो गया है. अब पहली दो विशेषताएं तो तेज़ी से ख़त्म होने की प्रक्रिया में हैं. अंतर्जातीय विवाहों की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है लेकिन बेहद धीमी रफ़्तार से चल रही है क्योंकि इसके बने रहने से पूंजीवादी व्यवस्था को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
फिर सवाल उठता है कि जाति व्यवस्था के बने रहने के लिए भौतिक आधार ख़त्म होने पर भी जाति अहंकार जैसा सिलसिला क्यों मौजूद है ? यह इसलिए है कि पूंजीवाद को मेहनतकशों की एकता तोड़ने के लिए इसकी ज़रूरत है. जनता को बांटकर रखने के लिए पूंजीवाद जातिवाद को अंधराष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता की तरह एक विचारधारात्मक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है.
एक तरफ़ दलितों के ख़िलाफ़ जातिवादी भेदभाव की घृणित तस्वीर हमारे सामने है, तो क्या यह सिर्फ़ दलित आबादी का संघर्ष ही है ? इस सवाल के जवाब के लिए हमें जातिवादी दमन के स्रोत को समझना होगा.
वर्तमान पूंजीवादी दौर में हमारे समाज के दो बड़े ऐतिहासिक वर्ग आमने-सामने हैं. एक तरफ़ पूंजीपति और दूसरी तरफ़ उत्पादन के सारे साधन खो चुका मज़दूर वर्ग है. इन दोनों वर्गों के बीच अंतरविरोध हमारे समाज के बुनियादी अंतरविरोधों में से एक अहम अंतरविरोध है. इस अंतरविरोध के कारण होने वाले संघर्ष में ही मेहनतकश आबादी (दलित और ग़ैर-दलित) के ख़िलाफ़ होने वाले दमन का स्रोत मौजूद है.
भारत की कुल दलित आबादी का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी करता है इसलिए वर्ग संघर्ष में आर्थिक, सामाजिक और हर प्रकार के दमन चक्र लगभग सारी दलित आबादी पर अधिक चलता है. लेकिन एक और हक़ीक़त भी है कि भारत की कुल मज़दूर आबादी में ग़ैर-दलित या तथाकथित स्वर्ण जातियां बहुसंख्या में हो गई हैं. देश की कुल मज़दूर आबादी की एकता, लूटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ने की पहली शर्त है.
दलित आबादी पर हो रहे दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष को पहचान की राजनीति के तहत केवल जातिवादी अवस्थिति से लड़ने का न्यौता देने वाले, इस हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ करते हैं. पहचान की राजनीति की यह अवस्थिति मज़दूर वर्ग की विशाल एकता की राह में रुकावट है, क्योंकि यह मज़दूर वर्ग को दलित और ग़ैर-दलित में बांट देती है.
आज ग्रामीण आबादी की सरंचना में उत्पादन के साधनों से वंचित हो चुके लोगों की आबादी में, तथाकथित स्वर्ण जातियों के लोग भी काफ़ी बड़ी संख्या में हैं. ग्रामीण मेहनतकशों में दलित, भूमिहीन ग़ैर-दलित तथा ग़रीब किसानों की एकता ही जाति आधारित दमन का मुक़ाबला कर सकती है.
बेशक जातिवाद के विचारधारात्मक हथियार से शासक वर्ग इस तरह की एकता की राह में बड़ी रुकावट खड़ी करती हैं, मगर दलित व ग़ैर-दलित मेहनतकशों की एकता का दुर्गम कार्य हर हाल में पूरा करना ज़रूरी है. वर्गीय उत्पीड़न का शिकार पूरी मेहनतकश आबादी होती है क्योंकि जातिवादी उत्पीड़न वर्गीय उत्पीड़न को कायम रखने के लिए ही किया जाता है, इसलिए इसके ख़िलाफ़ संघर्ष पूरी मेहनतकश आबादी का साझा संघर्ष बनता है.
जातिवादी अहंकार का वृतांत गढ़कर तथाकथित स्वर्ण जातियों के मेहनतकशों को दलित मेहनतकशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है. जातिवादी अहंकार को बनाए रखना शासक वर्गों के लिए बेहद ज़रूरी है, यह मज़दूर वर्ग की एकता को तोड़ने का हथियार है.
जातिवादी भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ाई का एक विचारधारात्मक पहलू भी है. आज हमारे समाज की रग-रग में पूंजीवाद का विचारधारात्मक दबदबा समाया हुआ है. साथ ही विचारधारा के क्षेत्र में इन्होंने मध्ययुगीन पिछड़े सामंती मूल्यों को भी सीने से लगाकर रखा है. इसका मुक़ाबला करने के लिए ज़रूरी है कि जवाबी रूप में मज़दूर वर्ग का विचारधारात्मक दबदबा स्थापित किया जाए. हर क़िस्म के पिछड़े मूल्यों के ख़िलाफ़ लड़ाई इस विचारधारात्मक संघर्ष का ज़रूरी हिस्सा बनती है.
बेशक हमारी एकता की शानदार विरासत रही है, लेकिन पिछड़ेपन से मुक़ाबला करने के लिए इतना ही काफ़ी नहीं है. मौजूदा दौर में विचारधारात्मक संघर्ष के लिए हमें आगे बढ़कर वर्गीय नज़रिए से चीज़ों का विश्लेषण करना होगा. मज़दूर वर्ग विश्व के सभी भौतिक और आत्मिक मूल्यों का सृजनकर्ता होने के कारण, इतिहास का सबसे उन्नत वर्ग है.
मज़दूर वर्ग की एकता की क़ीमत पर दलितों पर बढ़ रहे हमले और जातिवादी भेदभाव के ख़िलाफ़ नहीं लड़ा जा सकता. जातिवादी कोढ़ और जातिवादी अहंकार के ख़िलाफ़ संघर्ष पूरी मेहनतकश आबादी का साझा संघर्ष है. हर प्रकार के दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए ही पूंजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ पूरे देश के मेहनतकशों की विशाल एकता बन सकेगी, जिससे इंसान के हाथों इंसान की लूट से रहित समाजवादी समाज की स्थापना का मेहनतकशों का सपना साकार होगा.
- सुखदेव
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