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गांधी और शास्त्री : आज दो महान पुण्य आत्माओं का जन्मदिवस है

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गांधी और शास्त्री : आज दो महान पुण्य आत्माओं का जन्मदिवस है
महात्मा के आगे नतमस्तक दुष्टात्मा
किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

आज दो दो महान पुण्य आत्माओं का जन्म दिवस है. पहले का नाम महात्मा गांधी और दसरे का नाम लाल बहादुर शास्त्री, जिसमें से एक ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर बिना किसी आक्रामकता के अहिंसक रहकर पूरे देश को गुलामी के गर्त से निकालकर आज़ादी के शीर्ष पर पहुंचाया है तो दूसरे ने अपनी दृढ़ता और सरलता से देश को आत्मनिर्भर बनाया. जिस देश में अनाज तक विदेशों से आता था उस देश में कृषि और किसान का ऐसा उत्कर्ष करवाया कि देश आयात की जगह निर्यात करने लगा.

देश में जहां एक तरफ गांधी और शास्त्री जैसे महान लोग पैदा हुए, वहीं दूसरी तरफ गोडसे और मोदी जैसे दुष्टात्मा भी पैदा हुए. मरे की बात छोड़ जिन्दे की बात करे तो मोदी उस देश में हिंसा और गुलामी के बीज बो चुका है, जिसे गांधी ने अपनी अहिंसा से आजाद करवाया था. यही नहीं मोदी ने शास्त्री द्वारा आत्मनिर्भर बनाये गये किसानों और कृषि का कैसा सत्यानाश किया है, वो तो आप सब जानते ही है (किसान बिल का मामला ताज़ा ही है).

बहरहाल, महात्मा और शास्त्री दोनों के जीवन से मैंने जो समझा है वो ये कि ‘राह की बाधायें कभी आपको मंजिल तक पहुंचने से नहीं रोकती बल्कि मंजिल तक न पहुंचने में अवरोधक वे रोड़े होते हैं, जो आपके पैरों के नीचे आते हैं और आपको तकलीफ पहुंचाते हैं. आप स्वयं ही उस कष्ट से मंजिल तक पहुंचने का अपना विचार त्याग देते हैं.

अतः हिम्मत के साथ बाधाओं से डरे बिना सावधानी से अपने कदम बढ़ाते रहिये और ये ध्यान रखिये कि आपके कदमों में (मोदी जैसे) रोड़े न आये क्योंकि यही रोड़े बाद में आपको बहुत कष्ट पहुंचाते हैं. साथ में यह भी ध्यान रखिये कि रास्ते की कोमलता देखकर रास्ता मत चुनिये क्योंकि राह कोई भी हो वो कहीं न कहीं तो पहुंचेगी ही. लेकिन सही राह नहीं पकड़ी तो आपको सही मंजिल कभी नहीं मिलेगी.

गांधी

गांधी और शास्त्री : आज दो महान पुण्य आत्माओं का जन्मदिवस है

मोहन दास करमचंद गांधी नाम है उस महात्मा का जिसे दो ध्रुवों के बीच समन्वय स्थापित करने की कला में महारत हासिल थी. वह अपने व्यवहार में संत और विचारों में क्रांतिकारी था. वह ईश्वर में अनन्य आस्था रखने वाला आस्तिक भी था और मंदिरों के पाखंडी रीति रिवाज के विरुद्ध खड़ा होने वाला नास्तिक भी था. वह अहिंसा को अपने राजनीतिक-सामाजिक जीवन का मूल मंत्र मानकर भी चलता था और ‘करो या मरो’ का नारा भी दे सकता था.

वह इतना व्यस्त था कि उसके पास अपने लिये भी समय नहीं था और उसके पास इतना समय भी था कि वो हर किसी से मिल लेता था. वह इतना खुला था कि उसके घर और आश्रम के दरवाजे सबके लिये खुले रहते थे और इतना अधिक रहस्यमयी भी था कि उसके व्यक्तित्व की गुत्थियां आज भी उलझी हैं. क्या-क्या लिखूं ? कितना लिखूं ? क्या गांधी सिर्फ़ एक नाम है ? नही ! गांधी अपने आप में संपूर्ण क्रान्ति है. गांधी एक विचार है और विचार कभी मरते नहीं.

गांधीजी की नैतिक सत्ता कितनी बड़ी थी इसका अच्छा विश्लेषण अलेक्स वॉन तुंजलमान की किताब ‘इंडियन समर’ में किया गया है. नोआखाली दंगे के वक्त गांधीजी कलकत्ता में थे. पूरा बंगाल और खासकर कलकत्ता नफरत की आग में झुलस रहा था. गांधीजी ने शांति की अपील की थी लेकिन हालात काबू में नहीं आ रहे थे. फिर गांधीजी ने बड़ा फैसला लिया और उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा की. इसका चमात्कारिक असर हुआ.

उनकी इस घोषणा के कुछ ही देर बाद बंगाल शनैः-शनैः शांत होने लगा और चार घंटे के भीतर ही मानो पूरा बंगाल पाश्चाताप कर रहा था. सभी धर्मों के नेता और प्रतिनिधि गांधीजी के पास अपील करने आये कि बापू आप अपना अनशन खत्म कर दें. बापू ने अनशन खत्म कर दिया.

अब उनका अगला पड़ाव पंजाब होने वाला था, जो मानव इतिहास की सबसे बड़ी विभाजन की त्रासदी से गुजर रहा था. लार्ड मांउन्टबेटेन ने गांधीजी की महत्ता के बारे में लिखा है कि जो काम ब्रिटिश साम्राज्य की 55,000 प्रशिक्षित फौज पंजाब में नहीं कर पायी, वो काम अकेले गांधी ने कलकत्ता में कर दिया.

गांधीजी की नैतिक सत्ता के बारे में एक और कहानी है. द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के वक्त किसी ने गांधीजी की मुलाकात हॉलीवुड के सुपरस्टार चार्ली चैपलिन से तय करवाई थी (शायद उस आदमी को कोई मजाक सूझा था या उसके मन में क्या भावना थी ये एक अलग शोध का विषय है). दोनों ही लोग अपने-अपने क्षेत्र में दुनिया की विख्यात हस्ती थे. लंदन की वो शाम को दोनों की ऐतिहासिक और दिलचस्प मुलाकात की गवाह बनने वाली थी. देखना ये था कि कौन किसको प्रभावित करता है.

चैपलिन ने अपनी डायरी में लिखा है कि वो तय वक्त पर मीटिंग स्थल पर पहुंचा. गांधीजी थोड़े लेट आये. चैपलिन सोच में पड़ गया कि राजनीति के इस निष्णात बाजीगर से किस मुद्दे पर बात की जाये ? आखिरकार चैप्लिन ने भारत की आजादी के प्रति गांधी से सहानुभूति दर्ज की लेकिन साथ ही उसने पूछा कि आधुनिक युग में गांधीजी का मशीनों के प्रति विरोध भाव कहां तक जायज है ?
गांधीजी का जवाब था कि वे मशीनों के विरोधी नहीं है. वे इस बात के विरोधी हैं कि मशीनों की सहायता से मानव, मानव का शोषण करे.

पता नहीं चैप्लिन को ये बात उस वक्त समझ में आयी या नहीं लेकिन कुछ ही सालों बाद चार्ली चैप्लिन ने मशीन टाईम्स नाम की एक फिल्म का निर्माण किया, जिसमें वो खुद ही अभिनेता थे. इस फिल्म में एक ऐसे इंसान की कहानी है जो मशीनों से चलित फैक्ट्री में मानवीय श्रम की बेवसी के खिलाफ जंग करता है. इस फिल्म में मशीन, पूंजी और व्यापारिक होड़ में फंसे एक आम इंसान की त्रासदी को बड़ी गंभीरता से दिखाया गया था. शायद यह गांधी का ही असर था कि चार्ली चैपलिन इस बात को अपनी फिल्म में दिखाने को मजबूर हो गया था.

कट्टरपंथी हिंदू गांधीजी की इस बात के लिये आलोचना करते रहते हैं कि उन्होंने ‘महामानव’ बनने के लिए मुसलमानों को बड़ी रियायतें दी. लेकिन वे भूल जाते हैं कि गांधीजी ने मैक्डनाल्ड के कम्यूनल अवार्ड के खिलाफ अनशन करके हिंदू समाज को विखंडित होने से बचाने में कितना बड़ा योगदान दिया था. इस सिलसिले में गांधीजी का डॉ. अम्बेडकर के साथ लंबा पत्राचार भी हुआ और कई वार्तायें भी हुई. अंत में अम्बेडकर को झुकना पड़ा और गांधीजी के साथ पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा. गांधीजी ने अम्बेडकर की दलितों की चिंताओं से संबंधित सारी मांगें मान ली और आजादी मिलने के बाद इस पर अमल का भरोसा दिया.

दूसरी बात ये कि गांधीजी को जब गोली मारी गई तो उनकी जुबान से निकलने वाले कौन से शब्द थे ? हे राम ! ये बातें बताती हैं कि गांधीजी की आस्था कितनी गहरी थी लेकिन उनका मन किसी भी तरह के धार्मिक-नस्लीय अहंकार से मुक्त था. वे मानवमात्र से प्रेम करते थे.

गांधीजी ने अपने अफ्रीका प्रवास के दौरान और बाद में भारत में भी सादगी का अद्भुत परिचय दिया. गांधीजी के सहयोगी और कई दफा उनकी पत्नी भी उन पर कंजूसी का आरोप लगाती रही लेकिन उनका मानना था कि प्रकृति से हमें उतनी ही चीजें लेनी चाहिये, जितनी जिंदगी के लिये जरुरी है. प्राकृतिक संसाधनों की अपनी सीमायें हैं और वे एक दिन खत्म हो जायेगी.

आज के संदर्भ में विचार करें तो गांधीजी की बात कितनी प्रसांगिक लगती है, जब पीने के पानी से लेकर अनाज तक की कमी का सामना मानवता को करना पड़ रहा है. जहां तक ग्राम स्वराज्य की बात है तो गांधीजी इस बात को सौ साल पहले ही भांप गये थे कि भारत की आत्मा गांवों में है और यूरोपियन मॉडल पर इसका विकास नहीं किया जा सकता. जबकि वर्तमान मोदी सरकार गांवों को खत्म कर यूरोपीय मॉडल लागू करना चाहती है. लेकिन ऐसा करते मोदी भूल जाते हैं कि यूरोप विकास के जिन चरणों से गुजरा था और उसकी भौगोलिक-समाजिक संरचना जिस तरह की थी, उसे भारत में हूबहू उतारना असंभव है.

गांधीजी इस बात को भली-भांति समझते थे इसीलिये गांधीजी ने गांवों के विकास पर जोर दिया था. संभवतः वे बड़े शहरों की समस्यायें, विस्थापन, पलायन और धन के केंन्द्रीकरण से उपजने वाली समस्याओं को भी पहले से ही भांप गये थे, शायद इसी कारण उन्होंने छोटे-छोटे कुटीर और लघु उद्योगों की वकालत की थी और शासन के विकेंद्रीकरण की बात की थी.

गांधीजी की बात भारतीय नेता समझे या नहीं, मुझे नहीं मालूम लेकिन शायद हमारा पड़ोसी देश चीन गांधीजी की बातों को सही तरीके से समझकर अमल भी कर गया. उसने अपने गांवों को खिलौनों और पार्ट-पुर्जों की फैक्ट्री का केंद्र बना दिया और आज पूरी दुनिया का सामान चीन बनाता है. हर छोटी-बड़ी कम्पनी चाहे वो यूरोप की हो या रूस की, एशिया की हो या खुद भारत की, उनके पुर्जे मेड इन चाइना के ही होते हैं.

भारत में तो भारतीय व्यापारी नहीं समझते कि किस सीजन में कितना माल बिकेगा लेकिन चाइना उस सीजन या उत्सव का माल बनाकर भारत में बेच भी जाता है और ढेर सारा प्रॉफिट भी ले जाता है. लेकिन भारत भारी भरकम उद्योगों और बड़े शहरों के विकास में उलझा रहा. आज अपने देश में ग्रामीण विकास मंत्रालय देखते ही देखते दोयम दर्जे के मंत्रालय से ‘क्रीम मंत्रालय’ बन गया है – गांधीजी इस स्थिति की बहुत पहले कल्पना कर गये थे.

देश में क्षेत्रीय विषमता, साम्प्रदायिक तनाव और जातीय-भाषायी झगड़े बढ़ रहे हैं. शायद गांधीजी की बतायी राह पर इस देश में शासन चलाया गया होता तो ये हालत नहीं होती. ज्यादातर लोग समझते हैं कि आजादी के बाद भारत का एकीकरण सरदार पटेल ने किया था लेकिन मैं कहता हूं कि यह तो गांधीजी का चट्टानी और हिमालयी व्यक्तित्व था, जिसे पूरे देश ने बहुत पहले ही अपने अंतर्मन में जगह दे दी थी और इसी से एकीकरण संभव हुआ था.

गांधी, एक दर्शन-एक विचार-एक आदर्श व्यक्तित्व और इन सबसे बढ़कर एक लीजेंड थे. गांधी जैसे विराट व्यक्तित्व की व्याख्या करना बहुत मुश्किल है क्योंकि गांधी के बारे में जितना लिखा जाये वो कम लगता है. गांधी सिर्फ नेता नहीं बल्कि पूरा युग थे, जो इतिहास के पन्नों तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे दिलो में आज भी जीवित है. हर कालखंड में गांधी का जिक्र एक आदर्श की तरह होता रहा है और आगे भी ऐसा ही होगा, इसमें कोई शक़ नहीं.

दरअसल गांधी की शख्सियत किसी दायरा-गत सोच के खांचे में नहीं रखी जा सकती और शायद इसीलिये हर माध्यम में उनका असर देखा जाता है. जब माध्यम की बात हो रही हो तो साफ कर देना ज़रूरी है कि कोई क्रियेटिव माध्यम. वो इसलिये कि गांधी और उनके विचार, साथ ही उनका जीवन ये सब अपने आप में ऐसा दस्तावेज़ है कि फिल्मकारों को हर दौर में फिल्में बनाने के लिए प्रेरणा मिलती रही. लेकिन क्या फिल्मकारों ने सही तरीके से गांधी को परिभाषित किया या सिर्फ वे मनोरंजन की सीमाओं तक ही अपना जहां तलाशते रहे ? सिनेमा ने जब-जब किसी लीजेंड के इर्द-गिर्द फिल्मी जाल को बुना तो ये अहसास होता रहा कि सच्चाई को मनोरंजन के मसाले की छौंक देकर ही प्रस्तुत किया गया है. गांधीजी को आधार बनाकर जो फिल्में परदे पर पेश की गईं वो भी कमर्शियल पुट के दायरे से बाहर ना रह सकी.

परदों पर गांधी

वैसे तो गांधी के तमाम जीवन पर डाक्यूमेंट्रीज़ और फिल्में बनती रही हैं और शायद आगे भी ये सिलसिला जारी रहेगा. लेकिन जिस एक फिल्म ने सही मायने में गांधी के जीवन को परदे पर जिया, वो सर रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ थी. इस काव्यात्मक शैली की फिल्म ने गांधी की लाईफ के हर कोण को तर्क और रिसर्च के पैमाने पर पूरी कसावट के साथ पेश किया. बेन किंग्सले ने तो मानो गांधी के किरदार में जान ही डाल दी. इसके बाद जिस एक फिल्म का जिक्र करना बेहद ज़रूरी हो जाता है वो है 1996 में प्रदर्शत शयाम बेनेगल के निर्देशन में बनी ‘द मेकिंग ऑफ द महात्मा.’

ये फिल्म इंडो-साउथअफ्रिकन ज्वॉंइंट वेंचर थी, जिसने देश विदेश में बहुत प्रशंसा पायीं. इस फिल्म के लिए रजत कपूर को साल 1996 में बेस्ट एक्टर का नेशनल अवार्ड भी मिला. इस कड़ी में विश्व सिनेमा भी पीछे नहीं रहा. जाने माने फिल्म डायरेक्टर डेविड लीन ने भी ‘पैसेज टू इंडिया’ नाम की अपनी फिल्म में वैसे तो हिंदुस्तान को छुआ मगर गांधीजी केंद्र में रहे.

ऐसा नहीं है कि परदे पर गांधी जी को लेकर सिर्फ और सिर्फ सकारात्मक अभिव्यक्तियां ही नज़र आयी. एक विदेश फिल्म ‘नाईन आवर्स टू रामा’ में गोडसे को नायक की तरह पेश किया गया तो भारत में कमल हसन की ‘हे राम’ में भी गांधी जी की छवि से खिलवाड़ सामने आया. हाल के वर्षों में गांधी को आधार बनाकर कई दिलचस्प कहानियां परदे को रौशन करती नजर आयी हैं. इनमें जानू बरूआ की ‘मैने गांधी को नहीं मारा’ सबसे खास इसलिये कही जा सकती है क्योंकि इस फिल्म में अनुपम खेर को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया गया, जिसे बचपन की एक घटना की वजह से ये भ्रम हो जाता है कि उसने गांधी जी की हत्या की है.

फिल्म में अनुपम खेर के अलावा उर्मिला मातोंडकर के बेजोड़ अभिनय को भी सभी ने सराहा. इस कड़ी में फिरोज़ अब्बास ख़ान की ‘गांधी माय फादर’ ने तो गांधी की जिंदगी के अनछुए पहलुओ को भी स्पर्श किया. गांधीजी और उनके पुत्र हरिलाल के टकराव का इससे बेहतर प्रस्तुतिकरण सिनेमा के सफ़र में कहीं नहीं देखने को मिला था. फिल्मों में गांधी के जीवन और दर्शन के अलग-अलग रंग देखने के बाद ये एहसास होना लाज़मी है कि सिनेमा के लिए ये कतई आसान नही था कि वो गांधी जी के जीवन पर फिल्में तराश पाये क्योंकि गांधी का जीवन एक विचार है, जिसे परदे पर दिखाना भी एक कला है. क्योंकि सिनेमा में यथार्थ के साथ मनोरंजन की मिलावट इसमें एक ज़रूरी शर्त भी है.

भगत सिंह को बचाने के लिए गांधी का प्रयास

राज कुमार संतोषी जी की फिल्म ‘लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह’ में ऐसा दिखाया गया था कि भगत और उसके साथियो को बचाने की गांधीजी ने कोई कोशिश नहीं की और ज्यादातर लोग इसी फिल्म के आधार पर गांधी जी को दोषी कहते फिरते है. यकीन मानिये कई वर्षों तक गांधी जी को इस बात का दोष लाखों लोगों की तरह मैंने भी दिया कि उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने की कोई कोशिश क्यों नहीं की परंतु उसी फिल्म में एक संवाद है कि ‘कार्य की नीयत को जाने बिना इन्साफ नहीं किया जा सकता.’

सो लग गया मैं भी. लाइब्रेरियों में जाकर पुरानी-पुरानी धूल से अटी पड़ी पुस्तकों को खंगाला क्योंकि मैं जानना चाहता था कि ‘क्या वास्तव में गांधी की नीयत इन क्रांतिकारियों को मरने देने की थी’ या फिर ‘यह भी एक कुर्बानी थी’ कि जिससे इन क्रांतिकारियों की जान पर बन आने पर भी उन्होंने अपना रास्ता, अपना विश्वास और अपने तरीके नहीं छोड़े ? लेकिन जब सच सामने आया तो मैं सन्न रह गया क्योंकि जो सच था उसके बारे में मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि गांधीजी ने सिद्धांतो से परे जाकर भगतसिंह को बचाने के लिये न सिर्फ पत्राचार किया बल्कि भगत सिंह की मौत के बाद के अपने भाषण उन्होंने ये भी कहा कि ‘आत्म-दमन और कायरता से भरे दब्बूपने वाले इस देश में हमें इतना अधिक साहस और बलिदान नहीं मिल सकता. भगत सिंह के साहस और बलिदान के सामने मस्तक नत हो जाता है लेकिन यदि मैं अपने नौजवान भाइयों को नाराज किये बिना कह सकूं तो मुझे इससे भी बड़े साहस को देखने की इच्छा है. मैं एक ऐसा नम्र, सभ्य और अहिंसक साहस चाहता हूं जो किसी को चोट पहुंचाये बिना या मन में किसी को चोट पहुंचाने का तनिक भी विचार रखे बिना फांसी पर झूल जाये.’

26 मार्च 1931 को कराची अधिवेशन में भगत सिंह के संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने ये भी कहा था कि ‘आपको जानना चाहिये कि खूनी को, चोर को, डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के विरुद्ध है इसलिये इस शक की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था, परन्तु मैं इसमें विफल रहा. इस सभा में नौजवान भारत सभा के सदस्य भी बड़ी संख्या में मौजूद थे जो भगतसिंह की ही तरह गरमदल के सदस्य और गरम दिमाग थे और देश की आज़ादी में हिंसा को भी अपना धर्म मानते थे. उसमे से एक युवक ने गांधीजी के उपरोक्तानुसार कहते ही चिल्लाकर पूछा – ‘आपने भगत सिंह को बचाने के लिये किया क्या ?’

कैसा अद्वितीय आत्म-विश्वास रहा होगा अपने मार्ग पर उस महान व्यक्ति का जो वह ये सवाल झेलने को भी तैयार हो गया कि उन्होंने भगत सिंह को मरने दिया या बचाने के लिये कुछ क्यों नहीं किया. गांधीजी ने उस युवक को संबोधित करते हुए जवाब दिया – ‘मैं यहां अपना बचाव करने के लिये नहीं आया हूं इसलिये मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिये मैंने क्या-क्या किया. परन्तु आप जान लीजिये कि मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा कर देखी. भगत सिंह की परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन यानी 23 मार्च को सवेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी (अनौपचारिक) खत भी लिखा. उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी पर सब बेकार हुआ.’

भगत सिंह को बचाने के लिये वाइसराय को लिखी उस अनौपचारिक चिट्ठी में गांधीजी ने उन्हें जनमत का वास्ता देते हुए लिखा था- ‘जनमत चाहे सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है. जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है. मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता. यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिये स्थगित कर दें. दया कभी निष्फल नहीं जाती.’

माफ़ी वीर सावरकर के और हत्यारे मोदी के ऐसे बहुत से गधे आज भी मौजूद है जो इन झूठी बातों को सोशल मीडिया जरिये फैलाते हैं और इरविन समझौते को भगत सिंह की फांसी रोकने के संदर्भ में इस्तेमाल न करने का रायता भी फैलाते हैं. मगर बताना चाहता हूं आप सब को, कि 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गई थी और उनकी फांसी के लिये 24 मार्च 1931 का दिन मुकर्रर किया गया. 17 फरवरी 1931 को गांधी और इरविन के बीच समझौता हुआ. उस समय तक भगत सिंह लोकप्रिय हो चुके थे. अतः भगत के समर्थक चाहते थे कि गांधी इस समझौते की शर्तों में भगत सिंह की फांसी रोकना शामिल करें लेकिन गांधीजी ने ऐसा नहीं किया. इसकी वजह उन्होंने यंग इंडिया अखबार में लिखे अपने लेख में लिखी.

उन्होंने लिखा- ‘कांग्रेस वर्किंग कमिटी’ भी मुझसे सहमत थी कि हम समझौते के लिये इस बात की शर्त नहीं रख सकते थे कि अंग्रेजी हुकूमत भगत, राजगुरु और सुखदेव की सजा कम करे. मैं वायसराय के साथ अलग से इस पर बात कर सकता था.’ और मैंने वही किया. (गांधीजी ने वायसराय इरविन से 18 फरवरी को अलग से भगत सिंह और उनकी साथियों की फांसी रोकने के बारे में बात की थी).

इसके बारे में उन्होंने लिखा- ‘मैंने इरविन से कहा कि इस मुद्दे का हमारी बातचीत से संबंध नहीं है. मेरे द्वारा इसका जिक्र किया जाना शायद अनुचित भी लगे लेकिन अगर आप मौजूदा माहौल को बेहतर बनाना चाहते हैं तो आपको भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिये. वायसराय को मेरी बात पसंद आयी और उन्होंने कहा – मुझे खुशी है कि आपने इस तरीके से मेरे सामने इस बात को उठाया है, सजा कम करना मुश्किल होगा लेकिन उसे फिलहाल रोकने पर विचार किया जा सकता है.’

इरविन ने ब्रिटिश सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में भगत सिंह की सजा और गांधी के बारे में लिखा कि – ‘गांधी चूंकि अहिंसा में यकीन करते हैं इसीलिये वो किसी की भी जान लिये जाने के खिलाफ हैं, मगर उन्हें लगता है कि मौजूदा हालात में बेहतर माहौल बनाने के लिये ये सजा फिलहाल मुलतवी कर देनी चाहिये.’

गांधीजी पहले भगत सिंह की फांसी टलवा देना चाहते थे क्योंकि अंग्रेज हुकूमत की सजा को सीधे खत्म करवा देना आसान काम नहीं था क्योंकि भगत सिंह पर अंग्रेज अधिकारी की हत्या का मामला था और ब्रिटिश सरकार भी भगत को रिहा कर ये संदेश तो कत्तई नहीं जाने देती कि अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर के कोई बच सकता है.

गांधीजी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के लिये कानूनी रास्ते का भी सहारा लिया और 29 अप्रैल 1931को सी. विजय राघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा- ‘इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर मेरे कहने पर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला.’

उस समय गांधी के सामने बड़ी परेशानी खुद भगत और उनके साथी थे, जो न तो अपनी फांसी का विरोध कर रहे थे और न ही किसी प्रकार समझौता करना चाहते थे.

19 मार्च 1931 को गांधी ने इरविन से फिर भगत सिंह और उनके साथियों को लेकर बात की. इरविन ने गांधी को जवाब देते हुए कहा, ‘फांसी की तारीख आगे बढ़ाना, वो भी बस राजनैतिक वजहों से, वो भी तब जबकि तारीख का ऐलान हो चुका है, सही नहीं होगा. इससे भगत, राजगुरु और सुखदेव के दोस्तों और रिश्तेदारों को लगेगा कि ब्रिटिश सरकार इन तीनों की सजा कम करने पर विचार कर रही है.’

गांधी ने इसके बाद भी कोशिशें जारी रखी. उन्होंने आसफ अली को लाहौर में भगत सिंह और उनके साथियों से मिलने भेजा ताकि भगत सिंह और उनके साथी लिखित में अंग्रेज सरकार से एक वादा कर दें कि वो आगे हिंसक कदम नहीं उठायेंगे और हिंसा का रास्ता त्याग देंगे. इस तरह इसका हवाला देकर गांधीजी अंग्रेजों से भगत और उनके साथियों की फांसी की सजा रुकवा लेते लेकिन आसफ अली और भगत सिंह की मुलाकात ना हो सकी.

आसिफ अली ने लाहौर में प्रेस को बताया, ‘मैं दिल्ली से लाहौर आया ताकि भगत सिंह से मिल सकूं. मैं भगत से एक चिट्ठी लेना चाहता था जो रिवॉल्यूशनरी पार्टी के उनके साथियों के नाम होती, जिसमें भगत अपने क्रांतिकारी साथियों से कहते कि वो हिंसा का रास्ता छोड़ दें. मैंने भगत से मिलने की हर मुमकिन कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हो पाया (भगत सिंह ने आसफ अली से मिलने से ही इंकार कर दिया था.)

इतना होने पर भी गांधीजी ने हार नहीं मानी और 26 मार्च 1931 से कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होना था, मगर 21 मार्च 1931 के न्यूज क्रॉनिकल में रॉबर्ट बर्नेज ने लिखा-

गांधी कराची अधिवेशन के लिये रवाना होने में देर कर रहे हैं ताकि वो भगत सिंह की सजा पर वायसराय से बात कर सकें. 21 मार्च को गांधी और इरविन की मुलाकात हुई. गांधी ने इरविन से फिर भगत सिंह की सजा रोकने की मांग की.

22 मार्च को फिर से गांधी और इरविन की मुलाकात हुई. इरविन ने वादा किया कि वो इस पर विचार करेंगे. 23 मार्च को यानि फांसी की तारीख से एक दिन पहले गांधी ने इरविन को एक चिट्ठी लिखकर कई कारण गिनाये और इस सजा को रोकने की अपील की लेकिन 23 मार्च की शाम को सजा की मुकर्रर तारीख से एक दिन पहले भगत सिंह और उनके साथियों को चुपचाप फांसी दे दी गयी.

24 मार्च 1931 को गांधी कराची पहुंचे, तब तक भगत सिंह की मौत की खबर फैल चुकी थी. वहां खड़े नौजवान भगत सिंह जिंदाबाद और गांधी के विरोध में नारे लगा रहे थे. और उसी संदर्भ में उपरोक्त में लिख चूका हूं तो देखा आपने कि गांधीजी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के लिये एक नहीं अनेक प्रयास किये और अपने सिद्धांतों से भी समझौता किया. गोडसे के चेले जो आज भी ये झूठ फ़ैलाने से बाज नहीं आते, उनसे दो टूक पूछना चाहिए कि भगत सिंह को बचाने के लिए ‘वीर’ सावरकर ने क्या किया था ?

अंत में केवल एक निवेदन गांधी से नफरत करने वालों से करूंगा कि एक बार गांधीजी के बारे में पढ़कर देखे, आपको न सिर्फ गांधीजी के बारे में सही तथ्य पता चलेंगे बल्कि ऐसा बहुत कुछ पता चलेगा जिससे नफरत प्रेम में बदल जायेगी. क्योंकि गांधी सिर्फ गांधी नही बल्कि एक विचार है, एक लीजेंड है और शायद इसीलिये ही भारत ही नहीं अपितु पूरा विश्व आज अहिंसा दिवस के रूप में गांधी जी को याद कर रहा है.

शास्त्री

लालबहादुर शास्त्री (जन्म: 2 अक्टूबर, 1904 मुगलसराय – मृत्यु: 11 जनवरी, 1966 ताशकन्द), भारत के द्वितीय प्रधानमन्त्री थे. वह 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्युपर्यन्त लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे. इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा.

भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था. गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया. परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी. पुलिस मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया.

1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये. उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया. जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया. उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधानमन्त्री का पद भार ग्रहण किया.

उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया. इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था. शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी जिसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी.

ताशकन्द में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी. उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

भारत के दूसरे प्रधानमंत्री के बारे में इस तरह के कई वाकयों का जिक्र उनके बेटे और सह-लेखक अनिल शास्त्री और लेखक पवन चौधरी ने किताब ‘लाल बहादुर शस्त्री: लेसंस इन लीडरशिप’ में किया है. किताब में कहा गया है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान से जिस दिन शास्त्री 3 जनवरी 1966 को भेंट करने वाले थे, उस दिन कड़ाके की ठंड थी और वह उस दिन भी अपना खादी उन का कोट ही पहने हुए थे.

तत्कालीन सोवियत संघ के समकक्ष एलेक्सी कोसीजिन से तोहफे में मिले कोट को उन्होंने अपने एक कर्मचारी को दे दिया, जिस पर एलेक्सी ने उन्हें ‘सुपर कम्युनिस्ट’ कहा था क्योंकि कोसीजिन को लगा कि जो खादी का कोट शास्त्री पहने हुए हैं, वह मध्य एशिया के इस बर्फीले सर्द मौसम के लिए उतना गर्म नहीं है, इसी से उसने उन्हें एक रूसी ओवरकोट एक समारोह में यह उम्मीद करते हुए शास्त्री जी को तोहफे के तौर पर भेंट किया कि वह ताशकंद में इसे पहनेंगे. मगर अगली सुबह उन्होंने देखा कि शास्त्रीजी अभी भी खादी ऊन का कोट ही पहने हुए हैं, जो वह दिल्ली से लाये थे. हिचकिचाते हुए उन्होंने शास्त्रीजी से पूछा कि ‘जो कोट उन्हें भेंट दिया गया क्या वह उन्हें पसंद आया’

‘शास्त्रीजी ने हां में जवाब देते हुए कहा वाकई यह काफी गर्म और मेरे लिए काफी आरामदेह है हालांकि मैंने उसे अपने एक कर्मचारी को दे दिया है, जो इस कंपकंपाती ठंड में पहनने के लिए बढिया ऊनी कोट नहीं लाए थे. ठंडे देशों की अपनी यात्राओं के दौरान मैं जरूर आपकी भेंट का इस्तेमाल करूंगा.’

कोसीजिन ने शास्त्री और खान के सम्मान में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में अपने संबोधन के दौरान इस वाकये का जिक्र किया. उन्होंने कहा- ‘हम कम्युनिस्ट हैं पर प्रधानमंत्री शास्त्री सुपर कम्युनिस्ट हैं.’

विजडम विलेज पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित इस किताब में शास्त्रीजी के बचपन, युवावस्था से लेकर राजनीतिक जीवन तक की कई रोचक कहानियां हैं. हर वाकये का जिक्र उनके बेटे अनिल ने किया है – ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ शीर्षक वाले अध्याय में लेखकों ने उल्लेख किया है कि शास्त्रीजी जब गृहमंत्री थे, उस दौरान उनके बेटे नई दिल्ली में सेंट कोलंबिया स्कूल में पढते थे. एक दिन बेटों ने अपने पिता से शिकायत की कि सरकारी अधिकारियों के बच्चे कार से आते हैं जबकि वे तांगे से स्कूल जाते हैं. शास्त्रीजी ने उनसे कहा कि कार से स्कूल पहुंचाने की सुविधा उन्हें तब तक ही मिल सकेगी जब तक वह गृहमंत्री रहेंगे और बाद के दिनों में फिर से तांगा पर जाने में उन्हें बुरा लगेगा.

ऐसे सिद्धांतवादी शास्त्री जी के सामने जब भक्तगण उस नकली सिद्धांतवादी मोदी की तुलना करते है तो मुझे बहुत बुरा लगता है क्योंकि कहां सादा जीवन जीने वाले शास्त्रीजी और कहां भौतिकता से लिपटा मूर्खशिरोमणि मोदी, जो एक दिन में चार-चार ड्रेसे मैचिंग एक्सेसरीज बदलता है, वो भी देश की जनता के पैसो से.

शास्त्री जी की मौत रहस्य्मयी तरीके से हुई और भाजपा और आरएसएस इस पर हमेशा राजनीति करते रहे लेकिन आज शास्त्री के जन्म दिवस पर मैं इसका खुलासा करना चाहता हूं कि शास्त्री जी मौत में सीआईए का हाथ था. (हां, हां, उसी अमेरिकी सीआईए का जिस अमेरिका का मोदी आज पिट्ठू बना हुआ है और देश को बर्बाद कर रहा है.)

जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA’s Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत पीएमओ से जानकारी मांगी तो प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहा गया कि ‘शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुंच सकती है. ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता.’

देश की विडम्बना देखिये गांधीजी और शास्त्री जी जैसे महान लोग भी सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए याद किये जाते हैं, मगर उनके सिद्धांतों से कोई जुड़ना ही नहीं चाहता.

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