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भारत की पत्रकारिता दुनिया भर में रोज़ बदनाम होती है

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भारत की पत्रकारिता दुनिया भर में रोज़ बदनाम होती है

रविश कुमार

न्यूयार्क टाइम्स ने किया खंडन, क्या आपको भी मिला है ये पोस्टर ? भक्तों के पास प्रोपेगैंडा के लिए सामान ख़त्म हो गया है. कुछ मिल नहीं रहा है. व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के लोगों को मूर्ख बनाए रखने के लिए एक फोटोशॉप घुमाया गया. इसमें दिखाया गया कि अमरीका के अख़बार न्यूयार्क टाइम्स में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ में पहले पन्ने पर विस्तृत ख़बर छपी है कि ‘शुक्र है कि दुनिया को इतने महान नेता मिले हैं.’

जिस किसी ने ऐसा बनाया है उसने अपने नेता का मज़ाक़ ही उड़ाया है. और अब न्यूयार्क टाइम्स ने ट्वीट किया है कि यह पूरी तरह फेक है. इसके साथ ही न्यूयार्क टाइम्स ने उन ख़बरों की सूची भी दी है जो भारत को लेकर छपी है. इस सूची में प्रधानमंत्री के हाल के असफल दौरे का ज़िक्र तक नहीं है. यह बहुत अच्छा तो नहीं है कि इतना बड़ा अख़बार भारत के प्रधानमंत्री के दौरे को कवर न करें. लेकिन पहले भी जब गए हैं तब उनकी यात्रा का कोई ख़ास कवरेज नहीं हुआ.

इधर बीजेपी की तरफ़ से दिल्ली में पोस्टर लगाए जा रहे हैं कि प्रधानमंत्री सफल दौरे से आए हैं. जो लिखा है उसमें भी मूर्खता का प्रदर्शन है. हिन्दी के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी के पोस्टर का वाक्य देखिए. अमरीका की सफल विदेश यात्रा से आने पर अभिनंदन. अमरीका की सफल यात्रा काफ़ी थी, अमरीका की विदेश यात्रा कौन-सी हिन्दी है ? विदेश की विदेश यात्रा लिखेंगे क्या ? यह भी एक तरह से प्रधानमंत्री का मज़ाक़ उड़ाना ही है.

विदेश दौरे से आने का यही मतलब नहीं होता कि आप सफल होकर आए हैं. लेकिन लोगों को यही पसंद है. गाना है न, ‘बेबी को बेस पसंद है.’ आप जिसे पसंद करते हो, करो, लेकिन हर जगह नाक मत कटवाओ.

अजीब हो गया है. विदेश से ऐसे आए बताए जा रहे हैं जैसे कोई पहली बार जाकर आया हो और अटैची से एयरलाइन्स की सुरक्षा जांच का टैग कई साल तक चिपका कर रखा हो. हद है. कुछ तो स्टैंडर्ड रखो भाई.

जिन चैनलों के कारण भारत की पत्रकारिता दुनिया भर में रोज़ बदनाम होती है उनके यहां कभी नोटिस भेजे जाने की बात नहीं सुनी, लेकिन जो सरकार से सवाल कर देते हैं उन्हें सुरक्षा के नाम पर बंद किए जा रहे हैं. कोलकाता टीवी के लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं हुआ तो बंद हो सकता है और तीन सौ से अधिक पत्रकार बेरोज़गार हो सकते हैं.

बंगाल हार कर सरकार नहीं भूली है. क्या पता एक दिन बंगाल की जनता का जनता होने का लाइसेंस ही रद्द कर दे कि आपने मोदी जी को हराया है इसलिए आप सबके यहाँ ईडी का छापा पड़ेगा और जेल में बंद किया जाएगा.

पहले पेशे की नैतिकता और मर्यादा बेच दी और अब हालत यह हो गई है कि पारंपरिक मीडिया कंगाली के कगार पर पहुंच गया है. उसे ख़रीदार नहीं मिल रहा है. किसी तरह से बिज़नेस चलाया जा रहा है. मोदी भक्ति में अपनी साख बेच कर गोदी मीडिया आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. डर ऐसा है कि अपने ही अख़बार या चैनल पर आर्थिक संकट की रिपोर्टिंग खुलकर नहीं कर सकता. ऐसे में यह मीडिया कितने दिन टिकेगा ?

इस रिपोर्ट को पढ़ कर लगा कि हर संस्थान इस पेशे से पीछा छुड़ाना चाहता है. बेच कर निकल जाना चाहता है. जो नया ख़रीदार आएगा वो इसे और ख़ुदरा बना देगा. कंटेंट तो ख़राब हो ही चुका है, नौकरी भी नहीं करने लायक़ रह जाएगी. क्या आप वकील या डॉक्टर से कह सकते हैं कि वकालत मत करो, इलाज मत करो और फिर भी पैसा कमाते रहो. पत्रकारिता ही अलग पेशा है जिसके बारे में सरकार और समाज का बड़ा हिस्सा कहता है कि आप पत्रकारिता मत कीजिए, भांड बन जाइये.

मीडिया संस्थानों के भीतर बढ़ने वाली नौकरी और सैलरी का कोई विश्वसनीय अध्ययन नहीं है, जिससे पता चले कि टीआरपी नंबर वन से लेकर पांच तक के चैनलों में कितने नए लोगों को नौकरी मिली, कितने लोग निकाल दिए गए और कितनों की सैलरी बढ़ी है. रिपोर्टर, वीडियो एडिटर, कैमरामैन की सैलरी बढ़ रही है या नहीं ? सात साल में गोदी चैनलों के कर्मचारियों को क्या मिला ? अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों की क्या हालत है, इसका कोई विश्वसनीय अध्ययन होता है तो इस पेशे के बारे में पारदर्शी समझ बनती.

पत्रकारिता के पेशे में जो लोग कदम रख रहे हैं और इसकी पढ़ाई के लिए लाखों रुपये ख़र्च कर रहे हैं, उन्हें बहुत सोच समझ कर फ़ैसला लेना चाहिए. जब विश्व गुरु भारत में पत्रकारिता बंद हो चुकी है तो वे पत्रकारिता के नाम पर पैसे क्यों दे रहे हैं ? यू-ट्यूब ही अगर सबको करना है तो फिर आज ही से शुरू कर दीजिए लेकिन उसके अपने ख़तरे भी हैं. इस पर सोच विचार कर लीजिएगा. जिस तरह से आरटीआई कार्यकर्ताओं को टार्गेट किया जाने लगा है, उनकी हत्या की जाने लगी है, उसी तरह बिना किसी संरक्षण के यू-ट्यूबर पत्रकारों को ख़तरा हो सकता है. मुझे ये आशंका नज़र आ रही है. केस मुक़दमा तो होने ही लगा है, बांक़ी आप समझदार तो है हीं

मैंने मूल रुप से अंग्रेज़ी में लिखे इस लेख को साझा किया था लेकिन अभी देखा कि इसका हिन्दी अनुवाद हुआ है, उसे यहां साझा किया जा रहा है.

महामारी के बाद से मीडिया उपभोक्ताओं का एक बड़ा वर्ग अख़बार नहीं खरीद रहा है. डिजिटल मीडिया से प्रतिस्पर्धा के चलते विज्ञापन दरों में क़रीब 40 फीसदी की कमी हुई है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो न्यूज़ मीडिया क्षेत्र के लगभग सभी बड़े नाम ख़तरे की स्थिति से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

महामारी के बाद भारतीय न्यूज़ मीडिया अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है. विज्ञापन खर्च के पैटर्न में आमूलचूल बदलाव हुए हैं क्योंकि प्रिंट और टीवी समाचारों के अग्रणी नामों के राजस्व में 35-40% की गिरावट आई है. ऐसा होना समाचार मीडिया को किसी बड़े कारोबार द्वारा अधिग्रहण के लिए और अधिक संवेदनशील बना रहा है. यहां तक ​​कि अडानी समूह के मीडिया में प्रवेश करने की खबरें भी आ रही हैं. ऐसा बहुत संभव है कि अडानी ऐसी कंपनी को अधिग्रहित करें, जो अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत हो.

मुकेश अंबानी समूह, बिरला और अन्य कॉरपोरेट्स पहले से ही समाचार मीडिया में निवेश कर रहे हैं और ज्यादातर संकट के समय हुई बिक्री के चलते आंशिक या पूर्ण स्वामित्व प्राप्त कर चुके हैं. कई छोटे अखबारों और टीवी चैनलों को बड़े कॉरपोरेट्स द्वारा नियमित रूप से सब्सिडी, कभी-कभी अनौपचारिक रूप से ब्रिज लोन के जरिये भी, दी जाती है.

प्रिंट और टीवी में विज्ञापन की स्थिति में सुधार हो रहा है लेकिन विज्ञापन दर अब भी लगभग 40% कम है क्योंकि डिजिटल विज्ञापन बहुत सस्ता है. देंत्सू की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में 2020 में 13% की गिरावट के बाद 2021 में भारत में विज्ञापन खर्च कुल 10 फीसदी बढ़कर नौ बिलियन डॉलर हो सकता है. यह गिरावट और रिकवरी भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के रास्ते पर ही चलती दिखती  है. विज्ञापन का खर्च महामारी के पहले के स्तर तक पहुंच सकता है, लेकिन न्यूज़ मीडिया का संकट कम नहीं होगा, जहां दशकों में सबसे अधिक नौकरियों का नुकसान होगा.

विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा मनोरंजन क्षेत्र में जाता है और समाचार मीडिया को हमेशा इसका 8% से कम ही मिलता है. इससे प्रिंट और टीवी में सिर्फ समाचारों पर निर्भर प्रोजेक्ट कमजोर स्थिति में आ जाते हैं. यही वजह है कि कई प्रमुख पारंपरिक समाचार मीडिया घराने अपने कारोबार का कुछ हिस्सा बेचने के लिए तैयार हैं. इससे पहले कभी भी इतने सारे न्यूज़ मीडिया संगठन बिक्री के लिए तैयार नहीं हुए थे.

समाचार मीडिया के इस तरह कमज़ोर पड़ने का प्रमुख उदाहरण ज़ी समूह जैसे बाज़ार में अग्रणी रहे समूहों की स्थिति है. व्यावसायिक तौर पर ज़ी हमेशा शीर्ष पर था. समाचार और मनोरंजन दोनों ही क्षेत्रों में यह मौजूद था और इस तरह इसके विविध राजस्व स्रोत थे. अब ज़ी एंटरटेनमेंट इसके हाथों से चला गया है, जबकि ज़ी मीडिया के सामने चुनौतीपूर्ण भविष्य है.

प्रिंट क्षेत्र के पारंपरिक अगुवा बेनेट, कोलमैन और कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल, टाइम्स ऑफ इंडिया समूह)  ने महामारी के बाद कारोबार और मुनाफे में बड़ी गिरावट देखी है. 2020 में महामारी और लॉकडाउन के चरम पर टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रिंट ऑर्डर में 50 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई थी.

दक्षिण में बाजार में आगे रहने वाला द हिंदू समूह आर्थिक तौर सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है. यही हाल हिंदुस्तान टाइम्स समूह का है, जहां रियल एस्टेट और समूह के अन्य व्यवसाय समाचार के काम को सब्सिडी देते हैं. आम तौर पर पिछले एक दशक में पारंपरिक समाचार मीडिया की लाभप्रदता यानी प्रॉफिटेबिलिटी 90% से अधिक घटी है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो लगभग सभी बड़े नाम खतरे की स्थिति से बाहर आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

महामारी के बाद से मीडिया उपभोक्ताओं का एक बड़ा वर्ग अखबार नहीं खरीद रहा है. डिजिटल मीडिया से प्रतिस्पर्धा में विज्ञापन दरों में लगभग 40 फीसदी की कमी हुई है. बीसीसीएल और ज़ी जैसे मार्केट लीडर्स द्वारा नियंत्रित प्रीमियम अब इतिहास की बात है. महामारी से कुछ साल पहले बीसीसीएल का कारोबार 7,000 करोड़ रुपये से अधिक का था. आज इसमें 30% या उससे अधिक की गिरावट देखी जा सकती है.

रॉयटर्स के एक सर्वे से पता चला है कि ज्यादातर युवा पाठक स्मार्टफोन पर मिलने वाली डिजिटल न्यूज़ पर शिफ्ट हो गए हैं. इससे भी बदतर, डिजिटल क्षेत्र के विज्ञापन में हुआ बड़ा बदलाव यह है कि इस पर बड़े पैमाने पर गूगल, फेसबुक और यूट्यूब जैसी बड़ी टेक कंपनियों द्वारा कब्जा कर लिया गया है, जिससे पारंपरिक मीडिया को नुकसान ही पहुंचा है.

टीआरपी घोटाले के कारण उपजे विश्वसनीयता के संकट और इसके बाद हुए आधिकारिक बार्क की टीवी रेटिंग के निलंबन ने भी विज्ञापनदाताओं को टीवी से डिजिटल की ओर धकेल दिया. विज्ञापनदाताओं का कहना है कि उन्हें डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मिलने वाली पाठकों/दर्शकों की संख्या की पारदर्शी व्यवस्था पर भरोसा है.

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया महामारी से पहले भी गंभीर संकट में ही थे. मीडिया समूहों ने 2003-2008 में उछाल के दौरान अंधाधुंध विस्तार किया था और वैश्विक वित्तीय संकट के बाद उन्हें असलियत का पता चला. वे वास्तव में कभी इससे नहीं उबरे. महामारी बस एक आखिरी चुनौती साबित हुई.

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