आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने एक ऐसी बहुत बड़ी आबादी बना दी है जो पढ़ तो सकती है लेकिन ये नहीं पहचान सकती कि क्या पढ़ने लायक है और क्या पढ़ना चाहिये.
किसी भी रास्ते का चुनाव एक इकलौते व्यक्ति का फैसला होता है, अतः उस पर चलना भी उसी इकलौते आदमी को चाहिये. मगर भीड़ बनकर समूह में चलने का प्रचलन पाखंड है और उस रास्ते पर चल निकले भीड़ के समूह वाले लोग ये बात समझते नहीं. क्योंकि असल में वे अपने दिमाग का इस्तेमाल करते ही नहीं और भेड़-नियम की तरह व्यवहार करते है.
अर्थात जैसे एक भेड़ जिस तरफ जाये उसी तरफ सारी भेड़ें चलने लगती है और ये बात गड़रिया अच्छे से समझता है. इसलिये वो सारी भेड़ों को नियंत्रित नहीं करता बल्कि सिर्फ सबसे आगे वाली भेड़ को नियंत्रित करता है, बाकी भेड़ें तो उस आगे वाली भेड़ के पीछे-पीछे बिना सोचे-समझे चलती है.
लेकिन जब यही भेड़-नियम इंसान अनुपालन करने लगे तो एक पूरे समाज का विनाश होकर कट्टरवाद का जन्म होता है क्योंकि किसी एक व्यक्ति के निर्णय में दूसरे सभी चलने वाले लोग बिना सोचे समझे उसी में अपना अपना सामूहिक हित देखने लगते हैं और कटृरवादी गुट में बदल जाते हैं जो अपने जैसों के अलावा दूसरों से सिर्फ नफरत करते हैं.
ऐसी कोई भीड़ या समूह न बने इसलिये ही महावीर ने सर्वज्ञता प्राप्त करने तक (संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने तक) मौन धारण कर लिया था और परिग्रह छोड़ दिया था. पीछे पीछे आने वाले याचक के लिये इंद्र प्रदत वस्त्र तक त्याग कर उसे दे दिया ताकि उस वस्त्र को देखकर और दूसरे लोग पीछे न आ जाये क्योंकि महावीर जिस रास्ते पर चल रहे थे वो उनका अपना निर्णय था और उस रास्ते को चुनने के बाद उन्हें अकेला ही उस पर आगे बढ़ना था. अपने पीछे चलने वाली भीड़ नहीं बनानी थी.
लेकिन आज उसी मार्ग का चयन करने वाले लोग गुट बनाते हैं. अनेकानेक मतों में बंटकर महावीर के नाम से भीड़ एकत्रित करते हैं, बिना सत्य समझे कि मोक्ष का मार्ग अकेले तय करना पड़ता है, उस पर न तो भीड़ ले जायी जा सकती है और न ही किसी और को कोई और मोक्ष प्रदान कर सकता है. अगर ऐसा हो सकता तो महावीर को महावीर बनने की नौबत ही न आती. आदिनाथ ही अपने साथ महावीर को मोक्ष में ले जाते (मोक्ष का मार्ग ऐसा ही है उस पर न सिर्फ अकेले चलना पड़ता है बल्कि उसके पीछे कोई भीड़ या गुट न बने इसका ध्यान रखना भी उतना ही जरूरी होता है.)
महावीर की ही तरह अनेकानेक ऐसे प्रभावक हुए जो नितांत अकेले थे और कभी अपने पीछे भीड़ नहीं चाहते थे. मगर आज के पाखंडी और झूठे ठेकेदारों ने धर्म के नये सिद्धांत बना लिये हैं. वे उस रास्ते को चुनते हैं जिस पर स्वयं न चलना पड़े. फिर वे उस रस्ते पर दूसरों को भेजते हैं और एक एक करके नहीं बल्कि भीड़ बनाकर भेजते हैं ताकि उनके विरोध में बोलने वाले को उस भीड़ की उग्रता द्वारा डरा-धमका कर चुप करवा सके अथवा उसी भीड़ का हिंसक इस्तेमाल कर विरोधी को समाप्त भी कर सके.
उदाहरण के लिये रामरहीम, आशाराम, नित्यानंद, राधे मां, सद्गुरु, योगी आदित्यनाथ, बाबा रामदेव और चिन्मयानंद इत्यादि जैसे नये-नये कुकुरमुत्तों की एक बहुत लम्बी लिस्ट बनायीं जा सकती है. उपरोक्त उदाहरण में जो नाम लिखे हैं वो वे लोग हैं जो अपनी विशिष्टता या कर्मों से नहीं बल्कि अपने द्वारा बनायीं भीड़ से पहचाने जाते हैं. इनमें से बहुतों ने स्वयं के भगवान या भगवान के अवतार होने का ऐलान भी किया है अर्थात कुछ भगवान् बनना चाहते हैं, और कुछ बन चुके है तथा कुछेक बनने की कतार में है.
इतिहास और साहित्यों में भी ऐसे ही न जाने कितने तथाकथित भगवान भरे पड़े हैं जो ताकत के बल पर खुद को पूजनीय बनाने के इच्छुक थे. मगर अंततः उनका विनाश हुआ और वे पूजनीय बनने की जगह तिरष्कृत बने. उन्हें लोग आज भी तिरस्कार की नजर से देखते और बुलाते हैं जैसे हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, मधु-कैटभ, अंधकासुर, रक्तबीज, कंस और न जाने कितने कितने ऐसे हैवान थे जो अपनी ताकत और खौफ के बूते खुद को भगवान कहलवाते थे.
इन्हीं की तरह आधुनिक इतिहास में इनके ही नक्शेकदम पर चलते हुए चंगेज खां, तुगलक, तैमूर लंग और हिटलर जैसे कितने ही ऐसे शैतान हुए जिन्होंने अपनी ताकत से खौफ पैदाकर लोगों को जबरन अपने सामने झुकाया लेकिन अंततः उनका विनाश हुआ.
आज भी इनके जैसे ही कुछ लोग अपनी ताकत से खौफ पैदा कर नये भगवान बनने को तैयार है. भारत में अभी धार्मिक तो नहीं लेकिन राजनैतिक व्यक्ति नरेंद्र मोदी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो अब तक तो शायद भगवान घोषित भी हो जाता है मगर मुश्किल ये है कि ‘ताकत’ केवल एक कल्पना है, असल में वो मिथ्या है.
क्योंकि ताकत कभी होती नहीं सिर्फ दर्शायी जाती है और इसे दर्शाने के लिये एक उम्मीद पैदा की जाती है कि ‘ऐसा हो सकता है या अगर ऐसा होता तो’ से शुरू होकर उस तथाकथित भगवानों पर आकर ख़त्म हो जाती है क्योंकि जैसा कि मैंने ऊपर ही लिखा है कि असल में ताकत मिथ्या है. वो होती नहीं है सिर्फ दर्शायी जाती है और जब उसका अस्तित्व ही नहीं है तो फिर उसका घटना संभव हो ही नहीं सकता. और इसीलिये उम्मीद की वो किरण भी उस ताकतकर्ता पर आकर खत्म हो जाती है और लास्ट में मिलता है केवल बाबाजी का ठुल्लू !
ताकत भले ही मिथ्या है मगर राक्षस एक सच्चाई हैं. वो होते हैं, सचमुच में होते हैं. अपने चारों तरफ ध्यान से देखिये. आपको अपने चारों तरफ राक्षस ही नहीं हैवान और शैतान भी दिखायी देंगे, जो कभी बलात्कार करते हैं तो कभी यौन शोषण करते हैं. कभी सत्ता के नाम पर लोगो को जान से मारते और मरवाते हैं तो कभी सत्ता कायम रखने के लिये देश तक बेचने को तैयार रहते हैं.
ध्यान से देखिये अपने चारों तरफ, हम सब राक्षसों के बीच ही रह रहे हैं और इनसे बचने की कोई उम्मीद भी मैं आपको नहीं दिखाऊंगा क्योंकि मैं अपने पीछे किसी तरह की भीड़ नहीं बनाना चाहता. बस ! यही सच्चाई है और इससे आप जितने जल्दी रूबरू हो जायेंगे, उतना ही आपके हित के लिये अच्छा रहेगा.
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मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि बीएचयू अम्बानी-अडानी-मित्तल को चुपचाप बेच दी गयी है या देश के संवैधानिक पदों पर बैठे गधे टीवी सीरियलों वाली काल्पनिक दुनिया में जी रहे हैं, जो नीता अम्बानी, प्रीति अडानी और उषा मित्तल को बीएचयू में विजिटिंग प्रोफ़ेसर बना दिया गया है. उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है ? क्या वे इस पद के लिये योग्यता रखती है ?
क्या उन्होंने खुद विजिटिंग प्रोफ़ेसर बनने के लिये अप्लाय किया है या किसी खास वजह से बनाया गया है ? क्योंकि सशक्तिकरण वाला जुमला मेरे दिमाग में तो नहीं बैठ रहा. अरे भई ! नारी सशक्तिकरण ही करना था तो कुछ ऐसी महिलाओं को विजिटिंग प्रोफ़ेसर बनाते न, जिन्होंने अपनी जिन्दगी में कुछ विशेष किया हो और दूसरी महिलायें और लड़कियां उनसे प्रेरणा ले सके – जैसे मेरीकॉम, जो नारी सशक्तिकरण का सच्चा उदाहरण है.
सिर्फ मैरीकॉम ही क्यों देश में राजनीति, खेल, व्यापार, लेखन, समाजसेवा जैसे क्षेत्रों से जुड़ी कुछ और ऐसी प्रभावशाली महिलायें भी हैं, जो पूरे देश के सामने एक उदाहरण हैं और उनके जीवन से और प्रतिभा से दूसरी महिलायें/लड़किया प्रेरणा भी ले सकती है. जैसे – लेखिका अरुंधति राय, एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स, पर्यावरणविद सुनीता नारायण, नर्मदा आंदोलन की आवाज़ बन चुकी मेघा पाटकर.
अगर किसी सेलेब्रेटी लेडी को ही विजिटिंग प्रोफ़ेसर बनाना है तो एकता कपूर और माधुरी दीक्षित में क्या बुराई है ? वे दोनों ही अपने अपने क्षेत्र की मानी हुई हस्तियां हैं और साथ में पढ़ी-लिखी, समझदार और जीवन में संघर्ष करके आज उच्चतम श्रेणी में पहुंची है.
और हां, सोनिया गांधी (कांग्रेस अध्यक्ष) और किरण बेदी (बीजेपी) के संघर्ष की कहानी भी किसी से छुपी नहीं है और उनके जीवन से ऑलरेडी हजारों-लाखों महिलायें प्रेरित हैं. फिर नीता अम्बानी, प्रीति अडानी और उषा मित्तल ही क्यों ? कहीं इसलिये तो नहीं कि इनके पति लोग राजनीतिक चुनावों में बीजेपी के लिये पैसा लगाते हैं ?
- पं. किशन गोलछा जैन
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