रविश कुमार
सकल घरेलु उत्पादन नहीं, सकल फोटो उत्पादन के लिए मोदी याद किए जाएंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति ख़ास तरह की दृश्य व्यवस्था (visual order) की राजनीति है. इसके केंद्र में होना महत्वपूर्ण नहीं है, होते हुए दिखना महत्वपूर्ण है. दृश्य इतना विराट है कि उसके आस-पास लोग नज़र नहीं आते हैं. इस कड़ी में आप में 2014, 2019 में उनके शपथ ग्रहण समारोह याद कर सकते हैं. पूरा शपथ ग्रहण समारोह दृश्य व्यवस्था के लिहाज़ से भव्यता लिए हुए थे. उन्हें विराट ग्रंथि है. सबका विकास नारा भर है. वे जानते हैं कि सात सालों में सबका विकास करने में असफल रहे हैं इसलिए ऐसी भव्य योजनाएं लांच की गई हैं जो लगती हैं सबके लिए हैं मगर कुछ हिस्से में लागू होकर दम तोड़ रही हैं.
आर्थिक तौर पर सबकुछ इतना चरमरा गया है कि उसमें हाथ डालने से नतीजे कब आएंगे पता नहीं. ये पता है कि जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं उस पर चलते हुए बहुत शानदार नतीजे नहीं आएंगे. कम से कम उनके कार्यकाल में तो नहीं. इसलिए वे यादगार होने के लिए दृश्य व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं. भव्य इमारतें बन रही हैं. इलेक्ट्रानिक बोर्ड और लेज़र किरणों से सजाया जा रहा है. ये इमारतें विकास की छवि लिए होती हैं. इनसे जन का विकास नहीं होता लेकिन जन को लगता है कि विकास हुआ है. शहर चरमरा रहा हो लेकिन शहर के एक कोने को सजा कर भव्य बना दिया जाए तो लोग उसे विकास के रुप में स्वीकार कर लेते हैं.
गुजरात विधानसभा चुनाव के समय प्रधानमंत्री मोदी सूरत गए थे. उनका दौरा दिन में नहीं था, शाम के वक्त था. जिस रास्ते से उनका रोड शो होना था उसके दोनों किनारों की इमारतों को रौशनी से सजा दिया गया था. शहर के चौराहों और मुख्य इमारतों को भी लेज़र किरणों और रौशनी से सजा दिया गया था. सूरत सास बहु सीरीयल के सेट जैसा बन गया और लोगों को शाम की रौशनी में अपना ही शहर एक ऐसे सेट के रुप में दिखा जो दिन के वक्त बजबजाया दिखता है.
इसी तर्ज में मोदी के कार्यकाल में रेलवे स्टेशनों को देखने लायक बनाया गया. साफ दिखे इसलिए वेंडर तक हटा दिए गए. मोदी के विकास का मॉडल ही यही है – बिना आदमी का विकास. फिर अब रेलगाड़ियों को सजाया जा रहा है ताकि लगे कि कुछ कमाल हो गया है. शायद उसी का असर है कि लोग अब रेल टिकटों के दाम और अंदर मिलने वाली ख़राब सुविधाओं के बारे में बात नहीं करते हैं. जब तक उन्हें इसका ध्यान आता है प्लेटफार्म पर जापानी रेल की शक्ल लिए भारतीय रेल तेज़ी से गुज़र जाती है. नागरिक उसकी दृश्यता की भव्यता से चकित हो जाता है. विकास का विराट दर्शन कर लेता है.
प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल को सकल घरेलु उत्पादन से नहीं आंका जाना चाहिए. वो तो माइनस की दुनिया में विचर रहा है. मेरी राय में उनके कार्यकाल को सकल फोटो उत्पादन से आंका जाना चाहिए. प्रधानमंत्री काम करते हुए दिखे इसके लिए वे समय-समय पर फोटो उत्पादन कराते रहते हैं. कभी उनके काम करने के बीच मोर आ जाता है तो कभी वे काम करते हुए मज़दूरों के बीच चले जाते हैं. हर बार फोटो होता है.
काम करते हुए फोटो उत्पादकता के मामले में भारत के प्रधानमंत्री दुनिया में नंबर वन हो सकते हैं. दुनिया के किसी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की काम करते हुए इतनी तस्वीरें नहीं हैं. उनका फोटो ही उनका काम है. उनकी फोटो उत्पादकता का वितरण बहुत तेज़ी से होता है, जो सबके मन में छवि बनाता है कि दिन रात काम कर रहे हैं.
जब मैं स्कूल में बहुत कमज़ोर विद्यार्थी था तो टीचर बहुत डांटा करते थे. एक शिक्षक की बात याद है. कहते थे कि दो तरह के पढ़ने वाले विद्यार्थी होते हैं. एक वाकई पढ़ता है और दूसरा पढ़ने के नाम पर अपनी मेज़ को साफ सुथरी रखेगा. रुटीन बनाकर दीवार पर लगाएगा. सोम को सात बजे से गणित तो मंगल को रात बारह बजे संस्कृत. फिर कलमदानी को सुंदर बनाएगा. देखकर ही लगेगा कि यही सबसे बड़ा पढ़ाकू है. वह मोहल्ले में उदाहरण दिया जाता है और उसके असफल होने के बाद भी परिश्रमी और स्वाध्यायी होने की छवि कई साल तक कायम रहती है.
जो सफल होता है उससे भी ज़्यादा समय तक कि इतना पढ़ता है लेकिन इसका कुछ नहीं हुआ. बैड लक था. कितना अच्छा बच्चा था. मेरे टीचर कहा करते थे कि सबसे पहले स्वीकार करो कि तुम कमज़ोर हो, फिर धीरे-धीरे कुछ ठीक विषयों पर काम शुरू करो. फिर उसके बाद मुश्किल विषय की तरफ बढ़ो. कम़ज़ोर से औसत की तरफ और फिर वहां से आगे लेकिन मेज़ सज़ा कर झांसा मत दो. बाद में जब हिन्दी सिनेमा की दुनिया में भटका तो कई हीरो को देखा कि वे लड़की को प्रभावित करने के लिए हाथ में किताब लिए जा रहे हैं. उनके हाथ से किताब गिर जाता है.
इसी तरह के सीन मैं प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति में देखता हूं. प्रधानमंत्री मोदी इसी टाइप के नेता और विद्यार्थी हैं. आपको बुरा लगेगा लेकिन बात मेरी ही सही साबित होगी जो अब तक हुई है क्योंकि यह मेरा अहंकार नहीं है, एक राजनेता के रुप में उनके बारे में किया गया अध्ययन है. मुझे लगता है कि विराट दृश्य व्यवस्था और उसकी फोटो उत्पादकता के बिना आप मोदी की राजनीति को नहीं समझ सकते. शहर गड्ढों से भरा रहेगा लेकिन वे चौराहों पर इलेक्ट्रानिक बोर्ड लगाकर गंगा आरती का सीधा प्रसारण करवा देंगे. लोग गड्ढा छोड़ आरती देखने लगेंगे.
इस तरह प्रधानमंत्री मोदी मीडिया के झूठ और अपने कार्यकाल में बनी चंद भव्य इमारतों और स्मारकों के दम पर काम करने की छवि बना ले जाते हैं. काफी वाहवाही मिलती है. जब उन्होंने प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना के तहत ग़रीबों को मुफ्त अनाज देने का कार्यक्रम लांच किया तो उसी के साथ उनके सात साल के कार्यकाल के बाद भी भारत की भीषण ग़रीबी का सच बाहर आ गया.
अस्सी करोड़ लोग ग़रीब निकल गए. अब वह ग़रीबी गरीबी की तरह न दिखे और न ग़रीब ख़ुद को गरीब की तरह देखे इसके लिए मोदी झोला दिया गया ताकि अस्सी करोड़ लोग अपनी ग़रीबी कम, ग़रीबी के नाम पर मिलने वाले अनाज को कम उसे घर तक ले जाने वाले झोले को देखते रहें और उसके ज़रिए सारा शहर प्रधानमंत्री मोदी को देखते रहे. इसी झोले के बजट से वे गरीब लोगों या ज़रूरतमंदों की फीस से लेकर अस्पताल के इलाज का खर्च दे सकते थे लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे.
कभी कोई हिसाब करे कि दिखने और दिखाने पर मोदी ने चुनावी रैलियों से लेकर अपनी योजनाओं पर कितना खर्च किया तो पता चलेगा कि भारत की अर्थव्यवस्था क्यों बर्बाद हो गई. अगर नहीं हुई है तो बेरोज़गारों से पूछ लीजिए या उन लोगों से जो नौकरी में हैं जिनकी कई साल से सैलरी खास नहीं बढ़ी है. पहले से कमाई घट गई है. यह सब बर्बाद अर्थव्यवस्था की निशानी नहीं है तो क्या है ?
इसी क्रम में जब अमरीका से लौटे तो सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट साइट का दौरा करने जाते हैं. सिर्फ इस छवि के लिए अमरीका से आकर भी आराम नहीं किया. कितना काम करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी काम करने की छवि का अपना इलाका चुनते हैं. एक साल से किसान धरने पर बैठे हैं, उनकी तरफ देखा तक नहीं लेकिन चार मज़दूरों के बीच जाकर फोटो उत्पादन कराते हैं ताकि वे हमेशा काम करते हुए दिखें. उन्हें इस मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञान है कि फोटो ही सूचना है.
उनके कार्यकाल की समीक्षा करने वाली जनता को इन तस्वीरों को सूचना के तौर पर पेश किया जा सकता है कि कितना काम करते हैं, थकते तक नहीं हैं ? सात साल के कार्यकाल के इतना काम करने के बाद हासिल क्या है ? यहां से वहां तक की भव्य इमारतें. वे जनता के घर को रौशन नहीं कर रहे हैं, अपनी छवि को रौशन कर रहे हैं. उनकी राजनीति आधुनिक दौर में मध्यकालीन राजाओं की मानसिकता लिए हुए हैं. पुरानी इमारत को तोड़ कर नई भव्य इमारत बनाने से युगों युगों तक लोग याद रखेंगे कि कितना काम किया है.
इससे लोगों के जीवन में ख़ास बदलाव नहीं आता लेकिन यह काम लोगों की स्मृतियों का हिस्सा तो बन ही जाता है. यह काफी सफल भ्रमजाल है. हर नेता छोटे स्तर पर इसे आज़माता है. अब तो कई नेता ये काम करने लगे हैं. एक दो योजनाओं को दिखने लायक मॉडल में बदल देते हैं जिससे जनता भ्रम में रहती है कि कितना काम हुआ है ! प्रधानमंत्री इन सबके उस्ताद हैं. भोली जनता ठगी जाती है.
सकल घरेलु उत्पादन की जगह सकल फोटो उत्पादन की अवधारणा के लिए मुझे नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन कोई बात नहीं. कमेंट में भाड़े के लोग गाली देने आ जाएंगे लेकिन वे भी जानते हैं कि जो लिखा है वही सच है. इस पोस्ट के साथ जो तस्वीर है वो मैंने ट्विटर से ली है. इसमें बताया गया है कि सेंट्रल विस्ता के भ्रमण के कई फोटो का उत्पादन हुआ है, जिसका वितरण गोदी मीडिया के पत्रकारों ने इस हैरतअंगेज़ सवाल से किया है कि प्रधानमंत्री में काम करने की इतनी ऊर्जा कहां से आती है ?
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