कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
हिन्दुस्तान को पूरी आजादी भगतसिंह के अर्थ में नहीं मिली है. भगतसिंह ने तर्क के बिना किसी भी विचार या निर्णय को मानने से परहेज किया. भगतसिंह देश के पहले विचारक हैं जिन्होंने दिल्ली के क्रांतिकारी सम्मेलन में कहा था कि सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना होगा. यदि कोई चला भी जाए तो पार्टी नहीं बिखरे क्योंकि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है और पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है. देश को बार-बार तमंचे भांजने वाला भगतसिंह क्यों याद कराया जाता है ? यदि कोई थानेदार अत्याचार करे तो क्या यह उत्तेजना भगतसिंह की है कि उसे गोली मार दी जाए ? क्या वे अजय देवगन या धर्मेन्द्र के बेटे सनी देओल का पूर्वज संस्करण हैं ?
भगतसिंह ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ में वे साफ कहते हैं – ‘वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएं तो गांवों और कारखानों में हैं – किसान और मजदूर‘ ‘क्रांति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं किसान और मजदूर‘ ‘किसानों और मजदूरों का सक्रिय समर्थन हासिल करने के लिए भी प्रचार जरूरी है.’
क्रांति के लिए हथियारों के इस्तेमाल के सवाल पर भगतसिंह और साथियों को कांग्रेस सहित कम्युनिस्टों का भी प्रोत्साहन या सहयोग नहीं मिला. लाहौर कांग्रेस के समय बांटे गए पर्चे में क्रांतिकारी साफ ऐलान करते हैं- ‘विदेशियों की गुलामी से भारत की मुक्ति के लिए यह एसोसियेशन सशस्त्र संगठन द्वारा भारत में क्रांति के लिए दृढ़ संकल्पित है.-हम हिंसा में विश्वास रखते हैं-अपने आप में अन्तिम लक्ष्य के रूप में नहीं बल्कि एक नेक परिणाम तक पहुंचने के लिए अपनाए गए तौर तरीके के नाते.’
उसी दिन भगतसिंह विद्यार्थियों के नाम पत्र में उनसे आह्वान करते हैं कि नौजवानों को क्रांति का यह सन्देश देश के कोने कोने में पहुंचाना है, फैक्टरी कारखानों के क्षेत्रों, गन्दी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाएगा.
आतंकवाद तथा अराजकतावाद से समाजवाद की ओर सफर करते हुए भगतसिंह ने ये कालजयी निर्णायक वाक्य भी कहे थे- ‘मेरा मतलब यह कदापि नहीं है कि बम व पिस्तौल बेकार हैं, वरन इसके विपरीत यह लाभदायक हैं. लेकिन मेरा मतलब यह जरूर है कि केवल बम फेंकना न सिर्फ बेकार, बल्कि नुकसानदायक है. पार्टी के सैनिक विभाग को हमेशा तैयार रहना चाहिए ताकि संकट के समय काम आ सके. इसे पार्टी के राजनीतिक काम में सहायक के रूप में होना चाहिए. यह अपने आप स्वतंत्र काम न करें.’
भगतसिंह सम्भावनाओं के जननायक बनकर इतिहास में अपनी उज्जवल उपस्थिति दर्ज कराते हैं. उन्हें इस देश के लिए जीने की औसत उम्र भी नहीं मिली. ईश्वर के प्रति भगतसिंह को आस्था नहीं थी. वे प्रखर नास्तिक बने रहे. जरूरत है भगतसिंह के मानस की पड़ताल की जाए. उन विचारों को खंगाला, पुनर्परिभाषित और प्रासंगिक बनाया जाए जो भारतीय क्रांतिकारियों का दर्शन बने हुए हैं.
भगतसिंह को राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में वास्तविक स्थान पर स्थापित करने की जरूरत है. भगतसिंह का सम्पूर्ण लेखन आज तक सामान्य पाठकों तक नहीं पहुंचा है. इस महान वीर युवक के साहसिक जोखिम के तिलिस्म से उबरकर कब उसे काॅमरेड समझा जाएगा ?
भगतसिंह को मिथक पुरुष बनाए जाने की गैर-जिम्मेदार कोशिशें चलती रहती हैं. दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद को वीर पूजा की भावना के सहारे अपने बांझ तर्कशास्त्र को ढोने की आदत है. इसलिए ऐसे सभी महापुरुषों का जो उसकी थ्योरी के प्रचार के लिए अपने आंशिक प्रतिस्मरण के जरिए उपयोग में लाए जा सकते हैं, शोषण करने से भी उसे परहेज नहीं है.
मसलन सरदार पटेल इसलिए राष्ट्रवादी बना दिए जाते हैं क्योंकि उन्होंने इस्लामी देसी रियासतों का विलीनीकरण करने का जोखिम उठाया था. अम्बेडकर यदि इस्लाम का विरोध करते हैं तो उनके लिए प्रगतिशील हैं. अब तो गांधी भी हिन्दुत्व के पैरोकार के रूप में और धर्मांतरण के खिलाफ दिखाई पड़ने के कारण उनके दफ्तरों की दीवारों पर टंग गए हैं.
भगतसिंह भी उन्हें एक हिंसक दीखते वीर हैं, जो विरोधी विचारधारा पर बम फेंक कर भी अपने निर्णय की पुष्टि इतिहास से करा सकते हैं. क्या यही भगतसिंह होने का तात्विक अर्थ है ? दुनिया में चौबीस वर्ष से कम उम्र का कोई ऐसा बुद्धिजीवी पैदा नहीं हुआ है जिसने कम से कम पांच वर्ष अपने देश के इतिहास को अपने कांधों पर उठाए रखा. दुनिया में क्या कोई जननेता पैदा हुआ है जिसने तेईस वर्ष की उम्र में अपनी देह से बुद्धिजीविता के स्फुलिंगों का निर्झर पैदा किया हो ?
भगतसिंह ने समाजवाद या साम्यवाद के वैचारिक वर्क की इतनी बारीक परतें अपने तर्क से चीर कर दी हैं, जो रूढ़ वामपंथी विचारकों के लिए संभव नहीं है. वह अपनी प्रयोगधर्मिता में एक शोध विद्यार्थी की तरह देशभक्ति का जज़्बा हमसे उस उत्पाद के कच्चे माल की तरह मांगता है जो उसकी कुर्बानी की धमन भट्टी से ऐसा पैदा हुआ कि लोग भगतसिंह के प्रति अपनी समझ को उसकी स्थायी व्याख्या बनाने का पेटेंट करने की ज़िद कर रहे हैं.
भगतसिंह का जन्म स्मृतिशेष विभाजित भारत की भूगोल अर्थात पाकिस्तान में है. भगतसिंह का इतिहास लेकिन उनके भविष्य में है. उनकी देह दाह संस्कार के लिए परिवार और देश को मिली थी. वह अधजली और टुकड़े टुकड़े थी. ऐसा भी किसी बड़े देशभक्त के साथ नहीं हुआ. शैक्षणिक पाठ्यक्रम में समकालीन विचारक भगतसिंह शामिल नहीं हैं. ऐसे लेखकों की पुस्तकें अलबत्ता दर्ज होती हैं जो विचार के जनपथ के हाशिए तक के लायक नहीं हैं.
भगतसिंह के लेखन को सम्पादित और चयनित कर वास्तविक पाठ्यक्रम में शामिल कर उस पर शोध किए जाने की जरूरत है. जिस साथीपन के साथ उनकी टीम ने भारतीय आजादी के लिए मुकम्मल संघर्ष किया, वह साथीपन लोकतंत्र से गायब है. समाजवाद को संविधान के जीवित लक्ष्य के रूप में घोषित करने के बाद भी देश वैश्वीकरण, मुक्त बाजार और साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके हुए है. धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मकसद के बावजूद भारत सांप्रदायिक दंगों का दुनिया का सबसे बड़ा अखाड़ा है.
अछूत से भाईचारा रखना भगतसिंह ने समझाया था. वह जगह जगह सवर्णों की हिंसा का शिकार है. इस किसान पुत्र ने जिन्हें भारतीय अर्थनीति की रीढ़ बताया था वे किसान थोकबन्द आत्महत्याएं कर रहे हैं. दुनिया का सबसे बड़ा आन्दोलन कर रहे हैं. सरकारें उन पर अहसान बताकर कर्ज माफ कर रही हैं लेकिन पैदावार का उचित मूल्य और भूमि सुधार नहीं दे पातीं. किसानों के अधिकारों के बारे में प्रदेश सरकारें एक नहीं हैं. किसान आज भी राष्ट्रीय बहस के केन्द्र में नहीं हैं.
नौजवान भगतसिंह का सपना थे. वे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा बेकारी के भत्ते से लेकर सड़कों पर उत्पात करने की सांस्कृतिक गतिविधियों में लिप्त हैं. मजदूरों को भगतसिंह माक्सवाद से प्रभावित होकर जेहाद बोलने के काम पर लगाना चाहते थे. वे अपने अधिकारों में लगातार कटौती किए जाने से लुंज पुंज हो गए हैं. भगतसिंह की नास्तिकता के बरक्स देश में अशिक्षित धर्मांध साधुओं का हिप्पीवाद भारतीय धार्मिकता का पर्याय बनाया जा रहा है.
भगतसिंह के प्रखर कर्मों का ताप झेलना मौजूदा राजनीति में किसी के वश में नहीं है. भगतसिंह की कुरुचिपूर्ण मूर्तियां कन्याकुमारी से गौहाटी और जम्मू तक मिल जाएंगी. भगतसिंह की स्मृति में देश में सबसे बड़ा केन्द्रीय पुस्तकालय/वाचनालय खोलने की जरूरत है क्योंकि भगतसिंह से ज्यादा बड़ा पढ़ाकू भारतीय राजनीति में कोई नहीं हुआ. सरकारें उनके स्मृति-आयोजनों में शिरकत करने वाले मंत्रियों की सुरक्षा पर जितना खर्च कर देती हैं, उतने धन से भगतसिंह साहित्य को प्रकाशित कर देश के विद्यार्थियों में यदि वितरित कर दिया जाए तो देश (और भगतसिंह) का ज्यादा भला हो सकता है.
भगतसिंह को जन स्मृति से दूर रखने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां एक हैं. ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के मुकाबले देश ‘इंडिया शाइनिंग‘, ‘फील गुड‘, ‘नक्सलवाद‘, ‘जेहाद‘ ‘मोदी दर्शन‘, ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र‘, ‘सेंसेक्स‘, ‘परमाणु करार‘ के नवयुग में आ गया है. भगतसिंह की भाषा और तर्कों की चमक आज भी धूमिल नहीं हुई है. पिछली सदी के तीसरे दशक में भविष्यमूलक सवाल देश की छाती पर उन्होंने उकेरे थे.
21वीं सदी केे तीसरे दशक में भगतसिंह की क्रांति का पुनर्पाठ होना चाहिए. यह महान नवयुवक भारत के वैचारिक फलक का ध्रुवतारा है. ताजा इतिहास के पिछले नब्बे वर्षों में भगतसिंह ध्रुव तारे की तरह स्थायी तो हैं लेकिन आसमान में ध्रुव तारा झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है. कहते हैं जिसकी मौत निकट आ गई हो ध्रुव तारा उसे दिखाई देना बंद हो जाता है. भारत को यह धुव तारा दिखाई तो देता रहे.
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