पेगासस जासूसी कांड पर जांच कमेटी बनाने की घोषणा कर सुप्रीम कोर्ट ने निश्चय ही एक बड़ा काम किया है. अब इसमें किसी को शुबहा नहीं रह गया है कि पेगासस से जुड़ा सच सरकार छुपाने पर आमादा है. वह सुप्रीम कोर्ट तक को यह बताने को तैयार नहीं है कि वह इजराइल के इस उपकरण का इस्तेमाल कर रही है या नहीं. उसकी दलील है कि इस जानकारी से देशविरोधी तत्वों को इस तकनीक की काट खोजने का अवसर मिलेगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह एक हास्यास्पद तर्क है.
पेगासस से जुड़े ख़ुलासों के बाद क्या किसी को शक रह गया है कि भारत में इसका इस्तेमाल हो रहा है ? अगर वाकई कोई देशविरोधी या आतंकवादी संगठन भारत के विरुद्ध काम कर रहा है तो क्या वह ख़ुद को बचाने के लिए भारत सरकार के हलफ़नामे का इंतज़ार कर रहा होगा ? क्या वह मान कर चल रहा होगा कि जब तक भारत सरकार नहीं बताती तब तक कोई जासूसी नहीं हो रही है ?
दरअसल पेगासस से जु़ड़ी स्वीकारोक्तियां सरकार को इसलिए डरा रही हैं कि अगर एक बार उसने इसके इस्तेमाल की बात मान ली तो फिर यह सवाल भी उठेगा कि इसका इस्तेमाल किन लोगों के विरुद्ध हो रहा है ? फिर भारत के जिन तीन सौ फोन नंबरों की जासूसी की बात सामने आई है, उनको लेकर औचित्य के सवाल उठेंगे. यानी यह पूछा जाएगा कि आखिर इन लोगों से देश की सुरक्षा को क्या ख़तरा था ?
क्योंकि भारत में जिन लोगों या संगठनों की जासूसी का आरोप लग रहा है, उनमें कौन देशद्रोह की गतिविविधियों से जुड़ा हुआ है – यह समझना मुश्किल है. इस सूची में राहुल गांधी, उनके कर्मचारी, प्रशांत किशोर और अभिषेक बनर्जी जैसे विपक्ष से जुड़े नेता ही नहीं, सरकार के मंत्री भी शामिल हैं. सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव और जल शक्ति राज्य मंत्री प्रह्लाद पटेल के नंबर भी यहां निकल रहे हैं. इसके अलावा देश के प्रतिष्ठित अख़बारों के नए पुराने पत्रकारों के नाम भी हैं. और तो और, जिस महिला ने रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, उसके पूरे परिवार की जासूसी जारी थी.
दरअसल पत्रकारों की मार्फ़त आई यह सूची बताती है कि पिछले कुछ वर्षों में जो भी जिस वजह से सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए असुविधाजनक हुआ, किसी वजह से उसे अपने लिए संदिग्ध या ख़तरनाक लगा, उसकी जासूसी शुरू हो गई. इस जासूसी की जद में वे लोग भी आए जो न असुविधाजनक थे और न ही ख़तरनाक, लेकिन बस किसी और की घेराबंदी के काम आ सकते थे.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की घोषणा जितनी उम्मीद पैदा करने वाली है, उतने ही सवाल भी. हमारे यहां कई मामलों को ठंडे बस्ते में डालने का यह जाना-पहचाना तरीक़ा है कि उन पर जांच कमेटी बना दी जाए या उन्हें किसी विशेषज्ञ समिति के पास भेज दिया जाए. अब तो सीबीआई जांच भी ऐसा ही एक तरीक़ा बन गई लगती है.
सवाल और भी हैं. मान लें कि सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ कमेटी बना ही दी. वह कमेटी क्या करेगी ? अगर सरकार देश की सुरक्षा का हवाला देते हुए इस कमेटी को सूचना देने से इनकार कर दे तो क्या होगा ? आख़िर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इसी तर्क से विस्तृत शपथ पत्र देने से मना कर ही दिया है.
पेगासस दरअसल अब जासूसी का ही मामला नहीं रह गया है, वह लोगों की निजी ज़िंदगी में झांकने के, उनके साथ खेल कर सकने के सत्ता के अहंकार का उदाहरण भी हो गया है. यह हमारे लोकतंत्र को कमज़ोर करने की साज़िश है. यह विपक्ष को और असहमति को डराने की कोशिश है. अगर सरकार यह काम नहीं कर रही तो यह और ज़्यादा चिंता की बात है. उसे भी चिंतित होना चाहिए कि कौन उसके नागरिकों की निजता के साथ ऐसा डरावना खिलवाड़ कर रहा है.
दरअसल इस मोड़ पर सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी और चुनौती बड़ी हो जाती है. ऐसी कोशिशें सरकारें पहले भी करती रही हैं. उन्हें लोकतंत्र की दूसरी पहरुआ शक्तियों ने रोका है. लेकिन हाल के वर्षों में सत्ता जैसे लगातार निरंकुश होती दिख रही है. उसके आगे दूसरी संस्थाएं भी बेबस हैं. कई बार अदालतों ने भी इस देश के आम नागरिकों को मायूस किया है.
मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं बेमानी साबित हुई हैं. इस देश में इंसाफ़ पहले भी टेढ़ी खीर था, अब तो कई तरह के अपराधों को सामाजिक स्वीकृति मिलती दिख रही है. किसी को पाकिस्तान भेजने और किसी को गोली मारने की बात करने वाले सरकार में शामिल किए जा रहे हैं.
ऐसे में पेगासस पर सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान रुख लोकतंत्र के लिए एक बड़ी आश्वस्ति की तरह आया है. लेकिन यह आश्वस्ति बनी रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि यह न्यायिक सक्रियता भी लगातार बनी रहे. सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा की दलील देती रहेगी, अदालत को बताना होगा कि राष्ट्र की सुरक्षा जनता की स्वतंत्रता में भी निहित होती है.
पंजाब के कवि अवतार सिंह पाश की बहुत बार दुहराई हुई कविता पंक्ति फिर से याद आती है- ‘अगर देश की सुरक्षा यही होती है / तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है.’
- प्रियदर्शन, एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर, NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं.
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