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एक आतंकवादी राष्ट्र अपने नागरिकों को आतंकवादी बनने पर विवश कर देता है

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सेना और पुलिस ईमानदार होती है. पुलिस जो कहती है, न्यायालय में वहीं मान्य माना न भी जाता हो तब भी आदमी को 20-25 साल जेल में यों ही काटने पड़ जाते है. पुलिस को झूठा साबित करने में आदमी की पूरी उमर निकल जाती है. खेत-खलिहान और घर तक बिक जाता है. तब भी सेना और पुलिस को तनिक भी लज्जा नहीं आती है. और न ही न्यायालय कुछ कर पाता है, सिवा इसके के 20-25 साल बाद उसे रिहा कर दिया जाता है ताकि बांकि की उम्र वह आदमी घुट-घुटकर मरता रहे. उससे भी ईमानदार होता है पत्रकार. वह जो लिखता है और बोलता है सारी दुनिया उसी की सुनती है. लोगों के सोचने की क्षमता खत्म हो जाती है. पत्रकार के झूठ को साबित करने में महीनों लग जाते हैं, लोग मारे जाते हैं. और जब यह सब झूठ साबित हो जाता है तब पत्रकार को तनिक भी लज्जा नहीं आती. वह फिर से नया झूठ लिखने और लोगों को बदनाम करने में जुट जाता है.

पुलिस और पत्रकार की इस मिलीभगत का परिणाम यह समाज भोगता है, जहां लाखों निर्दोष आदमी जेलों में सड़ कर मर जाते हैं, समाज में अपमानित होकर घुट-घुट कर जीने को अभिशप्त हो जाता है. पिछले वर्ष लॉकडाउन में इन दोनों का तमाशा खूब देखने को मिला था और आज भी देखने को मिल रहा है. पटना के कारगिल चौक पर जब मैं पुलिस के साथ मास्क के सवाल पर बहस कर रहा था तब कई पत्रकार मेरा बाईट लेने लगे. इससे बौखलाया एक पत्रकार माईक को लाठी की तरह इस्तेमाल करते हुए मुझ पर हमलावर हो गया. मैंने उसे डांटा और कहा – ‘तुम पत्रकार हो या गोदी मीडिया का गुंडा ?’ जब उसे यह अहसास हो गया कि मैं भी एक पत्रकार हूं, तब वह पीछे हटा और दूर खड़ा होकर रोने लगा.

खुद मेरे साथ घटी यह घटना दर्शाता है कि पत्रकारों का पतन एक गुंडे के रूप में हो गया है, और अब वह जनता की आवाज न होकर सत्ता और पुलिस का दलाल बन गया है. कई पत्रकारों को तो ऐसा भी देखा है जो थाना-पुलिस की दलाली करते हुए पुलिसिया जुल्म के शिकार हुए लोगों को छुड़ाते हैं और इसके एवज में उस पीड़ित शख्स से दस-बीस हजार से लेकर लाखों रूपयों तक ऐंठ लेता है.

कॉरपोरेट घरानों का लठैत सेना-पुलिस और उसकी दलाली करता पत्रकार को अपनी गलती का अहसास तक नहीं होता है, भले ही उसके झूठ और दलाली से लोग बर्बाद ही क्यों न हो जाये. उसे उसका अहसास तब होता है जब पीड़ित लोग एकजुट होकर कॉरपोरेट घरानों के इस कारिंदा और पुलिस को बकायदा मारना शुरू करते हैं. तब ये गुण्डे उस पीड़ित जनों को आतंकवादी, माओवादी, असमाजिक तत्व कहकर संबोधित करते हैं और पत्रकार उसकी दलाली करते हुए अखबारों में झूठ का पुलिंदा छापने लगता है.

कहना न होगा कि कश्मीर के पुलवामा में सेना-पुलिस को उड़ाने वाला वह आत्मघाती शख्स सेना-पुलिस के इसी बहसी अंदाज का भुक्तभोगी था, जिसने अपने अपमान का बदला 40 सेना के जवानों को बमों से उड़ा कर लिया. भले ही आप उस शख्स को आतंकवादी ही क्यों न कहें, लेकिन यह मत भूलिये वह आपके ही पापों का उत्पाद है. अगर इस सब के बाद भी कॉरपोरेट घरानोें के ये कारिंदें और उसके दलाल पत्रकार खुद में बदलाव न ला पाये तो निःसंदेह उस पर हमले और बढ़ेंगे. आखिर मरता क्या न करता, भले ही आप उसे बटमार, चोर, मवाली, आतंकवादी, माओवादी, नक्सलवादी ही क्यों न कहते फिरे, आपके घर भी सुरक्षित नहीं बचेंगे और मुर्दे के ढ़ेर में शामिल कर दिये जायेंगे.

कल असम में कॉरपोरेट घरानों के हित में जिस प्रकार कॉरपोरेट घरानों का कारिंदा आम नागरिकों की खुलकर हत्या करता है और उसकी हत्या के बाद जिस प्रकार पत्रकार उस मृत आदमी के शव पर उछल-उछल कर कूद रहा था और उस पर मुक्के से प्रहार कर रहा था, यह उस कारिंदा और पुलिसिया दलाल पत्रकार की एक घिनौनी अमानवीयता से अधिक और कुछ भी नहीं है.

यह वह पल है जो यह दर्शा रहा है कि आम नागरिकों की हत्या में पारंगत कॉरपोरेट घरानों का कारिंदा सेना-पुलिस के साथ-साथ अब इस खेमे में पत्रकार भी शामिल हो चुका है. एक पत्रकार किस प्रकार हिंसा और नफरत से बिंध चुका है, जहां वह एक हैवान बन गया है. ऐसा भी नहीं है कि उस एक आदमी के साथ किया गया हिंसा और नफरत से लोग डर जायेंगे. दुआ कीजिए कहीं वह आम आदमी अपने हाथों में हथियार उठा कर पुलवामा की ही तरह इन नफरती पुतलों को बम से न उड़ा दें.

सौमित्र राय लिखते हैं – ये विजय शंकर बोनिया है. कल असम के दारांग जिले में लाश पर कूदने वाला. ऐसे विजय शंकर आपको देश के हर हिस्से में छिपे मिल जाएंगे. ये आपका पड़ोसी, दफ़्तर का सहकर्मी, आपका बॉस, स्कूल का दोस्त, व्हाट्सएप ग्रुप का सदस्य, रिश्तेदार कोई भी हो सकता है. यह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बीजेपी और आरएसएस के नफरती न्यू इंडिया का उत्पाद है, जो कहीं भी हो सकता है.

यह उस भारत का पैदा किया हुआ है, जो कफ़न चोर है. यह उस भारत की नफ़रत को दिल में लिए घूम रहा है, जिसके एक राज्य की सरकार लाशों से बलात्कार करने की बात कह चुकी है. रोइये मत. इन पर गुस्सा भी मत कीजिये. कोसिए खुद को. अपनी मूर्खता पर तरस खाइए. अपने भीतर के नफ़रत को टटोलिये. उसे ख़त्म कीजिये वरना आपके शव के साथ भी ऐसा ही हो सकता है.

पत्रकार रविश कुमार इस हैवानियत को अपनी लेखनी में समेटते हुए लिखते हैं – असम का ये केवल एक मिनट बारह सेकेंड का वीडियो है. इसके पहले फ्रेम में सात पुलिसवाले दिख रहे हैं. सात से ज़्यादा भी हो सकते हैं. सभी पुलिसवालों के हाथ में बंदूकें हैं. सबने बुलेट प्रूफ जैकेट पहन रखे हैं. तरह-तरह की आवाज़ें आ रही हैं. तड़-तड़ गोलियों के चलने की आवाज़ें भी आ रही हैं. कैमरे का फ्रेम थोड़ा चौड़ा होता है. अब सात से अधिक पुलिस वाले दिखाई देते हैं. गोली की आवाज़ तेज़ हो जाती है.

एक पुलिसवाला हवा में गोली चला रहा है. एक के हाथ की बंदूक नीचे है. एक पुलिसवाला सीने की ऊंचाई के बराबर गोली चला रहा है. दूसरी तरफ से दो तीन पुलिस वाले भागे आ रहे हैं उनके आगे एक आदमी भागा आ रहा है. वह ढलान से उतरता हुए तेज़ भागा आ रहा है लेकिन सामने से पुलिस वाले भी तेज़ी से उसकी तरफ बढ़े जा रहे हैं.

अब वीडियो के फ्रेम में कई पुलिस वाले दिखाई देते हैं. एक पुलिस वाला उस आदमी पर बंदूक ताने दिखता है. एक लाठी उठाए दिखता है. कुछ और पुलिस वालों के हाथ में लाठियां हैं. भागने वाले आदमी के हाथ में भी लाठी दिख रही है. गोलियों के चलने की आवाज़ आती जा रही है. निहत्था भागता आया आदमी नीचे गिरा दिखता है. यहां तक वीडियो के 9 सेकेंड हो चुके हैं. सिर्फ 9 सेकेंड में आप इतना कुछ होते देखते हैं, जितना कुछ ख़ुद को दिन रात महान और सहिष्णु बताने वाले इस मुल्क को आप कई हज़ार साल में नहीं देख पाते हैं.

अब अगले छह सेकेंड में जो दिखता है वह भयावह नहीं है. आपके लिए जो क्रूरता और बर्बरता है, वह किसी के लिए संवैधानिक कर्तव्य हो सकता है. संविधान जिसने सबको बराबर माना है. वीडियो के 9 से 15 सेकेंड के बीच कई पुलिस वाले उस गिरे हुए और मरे हुए आदमी पर टूट पड़ते हैं. लाठियों से मार रहे हैं. गोलियों के चलने की भी आवाज़ें आ रही हैं. लोगों की आवाज़ें भी आ रही हैं. सब कुछ मिटा देने की इस कार्यवाही में एक कैमरा है जो इस पूरे प्रसंग को मिटने से बचा रहा है. सभी गतिविधियों को रिकार्ड कर रहा है. वही कैमरा ज़रा और खुलता है या कहिए कुछ पुलिस वाले कैमरे के सामने से हट जाते हैं.

एक लड़का-सा दिखाई देता है. वह वर्दी में नहीं है. उसके कंधे से बेल्ट के सहारे एक बैग लटका है. गर्दन में उसने सफेद और लाल रंग का गमछा लपेटा है. यह गमछा असम की पहचान है. इस लड़के के हाथ में एक कैमरा भी है. यहां तक वीडियो के 26 सेकेंड हो गए हैं. मैंने पॉज़ कर दिया था ताकि पुलिस और उस लड़के की बर्बरता को एक एक फ्रेम में देख सकूं.

बिना वर्दी वाला वह लड़का लाश की तरफ तेज़ी से दौड़ता हुआ जाता है और मरे हुए उस आदमी की छाती पर कूद जाता है. काफी ऊंचाई से कूदता है. मैंने ओलिंपिक में इसी तरह किसी को कूदते देखा था. नाम याद नहीं कि किसे देखा था. कूदने के बाद वह लड़का तेज़ी से कैमरे की तरफ़ मुड़ता है. तभी एक सिपाही उस मरे हुए आदमी पर ज़ोर से डंडे मारता है. मरा हुआ आदमी कोई प्रतिकार नहीं करता है. मरा हुआ आदमी मरे हुए आदमी पर वार करता है.

कैमरे वाला लड़का ख़ुद को संभालता है और इस बार गर्दन पर कूदता है. थोड़ा आगे आता है और फिर से मुड़ कर मरे हुए व्यक्ति की तरफ पहुंचता है और इस बार मुक्के से उसकी छाती पर मारता है. एक बार और मुक्के से मारता है. एक पुलिसवाला उसे ऐसा करने से रोकता है. वहां से हटाता है. यहां तक वीडियो के 35 सेकेंड हो चुके हैं.

अब सारे पुलिसवाले कैमरे के फ्रेम से हट जाते हैं. इतना सब कुछ हो चुका है लेकिन रिकार्ड करने वाले कैमरे को थामने वाला हाथ नहीं कांपता है. स्थिर है. गोलियों के चलने की आवाज़ें आ रही हैं. बहुत से लोगों के हल्ला करने की भी आवाज़ पीछे से आ रही है. एक लाश पड़ी दिखाई देती है, जैसे वह गिरने से पहले सावधान मुद्रा में होने का अभ्यास कर रही हो.

एक दूसरा आदमी लाश की तरफ बढ़ता दिखाई दे रहा है. उसने जीन्स की पतलून पहनी है. पूरी बांह की कमीज़. वर्दी वाला नहीं है, रिकार्डिंग वाला है. उसके कंधे से भी एक बैग लटका है. जो कैमरा इन सबको होता हुआ रिकार्ड कर रहा है वो तेज़ी से लाश की तरफ बढ़ता हुआ लाश पर जाकर रुक जाता है. मैंने पॉज़ कर दिया है. 46 सेकेंड हो चुके हैं. प्ले कर देता हूं.

जिस व्यक्ति की मौत अब हर तरह के संदेह से परे हो चुकी है, उसने बनियान पहनी है. पुलिस के साथ भागा भागी में कुर्ता कहीं रह गया या वह बनियान में ही घर से निकला होगा. उसकी छाती पर चूड़ी बराबर गोलाई दिख रही है, जिसमें किसी ने लाल रंग भर दिया है. लगता है गोली छाती में सुराख़ बनाती हुई पार निकल गई है..ख़ून के छीटें भी दिखाई नहीं दे रहे हैं. गोली ने उतना ही सुराख़ किया है जितना उसे मारने के लिए ज़रूरी होगा.

ख़ून के गोल धब्बे के अलावा बनियान एकदम साफ और सुरक्षित है. किस कंपनी का बनियान है, दूर से पता नहीं चलता है. उसकी लुंगी ऊपर तक मुड़ी है. हरे रंग की है. बायें पांव में रक्त के निशान हैं. सर के पास एक गमछा गिरा है. यहां तक वीडियो के 52 सेकेंड हो चुके हैं.

जैसे ही 54 सेकेंड होता है, अचानक वही बंदा तेज़ी गति से दौड़ता आता है और मरे हुए इंसान की छाती पर ज़ोर से कूद जाता है. इतनी ज़ोर से कूदता है कि खुद दूर जा गिरता है. वह फिर से वापस आता है और ज़ोर से उसकी छाती पर मुक्का मारता है. उसे रोकने जैसी आवाज़ें आ रही हैं. यहां तक वीडियो के 59 सेकेंड हो चुके हैं. एक पुलिस वाला लाश पर कूद कूद कर लात और मुक्का मारने वाले को हटा कर दूर ले जा रहा है. लाश अकेले में पड़ी है. 1 मिनट 12 सेकेंड हो चुका है.

इस 1 मिनट 12 सेकेंड के वीडियो को देखा जा सकता है. मुझे लगा कि मैं नहीं देख सकूंगा. आप भी देख सकते हैं. आए दिन आप इस तरह के वीडियो देखते रहते होंगे जिसमें लोग एक दूसरे को मार रहे हैं. पुलिस लोगों को मार रही है. आप पहले से ही मरे हुए हैं. आपको पता नहीं चलता है कि पुलिस देखने वालों को मार रही हैं. बता रही है कि इस तरह से मारे जाने की बारी किसी की भी आ सकती है.

वीडियो में जिस लाश को आपने देखा है, असम पुलिस के अनुसार वह एक बुजुर्ग से 75,000 रुपये छीन कर भाग रहा था. पुलिस ने पकड़ लिया लेकिन पुलिस की हिरासत से भी भाग निकला. तभी पुलिस को गोली चलानी पड़ी. उसे नागांव सिविल अस्पताल में इलाज के लिए ले जाया गया. पुलिस ने 56000 रुपये बरामद कर लिए हैं. यह सारी जानकारी समाचार एजेंसी पीटीआई से मिली है. पुलिस का बयान ज़रूरी होता है. आपने वीडियो में जो देखा वह झूठ भी हो सकता है. सच बोलने का लाइसेंस केवल पुलिस के पास है.

इस देश में अदालत है. कई तरह की अदालतें हैं. कानून है. कानून की प्रक्रिया है. आप सभी ऐसा ज़रुर मानें. जैसा पुलिस कहे, वैसा ही मानिए, वर्ना 1 मिनट 12 सेकेंड से कम के वीडियो में आप निपटा दिए जाएंगे. ये विश्व गुरु भारत है.

‘जैसा पुलिस कहे, वैसा ही मानिए, वर्ना 1 मिनट 12 सेकेंड से कम के वीडियो में आप निपटा दिए जाएंगे. ये विश्व गुरु भारत है,’ रविश कुमार का यह कथन इस देश में लोगों का भविष्य बताता है. यह आपको तय करना है कि आप आतंकवादी बनकर पुलवामा की तर्ज पर अपने अपमानकर्त्ता से बदला लेते हैं या माओवादी बनकर अपने इंसाफ की मांग करते हैं अथवा एक निरीह मेमना की भांति अपने कत्ल किये जाने का इंतजार करते हैं.

एक आतंकवादी राष्ट्र अपने नागरिकों को आतंकवादी बनने पर विवश कर देता है. कहा जाता है न्याय की एक लाठी अन्याय के हजारों तोप से भी ज्यादा घातक होती है. जल-जंगल-जमीन को छीनने से बचाने के लिए उठी लाठी से भयभीत यह शासक वर्ग न्याय की एक लाठी को रौंद कर मार डालता है, जो असम से वायरल हो रही विडियो में बखूबी दिखता है, पर यही वह शैलाब है, जिससे यह कॉरपोरेट घराना, उसके कारिंदे और दलाल पत्रकार भयभीत है, आतंकित है.

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