सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के क्रियाकलापों को कल विभिन्न टीवी चैनलों के टॉक-शो में चार के मुकाबले बीस मतों से सही ठहराने की होड़ देख कर ऐसा लगा कि किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि न्यायाधीशों के लिए स्थापित मर्यादा कि वे न्यायालयों के आंतरिक मतभेदों और मसलों को सार्वजनिक नहीं करते, का उलंघन हुआ है या नहीं ? अगर हुआ है तो क्या उन जजों के विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही होगी ? और ये कार्यवाही कौन करेगा ? कब करेगा ?”
ये कभी तय होगा या इन सवालों और उसके सम्भावित उत्तरों को सदा-सदा के लिए दफना दिया जाएगा ? पहली बार देश के सामने आयी इस घटना को दफना दिया गया तो भविष्य में पुनरावृत्ति होने पर भी दफ़नाने की परंपरा का सूत्रपात हो गया समझना चाहिए. आपस में मिल बैठ कर आपसी मतभेदों को सुलझाने के प्रयासों में और दफ़नाने के प्रयासों में क्या अंतर होगा, मेरी समझ से परे है. सीधा-सीधा उद्देश्य है पूरे मसले पर लीपा-पोती करना.
आज सत्ता के सूत्र किसी पार्टी के हाथ में हैं, कल दूसरी पार्टी के हाथ में हो सकते हैं. आज चार जजों को किसी एक पार्टी के साथ सहानुभति रखने के आरोप लगा के पल्ला झाड़ने वाले तैयार रहे, कल किन्हीं दूसरे जजों पर उनकी पार्टी के साथ सहानुभति रखने के आरोप लगेंगे.
न्यायाधीशों को अब राजनैतिक पार्टियों का सक्रिय कार्यकर्ता बताने या होने के आरोप खुल्लमखुल्ला लगाने की परम्परा को सार्वजनिक स्वीकृति दिलाना, जिनका लक्ष्य था, वो उन्हें हासिल हो गया.
भविष्य में अन्य संवैधानिक संस्थाओं की सार्वभौमिकता और सम्मान का भी इसी तरह सड़कों पर मानमर्दन किया जा सकता है. बहुत कुछ ऐसा और भी हो सकता है, जिसकी कल्पना इस देश के आवाम ने कभी की ही नहीं है.
इस देश को संविधान की भावनाओं से नहीं सत्ताधारी पार्टी की भावनाओं के अनुसार चलाने के लिए तैयार किया जा रहा है. चुनाव कराना सरकारों की संवैधानिक बाध्यता है. जब आवाम ही सरकारों को इस बाध्यता का सम्मान न करने से मुक्त कर देगा तो लोकसभा और विधानसभाओं में सत्ताधारी पार्टियां ही सदस्यों को नामित करेगी.
देश में एक दलीय शासन व्यवस्था का सूत्रपात हो गया, ऐसा अंदेशा तो व्यक्त किया ही जा सकता है.
– विनय ओसवाल
प्रतिष्ठित राजनैतिक विश्लेषक