रविश कुमार
मीडिया के छात्र एम के वेणु के इस लेख को भी ध्यान से पढ़ें. मीडिया के भीतर आ रहे संकट का अंदाज़ा होगा और अपने करियर की प्लानिंग में भी मदद मिलेगी. अख़बारों के पन्नों को देखकर लग जाएगा कि यहां पत्रकार नहीं हैं. जो ख़त्म किया गया उसका नुक़सान आपको होगा लेकिन प्रिय नेता की मौज रहेगी और इसके लिए आपको खुश होना ही चाहिए. यही तो चाहते थे आप ?
ऑनिंद्यो चक्रवर्ती ने न्यूज़लौंड्री के लिए सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (CMIE) के आंकड़ों का विश्लेषण किया है. इसके अनुसार पांच साल पहले सितंबर 2016 तक भारतीय मीडिया और प्रकाशन उद्योग में दस लाख से अधिक लोग काम कर रहे थे. अगस्त 2021 में इनकी संख्या घट कर 2 लाख 30 हज़ार रह गई है.
इस सेक्टर से 78 प्रतिशत नौकरियां चली गई हैं. पांच में से चार मीडिया कर्मियों की नौकरी समाप्त हो चुकी है. कोविड के कारण नहीं बल्कि कोविड से बहुत पहले ही यह हो चुका है. जनवरी से दिसंबर 2018 के बीच भारी संख्या में मीडिया कर्मियों की नौकरियां गई हैं. इस एक साल के भीतर मीडिया और प्रकाशन में काम करने वाले 56 प्रतिशत लोगों ने या तो काम छोड़ दिया या उनकी नौकरी चली गई.
मीडिया के छात्रों के लिए यह अच्छी ख़बर नहीं है. यह सच्चाई सब जानते भी हैं. जिस वक्त हम लोग नौकरी में आए थे, तब बहुत तेज़ी से सबको नौकरी मिल रही थी. नौकरी भी मिलती थी, सैलरी भी मिलती थी. आज जो काम कर रहे हैं, उनकी सैलरी की क्या हालत है, मुझे ठीक ठीक पता नहीं क्योंकि इस पेशे के लोगों से मेरा अब वैसा संपर्क नहीं रहा.
नए लोग एक दूसरे को अपना बायोडेटा ही भेजते रहते हैं लेकिन किसी को नौकरी मिली है, इसकी सूचना नहीं आती है. यह अच्छा तो नहीं है. आस-पास लोगों को काम मिलता रहता है तो अच्छा ही लगता है. ख़ुद में भी भरोसा रहता है कि काम है. जब किसी के लिए काम नहीं होगा तो किसी को भी यह भरोसा नहीं रहेगा कि वह वांछित है.
2014 के बाद से पत्रकारों ने बहुत मेहनत की, यह साबित करने में कि पत्रकारिता के लिए पत्रकार होने की कोई ज़रूरत नहीं है. भांड तो कोई हो सकता है लेकिन चूंकि वे पहले से पत्रकार हैं और उस जगह पर हैं तो भांड का काम करने लगे.
मुझे नहीं लगता कि नंबर एक दो तीन के चैनलों में भी नौकरियां हैं और वहां अच्छी सैलरी मिल रही है..ये मेरा अनुमान ही हो सकता है, बाक़ी वहां की हालत वहीं के लोग बताएंगे. गोदी मीडिया ने जिस पत्रकारिता को मज़बूत किया है, उसका खंभा आसानी से नहीं उखड़ने वाला है. यह दौर अभी कई दशक तक रहेगा. अभी जो नौकरियां हैं, उसमें भी कमी आने वाली है.
एक रास्ता बचता है यू-ट्यूब. इसके बारे में भी बहुत सारे मिथक बना दिए गए हैं. मैं बहुत जानकार नहीं हूं लेकिन मानने को तैयार नहीं हूं कि हर पत्रकार के लिए यू-ट्यूब में अवसर है. पत्रकारिता आप एक संस्थान के भीतर ही करते हैं. तरह-तरह के पत्रकारों से टकराते हैं, उनके संबंध बनते हैं, उनसे स्पर्धा होती है और काफी कुछ सीखते हैं. एक तरह का संरक्षण मिलता है.
निजी तौर पर यू टयूब चल सकता है लेकिन आप खुद के भरोसे हैं. ख़ास इस सरकार की मेहरबानी से इतना तो हो ही गया है कि बात बात में पत्रकार जेल में डाल दिया जाता है और मुकदमा हो जाता है. इतना जोखिम उठाना आसान नहीं होगा.
यू-ट्यूब चैनल चलाने वाले पत्रकारों की एक सीमा है. उनके पास सूचनाएं नहीं हैं, केवल विश्लेषण हैं. आम जनता से किए गए सवालों के जवाब के पैकेज हैं, जिसमें कोई भी कहीं से कुछ भी बोल रहा है. गुस्से में बोलता है या अफसोस में बोलता है. लेकिन किसी योजना की मैदान में जाकर पड़ताल करना, डेस्क से उसकी तैयारी करना और फिर पेश करने जैसे काम समाप्त हो चुके हैं. पत्रकारिता का सांस्थानिक और सामाजिक ढांचा ध्वस्त हो गया है.
अपने बारे में भी और नए पत्रकारों के बारे में भी सोच कर मन दु:खी हो जाता है इसलिए इस पेशे की पढ़ाई के लिए ज़्यादा पैसा बिल्कुल ख़र्च न करें. आपके प्रिय नेता ने रोज़गार के हर अवसर को बर्बाद कर दिया है. आप उनके गुणगान में लगे रहिए, कम से कम किसी के लिए गाने की ख़ुशी तो मिलेगी. और अब चैनलों को कम पत्रकार और बिना पत्रकार के चैनल चलाने की आदत लग चुकी है. वे आपके कौशल के लिए वेतन क्यों देंगे ?
बिना पत्रकारों के मीडिया संस्थान कम लागत में चल रहे हैं. जब पत्रकार ही नहीं होंगे तो मुद्दों को कवर कौन करेगा ? एक पत्रकार चाहे जितना ही अच्छा क्यों न हो, वह सारे मुद्दों को कवर नहीं कर सकता है. यह संकट आपके रहते आया. आपकी मदद से आया है. मैंने कई बार समय रहते आगाह किया. मुझे ख़ुशी है कि मैं फेल कर गया. आपको लगा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है. कम से कम प्रिय नेता तो चमक रहे हैं न.
मेरी राय में आप अब इसी राय पर टिके रहिए. प्रेस नहीं रहा. अब कुछ हो तो घर में रहिए. प्रेस प्रेस करना बंद कर दीजिए. आपने जो बोया है, उसका फल खाने का टाइम आ गया है. मौज कीजिए. सूचनाविहीन लोकतंत्र मुबारक हो.
राजनीतिक पत्रकारिता का अंत हो चुका है ?
क्या राजनीतिक पत्रकारों को चैनलों से निकाल देना चाहिए ? आप किसी भी समाचार संस्थान के अंदरूनी हालात का पता करें. रिपोर्टर नाम की नौकरी ख़त्म हो चुकी है. जिस तरह पांच एंकरों को लेकर फ़ालतू डिबेट के नाम पर जगह भरी जाती है उसी तरह कभी-कभार हत्या, दुर्घटना, बीमारी, बाढ़ की रिपोर्टिंग के लिए चार पांच रिपोर्टर ही रखे जाने लगे हैं.
ज़माने से पेशे में नए रिपोर्टर नहीं आए हैं. कई चैनलों में तो राजनीतिक रिपोर्टर ख़त्म ही हो गए हैं. बीट रिपोर्टर समाप्त हो चुके हैं. सूचनाएं बंद हो गई हैं. खुद से खोज कर लाएंगे तो राजनीतिक दल/सरकार अपने व्हाट्स एप ग्रुप से उसे बाहर कर देंगे. अब पार्टी का सूचना पर नियंत्रण हो चुका है. किस तरह की सूचना होगी वह पार्टी तय करती है और ट्विट कर देती है.
जो पत्रकार हैं वो बीजेपी का राग अलापने में लगे रहे और अपनी और अपने जगह किसी नए रिपोर्टर के आने की संभावनाओं को बंद कर दिया. अब उन बचे खुचे राजनीतिक रिपोर्टर के भी जाने के दिन आ गए हैं. लगातार बजट कम हो रहा है.
इस प्रक्रिया में इन राजनीतिक संपादकों को निकाल दिया जाए तो चैनलों का पैसा बचेगा. बीजेपी का काम बीजेपी के पैसे से करो, चैनल के पैसे से क्यों कर रहे हो ? दूसरा जब चैनल का मालिक ख़ुद ही बीजेपी का काम कर रहा है तो राजनीतिक पत्रकार पर पैसे क्यों ख़र्च करना ? आख़िर मालिक ये काम पैसे के लिए ही तो कर रहा है.
इससे नए पत्रकारों के लिए काफ़ी जगह बन सकती है. जो राजनीतिक पत्रकारिता नहीं करेंगे उसकी जगह विकास के मुद्दों को सामने लाएंगे. राजनीतिक पत्रकारों के लिए कोई काम नहीं बचा है. ये न्यूज़ रूम से ज़्यादा ट्विटर पर अपनी पार्टी और सरकार के पक्ष में तर्क गढ़ते रहते हैं. अगर ये राजनीतिक रिपोर्टर निकाल दिए जाएं तो चैनल और अख़बार को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. इनसे एंकरिंग भी ढंग की नहीं होती है.
ट्विटर पर मौजूद राजनीतिक संपादकों और पत्रकारों की टाइम लाइन पर जाइये. पूछिए और पता कीजिए कि इन्होंने आख़िरी बार कौन-सी ख़बर की है ? क्या वो खोज कर लाई गई ख़बर थी या कॉपी पेस्ट ख़बर थी ? इन लोगों को खुद से भी काम करने का मन नहीं करता है लेकिन ज्ञानस्रोत देंगे जैसे पत्रकारिता करते-करते पसीने-पसीने हो रहे हैं. मेरी बात का सार यह है कि पत्रकारिता नहीं होगी तो पत्रकार की ज़रूरत ही क्यों रहेगी ?
न्यूज़ चैनल भी नहीं चाहते कि ये पत्रकारिता करें. इनके भांड में बदल जाने या इनकी जगह किसी और के भांड बनने के लिए तैयार रहने वालों के कारण चैनलों का काम आसान हो गया है. अब वे ख़बर कर किसी को असुविधा में नहीं डालना चाहते हैं इसलिए इन राजनीतिक पत्रकारों से नहीं पूछते कि आपने कौन सी ख़बर की ?
इस कारण बिना लागत के कंटेंट बनने लगे हैं. जैसा कि विनीत कुमार कहते हैं. बाक़ी ज़िलों, क़स्बों की तरफ़ भी पत्रकारों का जाना बंद हो गया है. यह स्थिति जनता के भी हक़ में है. बीजेपी का वोटर और समर्थक नहीं चाहता है कि कोई उनके नेता को अपनी रिपोर्ट से घेर ले.
तो अब आप पूछेंगे कि चैनल क्या है ?
जवाब : होर्डिंग हैं, जिस पर विज्ञापन और विज्ञापन के रूप में ख़बर चलती है.
फिर आप पूछेंगे कि दर्शक क्या है ?
जवाब : बेवकूफ है, जो जानते हुए भी कि चैनल का काम ख़बर से नहीं रहा, ख़बर के नाम पर चैनलों को देखता है.
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