डॉ. कन्हैया कुमार को लेकर अफवाह चरम पर है. सोशल, प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया पर खबरें लगातार चल रही हैं कि कॉ. कन्हैया कुमार आगामी 02 अक्तूबर को कांग्रेस ज्वाइन करेगें. मुझे नहीं मालूम की सच्चाई क्या है (?). भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के आम कैडरों से लेकर राज्य और राष्ट्रीय नेतृत्व तक स्वाभाविक बैचेनी है.
बेशक कन्हैया कुमार यूथ-स्टूडेन्ट के राष्ट्रीय आइकॉन हैं और वामपंथ ,खासकर भाकपा के लिए एक बडी़ उम्मीद रहे हैं. कन्हैया के भाकपा में आने के बाद हिन्दी भाषी क्षेत्र में एक मजबूत राष्ट्रीय चेहरा मिला था. वैसे कन्हैया गैर हिन्दी भाषी दक्षिण के राज्यों में भी कम लोकप्रिय नहीं हैं.
जहां तक मैं जानता हूं कॉ. कन्हैया भाकपा में पहला आदमी होगें जो राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य रहते हुए पार्टी छोडकर जायेगें. यह भाकपा नेतृत्व की विफलता और दुर्दिन का स्पष्ट संकेत है. इतना तो इतिहास में दर्ज होगा ही कि किसी तेज तर्रार युवा तुर्क कन्हैया जैसा चेहरा को भाकपा न पचा सकती है, न बढा़ सकती है और न संभाल सकती है.
मुझे आज भी महसूस होता है कि ऊपर से नीचे तक और दिल्ली से बिहार तक 80-90% वामपंथी-प्रगतिशील मिजाज के लोग कन्हैया को कांग्रेस में जाने की बात से चकित और दुःखी हैं, उसके पार्टी बदलने की मुहिम को गलत मानते हैं. देश भर के लाखों युवाओं और छात्रों की उम्मीद कन्हैया कुमार को लेकर अंदर ही अंदर बैचेनी और चिंता गहरा रही है.
परंतु कुछ मुट्ठीभर लोग नीचे से ऊपर तक ऐसे भी हैं, जिनकी नेतागिरी की दुकान कन्हैया के चलते या तो बंद हो चली थी या मंदा पड़ गयी थी, शुभ घड़ी का इंतजार कर रहे हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने कन्हैया जैसे युवा को संभालने, संवारने और प्रोत्साहित करने के बजाय उसे आइसोलेट करने, हतोत्साहित करने और दरकिनार करने के लिए बेगूसराय लोकसभा और बिहार विधानसभा चुनाव से लेकर आज तक हर कर्म-कुकर्म में लगे हैं.
अपनी ओछी राजनीति, स्वार्थ, सत्ता और झूठी हैकडी़ के खातिर पूरे भाकपा के भविष्य को दांव पर लगा दिया है. अपने ऐतिहासिक गलतियों से सबक न लेकर भाकपा फिर उसी घिसी-पिटी राह का अनुसरण कर जहर पीने के लिए तैयार है. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव से लेकर जिला तक के नेता कन्हैया के कांग्रेस ज्वाइन करने का या तो खंडन कर रहे हैं या उससे अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं, लेकिन सब लोग सच्चाई से अवगत हैं.
आखिर कन्हैया क्यों कांग्रेस ज्वाइन कर रहे है ? इस पर लम्बी बहस होगी. कन्हैया के चले जाने के बाद भाकपा हर बैठकों में बहस करेगी, जैसा अमूमन करती आयी है लेकिन उसके रहते सब चुप्पी साधे मौन धारण किये हुए हैं, क्यों ? क्योंकि मुट्ठीभर अवसरवादी और स्वार्थी नेतृत्व के चंगुल में भाकपा छटपटा रही है, कराह रही है.
कन्हैया आखिर चाहते क्या थे ? भाकपा को जिला और राज्य से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व तक युवा और गतिशील नेतृत्व. वह भाकपा में वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के अनुकूल नेतृत्व और गतिविधि चाहते थे लेकिन वह हो न सका. कन्हैया हर दिन कटुआ नेताओं की तरह पार्टी में नहीं जी सकता था. तिकड़मी और स्वार्थी नेतृत्व से वह निजात पाना चाहते थे, पार्टी को नये स्वरूप में देखना चाहते थे, जो दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा है.
लेकिन कन्हैया के मामूली गलतियों को राज्य और राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर अपमानित करने और निंदा प्रस्ताव पास कर उसे बाहर धकेलने की व्यूह रचना करने वालों पर सवाल कौन उठायेगा ? उन मक्कारों की खबर कौन लेगा ?भाकपा छोडकर कांग्रेस का दामन थामने की परिस्थिति कैसे उत्पन्न हुई, इसकी पड़ताल कौन करेगा ?
कन्हैया के देश भर के लाखों युवा, छात्र, अल्पसंख्यक, बुद्धिजीवी, पत्रकार आदि के मन में उठने वाले सवाल का हल कैसे निकलेगा ? सदियों और दशकों में किसी राजनीतिक दल को कन्हैया मिलता है, उसे जितनी आसानी से और झूठ का आलम कायम कर भाकपा गंवाने जा रही है, उसे इतिहास शायद ही माफ कर पायेगा ?
कांग्रेस में जाते ही कन्हैया को भाकपा के लोग कई विशेषणों से विभूषित करेंगे. उसे गद्दार, धोखेबाज, अपरिपक्व आदि आदि विशेषणों को लगाकर बहस करेंगे. जिला, राज्य और राष्ट्रीय सम्मेलनों में उस पर चर्चा होगी. लेकिन यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि जन्मजात कम्युनिस्ट और कम्युनिस्ट परिवार से आने वाला राष्ट्रीय पटल पर युवा-छात्र चेहरा कन्हैया आखिर भाकपा को क्यों छोड़ दिया ?
- अजय कुमार सिंह
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