Home गेस्ट ब्लॉग राहुल गांधी : जिसे मीडिया वंशवाद कहती है वह वंशवाद नहीं, क्रान्तिकारी विचार है

राहुल गांधी : जिसे मीडिया वंशवाद कहती है वह वंशवाद नहीं, क्रान्तिकारी विचार है

4 second read
0
0
391

राहुल गांधी : जिसे मीडिया वंशवाद कहती है वह वंशवाद नहीं, क्रान्तिकारी विचार है

शकील अख्तर

फार्म केवल बैट्समेन का नहीं होता कप्तान का भी होता है. कप्तान जब फार्म में आ जाता है तो उसे पहले से आभास होना शुरू हो जाता है कि कौन बैट्समेन क्रीज पर खाली टाइम पास करेगा और कौन रन बनाकर टीम को जिताएगा. कांग्रेसियों को लग रहा है कि उनके कप्तान राहुल गांधी फार्म में आ गए हैं. अमरिन्द्र सिंह को हटाकर उन्होंने एक साहसिक बोल्ड डिसीजन लिया. 80 साल के अमरिन्द्र केवल टाइम पास कर रहे थे. विधायक उनके साथ नहीं थे, जनता से वे मिलते नहीं थे और कार्यकर्ताओं की कोई सुनवाई होती नहीं थी, केवल गोदी मीडिया से मिलकर वे अपनी इमेज बनाते रहते थे.

ये इमेज या छवि आजकल बहुत खास चीज हो गई है. असलियत कुछ भी हो अगर आपने राजनीति में एक धीर गंभीर छवि बना ली है तो आप अपने साथ के कई दूसरे लोगों से बहुत आगे निकल जाते हैं. हमले कम होते हैं और सम्मान ज्यादा होता है. उत्तर भारत में यह छवि बहुत महत्वपूर्ण होती है. धीर गंभीर के साथ वीर भी लग जाता है. कैप्टन अमरिन्द्र सिंह ने वह छवि बना रखी थी इसलिए चाहे पुराने प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा हों या सुनील जाखड़ या नवजोत सिंह सिद्धु मीडिया उन्हें अमरिन्द्र सिंह के सामने हल्का, बौना, मसखरा ही बताता रहा.

लेकिन राहुल गांधी इस छवि निर्माण को बहुत अच्छी तरह जानते हैं. उनके कांग्रेस में विरोध का सबसे बड़ा कारण ही यह है कि वे बड़े नेताओं की नकली छवि के चक्कर में नहीं आते. सहज, सामान्य, मानवीय गुणों से भरे लोग उन्हें ज्यादा पसंद आते हैं. हमारे यहां छवि कैसे महान बनती है और कैसे जमीन में मिला दी जाती है, इसके कई उदाहरण हैं. एच. डी. देवगौड़ा का मीडिया ने बहुत मजाक उड़ाया उनके एक उंघते हुए फोटो को लेकर लेकिन लंबे कार्यक्रमों, संसद, विधानसभाओं में जाने कितने बड़े नेता झपकी मार लेते हैं. बहुत सचेत नेताओं, आडवानी, सोनिया गांधी जैसों को छोड़कर लेकिन किसके फोटो खीचना हैं, किसके टीवी में दिखाना है, यह मीडिया बहुत चालबाजी से तय करता है.

खैर, पहले देवगौड़ा की बात सुनिए. देवगौड़ा आतंकवाद के भीषण समय में प्रधानमंत्री बने थे और बनने के बाद फौरन कश्मीर दौरे पर आए. उनका कश्मीर दौरा क्यों महत्वपूर्ण था ? इसलिए कि उनसे पहले पांच साल प्रधानमंत्री रहे पी. वी. नरसिंह राव एक बार भी कश्मीर नहीं गए थे, यहीं छवि का खेल है. नरसिंह राव आज भी गोदी मीडिया के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं. वही धीर, गंभीर छवि और देवगौड़ा जिन्होंने कश्मीर जाकर सुरक्षा बलों का हौसला बढ़ाने से लेकर वहां पाक समर्थित आतंकवादियों के समर्पण, बातचीत की प्रक्रिया की शुरुआत जैसी पहल की, वे कभी इसका क्रेडिट नहीं पा सके. फौज के जनरल जानते हैं कि कश्मीर में किसकी मेहनत ज्यादा कामयाब रही मगर वे भी चल रहे नरेटिव (कहानी) से हटकर पूरा सच बताने का जोखिम कभी नहीं ले पाते.

ये छवियां गढ़ी जाती हैं और खुद मीडिया भी जो अक्सर कई चीजों को फर्स्ट हेंड देखता है, वह भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाता. एक मजेदार बात बताते हैं. कभी-कभी हम अपने सहयोगी पत्रकारों से कहते थे कि ये जो खबर आपने दी है, ठीक है, मगर इस पर यकीन मत कर लेना. पत्रकार पचास अर्द्धसत्य लिखता है और उनमें से कुछ पर वह खुद ही विश्वास करने लगता है.

तो इस इमेज मेकिंग को राहुल बहुत अच्छी तरह जानते हैं. उन्होंने यूपीए के दस साल में देखा है कि किस तरह नकली कहानियों से कुछ बड़े कांग्रेसी नेता सोनिया गांधी को बेवकूफ बनाते थे. दस साल की सरकार जिसके खाते में जनता के लिए किए गए कामों की लंबी फेहरिस्त थी, इस तरह ढह गई. प्रधानमंत्री मोदी इस मामले में अलग हैं. उनकी कोई झूठी इमेज नहीं है. जैसे हैं वैसे दिखते हैं इसलिए उन्हें भटकाना संभव नहीं है.

भाजपा में ही वाजपेयी इस झूठी इमेज के शिकार थे, नतीजा वे इंडिया शाइनिंग को सही समझने लगे थे. मोदी जी सारी हकीकतें जानते हैं इसलिए चुनाव आते ही वे अपने असली मुद्दे हिन्दु मुसलमान पर आ जाते हैं. इसी पर वे उत्तर प्रदेश का चुनाव लड़ेंगे. हारे जीतें अलग बात है, मगर वे यह जानते हैं कि विकास और नए इंडिया की बातें खाली गोदी मीडिया के खेलने के लिए हैं, चुनाव के लिए श्मशान- कब्रिस्तान, दीवाली रमजान ही करना है.

इस इमेज मेकिंग की कहानियां जितनी सुनाएं कम हैं. एक फिल्म इंडस्ट्री से सुनाकर बस करते हैं. फिल्मों में दिलीप कुमार की एक गंभीर छवि, देवानंद की रोमांटिक और इस महान त्रयी के राजकपुर की मसखरे वाली जबकि सिर्फ इन तीनों में ही नहीं आल टाइम पूरे फिल्मी जगत में राजकपूर सबसे प्रगतिशील और जन सिनेमा बनाने वाले फिल्मकार थे. मगर इमेज अमिताभ की भी ऊंची है, और राजकपूर जोकर वाली अपनी इमेज से कभी पीछा नहीं छुड़ा पाए.

सिद्धु तो क्रिकेट में भी लिमिटेड शाटों के बैट्समेन थे. उनसे तो किसी की तुलना ही नहीं. उनकी इमेज क्या यह आज की है ? भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया था. समाज के विशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणी में. गुस्से में बैट से पिटाई करने के आरोप में हत्या का मुकदमा चला. अजहर की कप्तानी के खिलाफ बगावत करके इंग्लैंड से भाग आए थे. कोई एक कहानी है लेकिन बड़ा कैनवास यह है कि हमाम में सब नंगे हैं. किसी का नाम नकारात्मक्ता में इंगित करना ठीक नहीं. मगर राजनीति और सार्वजनिक जीवन भरा है ऐसे लोगों से.

नवजोत सिंह सिद्धु जैसे भी हों मगर एक बात है कि वे कंबल ओढ़कर घी पीने वालों में से नहीं हैं. क्रिकेट में फील्डिंग करना नहीं आती थी तो नहीं आती थी, इसी तरह राजनीति में नफासत नहीं आती तो नहीं आती, बैटिंग में भी नफासत नहीं थी. उज्जड़पन था लेकिन क्रीज पर अड़ जाते थे. यहां भी ऐसे ही अड़ गए.

उन्हें बनाया ही इसीलिए गया था. एक फाल्स इमेज को तोड़ने के लिए छवि विध्वसंक चाहिए था. अगर दोस्त बुरा न मानें तो याद दिला दें कि ऐसी ही छवि मोरार जी देसाई की भी खूब मेहनत से बनाई थी मगर राजनारायण ने सरकार के साथ उनकी छवि भी तहस नहस कर दी. और वे तो दूसरे घटक के थे अपने समाजवादियों में भी भारी उठा पटक करके किसान नेता चरण सिंह के हनुमान बन गए. तो भारतीय राजनीति शिव जी की बारात है. कई छवि भंजक और कई नकली छवियों वाले यहां रहे हैं.

खास बात यह है कि सिद्धु को मुख्यमंत्री नहीं बनाना था, नहीं बनाया. हालांकि सिद्धु जैसी छवि वाले नेता सीएम भी रहे हैं, मंत्री भी रहे हैं और हैं भी, मगर मीडिया दुरुस्त रखते थे. उनका बड़े से बड़ा कांड भी मीडिया या तो दबा देता है या इस खूबसूरती से पेश करता है कि मूर्खता भी बौद्धिकता बन जाती है.

मामला पूरा विधायकों की नाराजगी का था. मुख्यमंत्री का किसी से नहीं मिलने और अफसरों एवं गोदी मीडिया के भरोसे चुनाव में जाने का था. पिछली बार 2007 में भी ऐसा ही हुआ था. अमरिन्द्र हारे थे और दस साल तक कांग्रेस वापसी नहीं कर पाई थी. सिद्धु ने जवाब नहीं दिया अच्छा किया. अमरिन्द्र ने उन्हें पाकिस्तानी और देशद्रोही कहकर अपना कद और कम कर लिया.

राहुल ने देर तो की मगर हिम्मत सही दिखाई. राजस्थान में भी भारी हलचल है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत संतुलित प्रतिक्रियाएं देने में लगे हैं. इस धमाके की उम्मीद किसी को नहीं थी. अब यह राहुल पर निर्भर करता है कि वे पार्टी हाईकमान के इस इकबाल को बना कर रखते हैं या बागियों को फिर कुछ भी कहने और करने की छूट दे देते हैं.

चन्नी को बनाना राहुल का काम था, अब उसे सही साबित करना दलितों का. सिर्फ राहुल के करने से कुछ नहीं होगा, खुद दलितों को आगे आकर अपने सही नेताओं की पहचान करना होगी. बनाया तो इन्दिरा गांधी ने भी था पहले बिहार में देश का पहला दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान, फिर राजस्थान में जगन्नाथ पहाड़िया. भोला पासवान को तीन बार बनाया मगर बिहार के दलित दूसरे पासवान, रामविलास के साथ चले गए जो दल बदल के रोज नए रिकार्ड बनाते हुए दलित राजनीति को अपने बेटे और भाइयों तक लाकर छोड़ गए. जो अब राजनीतिक विरासत, जो कुछ बची नहीं है और संपत्ति को लेकर जो बहुत ज्यादा है, आपस में लड़ रहे हैं. जातियों में बंटी भारतीय राजनीति में हिस्सेदारी तो सब चाहते हैं, मगर अपने समुदाय के सही नेताओं का साथ देने, उनके उदार राजनीतिक दल और जोखिम उठाकर साहसिक फैसला लेने वाले उसके नेता को भूल जाते हैं.

कांग्रेस ने शुरू से समावेशी राजनीति की. सबको साथ लेकर चलने की. इसका प्रमाण सबसे बड़ा यही है कि हर समुदाय को उससे शिकायत रही कि वह दूसरे को ज्यादा तरजीह दे रही है. परिवार में भी यही होता है. अगर सबको समान दृष्टि से देखा जा रहा है तो सब नाराज रहते हैं. परिवार, राजनीति हर जगह सब चाहते हैं कि उसे थोड़ा अतिरिक्त अटेंशन, विशेषाधिकार मिले.

कांग्रेस ने वैसे तो सबको मगर जमीन पर जो उसका मूल जनाधार दलित, ब्राह्मण और मुसलमान था उन्हें राजनीतिक हिस्सेदारी देने में कभी कोताही नहीं की. जगजीवन राम को बड़ा नेता बनने के लिए कांग्रेस ने ही अनुकूल अवसर उपलब्ध करवाए. उनके बाद इतने बड़े कद का दलित नेता और कौन हुआ ? इसी तरह उनकी बेटी मीरा कुमार को देने में भी कांग्रेस ने कोई कसर नहीं रखी. यह अलग बात है कि दोनों ने कांग्रेस को उसके मुसीबत के समय में धोखा दिया.

चरणजीत सिंह चन्नी ने सही कहा कि राहुल क्रान्तिकारी नेता हैं. पूरे परिवार में यह गुण या कांग्रेस के ही कुछ नेता इसे अवगुण कहते हैं, है. लाख राजनीतिक मजबूरियां हों मगर जब कोई क्रान्तिकारी विचार आता है तो परिवार इसे अपनाने से खुद को रोक नहीं पाता. इनमें सबसे महान तो सोनिया गांधी हैं. कभी इतिहास उनके साथ पूरा न्याय करेगा जो बिल्कुल भिन्न परिवेश से भारत आई. भारतीयता, यहां के परंपराए, संस्कृति और इन सबसे बढ़कर राजनीति का बीहड़ ! सोनिया जी ने सब सीखा. देश की बातें और नेहरू गांधी परिवार की प्रगतिशीलता. तो इन सोनिया ने कितना बड़ा क्रान्तिकारी कदम उठाया था।,पार्टी के कई बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद.

सोनिया ने कहा था मुझे मालूम है कि हमारी पार्टी के कुछ लोग इसके विरोध में हैं मगर यह महिला सशक्तिकरण के लिए जरूरी है. महिला बिल का भारी विरोध हुआ था. पूरे देश में महिला विरोधी माहौल खड़ा कर दिया गया था. भाजपा को राज्यसभा में तो समर्थन करना पड़ा क्योंकि वह उनके बिना समर्थन के भी पास हो जाता मगर लोकसभा में करने से मना कर दिया.

और केवल महिला बिल नहीं, किसान कर्ज माफी, मनरेगा जैसे गांव और ग्रामीणों की जिन्दगी बदल देने वाले कार्यक्रम भी सोनिया ही लेकर आईं थीं. इसी तरह राजीव गांधी का पंचायती राज जिसमें महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित किया गया, बड़ा क्रान्तिकारी कदम था. लेकिन इन सबसे उपर अपनी सरकार दांव पर लगाकर इन्दिरा गांधी का बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजाओं का प्रिविपर्स और प्रिवलेज खत्म करने का फैसला था.

जिसे मीडिया वंशवाद कहती है वह वंशवाद नहीं है. मीडिया को संघ प्रमुख मोहन भागवत के डीएनए का मतलब समझना चाहिए. ये डीएनए है, जिसे देसी भाषा में कहा जाता है कि गरीब की भलाई करना इस परिवार के स्वभाव में है. खून में समाई क्रान्तिकारिता. नेहरू ने अंग्रेजों की जेल में रहकर शुरू की थी.

आज कांग्रेस हाशिए पर आ गई। कमजोर हो गई मगर वह क्रान्तिकारिता नहीं गई. जो कोई नहीं करता वही ये लोग करते हैं. हाथरस कि दलित लड़की सामूहिक बलात्कार के बाद मर गई. उसका शव परिवार को दिए बिना रातों रात जला दिया गया. आज उसके घर के बाहर गदंगी का ढेर लगा दिया गया है. पीड़ित परिवार के घर का बाहर लगी सीआरपी का कहना है कि वहां इतनी बदबू है कि खड़ा भी नहीं रहा जा सकता.

आखिरी बार इस परिवार से मिलने राहुल और प्रियंका गए थे, उसके बाद कोई नहीं गया. मायावती जो खुद को बार-बार दलित की बेटी कहती हैं एक बार भी नहीं गईं. अखिलेश यादव भी नहीं गए. प्रधानमंत्री मोदी ने इसी यूपी में दलितों के पांव धोए थे मगर बलात्कार के बाद मर गई दलित लड़की के परिवार की सुध नहीं ली. मुख्यमंत्री योगी ने पंजाब के पहले दलित सीएम बने चन्नी के यूपी चुनाव पर पड़ने वाले असर को देखकर दलितों को खूब याद किया, मगर इस दलित लड़की के परिवार को भूले ही रहे.

सबसे अधिक समय तक दलित मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश में ही रही हैं मगर आज वहां एक पीड़ित परिवार की हालत क्या है, यह मद्रास के एक अंग्रेजी अखबार ने देखा, जिसके बाद दुनिया को मालूम चला कि न्याय का तो अभी कुछ पता नहीं है लेकिन पीड़ित परिवार की परेशानियां बढ़ती जा रही है.

मायावती ने परिवार की कोई खोज खबर नहीं रखी. आज तो सरकार में भी उनकी चलती है. छापों के डर से वे पूरी तरह मुक्त हैं. सब साधन भी हैं. दलित परिवार की सुरक्षा और सम्मान की सारी व्यवस्थाएं करवा सकती हैं, मगर उन्हें इससे कोई मतलब नहीं दिखा.

चुनाव आ गए. अब तक हर चुनाव दलितों के सहारे जीतने वाली मायावती इस बार ब्राह्मणों के पीछे दौड़ रहीं थी. हाथ में त्रिशूल ले लिया था. दलित को भूल गईं थीं मगर राहुल ने पंजाब में दलित सीएम बनाकर धमाका क्या किया उन सहित सारे दलों में हलचल मच गई. इस समय चन्नी देश के एक मात्र दलित सीएम हैं. सोचिए जहां देश में कुल आबादी के 20 से 25 प्रतिशत दलित हों, सबसे ज्यादा दलित विमर्श होता हो वहां केवल एक दलित सीएम है !

दलित सीएम बनाने की कोशिश राहुल ने इससे पहले भी की, हरियाणा में. वहां अशोक चौधरी और कुमारी शैलजा को आगे बढ़ाने की बहुत कोशिश की मगर हरियाणा में भुपेन्द्र हुड्डा इतने ताकतवर हो गए थे कि चौधरी को कई बार लहूलुहान तक कर दिया गया. कांग्रेस की कमेटियां बैठीं मगर कुछ नहीं हुआ. वहां तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के कहने के बावजूद राज्यसभा चुनाव में मशहूर वकील आर. के. आनंद को हरवा दिया जाता है और जी-टीवी के मालिक भाजपा के सुभाष चन्द्रा को जीता दिया जाता है.

मगर पंजाब में हिम्मत दिखाकर राहुल ने बाजी पलट दी है. दूसरी पार्टियों में जहां भारी हलचल है वहां कांग्रेस में सन्नाटा है. दोनों जगह गहरी मार हुई है. अब ये राहुल पर है कि वे कैसे इसका राजनीतिक लाभ उठाते हैं. अगर पहले की तरह वे भलमनसाहत, आदर्शवाद, आंतरिक लोकतंत्र में उलझ गए तो यह पहल बेकार हो जाएगी. ये सब चीजें जरूरी हैं, मगर आदर्श समाज में. समाज में जब समानता और संवेदना का माहौल होता है तब वहां मानवीय मूल्य चलते हैं.

फिलहाल तो राहुल को चन्नी को बताना होगा कि किसान, गरीब, छोटे दूकानदार, कम वेतन पाने वाले, दलित, मजदूर के हित में कैसे काम करें. राजनीति को धर्म से हटाकर वापस वास्तविक सवालों पर लाना होगा, रोजी रोटी की बात करना होगी, तभी पंजाब में हिन्दु, सिख और बाकी उत्तर भारत में हिन्दु मुसलमान राजनीति से लोगों का ध्यान हटेगा.

Read Also –

राहुल गांधी : एक सख्शियत, जो अपने विरुद्ध खड़े व्यक्ति को डराता बहुत है
राहुल गांधी को वैचारिक तौर पर स्पष्ट और आक्रामक होना होगा
देशवासियों के नाम सोनिया का पत्र
कोरोना वायरस के महामारी पर सोनिया गांधी का मोदी को सुझाव
नेहरू परिवार से नफरत क्यों करता है आरएसएस और मोदी ?
ऐसे क्रूर सवालों के समय भी कांग्रेस के अंदर दया और क्षमा भाव ज्यादा ही प्रबल है

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…