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पटना विश्वविद्यालय को पूरी तरह बंद कर इमारत और ज़मीन बेचकर खा जाए

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पटना विश्वविद्यालय को पूरी तरह बंद कर इमारत और ज़मीन बेचकर खा जाए

रविश कुमार, अन्तराष्ट्रीय पत्रकार

यह विश्वविद्यालय आधा से अधिक बंद ही हो चुका है. जब आधा से अधिक बंद होने से किसी को दिक्कत नहीं है तो पूरा बंद कर देने से भी किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए.अगर सरकार ऐसा करेगी तो लोगों का समर्थन भी मिलेगा. वे कहेंगे कि विश्वविद्यालय नाम से छुटकारा मिल गया. राजधानी पटना का भ्रष्ट सरकारी वर्ग और मध्यम वर्ग यह सच्चाई जानता है.

बीस साल से नीतीश कुमार की सरकार है. बीस साल में यह विश्वविद्यालय बंद होने लायक ही हो सका है. इस विश्वविद्यालय का हाल बता रहा है कि बिहार को शिक्षा व्यवस्था से कोई मतलब नहीं है. इन बीस सालों में कई देश नए नए विश्वविद्यालय बना कर दुनिया के नक्शे पर आ गए लेकिन भारत और बिहार अपने विश्वविद्यालयों को मिटा कर दुनिया के नक्शे से ग़ायब हो गया.

पटना विश्वविद्यालय में सत्तर फीसदी पदों पर शिक्षक नहीं हैं. यहां शिक्षकों के मंज़ूर पदों में पहले ही काफी कटौती कर दी गई है. उसके बाद जो 888 पद हैं उसमें से भी 500 से अधिक पद ख़ाली हैं. कहीं पूरे विभाग में एक भी शिक्षक नहीं हैं, कहीं एक भी प्रोफेसर नहीं हैं, कहीं पांच की जगह एक ही प्रोफेसर हैं, कहीं कोई सहायक प्रोफेसर भी नहीं हैं. पटना यूनिवर्सिटी में 18,000 छात्र पढ़ते हैं. शिक्षकों के नहीं होने से कई कक्षाओं में ताले लगे हैं. प्रयोगशालाओं में ताले लगे हैं. जब भीतर से ताले लग ही गए हैं तो बाहर से ही क्यों न ताले लगा दिए जाएँ ? जब यह यूनिवर्सिटी बंद होकर चल सकती है तो फिर पूरी तरह बंद ही क्यों न कर दी जाए ?

शिक्षक संघ का कहना है कि पिछले कुछ साल में बिहार में तीन हज़ार शिक्षकों की नियुक्ति का दावा किया जाता है. बिहार के अलग-अलग कालेजों में ये तैनात कई शिक्षक कई महीनों से वेतन के लिए दहाड़ रहे हैं. जितने नए नहीं आए उससे अधिक रिटायर हो कर चले गए. नए के आने से भी ख़ाली पदों की समस्या ख़त्म नहीं हुई है. गेस्ट फ़ैकल्टी के भरोसे यूनिवर्सिटी चल रही है.

पटना विश्वविद्यालय के साइंस कॉलेज में पढ़ना बिहार की प्रतिभाओं का सपना होता था. इस कॉलेज की अपनी साख होती थी. आज इस एक कॉलेज में शिक्षकों के 91 पद हैं लेकिन 29 ही शिक्षक हैं जो स्थायी तौर से नियुक्त हैं. 60 से अधिक पद ख़ाली हैं. दर्जन भर से अधिक गेस्ट फैकल्टी पढ़ा रहे हैं. इनमें से कितने प्रतिभाशाली हैं और कितने ऐसे हैं जो कुछ न मिलने के नाम पर कुछ भी मिल जाने के नाम पर पढ़ा रहे हैं, इस पर कुछ नहीं कहना चाहूंगा लेकिनउसकी ज़रूरत ही क्या है. इतना तो सब जानते हैं. इस साइंस कालेज में 1800 छात्र पढ़ते हैं, इनमें से आधी लड़कियां हैं. यहां आकर प्रतिभाएं निखरती थीं, उल्टा कुंद हो जाती होंगी. पढ़ने का जज़्बा ख़त्म कर दिया जाता होगा.

क्या इन छात्रों को पता होगा कि उनके साथ क्या हो रहा है. इनके फेसबुक पोस्ट और व्हाट्स एप चैट से आप पता कर सकते हैं कि इन्होंने एक शानदार कॉलेज की हत्या को लेकर कितनी बार चर्चा की है ? यह जानना चाहिए कि इन छात्रों की दैनिक चिन्ताएं क्या हैं ? वे अपने जीवन को किस तरह से देखते हैं ? क्या इनके भीतर कोई उम्मीद बची है ?क्या इन्हें इस बात का बोध भी है कि यहां के तीन साल में वे बर्बाद किए जा रहे हैं ? इस बर्बादी के पीछे उनके ही द्वारा पोषित राजनीति और सरकार का हाथ है, इन मुर्दा छात्रों की राजनीतिक चेतना क्या है ?

यहां के युवाओं में दहेज़ मांगने के टाइम पर्दे के पीछे से बाइक की जगह कार की आवाज़ निकल जाती है, लेकिन क्या कभी इस बात को लेकर आवाज़ निकल सकती है कि 70 फीसदी शिक्षकों के नहीं होने से यह साइंस कॉलेज किस सांइस से चल रहा है ? भारत में लड़कियां शादी न करें तो कार और वाशिंग मशीन की बिक्री दस प्रतिशत भी नहीं रह जाएगी क्योंकि यह ख़रीदी ही जाती है कि शादी के वक्त लड़की के पिता के द्वारा. बिहार का बाज़ार ही दहेज़ का बाज़ार है. यह है युवाओं की पहचान जो ट्विटर पर राष्ट्रवाद चमकाता है.

बिहार में बीस साल से एक सरकार है. किसी सरकार को कुछ अच्छा करने के लिए क्या एक सदी दी जाती है ? अमरीका का राष्ट्रपति भी दो बार से ज़्यादा अपने पद पर नहीं रह सकता, चाहे वो कितना ही अच्छा क्यों न हो, चाहे उसके बाद कितना ही बुरा क्यों न आ जाए. आख़िर यहां का समाज कैसा है जो यह सहन कर रहा है. क्या उसे अपने बच्चों के भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है ? शाम को घर लौट कर टीवी लगा देना है और हिन्दू मुस्लिम देखना है – मुसलमान ऐसा होता है, मुसलमान वैसा होता है लेकिन आपका बच्चा कैसा होगा, किस कालेज में पढ़ रहा है, वहां टीचर नहीं है तो कैसे पढ़ रहा है, इस पर बात तो कीजिए, उसकी चिन्ता भी कर लीजिए.

पिछले साल भारत से 11 लाख से अधिक छात्र बाहर चले गए. बाहर जाना बायें हाथ का खेल नहीं है. छात्र आठवीं क्लास से बाहर जाने का सपना देख रहा है. मां बाप उसके इस सपने पर लाखों खर्च कर रहे हैं. तत्कालीन शिक्षा मंत्री निशंक ने संसद में बताया था कि दो लाख करोड़ रुपया एक साल में खर्च हो रहा है. भारत की उच्च शिक्षा के बजट से कई गुना ज्यादा पैसा ये लाचार मां बाप अपने बच्चों को भारत से बाहर भेजने पर खर्च कर रहे हैं. इनमें केवल पैसे वाले नहीं हैं. वो भी हैं जो पढ़ाई के महत्व को जानते हैं. भारत की उच्च शिक्षा इतनी घटिया हो चुकी है कि इससे निकलने के लिए भी आपको लाखों रुपये खर्च करने पड़ेंगे. यह वो दलदल है. आखिर छात्र कब बोलेंगे ? नहीं बोल कर मिला क्या ?

तो फिर भ्रम में रहा ही क्यों जाए कि पटना में कोई यूनिवर्सिटी है ? जहां शिक्षक नहीं है, वहां भी छात्र नामांकन ले लेते हैं तो फिर किसी खंभे को विश्वविद्यालय मान नामांकन ले लीजिए. जब युवा आवारा नेताओं को अवतार मान सकते हैं तो खंभे को विश्वविद्यालय क्यों नहीं ? बिहार सरकार को भी विश्वविद्यालय चलाने का नाटक छोड़ देना चाहिए इसलिए पटना विश्वविद्यालय को पूरी तरह बंद कर दे. इसकी शानदार इमारत और मैदानों को बेच दे. इस विश्वविद्यालय के पास कुछ भी नहीं बचा है. अतीत का गाना बचा है, आज का दाना नहीं.

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