शकील अख्तर
उत्तर प्रदेश में किसी का सफर आसान नहीं है. क्रिकेट की भाषा में कहें तो मैच फंसा हुआ है. जो धीरज से खेल जाएगा, टीम स्पिरिट को बढ़ाते हुए वह मैच निकाल लेगा. अभी स्लेजिंग (दूसरी टीम के लिए अपशब्द) और बढ़ेगी लेकिन गावस्कर जैसे शांत बने रहने का असली इम्तहान भी यही होगा.
कांग्रेस इस गेम में बड़ी प्लेयर नहीं है लेकिन अगर प्रियंका गांधी की राजनीति चल गई तो कांग्रेस बिहार चुनाव की तरह इस बार यूपी में भी महागठबंधन की धूरी बन जाएगी. प्रियंका अभी यूपी का एक सघन दौरा करके आई हैं. एक तरफ वे वहां कांग्रेस के संगठन को मजबूत एवं सक्रिय करने के लिए मीटिंग पर मीटिंग करती दिखती हैं तो दूसरी तरफ वे विपक्ष के साथ आने की संभावनाओं की टोह में भी लगी रहती हैं. इसी प्रयास के तहत वे अपने पिछले यूपी दौरे में ऋतु सिंह से मिलने लखीमपुर गईं थीं.
ऋतु सिंह पंचायत चुनाव में उस समय बहुत परेशानी में पड़ गई थीं और फिर चर्चा में आ गईं थीं, जब उनके हाथ से नामांकन पत्र छीनने का वीडियो सामने आया था. वे सपा की तरफ से ब्लाक प्रमुख पद की उम्मीदवार थीं. प्रियंका के मिलने जाने और अखिलेश यादव के न जाने का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे सपा छोडकर कांग्रेस में शामिल हो गईं. उनके कांग्रेस में शामिल होने से यूपी में एक नई राजनीतिक हलचल मच गई.
ऋतु सिंह कोई बड़ी नेता नहीं हैं. मगर घटना विशेष ने उन्हें बड़ा महत्व दिला दिया. दिनदहाड़े बीच सड़क पर एक महिला से नामांकन छीनने की वीडियों बहुत वायरल हुआ था. यह महिला सुरक्षा से लेकर लोकतंत्र की स्थिति की भी बात थी लेकिन वे जिस पार्टी के लिए लड़ रही थीं उस सपा ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और प्रियंका गांधी दिल्ली से उनसे मिलने लखीमपुर पहुंच गईं.
ऐसी घटनाएं छोटी होती हैं, मगर इनका राजनीतिक संदेश दूर तक जाता है. राजनीतिक कार्यकर्ताओं में एक भावना आती है कि उनके लिए कोई सोचता है. इन्दिरा गांधी कांग्रेस के हर कार्यकर्ता में यह भावना पैदा कर देती थीं कि उसके सिर के उपर पर किसी का हाथ है. 1977 की भयानक हार जिसमें वे और संजय गांधी भी हार गए थे, के ढाई साल बाद ही 1980 की शानदार वापसी के पीछे कार्यकर्ताओं का ही मनोबल था. वाजपेयी जी ने कहा था लोकसभा में इन्दिरा गांधी को बधाई देते हुए कि यह संजय गांधी और उनके कार्यकर्ताओं की मेहनत और जोश का परिणाम है.
तो प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक मैसेज दे रही हैं कि हर राजनीतिक कार्यकर्ता जो चाहे जिस पार्टी का हो अगर अन्याय का शिकार होता है तो वे उसके साथ खड़ी हैं. इसके द्विस्तरीय असर हैं. एक दूसरी पार्टियों के कार्यकर्ताओं में भी प्रियंका के नेतृत्व के लिए सम्मान बढ़ना और दूसरे विपक्ष में यह हलचल होना कि कांग्रेस का स्पेस बढ़ रहा है. प्रियंका यही चाहती हैं.
जब तक यूपी में दूसरी विपक्षी पार्टियां खासतौर पर सपा यह नहीं मानेगी कि कांग्रेस को नजरअंदाज करना महंगा पड़ेगा तब तक वे कांग्रेस को भाव नहीं देंगी. हालांकि हर बार की तरह कांग्रेस के कुछ नेता फिर यह कह रहे हैं कि अकेले लड़ना चाहिए, पार्टी को मजबूत करना चाहिए, मगर यह कहने वालों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो दावे से कह सके कि अकेले लड़कर वह इतने वोट ला सकता है या उसने पिछले पांच साल में पार्टी को मजबूत करने के लिए यह किया.
प्रियंका उत्तर प्रदेश की इन्चार्ज महासचिव हैं. उनकी प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है. हालांकि कहा यह भी जाता है कि उन्हें यूपी का इन्चार्ज नहीं बनाना चाहिए था. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए सबसे टफ स्टेट है. धर्म और जाति की राजनीति ने यहां व्यक्तियों तक पहुंचने के सारे सामान्य रास्ते बंद कर दिए हैं. दलित, पिछड़ा, सवर्ण फिर सवर्ण में भी ब्राह्मण, ठाकुर से लेकर श्मशान, कब्रिस्तान, अब्बाजान तक ही सारा राजनीतिक संवाद सीमित कर दिया गया है. मीडिया इसी पर बहसें कर रहा है. खेतों में आवारा पशु घुस रहे हैं इस पर कोई बात नहीं कर सकता.
रिपोर्टर फौरन पूछते हैं कि तालिबान पर आपके विचार क्या हैं ? बेचारा किसान कहता है कि पहले हमारी फसल की तबाही कि बात सुन लो फिर अपनी कहना. मगर गांव कवर करने आया रिपोर्टर कहता है नहीं, हमें उत्तर प्रदेश के गांवों की खेती किसानी की कहानी नहीं तालिबानी कहानी बनाना है. गांव गांव में बुखार फैला हुआ है. खासतौर पर बच्चे चपेट में आए हुए हैं मगर दवा, अस्पताल की कहीं कोई बात नहीं, हर बात को घुमा फिराकर हिन्दु मुसलमान पर लाकर छोड़ देना है.
इन परिस्तथितियों में प्रियंका की चुनौती बहुत बड़ी है. कांग्रेस जिसकी राजनीति का आधार सभी धर्म और जाति रहे हैं, ऐसे में जब रोजगार, महंगाई, चिकित्सा सुविधाएं, खेती किसानी की बात करती है तो उसे सुनने वाले और आगे बढ़ाने वाले बहुत कम दिखाई देते हैं. अकेले चुनाव लड़ने की वकालत करने वालों को यह सोचना चाहिए कि क्या दूसरी पार्टियों की तरह उनके पास कार्यकर्ताओं का ऐसा जाल है कि प्रियंका और राहुल की बात गांव गांव पहुंचाई जा सके.
इस कोरोना के कठिन समय में सबसे ज्यादा जनता की आवाज राहुल गांधी ने उठाई है. लगातार प्रेस कान्फ्रेंसे की, मजदूरों से मिले, किसानों से मिले, जहां अन्याय हुआ वहां गए. पुलिस ने धक्के दिए, नीचे गिरे मगर फिर उठकर आगे बढ़े. ऐसे ही प्रियंका भी. मगर क्या यह बात लोगों तक पहुंची कि राहुल और प्रियंका उनके लिए सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं ? लोगों के पास तो वही खबर पहुंचती है जो टीवी दिखाता है और अखबार छापते हैं. उनमें तो यही सवाल होता रहता है कि कहां हैं विपक्ष, कहां हैं राहुल.
ऐसे में कांग्रेस हो या कोई और विपक्ष सबको अपना महत्व बनाना होगा जैसे बिहार में विपक्ष के साथ मिलकर तेजस्वी ने बनाया. इसी से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तेजस्वी सहित सभी दलों को लेकर प्रधानमंत्री से मिलने जाना पड़ा. बंगाल में ममता बनर्जी ने बनाया है. बिहार या बंगाल में ये नेता आज जनता तक अपनी बात पहुंचाने में समर्थ हैं. मगर उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल सपा भी इस स्थिति में नहीं है कि उसकी बात हर जगह पहुंच सके.
अखिलेश यादव ज्यादा अनुभवी हैं. मुख्यमंत्री रह चुके हैं मगर अपेक्षाकृत युवा तेजस्वी की तरह आगे बढ़कर विपक्षी एकता की पहल नहीं कर पा रहे हैं. पता नहीं उन पर मुलायम सिंह यादव का दबाव है जिन्होंने जेल जाने से बचाने के लिए अमर सिंह की तारीफ की थी या ऐसी खुशफहमी है कि वे अकेले चुनाव जीत लेगे. जो भी हो वे इस समय सच्चाई का सामना करने से कतरा रहे हैं. उन्हें अहसास नहीं है कि ये अब्बाजान की विभाजनकारी भाषा अभी कितने रूप बदलेगी और अकेले इससे लड़ना उनके लिए किसी भी हालत में संभव नहीं होगा.
प्रियंका काफी हद तक इस खतरे को समझ रही हैं. रालोद के जयंत चौधरी भी समझ रहे हैं. कई छोटे दल भी अगर बिहार की तरह महागठबंधन बनता है तो साथ आने को तैयार हैं. मगर दोनों बड़ी पार्टियां सपा और बसपा इस गुमान में हैं कि अकेले लड़कर वे सरकार बना लेंगीं. ऐसे ही ओवेसी भी अपने आपको बड़ी ताकत मान रहे हैं. वे ताकत हैं इसमें कोई दो राय नहीं मगर भाजपा के लिए.
ओवेसी की राजनीति भाजपा की हिन्दु मुसलमान राजनीति के बहुत अनुकूल पड़ती है. ओवेसी भाजपा को और भाजपा ओवेसी को पूरी मदद करेंगे. धार्मिक विभाजन को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिश की जाएगी. यही एक दांव ऐसा है कि अगर चल गया तो भाजपा की राह आसान हो जाएगी और कहीं अगर कानून व्यवस्था की समस्याएं, किसान, महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना में हुई मौतें रोजी रोटी के सवाल चल गए तो भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी. लेकिन इन सवालों को उठाने के लिए विपक्षी दलों को साथ आना होगा. अलग-अलग उठाए सवाल जनता में विश्वास पैदा नहीं कर पाएंगे.
विपक्ष का नेता कौन है इसे पहचानने का सबसे आसान तरीका है यह देखना कि सत्तापक्ष और उसके सहयोगी जैसे मीडिया किसका विरोध सबसे ज्यादा कर रहे हैं
विपक्ष का नेता कौन है इसे पहचानने का सबसे आसान तरीका है यह देखना कि सत्तापक्ष और उसके सहयोगी जैसे मीडिया किसका विरोध सबसे ज्यादा कर रहे हैं.
क्या राहुल गांधी के अलावा विपक्ष का कोई और नेता ऐसा है जिस पर इतने हमले हुए हों ? सरकार, पार्टी, मीडिया, व्हट्सएप ग्रुप सब रात दिन लगे रहते हैं, क्यों ?
क्योंकि एक, राहुल डरते नहीं हैं. दो, वे छोटे स्तर पर जाकर किसी का विरोध नहीं करते हैं. तीन, अपने उपर हो रहे तमाम गंदे और बिलो द बेल्ट (अनैतिक, अभद्र, कमर के नीचे) हमलों से भी वे विचलित नहीं हो रहे हैं और चार एवं आखिरी मगर सबसे मह्तवपूर्ण कि धर्म और जाति की राजनीति से उपर उठकर युवा, किसान, मजदूर, गरीब सबकी बात कर रहे हैं. राहुल का यह समावेशी अंदाज ही विभाजन की राजनीति को सबसे ज्यादा परेशान करता है.
राहुल धर्म की राजनीति नहीं करते मगर धार्मिक स्थलों पर खूब जाते हैं और वह भी एक सामान्य यात्री की तरह, पैदल पहाड़ चढ़ते हुए. अभी वैष्णों देवी की यात्रा पर गए. 14 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता मास्क लगाकर तेज चलते हुए. साथ वालों ने जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल थे, चढ़ाई पर मास्क उतार लिए मगर राहुल ने लगाए रखा. कैमरों के लिए ऐसे दृश्य बहुत आकर्षक होते हैं. कामेन्ट्री करने वाले रिपोर्टरों के लिए भी. मगर टीवी ने लाइव तो दिखाया नहीं, मगर उसके बाद सवालों की झड़ी लगा दी.
उनके सवाल कैसे होते हैं ? कुछ ऐसे कि यहां क्यों गए वहां क्यों नहीं ? इस ढाबे पर चाय पी उस पर क्यों नहीं ? इस आदमी से बात की उससे क्यों नहीं ? जब चलने में टी शर्ट पहनी तो दर्शन के समय कुरता क्यों ? एंकर चिल्लाते हैं कि उनके इन सवालों के जवाब नहीं मिल रहे. राहुल देश और समाज के सामने के इन गंभीर सवालों से बच कर भाग रहे हैं.
मगर कभी कभी ऐसा होता है कि जनता खुद ही जवाब दे देती है. टीवी वालों को तो वह भी महत्व देती नहीं. मगर अभी एक मंत्री को जवाब दे दिया. केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी अमेठी से चुनाव जीत चुकी हैं, मगर उन्हें अभी भी यकीन नहीं होता कि जनता ने उन्हें चुना है. अमेठी में एक लस्सी वाले से उन्होंने पूछा था कि क्या कभी राहुल या गांधी परिवार का कोई व्यक्ति यहां आया है ?
अपने मोबाइल पर बड़ी हसरत से वीडियो बनाते हुए ईरानी जी ने टीवी एंकरों की तरह यह सवाल पूछा था. लस्सी वाले ने शांति से जवाब दिया ‘हां राहुल जी आए थे और प्रियंका जी भी.’ स्मृति ईरानी का चेहरा देखने लायक था. उन्हें पता नहीं किस ने अमेठी, रायबरेली में परिवार के बारे में ऐसा सवाल पूछने की सलाह दी थी या तो वह व्यक्ति अमेठी रायबरेली का नहीं था या स्मृति ईरानी का शुभचिन्तक नहीं था ?
ईरानी जी वहां परिवार के साथ जाते रहने वाले किसी पत्रकार से ही पूछ लेतीं तो वह बता देता कि यह लोग सबसे मिलते हैं. हर जगह जाते हैं. दर्जनों पत्रकार ऐसे हैं जो बरसों से अमेठी रायबरेली जा रहे हैं. इनमें से कई भक्त बनकर अब संपादक, एंकर बन गए हैं. राहुल के खिलाफ किसी भी स्तर तक जाने को तैयार रहते हैं, इन्हीं से अगर ईरानी जी पूछ लेतीं तो वे बता देते कि राहुल कहीं रास्ते में सड़क किनारे बैठकर भी वहां लंच कर लेते थे और प्रियंका खेत काम कर रही किसान महिलाओं के साथ भी.
सोनिया गांधी खुद वहां अपनी साड़ी प्रेस करके पहन लेती हैं और प्रियंका रात को चुपचाप कैप्टन सतीश शर्मा (कैप्टन अब रहे नहीं) के साथ जाकर उस घर में पैसे और सामान दे आती है, जहां लड़की की शादी होना है. कांग्रेस में पहले एक ही कैप्टन हुआ करते थे जो खुले हाथों कार्यकर्ताओं और अमेठी, रायबरेली की जनता की मदद करते थे. आज के कैप्टन (पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्द्र सिंह) के बारे में जनता और कार्यकर्ताओं में से किसी के पास ऐसी चुपचाप मदद करने की कहानियां नहीं हैं.
चुपचाप मदद करने की ये परंपरा नेहरू से शुरू हुई थी, जो निराला जैसे फक्कड़ कवि, सरदार पटेल जैसे नेता के परिवार, साधारण कार्यकर्ता सबकी मदद करते थे. उनकी जेब में तो कभी पैसा रुकता ही नहीं था. उनके निजी सचिव एमओ मथाई ने अपनी किताब में लिखा है कि’ वे अपनी पूरी तनखा कुछ ही दिनों में बांट देते थे. पर्सनल स्टाफ ने जब उनकी जेब में पैसा रखना बंद किया तो वे अपने सुरक्षाकर्मियों से उधार मांगकर जरूरतमंदों को दे देते थे. सुरक्षाकर्मी फिर मथाई से पैसे मांगते थे. मथाई को सुरक्षाकर्मियों को निर्देश देना पड़े कि उन्हें पैसे मत देना या कम देना.’
इन्दिरा गांधी भी लोगों की बहुत मदद करती थी. इनमें पत्रकार लेखकों के साथ गांवों के लोग भी शामिल होते थे. दिल्ली के बाहर से आए एक लेखक ने बताया कि ‘दिन भर लोगों से मिलते देर हो गई. इन्दिरा जी से मिलने रात को जब पहुंचे तो धवन ने कहा कि उन्होंने आपको पूछा था मगर अब तो बहुत देर हो गई. क्या मैसेज पहुंचाएं ? लेखक ने कहा – नहीं. सरदार जी टैक्सी वाले का बिल दे दो. दिन भर से इन्हें साथ लिए हूं. ज्यादा पैसे हो गए. आर. के. धवन ने तत्काल सरदार जी को पैसे दिए और लेखक जी को अपनी गाड़ी से पहुंचाने का इंतजाम किया.’ सामान्य समय में यह सब सहज मानवीय प्रवृति की कहानियां होती हैं. मगर ऐसे क्रूर सवालों के समय में ये कहानियां बड़ी लगने लगती हैं.
चुनाव में हार जीत अलग बात है. इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी अमेठी, रायबरेली से हारे थे मगर परिवार का अमेठी रायबरेली की जनता के साथ संबंध अगर किसी को जानना है तो वह किसी भी गांव में चला जाए और पूछ ले भैया जी आए थे ? इतने प्रतिकूल माहौल में भी गांव वाले यहीं बताएंगे कि हां आए थे. तब आए थे. वहां भैया जी राहुल को नहीं प्रियंका को कहा जाता है. प्रियंका राजीव गांधी के साथ वहां जाती थी. तब से उन्हें वहां लोग भैया जी पुकारने लगे, जो सम्मान और प्यार से आज तक कह रहे हैं.
यहां बात आई है तो प्रसंगवश यह भी बता दें कि राहुल के अमेठी हारने का कारण कोई स्मृति ईरानी की लोकप्रियता नहीं है बल्कि वहां परिवार द्वारा नियुक्त किए गए कुछ कांग्रेसियों का ही कार्यकर्ताओं और जनता के साथ किया गया दुर्व्यवहार है. दस साल की सत्ता ने देश भर के बड़े कांग्रेसी नेताओं, मंत्रियों के साथ अमेठी रायबरेली के नेताओं को भी अहंकारी बना दिया था. राहुल के हारने की इबारत 2014 में ही लिखी जा चुकी थी. अंतिम क्षणों में वहां प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी के शहर जायस में प्रियंका ने राहुल के साथ एक रैली निकालकर बाजी अनुकूल कर ली थी, नहीं तो वह चुनाव भी हाथ से निकलने वाला था. पहली बार दोनों एक साथ बाजारों में घूमे थे.
ऐसा नहीं है कि राहुल प्रियंका को वहां की हकीकत से लोगों ने आगाह नहीं करवाया हो, मगर किसी के खिलाफ भी कार्रवाई करने में ये लोग इतनी देर लगाते हैं कि तब तक खेल हो चुका होता है. अभी जी 23 के बागी नेताओं का उदाहरण सबके सामने हैं. खुलेआम बगावत के बावजूद उन्हें कोई और बड़ा कांड करने की मोहलत दी जा रही है.
उसी जम्मू में जहां अभी जी 23 के नेताओं ने अपना पृथक सम्मेलन किया गुलाम नबी आजाद ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की, वहीं वैष्णों देवी यात्रा के बाद राहुल, आजाद के साथ खड़े हुए थे. वही फोटो मीडिया में चले. राहुल की अमेठी की हार खतरे की बड़ी घंटी थी मगर लगता है परिवार को पार्टी के अंदर से आती आवाजें बिल्कुल सुनाई नहीं पड़ती है. राजीव गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ था. अंदर के ही लोगों वी. पी. सिंह, अरूण नेहरु ने उनकी सरकार पलट दी मगर लगता है उससे भी परिवार ने कोई सबक नहीं सीखा है. बाहर जरूर मजबूती से लड़ते हैं मगर अंदर दया और क्षमा भाव ज्यादा ही प्रबल हो जाता है !
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