Home कविताएं हिंदी दिवस पर विशेष : आदम से आदमी होने तक

हिंदी दिवस पर विशेष : आदम से आदमी होने तक

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कितना अच्छा होता
मेरे लफ़्ज़ों में न कोई चाल होती
न कारोबारी लफ्फ़ाज़ी
न नफा़ नुक़सान का कोई शऊर
कोई ऐसा भी लफ़्ज़ है
जो प्यार और मोहब्बत से लबरेज़ है

मैं जहां खड़ा हूं
वह ज़मीन किसी और की है
और कल इसी जगह
किसी और के नाम बोलियां लगेंगी

मैं डरता हूं
कल जब मुझ से
मेरी सांसों का हिसाब मांगा जाएगा

वह किसी का मादरे वतन
और मेरे लिए दुश्मन का
इलाका हो सकता है
और मेरा यकीन
कंटीले तारों की बाड़ में फंसा
बस तड़पा करेगा
दुनिया के स्याह होने तक

मैं केवल दुआ कर सकता हूं
उन परिंदों के लिए
जो जहां बैठते हैं
मादरे वतन होता है
जो जो कुछ गाते हैं
मादरे ज़बान होती है

ऐसा क्यों होता है
जब हम खेमों में बंट कर
फिर एक जुट रहने की
कसमें खाते हैं
मादरी जुबान
और मादरे वतन के नाम पर

मैं तमाम रात सो नहीं पाया

ऐसी कौन सी मजबूरी है
जब चांद को भटकना पड़ता है
और आसमान के जाल में
फंसे सितारे बस तड़पा करते हैं

अगर मैं और जिंदा रह सका तो
वह ज़बान जरूर सिखूंगा
और दोबारा जन्म ले सका तो
वह ज़बान जरूर बोलूंगा

नक्षत्र-युद्ध करने से पहले
मैं अपना किचन जाना चाहूंगा
जहां चूल्हे अक्सर आग को तरसते हैं
और बीवियां रोज रात
रोटी के खाब देखती हैं
और दुआ करती हैं
उसके सच हो जाने की

ऐसे सभी जंगलात काट दिये जांय
जहां भूख और जहालत
अमानत और विरासत
बन कर क़ैद है

वे सभी थके लोग
शायद सो गये
सुनसान रास्तों में
झाड़ियों की सनसनाहट महकती है

लेकिन दर्द जब अपना होता है
तो शब्द उधार लेने की
जरूरत नहीं पड़ती
आदम से आदमी होने तक
दर्द का एहसास जरूरी है

  • राम प्रसाद यादव
    विशाखपट्टणम

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