पिछले पखवाड़े न दशहरा था न रामनवमी मगर पूरी हिंदी पट्टी में जैश्रीराम के ललकारों की बहार सी आयी पड़ी थी. कानपुर से इंदौर तक, उज्जैन से देवास होते हुए दूर पहाड़ों से लेकर बिहार के गंगा मैदान तक जित देखो तित राम ही राम नहीं, जैश्रीराम ही जैश्रीराम थे. कहीं किसी चूड़ीवाले की चूड़ियां लूटकर उसकी धुनाई और गिरफ्तारी के बीच, कहीं कबाड़ी का कबाड़ बिखेर उसकी साइकिल गिराने के दौरान तो कहीं तीन पीढ़ियों से गांव में राखी और श्रृंगार का सामान बेचने आ रहे मनिहारी से ‘गांव में घुसने की हिम्मत कैसे हुई’ के सवालों के बीच; लोग अलग-अलग थे, जैश्रीराम के जैकारे सब जगह थे. हरेक से जैश्रीराम बुलवाया जा रहा था मगर इसके बाद भी उन्हें बख्शा नहीं जा रहा था. बोलने के पहले और बोलने के बाद भी बेइज्जती और पिटाई हर घटना का स्थायी भाव थी.
यह इसके बावजूद था कि न पिटने वाले को राम से कोई उज्र था-न पीटने वाले की ही राम के प्रति कोई श्रद्धा थी. राम सिर्फ एक औजार थे जिन्हें लम्पटों ने अपनी हिंसक लम्पटई का मन्त्र बनाया हुआ था. उत्तर भारतीय लोकजीवन की सांस्कृतिक विरासत में मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाने वाले राम देखते देखते हिंसक हमलों के जनरल में बदल दिए गए थे.
राम भारतीय मिथकों के इन दिनों सबसे लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं. हालांकि वे काफी हद तक आधुनिक ‘भगवान’ हैं. ऋग्वेदिक देवताओं में राम नहीं हैं. ऋग्वेद में आकाश के देवताओं सूर्य, धौस, पूषण, विष्णु, सविता, आदित्य, उषा, अश्विन, अंतरिक्ष के देवताओं इन्द्र, रूद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य, यम, प्रजापति और पृथ्वी के देवताओं अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि अधिकांश वे देवता हैं जो या तो प्रचलन से बाहर हो गए हैं या बारादरी के बाहर पठाये जा चुके हैं, राम नहीं हैं. वाल्मीकि की रामायण सहित तीन सौ प्रमुख रामायणों के नायक होने के बावजूद राम तब तक लगभग अनाम ही रहे जब तक कि तुलसी ने उन्हें लोकभाषा अवधी में रचकर हिन्दी समाज की स्मृति में नहीं बिठाया और उसके आधार पर हुयी रामलीलाओं ने उन्हें गांव मजरे तक नहीं पहुंचाया.
जै श्रीराम वाले राम वाल्मीकि या तुलसी के राम नहीं है – हिन्दी समाज या हिन्दुओं के राम नहीं हैं, वे एकदम हाल में उन धूर्त राजनीतिक लोगों द्वारा गढ़े गए हिन्दुत्व के जैश्रीराम हैं जिनका खुद उनके एकमात्र ‘महापुरुष’ स्वघोषित नास्तिक विनायक दामोदर सावरकर की स्वीकारोक्ति के अनुसार ‘न भारतीय धार्मिक परम्परा के साथ कोई नाता है न उसकी सांस्कृतिक विरासत के साथ ही कोई रिश्ता है.’ ये बीसवीं सदी के आखिर में बाबरी ध्वंस के लिए चले देश की एकता तोड़ने के सबसे जघन्य अभियान के दौरान आरएसएस और उसकी भुजाओं विश्व हिन्दू परिषद् और भाजपा द्वारा उठाये गए नारे में सबसे पहले मिलते हैं. इसके पहले किसी आख्यान, महाकाव्य यहां तक कि किसी लोकोक्ति में भी नहीं मिलते.
नब्बे के दशक से पहले विजय और जीत के उद्घोषों और जैकारों में भी जय का आल्हाद ‘सियापति रामचंद्र की जय’ ‘सियावर रामचंद्र की जय’ के नाद में मिलता है; जै श्रीराम के शंखनाद में नहीं. सदियों से अयोध्या में तीर्थाटन करने जाने वाले श्रद्धालुओं का परिक्रमागान ‘सीताराम सीताराम’ रहा है – जै श्रीराम कभी नहीं. मिथकों से लेकर महाकाव्यों तक के जरिये बनी उनकी शख्सियत एक कोमल, लगभग पवित्र और निर्विकार सहृदयी की रही है जो अपने सबसे कठिन संग्राम में सबसे बड़े शत्रु को पराजित करने के बाद भी उसे पृथ्वी का सबसे विद्वान व्यक्ति बताते हैं और अपने भाई लक्ष्मण को उसके पास ज्ञान हासिल करने के लिए भेजते हैं, सो भी इस हिदायत के साथ कि विजेता की अकड़ में मत रहना. रावण के पांवों की तरफ विनम्र भाव के साथ खड़े होना. हिंदी पट्टी में वे इतने अपने हैं कि लड़की की शादी के दौरान गाये जाने वाले लोकगीतों में उन्हें गर्भवती पत्नी को त्याग देने के लिए उलाहने दिए जाते हैं. कर्कश आलोचना, निंदा यहां तक कि भर्त्सना की जाती है. उनके श्रद्दालुओं का बड़ा हिस्सा उनकी पूजा आराधना करने के बावजूद शम्बूक प्रसंग के लिए उन्हें कभी माफ़ नहीं करता.
यह संयोग नहीं है कि ‘जय राम जी की’ और ‘जय सियाराम’ के शब्द युग्मों में राम को एक दूसरे के प्रति अभिवादन में उपयोग में लाने की शुरूआत जनता के संघर्षो के बीच से हुयी. अवध में अंग्रेजों और सामन्तों के खिलाफ बाबा रामचन्द्र की अगुआई में हुए 1920 के महान किसान आंदोलन ने इस संबोधन को आपसी अभिवादन का तरीका बनाया और जल्दी ही यह ‘पंडित जी पांय लागूं’ और ‘महाराज कुमार चिरंजीव’ के अभिवादनों को विलोपित करते हुए पूरी हिन्दी पट्टी के किसानों और आमजनों के लोकप्रिय अभिवादन में बदल गया. इसमें धार्मिक मान्यताएं कभी आड़े नहीं आईं. राम हिन्दी, उर्दू और हिन्दी प्रदेशों की बोलियों के साहित्य में इतने रचे बसे हैं कि उनका उल्लेख तक करना विस्तार की मांग करता है. साहित्यकारों की निजी धार्मिक मान्यताएं इसमें भी कभी आड़े नहीं आईं !! भारत में फासिज्म लाने वालों के युद्धघोष बने जै श्रीराम इनमे से कोई भी नहीं है.
जैश्रीराम के नारे में निहित सीता और राम का अलगाव, एक कोमल और निर्मल छवि वाले राम की तस्वीर को पीछे धकेल प्रत्यंचा ताने कठोर मुद्रा वाले राम का प्रादुर्भाव अनायास नहीं है; यह नायकों को हड़प कर उनका विद्रूपण कर उन पर प्रति-नायकत्व थोपने की उसी साजिश का हिस्सा है, जिसे इन दिनों इतिहास से लेकर वर्तमान तक अमल में लाया जा रहा है ताकि भविष्य को एक अंधेरी बंद गुफा में धकेला जा सके. हिंसक विचारों के लिए कोमल छवि वाले राम किसी काम के नहीं हैं.
आरएसएस के मुताबिक़ ‘हिन्दू धर्म में कोमलता और स्त्रीत्व की प्रमुखता उसे कमजोर बनाती है.’ उनके अनुसार ‘यह भाव हिन्दू धर्म के दुश्मनों ने अपनी चालाक साजिश से गढ़ा है, इसे दूर करने के लिए एक अति पौरुषेय सौष्ठव लोकाचार चाहिए’ इसलिए उन्हें मर्दाना नायक चाहिए; पुरुष सत्तात्मकता का प्रतीक नायक चाहिए. सीताराम, जय सियाराम वाले राम उनके काम के नहीं हैं, उन्हें अपने हिंसक हमलों में हथियार की तरह काम आने वाले उग्र नारे के उपयुक्त जै श्रीराम चाहिए. नब्बे के दशक से इसे बार बार उपयोग में लाकर धीरे-धीरे आम प्रचलन में लाया गया. शुरू में लम्पटों ने इसे अपनी हरकतों की आड़ बनाया.
उस वक़्त कुनबे के चतुर राजनीतिक नेतृत्व ने इससे दूरी-सी बनाये रखी. संसद में अपने ही सांसदों और आमसभाओं में अपने अनुयायियों के ‘जैश्रीराम’ के नारों के लिए उनको फटकारते हुए कई बार अटल बिहारी वाजपेई का कहना कि ‘काम न धाम जैश्रीराम’ इसी डेढ़ सियानपट्टी का उदाहरण है. मगर अब यह दिखावा भी छोड़ा जा चुका है. यह हुंकारा संसद से होते हुए प्रधानमंत्री के नारे में बदल चुका है.
2019 की जून में लोकसभा में मुस्लिम सांसद जब शपथ ग्रहण करने आगे बढ़ रहे थे तब भाजपाई सांसद अपनी जैश्रीराम की चीखपुकार से लोकसभा को प्रतिध्वनित करते हुए राम का ध्यान नहीं कर रहे थे; सड़कों पर डराने वाली चिंघाड़ को संसदीय कार्यवाही का हिस्सा बनाते हुए पूरे भारत की लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने वाली जनता के यकीन की ‘राम नाम सत्य’ कर रहे थे. इसी तरह का इस्तेमाल 2020 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कथित न्यास द्वारा किये गए मंदिर शिलान्यास में और उसके पहले 2017 में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए स्वयं प्रधानमंत्री ने अयोध्या और लखनऊ को गुंजा कर किया.
यह मर्दाना पितृसत्ताकता का घोष सिर्फ अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नहीं है. इसके मूल में है स्त्री पक्ष को दबाना. मनु की कंदरा में पली-बढ़ी भारतीय पितृसत्तात्मकता वर्णाश्रम और उसकी पैदाइश जाति श्रेणीक्रम के नाखूनों और दांतों से लैस और कुरेदने, नोंचने और खसोटने के संस्कारों से संस्कारित है इसलिए उसकी परिधि में स्त्री तो शूद्रातिशूद्र है ही, वे सब भी हैं जिन्हें अछूत और सछूत शूद्र बताया जाता है – वे भी हैं जो फिलहाल खुद को ओबीसी मानकर शुतुरमुर्ग की तरह आंखें बंद किये तूफ़ान के गुजर जाने का भरम पाले बैठे हैं, वे भी हैं जो हिंदुत्व को समझे बिना हिन्दू राष्ट्र के नारे को हिन्दुओं का राज माने बैठे हैं.
भारत के इतिहास में गांधी हिन्दू धर्म के सबसे महान सार्वजनिक व्यक्तित्व – पब्लिक फिगर – थे/हैं. निजी जीवन में वे इतने कट्टर सनातनी थे कि बार-बार विवादास्पद बनकर असुविधा में पड़ने के बावजूद अपनी मान्यताओं पर डटे रहे. इतने आस्थावान हिन्दू कि सीने पर तीन-तीन गोलियां खाने के बाद भी उनके मुंह से ‘हे राम’ ही निकला. यही गांधी थे जिन्होंने कहा था कि ‘राज्य का कोई धर्म नहीं हो सकता, भले उसे मानने वाली आबादी 100 फीसदी क्यों न हो.’ जिन्होंने कहा था कि ‘राजनीति में धर्म बिलकुल नहीं होना चाहिए, मैं यदि कभी डिक्टेटर बना तो राजनीति में धर्म को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दूंगा मेरे रामराज्य का मतलब राम का या धर्म का राज नहीं है, मैं जब पख्तूनों के बीच जाता हूं तो खुदाई राज और ईसाइयों के बीच जाता हूं तो गॉड के राज की बात करता हूं, इसका मतलब धार्मिक राज नहीं है, समता और सहिष्णुता का शासन है, नैतिक समाज का आधार है.’
पिछले पखवाड़े भर से हिन्दी पट्टी में गूंज रहे ‘जैश्रीराम’ गांधी के ‘हे राम’ वाले राम नहीं है, ये गोडसे का अट्टहास है जिसकी गूंज-अनुगूंज के बीच कारपोरेट के मुनाफों की स्वर्ग नसैनी बनाई जा रही है – देश की संपत्ति और सम्प्रभुता बेची जा रही है और सरकारी संरक्षण में हिटलरी दस्तों की ड्रिल कराई जा रही है. देश के राजनीतिक आकाश पर घनेरे अंधेरों की चाहत वाले ये ऐसे तूफ़ान हैं, जिन्हे तिनकों से नहीं टाला जा सकता.
- बादल सरोज
लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं.
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