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मुद्रा का इतिहास, महत्व और उसका प्रभाव

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मुद्रा का इतिहास, महत्व और उसका प्रभाव

History, Importance and Impact of Currency

पैसा ख़ुदा तो नहींं लेकिन ख़ुदा की कसम ख़ुदा से कम भी नहीं.’

यह ‘सूक्ति’ कुछ वर्षों पहले छत्तीसगढ़ में भाजपा के एक मंत्री जूदेव सिंह ने रुपयों की कई गड्डियां घूस में लेते हुए उचारे थे. इस ‘सूक्ति वाक्य’ को एक खुफिये कैमरे ने कैद कर लिया था.

उपरोक्त वाक्य इस समाज में मुद्रा के महत्व व उसके प्रभाव को बहुत खूबसूरती से बयां करता है. यह दिलचस्प है कि खुदा और मुद्रा दोनों का आविष्कार समाज विज्ञान की एक खास मंजिल में स्वयं इंसान ने किया और खुद उसका गुलाम बन गया.

हालांकि उपरोक्त ‘सूक्ति वाक्य’ में मुद्रा को खुदा के बराबर का दर्जा दिया गया है, लेकिन मेरे हिसाब से मुद्रा का स्थान खुदा से भी ऊपर है. इसका स्पष्ट उदाहरण यह है कि खुदा से अपनी बात मनवाने के लिए इंसान खुदा को भी रुपयों-पैसों का ही लालच देता है.

खैर हम खुदा को अभी छोड़ देते हैं और मुद्रा पर ही बात करते हैं. इसका अस्तित्व कहां से और कैसे प्रारम्भ हुआ ? और आज इसने पूरी दुनिया पर जो बादशाहत हासिल की है, उसका इतिहास क्या है ?

2013-2014 में ‘सेज प्रकाशन’ से छपकर आयी विवेक कौल की पुस्तक ‘इजी मनी’ (तीन भाग में) काफी हद तक इसका उत्तर देती है. यह पुस्तक मुद्रा के अस्तित्व से पहले वस्तु विनिमय के काल से शुरु होकर वर्तमान आर्थिक संकट (2008-09) तक आती है.

लेखक वस्तु विनिमय की जटिलताओं के माध्यम से यह समझाता है कि इसी जटिलता ने मनुष्य को एक ऐसी ‘सार्वभौम चीज’ की खोज के लिए प्रेरित किया जिससे सभी वस्तुओं का विनिमय किया जा सके.

वस्तु विनिमय की जटिलता का एक उदाहरण देखिये – मान लीजिए कि मेरे पास अतिरिक्त कपड़े हैं और मैं इस अतिरिक्त कपड़े को जूते के साथ विनिमय करना चाहता हूं, जिसकी मुझे ज़रूरत है. वहीं आपके पास अतिरिक्त जूते तो हैं लेकिन आप इसका विनिमय मिट्टी के बर्तन से करना चाहते हैं जिसकी इस वक्त आपको जरुरत है.

लेकिन मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को जूते की नहीं बल्कि कपड़े की जरुरत है जो मेरे पास है लेकिन मुझे मिट्टी के बर्तन की जरुरत नहीं है. इसी जटिलता के कारण हाट की शुरुआत हुई होगी जहां सभी लोग इकट्ठा होकर अपने साथ उपयुक्त विनिमयकर्ता को खोज सकते थे.

इस तरह के हाट में सभी खरीददार होते थे और सभी विक्रेता होते थे. यहां मुनाफे की कोई अवधारणा नहीं थी. हालांकि जटिलता इस हाट में भी बरकरार रहती थी, लेकिन उसकी मात्रा थोड़ी कम हो जाती थी.

कुछ समय बाद इसी जटिलता के कारण विश्व के हर कोने में अलग-अलग ऐसी चीजों को सार्वभौम ईकाई के रुप में स्वीकार किया गया, जिसकी सभी को जरुरत होती थी और जो आसानी से साथ ले जायी जा सकती थी और उसे जरुरत के हिसाब से कई भागों में बांटा जा सकता था.

लेखक के अनुसार प्राचीन भारत में ‘बादाम’ को यह स्थान हासिल था. इसी प्रकार मंगोलिया में ‘चाय की पत्ती’, जापान में ‘चावल’, ग्वाटेमाला में ‘मक्का’, और ठंडे नार्वे में ‘मक्खन’ से सभी चीजों का विनिमय होता था.

इसी संदर्भ में लेखक ने एक दिलचस्प तथ्य बताया है. प्राचीन रोमन में एक समय ‘साल्ट’ यानी नमक यह भूमिका निभाती थी यानी इससे सभी चीजों का विनिमय किया जा सकता था. रोम अपने सैनिकों को वेतन भी साल्ट के रुप में देता था, जिसे ‘सालारियम’ कहते थे. इसी से ‘सैलरी’ शब्द की उत्पत्ति हुई.

संभवतः यही से संग्रह की प्रवृत्ति भी पैदा हुई क्योंकि अपने जरुरत की अनेक चीजें खरीदने के लिए इस ‘सार्वभौम विनिमय ईकाई’ को संग्रह करने की जरुरत पड़ेगी हालांकि इसकी अपनी दिक्कतें थी. ‘चावल’ को चूहे खा सकते थे, ‘बादाम’ खराब हो सकते हैं या ‘मक्खन’ गर्मी पाकर पिघल सकते हैं.

सोने और चांदी के आविष्कार ने इस समस्या को हल कर दिया. प्राचीन समय में इसकी सप्लाई बहुत कम होने के कारण इसका मूल्य भी काफी ज्यादा होता था यानी इसकी बहुत थोड़ी मात्रा से हम काफी चीजों का विनिमय कर सकते थे.

इसके आविष्कार के साथ ही लगभग पूरी दुनिया में सोने और चांदी को ‘सार्वभौम विनिमय ईकाई’ के रुप में स्वीकार कर लिया गया. इसके बाद ही विश्व व्यापार तेजी से फलने फूलने लगा और विश्व की अनेक सभ्यताएं तेजी से नजदीक आने लगी.

सोने और चांदी ने विनिमय की जटिलताओं को तो हल कर दिया लेकिन दूसरी दिक्कतें सामने आ गयी. सोने-चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं को लेकर सफर करना या ज्यादा मात्रा में अपने घर पर रखना निरंतर खतरनाक होने लगा.

दूसरी ओर इसका बड़ी मात्रा में संग्रह किया जाने लगा जिससे इसकी कीमत कृत्रिम रुप से भी बढ़ने लगी. यानी इतिहास में अब पहली बार ऐसा हुआ कि आपके सोने की कीमत रखे-रखे ही बढ़ने लगी.

इसी के साथ ही कुछ ऐसे ‘आदिम बैंकर’ पैदा हुए जो आपका सोना अपने पास सुरक्षित रखने लगे और इसके लिए आपसे कुछ कमीशन लेने लगे. यह व्यवस्था आज की बैंकिग व्यवस्था के ठीक उलट है, जहां आपके डिपाजिट पर आपसे कमीशन लिया नहीं बल्कि दिया जाता हैै, ब्याज के रुप में.

ये बैंक आपका सोना रखने के बदले आपको एक ‘रिसीट’ देते थे. बाद में इसे दिखाने पर आपको आपका सोना वापस मिल जाता था. धीरे-धीरे इस ‘बैंक रिसीट’ का ही आदान-प्रदान होने लगा.

उदाहरण के लिए मेरे पास एक बैंक रिसीट है जिसकी कीमत एक तोला सोना है यानी मेरा एक तोला सोना बैंक में जमा है. मान लीजिए मैंने आपसे 10 कुन्तल अनाज खरीदा जिसकी बाजार में कीमत एक तोला सोना के बराबर है तो मैं आपको बैंक से सोना निकाल कर देने की बजाय यह बैंक रिसीट दे दूंगा. आप जब चाहेंगे यह रिसीट दिखाने पर आपको वह सोना वापस मिल जायेगा.

इसी तरह आप भी इसका विनिमय किसी और चीज के साथ किसी और से कर सकते हैं. इसी तरह समय के साथ यह बैंक रिसीट अनेक लोगों के हाथों में घूमने लगी और यहीं से ‘पेपर मनी’ की शुरुआत हुई.

लेकिन लेखक के अनुसार आम अवधारणा के खिलाफ इस पेपर मनी की शुरुआत यूरोप में नहीं बल्कि 700-800 ईसवी में चीन में हुई थी. ‘मार्कोपोलो’ 1271 ईसवी में जब चीन की यात्रा पर था तो उसने बड़ी मात्रा में ‘पेपर मनी’ के होने की पुष्टि की है.

बहरहाल सोने-चांदी और अन्य बहुमूल्य वस्तुओं के बदले रिसीट जारी करने वाले बैंकों ने यह देखा कि सभी लोग कभी भी एक साथ एक ही दिन अपना सामान लेने नहीं आते हैं. इसने उनके अन्दर इस विचार को पैदा किया कि इस रखे सोने को वह उधार पर उठा सकते हैं और इसके एवज में ब्याज कमा सकते हैं.

बैंक रिसीट की व्यापकता ने यह भी संभव कर दिया कि वे कर्ज के रुप में सोना-चांदी न देकर उसी मूल्य का रिसीट दे दे. हालांकि इसमें यह निहित है कि रिसीट के बदले जब भी ज़रूरत हो सोना लिया जा सकता है और यहीं से ‘फ्राड’ की शुरुआत होती है.

अब बैंक अपने मन से ऐसे रिसीट जारी करने लगे जिसके बदले में उनके पास कोई सोना-चांदी नहीं होता था. यानी कुल रिसीट का मूल्य कुल रखे हुए सोने से ज्यादा होता चला गया. यानी पेपर मनी की शुरुआत ही अपने आप में एक फ्राड है. लेखक के अनुसार इस तरह के पहले बड़े बैंक की स्थापना वेनिस में 1171 ईसवी में हुई थी.

हालांकि पेपर मनी के पहले भी जब धातु की मुद्रायें अस्तित्व में थी तो भी यह फ्राड होता था और इसे और कोई नहीं बल्कि राज्य ही अंजाम देता था. यह फ्राड, युद्ध के समय चरम पर पहुंच जाता था.

युद्ध के समय ज्यादा से ज्यादा मुद्रा की ज़रूरत होती थी लेकिन जिन धातुओं से मुद्रा बनती थी, (मसलन चांदी से) उनकी उपलब्धता सीमित होती थी. ऐसे में राज्य समान मूल्य की मुद्रा की संख्या को बढ़ाने के लिए कुछ मात्रा में दूसरे तत्व मिला देते थे.

जैसे-जैसे यह जरुरत बढ़ती जाती थी मुद्रा की मूल धातु (इस उदाहरण में चांदी) की मात्रा का औसत गिरता जाता था. इसे अंग्रेजी में ‘डीबेसमेन्ट’ बोलते हैं।.यह हूबहू आज के अवमूल्यन की तरह है. आप जितना पेपर मनी ज्यादा छापेंगे उतना ही इसका अवमूल्यन होता जाएगा.

रोमन साम्राज्य की मुद्रा ‘डेनारियस’ अपनी शुरुआत में शुद्ध चांदी की हुआ करती थी. धीरे-धीरे युद्ध और राजाओं की अय्याशियों के कारण डेनारियस में चांदी की मात्रा कम होती चली गयी. नीरो के समय में इसकी मात्रा 10 प्रतिशत तक आ गयी. 476 ईसवी में अन्तिम रोमन शासक के समय तो इसकी मात्रा महज 2 प्रतिशत रह गयी.

नतीजा यह हुआ कि अन्तराष्ट्रीय व्यापार में इसकी मांग लगभग खत्म हो गयी. भारत ने तो 215 ईसवी में इसे लेने से इंकार कर दिया. लेखक ने बिल्कुल ठीक लिखा है – ‘रोमन साम्राज्य का पतन और डेनारियस का पतन साथ साथ हुआ.’

चलिए अब सीधे आधुनिक काल पर आते हैं. पेपर मनी की शुरुआत के बाद से ही कम से कम सिद्धान्त में सभी देशोें की सरकारें इसे सोने से जोड़कर देखती रही हैं. यानी पेपर मनी का जो भी मूल्य है उसके बदले में कभी भी बैंक से सोना लिया जा सकता है. हालांकि इसका अनेकों बार लगभग सभी सरकारों ने उल्लंघन किया है.

पेपर मनी को सोने से जोड़कर रखने से सरकारों के ऊपर यह बंधन रहता था कि वे एक मात्रा से ज्यादा पेपर मनी को नहीं छाप सकती है, इससे मूल्य वृद्धि पर भी एक हद तक लगाम रहता था. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध और दितीय विश्व युद्ध के दौरान और बाद में सभी सरकारों ने इससे पल्ला झाड़ लिया (क्योंकि इनका सारा सोना दोनों विश्व युद्ध लड़ने में अमरीका पहुंच चुका था क्योंकि उस दौरान हथियारों और अन्य जरूरी चीजों की सप्लाई यहीं से हो रही थी), एकमात्र अपवाद अमेरिका था.

डालर को विश्व व्यापार की केन्द्रीय मुद्रा बनवाने के लिए अमेरिका ने ‘ब्रेटनवुड सम्मेलन’ में ऐलान किया कि उसकी मुद्रा डालर, सोने से बंधी रहेगी. 35 डालर के बदले एक औंस सोना दिया जायेगा. 1971-72 में डालर के कमजोर होने पर जब कुछ देशों ने (विशेषकर फ्रांस ने) डालर से सोने की अदला-बदली शुरु की तो अचानक अमेरिका ने भी 1973 में इससे पल्ला झाड़ लिया.

इसका दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि अब अमरीका भी जितना मर्जी डालर छाप सकता है और इसके बाद से ही पूरी विश्व अर्थव्यवस्था में मनी सप्लाई अचानक से बढ़ गयी. पैसे से पैसे कमाने का पुराना व्यवसाय अपनी बुलंदियों पर पहुंच गया.

डालर के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा होने का अमरीका ने जबर्दस्त लाभ उठाया. पूरी दुनिया में अपने सैन्य अड्डे स्थापित करने और निरंतर युद्ध छेड़ते रहने के कारण उसे निरंतर पैसों की जरुरत होती थी और डालर के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा होने के कारण उसे (अमेरिका को) सिर्फ छापने की ज़रूरत होती थी.

लेखक ने बिल्कुल सही लिखा है – ‘जहां दुनिया के सभी देशों को डालर कमाने की ज़रूरत पड़ती है वहीं अमेरिका को इसे सिर्फ छापने की ज़रूरत होती है.’

अमरीका के अलावा अन्य देशों को डालर कमाने के लिए जाहिर है अमरीका को निर्यात करना पड़ेगा. इससे अमरीका को निर्यात करने वाले देशों के बीच की प्रतिस्पर्धा के कारण अक्सर निर्यात माल का मूल्य कम होता है, जिसका फायदा अमरीकी उपभोक्ताओं को मिलता है.

ज्यादातर देश (विशेषकर तेल निर्यातक देश और चीन) अपनी डालर की कमाई को वापस अमरीकी बैंकों में रखते हैं या अमरीकी बाण्डों में निवेश करते हैं क्योंकि यहां उन्हें अच्छा ब्याज मिलता है. इसी डालर का इस्तेमाल अमरीका अपने खर्चे के लिए और विश्व पर अपनी चौधराहट बनाये रखने के लिए करता है.

लेखक ने मशहूर आर्थिक इतिहासकार ‘नील फर्गुसन’ को उद्धृत करते हुए कहा है – ‘चीन से होने वाला सस्ता आयात अमरीका में मूल्य वृद्धि को बढ़ने नहीं देता, चीन अमरीका में जो डालर निवेश करता है, उसके कारण अमरीका में ब्याज दर बढ़ने नहीं पाती और चीन का सस्ता श्रम अमरीका में मजदूरों की वेतन बढ़ोत्तरी पर लगाम लगाये रखती हैै.’

अमरीकी अर्थव्यवस्था में आज जो भूमिका चीन की है वही 2-3 दशक पहले जापान की थी. अंतर सिर्फ यह है कि जहां चीन अपने द्वारा कमाये गये डालर की बड़ी मात्रा को अमरीका में रख रहा है, वहीं जापान अपने निर्यात से कमाये गये डालर को बड़ी मात्रा में एशियाई देशों जैसे मलेशिया, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड, फिलीपीन्स, दक्षिण कोरिया के बैंकों में निवेश कर रहा था और बैंक पैसा से पैसा बनाने के लिए ये डालर शेयर मार्केट में निवेश कर रहे थे. और दुनिया ‘एशियाई टाइगरों के चमत्कार’ से हैरान थी.

हालांकि जल्दी ही पैसा से पैसा बनाने का यह खेल खत्म हो गया और 1997-98 में ये शेयर मार्केट औधे मुंह गिर गये. इसकी पूरी कहानी इस पुस्तक में विस्तार से है.
इंटरनेट की शुरुआत के बाद पैसों का लेन-देन अप्रत्याशित गति से तेज हो गया.

हालांकि यहां लेखक ने एक महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज किया है, वह यह कि इंटरनेट से बैंकिंग के जुड़ने के बाद ई-मनी, पेपर मनी पर हावी हो गयी और अब निजी बैंक अपने मन से ई मनी को जितना चाहे जारी कर सकते थे. इसके बाद अर्थव्यवस्था में मनी सप्लाई गुणात्मक रूप से बढ़ गयी.

आज भारत में ही टोटल मनी सप्लाई का महज 17 प्रतिशत ही पेपर मनी है, बाकी का ई-मनी ही है. यानी अब मनी छापने की भी जरुरत नहीं है. बटन दबाने से ही मनी जनरेट हो जायेगी. शेयर मार्केट का बुलबुला बनाने में इस परिघटना ने भी अपनी महती भूमिका अदा की है.

दूसरी तरफ ‘चीनी चमत्कार’ ने अमरीका के अन्दर डालर सप्लाई को और तेज कर दिया. अमरीकी फेडरल गवर्नर ‘एलन ग्रीनस्पान’ के नेतृत्व में अमरीका में ब्याज दर लगभग शून्य के आसपास पहुंच गयी और बैंकों में लोगों को कर्ज देने के लिए होड़-सी मच गयी. इसी कर्ज का अधिकांश हिस्सा शेयर मार्केट में पहुंच गया और शेयर मार्केट दिन दूनी रात चौगुनी उछाल भरने लगे.

लेकिन कहावत है कि कोई भी पेड़ आसमान तक नहीं बढ़ सकता. बैंको से पैसा जा तो रहा था लेकिन वापस नहीं आ रहा था. और कोई भी इस ‘खूबसूरत पार्टी’ में विघ्न नहीं डालना चाहता था लेकिन पार्टी को तो खत्म होना ही था, और वह हुई. पहले 2000-2001 में ‘डाटकाम’ क्रैश के रुप में और फिर 2008 की महामंदी के रुप में.

इस ‘खूबसूरत पार्टी’ की समाप्ति ने कितने मजदूरों की नौकरी छीनी, कितने छोटे निवेशकों की गाढ़ी कमाई छीनी और टैक्स देने वाले कितने लोगों के पैसों से अमीरोें की झोलियां भरी गयी (क्योंकि सभी दिवालिया बैंकों का जनता के पैसों से राष्ट्रीयकरण किया गया), ये आंकड़े शायद कभी सामने नहीं आ पायेंगे.

इन सबका बहुत विस्तार से वर्णन इस किताब में है. विशेषकर शेयर मार्केट के अनेकों ट्रिक (हेज फण्ड, डेरिवेटिव, स्वैप, शार्ट सेलिंग, फ्यूचर, आप्शन, बाण्ड आदि आदि) का इसमें बहुत रोचक वर्णन किया गया गया है.

आश्चर्य है कि उस दौरान कई एकदम नई डाटकाम कंपनियों का मार्केट कैपिटलाइजेशन अमरीकी जीडीपी से भी ज्यादा हो गया था लेकिन फिर भी किसी के माथे पर कोई शिकन नहीं थी, पार्टी कैसी भी हो पार्टी होनी चाहिए.

कोलंबस ने जब अमरीका की ‘खोज’ की तो स्पेन के पास सोने-चांदी की भरमार हो गयी लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह हुआ कि सोने चांदी की व्यापक सप्लाई के कारण वहां चीजों के दाम बेतहाशा बढ़ने लगे. 16वीं शताब्दी में स्पेन में चीजों के दाम 400 प्रतिशत तक बढ़ गये, इस कारण वहां उत्पादन धीमा पड़ गया. लगभग सभी चीजें आयात होने लगी. उस समय ब्रिटेन दुनिया की वर्कशाप के रुप में विकसित होने लगा था. फलतः अधिकांश आयात ब्रिटेन से ही होने लगा और स्पेन का सोना ब्रिटेन पहुंचने लगा. शनैः शनैः ब्रिटेन ने स्पेन को काफी पीछे छोड़ दिया.

यही स्थिति आज अमरीका की हो गयी है. फर्क सिर्फ यह है कोई दूसरा देश उसकी जगह लेने की स्थिति में नहीं है क्योंकि आज पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पहले के मुकाबले काफी गुथी हुई है और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संकट चौतरफा है. पहले की तरह किसी एक या दो देश से सम्बन्धित नहीं है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या ‘मनी सप्लाई’ और ‘मनी सर्कुलेशन’ ही अर्थव्यवस्था है ? क्या आज सभी समस्या की जड़ यही है ? और समाधान भी क्या इसी में है ? किताब की मूल दिक्कत यही है कि वह मूलभूत सवाल को छूती भी नहीं है. या यूं कहें कि लेखक ‘मनी सप्लाई’ और ‘मनी सर्कुलेशन’ को ही अर्थव्यवस्था का कोर मानता है लेकिन यह सच नहीं है.

किसी भी अर्थव्यवस्था का कोर उसका उत्पादन होता है, मनी और मनी सर्कुलेशन उसके बाद आता है और अर्थव्यवस्था का कोई भी संकट अनिवार्यतः उत्पादन क्षेत्र को ही प्रभावित करता है. ठोस रुप में कहें तो मजदूरों-किसानों के जीवन को प्रभावित करता है.

सच तो यह है कि उत्पादन क्षेत्र में होने वाला शोषण ही सारे संकटों की जड़ है लेकिन इस पुस्तक में इस विषय पर कुछ भी नहीं है. वास्तव में मुख्यधारा का अर्थशास्त्र हमेशा जीडीपी, निवेश, मुद्रास्फीति जैसे अमूर्त शब्दावली में ही बात करता है लेकिन अर्थव्यवस्था के कोर यानी उत्पादन और उत्पादन के कोर यानी मजदूरों-किसानों पर बात नहीं करता.

लगता है कि मजदूरों-किसानों का अस्तित्व ही नहीं है. सारा काम तो पैसा ही करता है. खेतों में धान पैसा ही उगाता है, फैक्ट्रियों में सामानों का निर्माण पैसा ही करता है. यह चीजों को सर के बल देखने की तरह है और कहना ना होगा कि लेखक भी इसी दृष्टि का शिकार है.

फिर भी किताब काफी रोचक व पठनीय है. जो लोग इसे पढ़ने की जहमत नहीं उठा सकते, वे मशहूर आर्थिक इतिहासकार ’नील फर्गुसन‘ की यह डाकुमेन्ट्री देख सकते है, जिसका नाम है – The Ascent of Money. इस डाकुमेन्ट्री में भी बहुत रोचक तरीके से मुद्रा के इतिहास को बताया गया है. पुस्तक के लेखक विवेक कौल ने भी कई जगह नील फर्गुसन को विस्तार से उद्धृत किया है.

  • मनीष आज़ाद

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

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