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पौराणिक किरदार ऐतिहासिक जड़ों का आधार नहीं होते !

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पौराणिक किरदार ऐतिहासिक जड़ों का आधार नहीं होते !

कोई कहता है कि फलां परिवार लव-कुश के यहां से निकला, कोई कहता मिलेगा कि फ़लानी ज़ात परशुराम की सन्तानों से बनी तो कोई जनाब हिरण्यकश्यप और प्रहलाद के वंश की भी जड़ें ढूंढ निकाल लाते हैं. क्या ये लोग ऐतिहासिक व्यक्ति थे जो किसी वंश के जनक बनते ? या मात्र पौराणिक वर्णन से आपने दुनिया भर की जड़ें और मूल पैदा कर दिए ?

पूरा भारतीय इतिहास गप्पों, कहानियों और क़िस्सागोई का शिकार होता आया. हम झूठ केवल परोसते ही नहीं गए, बड़े चाव से उसे हज़म भी करते गए.

अपने एक विद्वान मित्र की सोशल मीडिया पर ‘अरोड़ा’ जाति पर पोस्ट देखी. स्वयं इसी वर्ग से होने के नाते जिज्ञासा जगी तो कॉमेंट्स भी पढ़ने लगा. बहुत निराशा हुई पढ़ कर. इतिहास कहीं था ही नहीं और दास्तानें प्रहलाद और हिरण्यकश्यप तक पहुंची पड़ी थी.

इतिहास तो इनका हर इतिहास की तरह सीधा सादा है. पाकिस्तान के सिंध राज्य में एक क्षेत्र है – रोहड़ी. आप इसे उत्तरी सिंध North Sindh भी कह सकते हैं. सक्खर, कंधकोट, लाड़काना आदि ज़िले सिंध राज्य के इसी ‘रोहड़ी’ क्षेत्र में पड़ते हैं. सिंधी में जिसे ‘रोहड़ी’ कहते हैं, प्राकृत में वही ‘रोहड़’ और संस्कृत में ‘अरोड़’ कहलाता था.

अरोड़े मूल रूप से क्षत्रिय वर्ण से आते हैं, तभी इन्हें पंजाब में अरोड़ा खत्री (क्षत्रिय) भी कहा जाता है. पचास से भी अधिक वंशगौत्र हैं इनके. खुराना, बजाज, नरूला, चावला, नारंग, आहूजा, जुनेजा, तनेजा, सलूजा, मनोचा, वलेचा, झाम्ब, गम्भीर, छाबड़ा वग़ैरह वग़ैरह. कुछ लोग केवल अरोड़ा भी लिख देते हैं, वंशगौत्र (surname) इस्तेमाल नहीं करते. पंजाब से ले कर कच्छ तक फैले हैं ये किन्तु पंजाब ही इनका मुख्य गढ़ है.

अब ज़रा देखें, सिंध के रोहड़ी क्षेत्र से निकल ये कैसे इतनी दूर कहां-कहां फैल गए और फिर वहीं के हो गए. कोई सात-आठ सौ बरस पहले अरोड़ा क्षत्रिय, मुसलमानों से पराभूत होते गए. ये रोहड़ी में अपना रुतबा, जागीरें, ज़मींदारी सब खो बैठे. इनमें से एक बड़ी संख्या रोहड़ी के उत्तर में पंजाब की तरफ़ कूच कर गई.

रोहड़ी, सिंध से लगे दक्षिणी पंजाब के सरायक़ी इलाके मुल्तान, मुज़फ़्फ़ररगढ़, बहावलपुर, ख़ानेवाल आदि इनके गढ़ रहे लेकिन इनका फैलाव पूरे पंजाब में हुआ. उत्तरी पंजाब के माझा क्षेत्र के लाहौर, गुजरांवाला, जेहलम, अमृतसर आदि लगभग सभी ज़िलों में इनकी मौजूदगी रही लेकिन पंजाब के मालवा और दोआबा क्षेत्रों तक ये नहीं पहुंचे. आज यहां इनकी मौजूदगी अगर है तो 1947 के बंटवारे की वजह से, जिसके चलते ये पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान के अपने क्षेत्रों से आ कर इधर बसे.

बारहवीं-तेरहवीं सदी के ही इस पलायन में इनके कुछ उजड़े हुए काफ़िले रोहड़ी के पूरब में राजस्थान की ओर चल दिये लेकिन यहां इनकी तादाद बहुत कम है, हालांकि जोधपुर में राजस्थानी अरोड़े काफ़ी हैं. इनके गोलचा, मालचा आदि गौत्र इन्हीं में पाए जाते हैं. ऐसे ही कई झुंड रोहड़ी, सिंध के दक्षिण में स्थित ‘कच्छ’ इलाके में जा बसे और कुछ जैसे तैसे सिंध में ही टिके रहे.

रोहड़ी या उसके आस-पास अपने मूल प्रान्त सिंध में ही टिके क्षत्रिय अपने मूल जातिनाम सिंधी ‘रोहड़ा’ से ही जाने जाते हैं और यहां से कच्छ में जा कर बसे यही लोग गुजराती ‘रोहेड़ा’ कहलाते हैं. राजस्थान में आबाद होने वाले राजस्थानी ‘अरोड़ा’ और रोहड़ी से निकल पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों में बसे यही लोग पंजाबी ‘अरोड़ा’ कहलाते हैं. पंजाब और राजस्थान में इनका मूल प्राकृत नाम रोहड़ा नहीं चलता, वे संस्कृत के अरोड़ से बने अरोड़ा शब्द का इस्तेमाल करते हैं.

सीधी सादी सी कहानी है और सिम्पल सा इतिहास

दरअसल इतिहास चाहे देश का हो या प्रान्त का अथवा किसी जाति, क़बीले अथवा सम्प्रदाय का, वह सीधा-सिम्पल ही होता है. हम भारतीय उसमें अपने रिलिजस व पौराणिक तड़के लगा कर उसे गल्प और कहानी का रूप दे डालते हैं. वह सरल सा इतिहास बैठे बिठाए एक जटिल अफ़साना बन जाता है और फिर कहानी में हर दूसरा, तीसरा, चौथा अपने मुहल्ले में चलने वाली कहानी जोड़ देता है. भारत का पूरा इतिहास इसी गपोड़चंदी में उलझते उलझते मुहल्लाछाप दास्तानों का पिटारा बन के रह गया है.

अरोड़, रोहड़ी और ऐतिहासिक विवेक

अरोड़ा जाति की उत्पत्ति पर चंद दोस्तों ने कुछ सवाल उठाए, जिन्होंने पौराणिक और काल्पनिक पात्रों परशुराम, हिरण्यकश्यप की बात उठाई उनकी बातों का उत्तर कोई पंडित जी ही दे सकते हैं, मेरे पास नहीं है. एक ने राजा दाहिर से जोड़ दिया, जो ब्राह्मण थे और रोहड़ी के राजा बहुत बाद में बने.

ब्राह्मण वंश से पहले सिंध पर राय वंश राज कर चुका था और परम्परावादी स्कूल अरूट महाराज को राय वंश का पूर्ववर्ती मानता है. सो, राजा दाहिर से सम्बन्ध वाली बात भी स्वतः ख़ारिज हो जाती है.

अब बात आती है महाराजा ‘अरूट’ की, जिन्हें परम्परावादी अरोड़े अपना वंशपिता मानते हैं और 31 मई को उनकी जयंती भी मनाते हैं. इन्हें पूज्य मान वे स्वयं को ‘अरोड़वंशी’ क्षत्रिय कहते हैं. इनका इतिहास उसी तरह किस्सों और कल्पनाओं से निर्मित है जैसे अग्रवाल जाति के वंशपिता महाराजा अग्रसेन का है. आज तक कोई लब्ध प्रतिष्ठित इतिहासकार इनका वास्तविक काल निर्धारण तो क्या ऐतिहासिक सत्यापन तक भी ठीक से नहीं कर पाया. फिर भी जैसी जिसकी आस्था, बस मैं इन पात्रों से पूरा इत्तिफ़ाक़ नहीं रखता.

चलिए, किसी का दिल न दुखाते हुए एक पल को फ़र्ज़ कर लेते हैं कि महाराजा अरूट हुए थे और उन्हीं के नाम से अरोड़ बना. आगे बढ़ने से पहले हम इस शब्द की अर्थवत्ता स्पष्ट कर लें. अरोड़ संस्कृत का शब्द है, प्राकृत में इसे रोहड़ और सिंधी में रोहड़ी कहते हैं. यानी अरोड़, रोहड़ और रोहड़ी एक ही बात है.

रोहड़ी पाकिस्तान में स्थित सिंध राज्य के उत्तरी क्षेत्र को कहते हैं जिसमें कश्मोरा, कंधकोट, सक्खर आदि शहर आते हैं। इसी रोहड़ी क्षेत्र में एक उजड़ा सा खंडहरनुमा स्थल है जिसे आज भी ‘अरोड़’ कहा जाता है. अब यहां कोई अरोड़ा या अन्य जातियां नहीं रहतीं, यह बस इतिहासवेत्ताओं की रुचि का एक केंद्र है.

कुछ मित्रों ने तर्क दिया कि रोहड़ी क्षेत्र नहीं बल्कि यह उजड़ा क़स्बा अरोड़ ही अरोड़ों की उदगम स्थली है. ख़ुद को अरोड़वंशी कहने वाले भी अपने समारोहों में यही बात दोहराते हैं.

देखिए, पहले तो अरोड़ और रोहड़ी एक ही बात है, केवल संस्कृत और सिंधी का अंतर है. दूसरी बात अरोड़ चूंकि राजधानी रहा होगा, सो पुरातन चिन्योट और आज के जम्मू की तरह पूरे क्षेत्र का नाम ही अरोड़ पड़ गया होगा, जो संस्कृत से सिंधी में आते आते रोहड़ी हो गया.

आपको याद होगा कि पहले महाराष्ट्र राज्य का नाम बम्बई और तमिलनाडु का नाम मद्रास हुआ करता था, क्योंकि शासनकेन्द्र अर्थात राजधानी इन्हीं शहरों में पड़ती थी. चाहें तो जम्मू की मिसाल ले सकते हैं. जम्मू शहर भी है और एक बड़े क्षेत्र का नाम भी जिसमें कठुआ, उधमपुर, राजौरी, पूंछ, रियासी और स्वयं जम्मू शहर भी आता है. तो अरोड़ ही रोहड़ी है और रोहड़ी ही अरोड़. कान चाहे शहर की ओर से पकड़ें या क्षेत्र की ओर से, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.

अब झूठे मुंह मान भी लिया कि रोहड़ी का नाम अरूट महाराज और उनके राज्य अरोड़ से ही आया, तो भी क्या हुआ ? बात तो फिर भी वही है. नाम कहीं से भी बना, नाम है तो रोहड़ी और रोहड़ी के ही रहने वालों को सिंध में रोहड़ा कहा जाता था.

सिंध में मुसलमानों का राज आने के बाद वहां मुस्लिम राजपूतों ने जागीरें और ज़मीनें हथियानी शुरू की तो धीरे धीरे यही हारे पिटे रोहड़ा क्षत्रिय आस पास के राज्यों में कूच करते गए. ध्यान रहे, पलायन केवल क्षत्रिय ज़मींदारों ने किया क्योंकि वे अपना मान-सम्मान-जागीरें सब गंवा चुके थे और ख़ुद को अपमानित सा महसूस कर रहे थे. बाक़ी वर्ण-जातियों के पास ऐसा कुछ नहीं था जो वे अपने ही गांवों में ख़ुद को अवनमित सा पाते.

जो कच्छ पहुंचे, वे वहां की कच्छी बोली के अनुसार रोहड़ा से ‘रोहेड़ा’ बन गए और जो रोहड़ी के उत्तर में स्थित पंजाब की ओर निकल गए उन्हें पंजाबियों ने अपनी बोली के मुताबिक़ रोहड़ा की बजाय ‘अरोड़ा’ कह कर पुकारा. बाद में रोहड़ी से आये यही क्षत्रिय पंजाब की धरती और संस्कृति में घुलते मिलते ‘पंजाबी अरोड़ा’ बन गए. बस इतनी सीधी सी बात है.

याद रहे, जिस पंजाब की हम बात कर रहे हैं वह 1947 के बंटवारे से पहले वाला संयुक्त पंजाब (United Punjab) राज्य है जो अटक से लेकर मुल्तान और मियांवाली से लेकर होशियारपुर तक फैला था.

कुछ दोस्तों ने कुछ वाहियात टिप्पणियां भी की हैं. उन्होंने मुझे जातिवादी कहा, बड़े अजीब नामों से भी सम्बोधित किया. अब आप जानिए, इस देश का हर चौथा बंदा तो आदर्शवादी बन चुका है. इन आदर्श के मारों का विवेक इतना कुंद है कि जातियों के इतिहास और जातिवाद में अंतर नहीं कर पाता. ये idealist नमूने केवल इतना समझ लें कि पिछले 1000 साल का भारतीय इतिहास जाति और मज़हब की गीली धूल में लिथड़ा हुआ इतिहास है.

अब यदि ज़ात और रिलिजन कीचड़ भी हैं, तब भी तारीख़ी सच्चाइयों के कमल बाहर निकालने के लिए हमें इस कीच में उतरना ही पड़ेगा.

  • राजीव कुमार मनोचा

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