सन 1754 में दिल्ली की गद्दी पर आलमगीर (द्वतीय) बैठा, जो बेहद डरपोक व मुर्ख था. उस वक्त अफगानिस्तान का शासक अहमद शाह अब्दाली था. अब्दाली नादिर शाह के बाद गद्दी पर बैठा था. वह कई बार भारत आया और जबरदस्त लूटमार की. अब्दाली ने दिल्ली के शासक आलमगीर से एक संधि की और उसके सामने दिल्ली लूटने का प्रस्ताव रखा. डरपोक आलमगीर ने अनुमति दे दी.
अब्दाली ने जनवरी 1757 में दिल्ली पर आक्रमण कर दिया. दिल्लीवासियों को उसने जमकर लूटा. लूटमार के बाद उसकी तृष्णा और बढ़ गई. उसने मथुरा की ओर मुंह किया. दिल्ली-मथुरा के रास्ते में बल्लभगढ़ पड़ा तो इस शहर पर भी कहर ढाया.
मथुरा में प्रवेश किया तब होली की खुशियां मनाई जा रही थी..परदेशी भी आये हुए थे. अब्दाली ने हुक्म दिया – ‘एक भी इमारत खड़ी दिखाई न दे, सब को नेस्तनाबूत कर दो.’
उस समय ब्रजमंडल में स्वामित्व के लिए जाटों और मराठाओं में कशमकश चल रही थी, इसके कारण मथुरा की सुरक्षा के लिए दोनों लोग हाथ पीछे किये हुए थे. हां, बल्ल्भगढ़ में सूरजमल के बेटे जवाहर सिंह ने अब्दाली से जरूर टक्कर ली लेकिन अब्दाली की विशाल सेना को मथुरा जाने से न रोक सका. चौमुंहा पर भी जाटों ने अब्दाली से टक्कर ली.
कोई विरोध न देख हज़ारों पठान लुटेरे खुशियां मनाते शहर पर गिद्धों की तरह टूट पड़े. डॉ. प्रभुदयाल मित्तल ने अपनी पुस्तक ‘ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास’ (पेज नं. 571) पर लिखा है – ’20 हज़ार पठान सैनिकों को मथुरा नगर लूटने के लिए आगे बढ़ा दिया. सैनिकों को हुक्म मिला था शहर को नेस्तनाबूत कर दो, आगरा तक एक भी इमारत कड़ी दिखाई न दे. लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा. सिपाही लोग सर काटकर लाएं और सरदार के खेमे के सामने डालते जाएं. प्रत्येक सर के लिए पांच रुपया इनाम दिया जायेगा.’
लुटेरे सैनिक भरतपुर दरवाज़े, महोली की पौर और छत्ता बाजार की तरफ से चौबिया पाडे में चढ़ गए. होली का त्यौहार था. नर नारी आमोद प्रमोद में मस्त थे. चौबिया पाड़े में चढ़ते सैनिकों को जो मिला उसी का सर कलम किया. बेरहम लूटेरों ने औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शा. लुटेरे दिन में मारकाट मचाते और रात में मकानों में आग लगा देते. चारों तरफ कोहराम और हाहाकार मच गया. कोई बचाने वाला नहीं था.
शीतला घाटी की एक गली में ‘मथुरा देवी का मंदिर’ था (मंदिर आज भी है). इस मंदिर में एक गुफानुमा स्थान था. अपनी जान बचाते सैंकड़ों मर्द, औरत और बच्चे उस गुफा में जा छुपे. सैनिकों ने इस जान बचाती भीड़ को देख लिया और सब के सब क़त्ल कर दिए. डॉ. प्रभुदयाल मित्तल लिखते हैं – ‘उस जनसंहार में बदौआ और जानेमाने आल वाले माथुरों को मारा गया था. उनके वंशज अब तक फाल्गुन शुक्ल ११,१२,१३ को उनकी स्मृति में श्राद्ध करते हैं. इन मारे गए लोगों के वंशज अपने पूर्वजों के श्राध्द आज भी करते हैं.
मथुरा के छत्ता बाजार में नागर वाली गली के मुहाने पर बड़े चौबेजी का हवेली है. अब्दाली की फौजों ने इस मकान पर धावा बोला. सैकड़ों परिवारों ने इस स्थान पर पनाह ले रखी थी शायद ही कोई बचा हो, सभी की नृशंस ह्त्या कर दी गई. इमारत में आग लगा दी गई. आज भी इस इमारत में क्षति पहुंचाए गए एक बुर्ज का टूटा पत्थर उस दिन की याद दिला रहा है.
सैनिक घरों में घुस जाते. अब्दाली के सैनिक घरों में घुस कर पहले गढ़े धन को खोदकर निकालने का आदेश देते और फिर सर धड़ से अलग कर देते. इस पवित्र शहर में तीन दिन तक खून की होली खेली गई.
इतिहास की पुस्तकों में कई प्रत्यक्षदार्शियों के विवरण उपलब्ध हैं. नटवर सिंह की पुस्तक ‘जाट राजा सूरजमल’ में मथुरा में हुए कत्लेआम का विवरण इस प्रकार है – ‘सड़क और बाजार में चारों ओर हलाल किये गए धड़ पड़े थे. सारा शहर जल रहा था।. अनेक इमारतें धराशाही कर दी गई. यमुना का पानी दूर-दूर तक लाल दिखाई देता था.’
अब्दाली की फौजें वृन्दावन भी गई. यहां की गई मारकाट का एक प्रत्यक्षदर्शी द्वारा दिया गया विवरण इस प्रकार है ‘वृंदावन में जिधर भी नज़र जाती मुर्दों के ढेर दिखाई देते थे. सड़कों से निकलना मुश्किल हो गया था. लाशों से ऐसी दुर्गन्ध आती थी कि सांस लेना दूभर हो गया था.’
जिस समय वृंदावन में अब्दाली का कत्लेआम चल रहा था उस वक्त ब्रज के भक्त कवी चाचा वृंदावन दास विद्यमान थे. किसी तरह वे बच गये और एक काव्यकृति ‘हरी कला बेली’ कि रचना की. इस काव्य में उन्होंने जिन कवियों के मारे जाने का जिक्र किया है, उनमें ब्रजभाषा के कवि घनानंद का नाम शामिल हैं.
अब्दाली की सेना ब्रज के धार्मिक स्थलों में कहर बरपाती हुई आगरा गई. आगरे के किले पर आक्रमण किया और नगर में में धमाचौकड़ी मचाई. उसी समय उसकी सेना में हैजा फ़ैल गया. मजेदार बात यह रही कि आगरा के स्थानीय लोगों ने बीमार सिपाहियों को देशी दवाइयां दिन और इस एवज में भारी रकम वसूली. बीमारी से घबड़ाकर मरते गिरते लूटेरों ने वापस लूटने में ही अपनी भलाई समझी.
एक इतिहासकार के मुताबिक अब्दाली को इस लूट में करीब 12 करोड़ की धनराशि मिली, जिसे वे ऊंट और खच्चरों पर लादकर अफगानिस्तान ले गये.
इस मारकाट से पैदा हुए आतंक से घबड़ाकर अनेक चतुर्वेदी परिवारों ने यमुना में नावों में बैठकर आगरा की ओर कूच किया. कुछ आगरा उतरे, कुछ चंदवार, कुछ इटावा आदि स्थानों पर उतरे और वहीं बस गए. आगरा से 30 किलोमीटर दूर चंदवार (फीरोजाबाद से लगा हुआ है और इस स्थान पर मोहम्मद गौरी और जयचंद का युद्ध हुआ था, जिसमें जयचंद मारा गया था), बहुत सम्पन्न इलाका था, आज एक दम उजाड़ है. इस उजाड़ बस्ती में एक मोहल्ला खंडहर की शक्ल में आज भी मौजूद है जिसका नाम ‘चौबिया पाड़ा’ है.
मथुरा शहर के अतीत का स्मरण कर यदि आप छत्ता बाजार में बड़े चौबेजी की हवेली के पास गुजरे तो आक्रांता अब्दाली के घोड़ों की टॉप और स्त्री, पुरुष और बच्चों का करूण क्रंदन-रुदन कानों में जरूर पड़ेगा.
- अशोक बंसल
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