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हमारे लिये मुद्दा है सॉफ़्ट और हार्ड हिंदुत्वा की बाइनरी में जाना

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हमारे लिये मुद्दा है सॉफ़्ट और हार्ड हिंदुत्वा की बाइनरी में जाना

रिजवान रहमान

राम मंदिर ज़मीन में घोटाला हो गया तो हम क्या करें ? या इस देश का कोई भी मुसलमान क्या करे ? यह किसी राजनीतिक पार्टी के लिए मुद्दा हो सकता है. कांग्रेस के लिए हो सकता है. आदरणीया प्रियंका गांधी जी के लिए हो सकता है या फिर जिन्हें सॉफ़्ट और हार्ड हिंदुत्वा की बाइनरी में जाना है, उनके लिए हो सकता है लेकिन हमारे लिए कोई मुद्दा नहीं है.

हमारे लिये मुद्दा है उसी ‘अयोध्या के राम’ के नाम पर हमारी लिंचिंग. राम के नाम पर बुजुर्ग की दाढ़ी नोंचना, उससे जबरदस्ती जय श्री राम बोलवाना. हमारे लिए मुद्दा है सन् 1949 के 22-23 दिसंबर की वो दरमियानी रात जिसमें बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर कब्जा जमाया गया था. ताला तोड़ कर मस्जिद में रामलला की मुर्ति रखी गई थी.

हमारे लिए मुद्दा है 8 नवंबर 2019 की वो सुबह जिसमें देश की सबसे बड़ी अदालत ने संवैधानिक मूल्यों की बलि देकर, बाबरी मस्जिद के ढांचे को राम मंदिर की जगह बता दिया. तब शायद सुप्रीम अदालत भूल गई थी बाबरी मस्जिद महज मस्जिद नहीं, सेक्युलरिज्म का ढांचा था. क्या यह घोटाला नहीं था ? मेजोरिटेरियन स्टेट में एक की ज़मीन दूसरे को दिया जाना नाइंसाफी नहीं थी ? और तब क्या स्टैंड लिया था तमाम पॉलिटिकल पार्टी ने ?

सभी ने प्रोग्रेसिव पॉलिटिक्स की शर्त तोड़ कर, माईनोरिटी से दूरी बना ली थी. मुख्यधारा की लेफ्ट पार्टी में भी सीपीएम और सीपीआई दूसरों से गलबहियां कर रही थी. अगर 49 में दिल्ली में बैठे नेहरू-पटेल और लखनऊ में बैठ गोविंद वल्लभ पंत-लाल बहादुर शास्त्री की चौकड़ी ने फैजाबाद के क्लेकटर के. के. नायर का इस्तीफ़ा स्वीकार कर, मामले को अदालत में जाने देने के बजाए रामलला की मुर्ति को पूर्व की स्थिति में रखवा दिया होता तो शायद आज देश को ये दिन नहीं देखना पड़ता.

इसलिए हमारे लिए मुद्दा है काऊ बेल्ट (गोबरपट्टी – सं.) में हर कदम पर मारे जाने का खौफ. हालांकि कोई कह सकते हैं, मैं बढ़ा-चढ़ा कर बोल रहा हूं, लेकिन नहीं. डर का भी एक मनोविज्ञान होता है, जो इसे झेल नहीं रहे, समझने की कोशिश तो कर सकते हैं परंतु पूरी तरह कभी नहीं समझ पाएंगे. यहां तक की ठीक-ठीक, मैं भी नहीं.

साउथ दिल्ली में रहते हुए इन घटनाओं से बहुत दूर हूं. पहचान जुड़ी होने से कुछ-कुछ महसूस कर पा रहा हूं या इस डर से ही सही कि किसी दिन राह चलते, मैं भी मारा जा सकता हूं. राजनीतिक चुनाव में वोट बंटवारे की वजह बन सकता हूं.

राम मंदिर के लिए चंदा देने वाले सवर्ण प्रगतिशील आस्था का हवाला दे रहे थे या आगे भी देंगे. राजनीतिक पार्टियां भी आस्था की रट लगाई हुई हैं. लेकिन वे भूल रहे हैं, अयोध्या की जिन विवादित गलियों में तुम आस्था से सर झुकाए चल रहे हो, वहां से उठने वाला जय श्री राम का नारा किसी की लिंचिंग की वजह बन रहा है. किसी को धकियाने, घसीटने, मारने-पीटने के उन्माद को पुष्ट कर रहा है. अगर इसमें भी आपकी आस्था है तो बस एक शब्द कहूंगा – मुबारकबाद.

अब कई सवर्ण बुद्धिजीवियों में त्राहिमाम है कि छुप-छुपा के, रसीद दिखा के जो चंदा दिया था, उसी में घोटाला हो गया. हे सिद्ध महामानव ! गिल्ट मत रखो, इसे लेकर कहां तक जा पाओगे ? बैकुंठ का मार्ग भी कठिन हो जाएगा. अतएव अगली बार से ईट-पत्थर, गिट्टी, बालू, सीमेंट अथवा श्रम दान करना. लेकिन सावधान ! कहीं वे ये भी न बेच दें.

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