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अफगानिस्तान के लिए तालिबान लाख बुरा सही, अमेरिकन साम्राज्यवाद के चंगुल से छूटा है

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अफगानिस्तान के लिए तालिबान लाख बुरा सही, अमेरिकन साम्राज्यवाद के चंगुल से छूटा है

रिजवान रहमान

देश की एक बड़ी पत्रकार शक्ल से पहचान रही हैं कि कौन क्या बोल सकता है और उन्हें हैरत है कि अंग्रेजीदां, आधनिक दिखने वाले मर्द खासकर वामपंथी उनकी तरह बात नहीं कर रहे हैं. खैर मुझे इस पर मोदी का उल्लेख नहीं करना चाहिए लेकिन उसने भी करीब डेढ़ साल पहले कपड़े से पहचानने का दावा किया था.

बहरहाल मुझे समझ नहीं आता कि किसी को प्रतिक्रियावादी बताने के लिए उसकी वेश-भूषा, दाढ़ी-टोपी पर जाना कहां तक सही ठहरता है ? याद रखिए जब भी कपड़े और दाढ़ी पर जजमेंटल होकर पूरे समाज को कटघड़े में खड़ा करते हैं, प्रतिक्रियावादी विचार की कतार वहीं से शुरू हो जाती है.

इंदौर में एक मुसलमान चूड़ी वाले की लिन्चींग की मुखालफत में उसे तालिबानी आतंक करार दिया जाएगा लेकिन ये तालिबानी आतंक नहीं, आरएसएस का आतंक है. विशुद्ध भगवा आतंक है जो राह चलते किसी भी गरीब-पिछड़े मुसलमान की लिन्चींग के लिए दौड़ पड़ता है.

भारत में चल रहे आतंक को तालिबानी आतंक करार देकर उसकी पर्दापोशी बंद होनी चाहिए. तालिबानी आतंक अफगानिस्तान में है और वहीं तक है. भारत में चल रहा आतंक हिंदू राष्ट्र निर्माण की घोषणा है, मनुस्मृति लागू करने की कोशिश है.

अफगानिस्तान में अफरा-तफरी के आलम के बीच वेस्टर्न मीडिया और Reuters Pictures दुनिया भर में अमेरिकन आर्मी का मानवतावादी चेहरा दिखा कर अमेरिका के युद्ध अपराध को छुपाने की कोशिश में लगी है. इस मतलब यह नहीं है कि अमेरिकन आर्मी के ये इंडिविजुअल दिल के अच्छे नहीं हो सकते. बहुत मुमकिन है तस्वीरों में दिखने वाले आर्मी पर्सन सख्त दिल न हो, उनके मन में अफगानी बच्चों के लिए बेपनाह प्यार हो, लेकिन स्ट्रकचर उन्हें जल्लाद बना देता है, इंसानियत छीन लेता है, अंतरात्मा से अजनबी कर देता है.

अगर हम अमेरिका द्वारा दुनिया भर में मारे गए लोगों के डेटा पर गौर करें तो पता चलता है सभी अमेरिकन प्रेसिडेंट वॉर क्रिमिनल हैं. इंसानियत के दुश्मन हैं. यहां तक की बहुत लिबरल छवि वाला बाराक ओबामा भी जिसके युद्ध अपराधों से चर्चा करने से वेस्टर्न मीडिया बचती ही नहीं रही है बल्कि छुपाती भी रही है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक ट्रम्प के शासन में अमेरिका ने इस धरती पर हर 12वें मिनट में एक बम गिराया है. यानी एक दिन में 121 बम और एक साल में 44,096 बम गिराया है. पेंटागन (यूएस डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफेन्स का हेडक़्वार्टर) के डेटा के मुताबिक जॉर्ज बुश ने अपने शासनकाल में प्रतिदिन के हिसाब से 34 बम गिरवाए थे. ‘The Bureau of Investigative Journalism’ की रिपोर्ट के मुताबिक ओबामा ने अपने शासन में ड्रॉन से 563 हमले करवाए थे, जिसमें मुख्यतः पाकिस्तान, सोमालिया और यमन को टारगेट किया गया था.

अमेरिका के इन युद्ध अपराधों पर पत्रकार Witney Webb लिखती हैं, ‘यह चौंकाने वाला है कि इन हमलों में मारे गए 80 फीसदी लोगों की कभी पहचान नहीं हो सकी. यहां तक की CIA ने भी अपने डोक्यूमेंट में माना है कि उन्हें पता नहीं होता था कि वे किसे मार रहे हैं.’ इसे दूसरे तरीके से कहें तो इन अमेरिकन बमबारी में मरने वाले लगभग सिविलियन थे.

एक और रिपोर्ट में पत्रकार और एक्टीविस्ट David DeGraw लिखते हैं, ‘CIA डोक्यूमेंट के मुताबिक ड्रोन हमले में मारे गए लोगों में से सिर्फ 2% ही ऐसे थे जो उनके द्वारा मारने वाली लिस्ट यानी Kill List में थे, बाकी मारे गए 98% निर्दोष सिविलियन थे.’

इसलिए ये तस्वीरें क़ोफ्त पैदा करने वाली है. अमेरिका के क्रुर चेहरा पर पर्दा डाल रही है. लेकिन हम यह नहीं भूल सकते कि अमेरिका अपने इकोनोमिक हित को साधने के लिए इंसानियत को कुचलता आया है. जापान के हिरोसीमा पर एटोमिक बमबारी से लेकर वियतनाम, लैटिन अमेरिका, इराक, अफगानिस्तान में युद्ध अपराध किए हैं, जिसे कभी माफ नहीं किया जा सकता.

हम ह्यूमेन राइट्स का वही पाठ पढ़ते हैं जो साम्राज्यवादी ताकतें हमें पढ़ाना चाहती है. अमेरिका इसमें माहिर है. उसने अफगानिस्तान को रौंद कर भी दुनिया भर के लोगों से खुद को व्हाइट वॉश करवा लिया. और दिलचस्प है कि हम तालिबान को गाली देने में अमेरिकन साम्राज्यवाद की सहलाते रहे. मानवाधिकार हनन की आशंका के बीच अफगानिस्तान को 20 साल तक रौंदे जाने को दरकिनार कर गए.

तालिबान का इतिहास डरावना है. महिला-अल्पसंख्यक पर जुल्म ढ़ाए हैं. उनका क़त्ल किया गया, उन्हें घर की चारदीवारी में क़ैद कर दिया लेकिन पिछले 20 साल में अमेरिका ने जो किया, हमें नज़र नहीं आ रहा है. 2001 के बाद से अमेरिकन एयर स्ट्राइक में 50 हजार से अधिक आम अफगानी की हुई मौत ‘अच्छे दिन’ लग रहा है या शायद उन आम अफगानी की मौत को भी तालिबानी में गिन लिया गया.

यूएन के मुताबिक 2005 से 2019 के बीच अमेरिकन एयरस्ट्राइक में 26000 से अधिक बच्चों की जान चली गई और पिछले 5 सालों में करीब 1600 बच्चे हर साल मारे गए हैं. 2017 के बाद से अफगानियों की मौत में 330 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.

लेकिन हम इस पर सवाल नहीं करेंगे क्योंकि हमें लत है गर्व करने की. हमें मानवाधिकार हनन की ऐसी घटनाएं कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व और झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़ में भी नहीं दिखती. फिर अमेरिका द्वारा किया गया ह्यूमेन राइट्स वायलेशन कहां से दिखेगा ?

बहुत संभव है कि मेरे ऐसा लिखने के बाद कुछ लोग मन ही मन मुझे तालिबान समर्थक करार दे. कुछ लोग कमेंट में भी लिख दें. फिर भी मैं यह बोलना चाहता हूं, अफगानिस्तान के लिए तालिबान लाख बुरा सही, अमेरिकन साम्राज्यवाद के चंगुल से छूटा है.

कुल जमा बात है कि कॉलोनाइज्ड होकर रहने से बेहतर घर के दुश्मन के बीच रहना. इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अब से तालिबान अफगानिस्तान की नियति है. अफगानी जनता लड़ना-भिड़ना जानती है. वे एक दिन इसे भी परास्त कर देगी, जिसकी शुरुआत हो चुकी है.

खबर है कि कुछ अफगानी स्टूडेंट्स ने जेएनयू प्रशासन से आग्रह किया है कि वे उन्हें वापस बुला लें. ऐसे में अगर आप अब भी तालिबान को समर्थन दे रहें हैं तो थोड़ा ठहर कर सोचिए की आप क्या कर रहे हैं ? तालिबान से अफगानी खुश नहीं है तो किसी और को खुश होने का हक़ बिल्कुल भी नहीं है.

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